रूढ़ियों से मुक्त होता मैथिली नाटक और रंगमंच / देवशंकर नवीन

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किसी भी भाषा का आधुनिक नाटक, प्राचीन नाटकों की समाधि पर उगा हुआ तरुवर है, जो युग सापेक्ष विविध पौष्टिक अवदानों से लगातार पल-बढ़ रहा है। प्राचीन नाट्य-लेखन की एक लम्बी-सी विरासत, लोक-नाट्य में लोकाभिरुचि और पारसी रंग-मंच की व्यापारिकता--इन तीनों ने आधुनिक भाव-बोध से युक्त रचनाकारों की विचारधारा को नाट्य-लेखन की नई दिशा दी हैं, आधुनिक मैथिली नाटक इसका अपवाद नहीं है।

मैथिली नाटकों की विकास परम्परा खोजते हुए इतिहासकारों ने काफी तर्क-वितर्क के बाद यह बात स्वीकार ली है कि मैथिली नाटक की रचना मिथिला में बीसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई। लेकिन यह भी कहते हैं कि नेपाल तथा आसाम में मध्यकाल में भी मैथिली नाटकों की रचना प्रचुर मात्रा में हुई। यूँ कतिपय वक्ता 'धर्म समागम' और 'गोरक्ष-विजय' से मैथिली नाटकों की परम्परा शुरू कर लेते हैं। लेकिन लक्षणकारों ने संस्कृत नाटक के गाथा-विधान पर जिस तरह का अनुशासन लगाया था, उस हिसाब से लिखे गए नाटकों में गौण-पात्र, नारी-पात्र की भाषा अथवा प्रसंगवश आई मैथिली की कुछ पंक्तियों के सहयोग से वे वक्ता ऐसा अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं कि हो न हो वह इस भाषा का नाटक होगा। कारण, कथोपकथन और कथावस्तु किसी भी नाटक का प्राण होती है।

दृश्यकाव्य होने के कारण नाटक, जनसामान्य के लिए अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी काव्य-विधा है। यह एक ऐसी सामाजिक कला है, जिसमें समकालीन युगचेतना अभिव्यक्त होती है, समाज के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर उत्थान-पतन का अवलोकन इस विधा के तहत होता है। लेकिन एक समय ऐसा आया, जब संस्कृत, नाटकों में इसकी उपेक्षा होने लगी। नाटक से लोकजीवन गायब होने लगा। अधिकांश नाटकों में लोकजीवन की समग्रता के चित्रण की उपेक्षा और वर्गविशेष के प्रति आग्रह दिखने लगा। अर्थात् समय-समय पर भारतीय संस्कृति में विभिन्न भूभाग और मनोवृत्ति के शासकों के आक्रमण से जैसा उथल-पुथल, जैसा परिवर्तन हुआ, वैसा यहाँ की नाट्य-संस्कृति में नहीं हुआ। नाटक चूँकि समाज की विकृतियों और विद्रूपताओं की अनुकृति है, सांस्कृतिक ह्रास का प्रतिबिम्ब है, जनसामान्य इस दर्पण में अपने जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, अतः इसकी रचना-प्रक्रिया में भी तदनुकूल परिवर्तन होते रहना चाहिए, जो नहीं हुआ। ऐसा, केवल एक बार ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय नाट्य परम्पराओं में एकाधिक बार हुआ है। लोकजीवन से यह सम्बन्ध विच्छेद नाट्य-संस्कृति के पतन का द्योतक है। पतन की भी एक सीमा होती है। भारतीय नाटकों के पतन की भी अपनी सीमा थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्ययुग का सीमा-निर्धारण स्पष्ट नहीं है। अतएव, हम जब भी मध्ययुगीन नाटकों के पतन पर विचार करते हैं, 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक पहुँच जाते हैं, क्योंकि हम ऐसा समझते हैं, कि भारतेन्दु के पूर्व नाटकों की परम्परा छिन्न-भिन्न थी, जिसमें काव्यत्व अधिक और नाटकत्व है ही नहीं (डॉ. वासुदेव नन्दन प्रसाद/भारतेन्दु युग का नाट्य साहित्य और रंगमंच/पृ. 26)। यह बात अपनी सीमा तक सच और गलत हो सकती है। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि लोकनाट्य तथा साहित्यिक नाटकों का आदान-प्रदान सदा से होता रहा है। हमारी नाट्य संस्कृति, सामाजिक जीवन-प्रक्रिया के उत्थान-पतन की दौड़ की तरह ही शीर्ष और गर्त पर जाती रही है। इस उत्थान-पतन के संक्रमण और संकटकालीन अन्तराल में इस संस्कृति को मृत होने से बचाने का काम सदा से लोक नाट्य करता रहा है। समकालीन सामाजिक और धार्मिक स्थितियों के चित्रण से युक्त लोक-नाट्य-संस्कृति हमें न केवल समकालीन रहन-सहन और लोकजीवन से परिचय कराती है बल्कि एक लम्बी-खासी विरासत का मानचित्र दिखाती हुई नाट्य-कर्म में नए-नए प्रयोगों की प्रेरणा भी देती है।

डॉ. कीथ का मानना है कि 'संस्कृत नाटकों का लक्ष्य मनोरंजन के साथ मानव-जीवन में नैतिक, आध्यात्मिक और सौन्दर्यमूलक मूल्यों का उन्नयन और अनुसन्धान था। उनमें कला और जीवन, यथार्थ और आदर्श, जीवन और आध्यात्म, साहित्य और सौन्दर्य का आश्चर्यजनक समन्वय हुआ है(डॉ. ए. बी. कीथ/संस्कृत ड्रामा/पृ. 276)।'

यूँ सारी बातें अपनी-अपनी सीमा में सही हैं। समय के साथ-साथ समय-सन्दर्भ के भी आयाम बदलते रहते हैं। डॉ. कीथ अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए यह भी मानते हैं कि जनता की भाषा और नाटक की भाषा का अन्तर बढ़ने लगा था। वस्तुतः दसवीं सदी के बाद आधुनिक भारतीय भाषाएँ पनपने लगी थीं। लोकमानस पर इस प्रकार की भाषाओं का प्रभाव अधिक होता जा रहा था। ऐसी अवस्था में संस्कृत नाटक निरर्थक प्रयास साबित होने लगा था अर्थात् लोकरुचि और नाटक की भाषा के बीच की खाई बढ़ती जा रही थी। परिणामतः लोकजीवन और नाट्य संस्कृति का भाषागत-सम्बन्ध लड़खड़ाने लगा। यही सम्बन्ध-विरलता संस्कृत नाटकों के लिए घातक साबित हुई। सारांशतः लोकरुचि और लोकभाषा की उपेक्षा संस्कृत नाटकों को जनमानस से काटती गई और भारत के विभिन्न प्रक्षेत्रों में धर्म और सम्प्रदायों के प्रचारार्थ प्रचलित लोकनाट्यों की प्रसिद्धि बढ़ती गई। इसी क्रम में नेपाल में नेवारी नाटक, आसाम में अंकिया नाट और मिथिला में कीर्तनियाँ नाट प्रचलित हुआ। लोक नाट्यों की विभिन्न शैलियों से इस तरह जन-मन का मनोरंजन किया जाता था।

नेपाल और मिथिला पाश्र्ववर्ती क्षेत्र है। प्रारम्भ की मिथिला की सीमा आज की अपेक्षा अधिक विस्तृत थी। यहाँ तक कि आज के नेपाल के कतिपय क्षेत्र मिथिला में ही थे। अस्तु इन दोनों का परस्पर सांस्कृतिक सम्बन्ध भी गहरा था। उस समय नेपाल जाने का एक मात्र रास्ता मिथिला से होकर था। पंजी प्रथा के प्रसिद्ध व्यवस्थापक म.म. हरिसिंह देव ने मुसलमानों से पराजित होकर नेपाल में ही आश्रय लिया था। वहीं भातगाँव के निकट उन्होंने अपना स्वतन्त्र-राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् मिथिला के विद्वानों, साहित्यकारों का आना-जाना वहाँ लगा रहा। एतद्रिक्त उनके देहावसान के बाद भी उनके पुत्रों द्वारा, यहाँ तक कि वहाँ के राजाओं के द्वारा भी मैथिल विद्वानों का आदर सम्मान होता रहा। मिथिला के साहित्यकारों को सम्मानपूर्वक आमन्त्रण देकर बुलाया जाता रहा। यहीं से नेपाल में मैथिली भाषा का प्रभाव बढ़ा। मैथिली भाषा को वहाँ राजकीय सम्मान मिल जाने के कारण अभिनयप्रिय राजाओं ने नाटक-रचना तथा अवसर विशेष पर अभिनय की व्यवस्था करवाई। इस तरह वहाँ मैथिली नाटक की नींव पड़ी और नेपाल के अन्यान्य प्रक्षेत्रमें भी मैथिली नाटक की लोकप्रियता बढ़ी। मैथिली साहित्य के इतिहाकारों ने नेपाल में लिखे मैथिली नाटकों को नेवारी नाटक कहा है।

वैष्णव सम्प्रदाय के प्रचारार्थ सोलहवीं शताब्दी में आसाम से जो नाटक लिखे जाने लगे उसे 'अंकिया नाट' कहा गया। वैष्णव धर्म के प्रमुख सन्त के रूप में प्रख्यात शंकर देव, 'अंकिया नाट' के आदि-रचयिता माने जाते हैं। 'अंकिया नाट' से पूर्व ही उनका प्रथम नाटकीय प्रदर्शन 'चिह्न यात्रा' नाम से हुआ था। यही 'चिह्न यात्रा' उचित संगीत, नृत्य, कथोपकथन आदि से युक्त होकर 'अंकिया नाट' के रूप में विकसित हुआ। 'अंकिया नाट' की रचना शंकर देव ने मैथिली में की। शंकर देव स्वयं असमिया भाषा के निष्णात विद्वान थे। लेकिन 'अंकिया नाट' की रचना से पूर्व उन्होंने बारह वर्ष तक देश के विभिन्न भूभागों की यात्रा की। इस क्रम में क्षेत्र विशेष में प्रचलित अभिनय की विधियों से उनका साक्षात्कार हुआ। रासलीला, रामलीला, यात्रा आदि लोकनाट्यों के सम्पर्क में आए। असमिया भाषा उस समय तक उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी और विद्यापति की पदरचना से मैथिली भाषा को गौरव प्राप्त हो चुका था। बंगला में वैष्णव कवि के रूप में विद्यापति प्रख्यात हो चुके थे। वैष्णव धर्म के प्रचार में नई स्फूर्ति आ चुकी थी। 'शंकरदेव' ने अपने भ्रमण के दौरान ऐसा महसूस किया और जब वे मिथिला आए, तो मैथिली भाषा-साहित्य से उनका वैयक्तिक सम्पर्क भी बढ़ा। इस भाषा की लोकप्रियता और इसके माधुर्य से प्रभावित हुए। संस्कृत नाटकों में उस समय पुरुष-पात्र और स्त्री-पात्र अथवा निम्न वर्ग के पात्रों के लिए भाषाओं का फर्क दिखाया जाता था। उपर्युक्त परिस्थितियों में संस्कृत नाटक की परम्परा कायम रखने में नाटक को जनमानस से अलग करना पड़ता, जबकि वे नाटक को लोकानुरंजक बनाना चाहते थे। प्रायः इन्हीं सारे कारणों से शंकरदेव ने मैथिली में नाटक लिखना प्रारम्भ किया और अपने सम्प्रदाय के प्रचार की भाषा मैथिली को अपनाया। यह परम्परा चलती रही।

मिथिला में लिखे गए नाटकों की यूँ कोई सुदीर्घ और सुपुष्ट परम्परा नहीं रही है। वहाँ प्रारम्भिक काल में रंगमंच का अभाव था। कीर्तन-भजन में निमग्न लोगों को 'कीर्तनियाँ' कहा जाता था। लोकानुरंजन के लिए यही वर्ग 'गौरी परिणय' आदि प्रसंगों की कथाएँ कुछ आंगिक चेष्टाओं के साथ प्रस्तुत करते थे। कुछ प्रस्तुतियाँ काफी प्रचलित भी थीं। उस समय वहाँ प्रचुर मात्र में संस्कृत नाटक लिखे गए। विद्वानों का मत यह भी है कि इन नाटकों के अभिनय लोकानुरंजन के लिए प्रायः नहीं के बराबर होता था। साहित्यिक विधा के रूप में इसकी रचना होती रही। 'कीर्तनियाँ नाटक' की जो परम्परा मध्यकाल में संस्कृत नाटकों के पतन काल में प्रचलित हुई, उसमें कुछ नाटक तो ऐसे लिखे गए जिसमें संस्कृत-प्राकृत के अलावा प्रसंगवश मैथिली के पद भी प्रयुक्त हुए। पारिजात हरण, आनन्द विजय, प्रभावती हरण आदि इस कोटि में आते हैं। लेकिन क्रमशः संस्कृत भाषा का प्रयोग कम और मैथिली का प्रयोग अधिक होता गया।

इन सारे तथ्यों की चर्चा के बाद भी ईमानदारी पूर्वक सोचने पर यही कहा जाएगा कि या तो रंगमंच के अभाव के कारण या नाटककारों में मैथिली में नाटक लिखने के साहस के अभाव के कारण उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक मैथिली नाटकों की रचना की सुपुष्ट परम्परा नहीं बन पाई। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में कीर्तनियाँ नाटक को नाटकीय गरिमा देने की चेष्टा विद्वानों ने की। चर्चा है कि इस मण्डली के सदस्यों को नाटक के कथोपकथन की वाचन-शिक्षा और अभिनय-शिक्षा भी दी जाती थी, जबकि मण्डली के सारे सदस्य प्रायः लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर होते थे। 'विपटा'(हास्य प्रस्तुति के लिए अतिरिक्त पात्र) को सामने लाकर हास्य-व्यंग्य के फिकरे मैथिली में प्रस्तुत किए जाते थे। पूर्ण रूप से नाटकीय गौरव प्रदान करने की भरपूर चेष्टा के बावजूद, अन्ततः यह भी जीवित नहीं रहा।

सन् 1852 में पारसियों और गुजरात के कुछ लोगों ने मिलकर बम्बई में 'पारसी नाटक मण्डली' की स्थापना की। इससे पूर्व वहाँ के कालेजों में शेक्सपीयर के नाटकों का अध्ययन-अध्यापन चल रहा था। यूरोपीय शैली के नाटकों के मंचन में जैसी विकृति आई थी, बम्बई की नाट्य संस्थाओं समेत 'पारसी नाटक मण्डली' ने उसे अपना प्रेरणा-स्रोत मान लिया। 'पारसी नाटक मण्डली' की क्रियाविधि विशुद्ध रूप से व्यापार पर आधारित थी। दस वर्षों के अन्तराल में ही जगह-ब-जगह इस मण्डली की आचार-संहिता पर अनेकों नाट्य-मण्डलियाँ कायम हो गईं। शौक से शुरू की गई 'एलफिन्सटन नाटक मण्डली' अच्छी तरह स्थापित हो गई, जिसने हिन्दी प्रान्तों में घूम-घूमकर नाटक करने में खूब धन कमाया।

'पारसी नाटक मण्डली' की संस्कृति पर आधारित जितनी संस्थाएँ खुलीं, सब ने अपना बाजार गर्म करने का हर सम्भव तरीका अपनाया। हिन्दू मिथ और हिन्दू धर्म से सम्बद्ध कथाओं का मंचन कर दर्शकों की जेब खाली करता रहा। लोक रुचि का ह्रास कुछ तो वातावरण के कारण और कुछ उनके मंचन के नाजायज हथकण्डों के कारण होता रहा। एक-से-एक उत्तेजक दृश्य मंच पर अनुपयुक्त तरीके से दिखाए जाने लगे। इसी क्रम में भारतेन्दु ने इस मंचनविधि पर अपनी टिप्पणी दी--काशी में पारसी नाटक वालों ने नाचघर में जब शकुन्तला नाटक खेला और उसमें धीरोदात्त नायक दुष्यन्त खेमटेवालियों की तरह कमर पर हाथ रखकर मटक-मटककर नाचने और 'पतली कमर बल खाए' यह गाना गाने लगा तो डॉ. थीबो, बाबू प्रमदादास मित्र प्रभृत्ति विद्वान यह कहकर उठ आए कि अब देखा नहीं जाता। ये लोग कालिदास के गले पर छुरी फेर रहे हैं(भारतेन्दु ग्रन्थावली /नाटक,पृ.-753)। और, 'पारसी नाटक मण्डली' के इस मंचन की प्रक्रिया बढ़ती गई। हिन्दी प्रान्त के लोगों में इसके प्रेक्षण की होड़ लगी रही ।

पारसी रंगमंच से प्रभावित होकर ही 'बंगाल नेशनल थिएटर' खड़ा हुआ। बंगाली लोग भी इससे अतिशय प्रभावित थे। पारसी एलफिन्सटन मण्डली और बंगाल नेशनल नाटक कम्पनी वालों ने जब बिहार में अपना अभिनय किया, तो वहाँ भी इसे अकूत सफलता मिली। सन् 1875 से 1880 के बीच बिहार के प्रसिद्ध नगरों में उन संस्थाओं ने अपने नाटकों का मंचन किया। उसके प्रेक्षण से बिहार की जनता पागल होने लगी। सन् 1884 में उसके अनुकरण पर बिहार में पहला व्यावसायिक रंगमंच 'बिहार थिएट्रिकल ट्रूप' की स्थापना कर 'इन्द्रसभा' नाटक का मंचन होने लगा। फिर 'बाँकीपुरी थिएट्रिकल कम्पनी' की स्थापना हुई और इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता रहा(डॉ. वासुदेव नन्दन प्रसाद/भारतेन्दु युग का नाट्य साहित्य और रंगमंच/पृ.238)। सन् 1920 में आकर मिथिला में भी श्रीपुर के उमाकान्त ने पारसी रीति पर अपनी नाटक कम्पनी स्थापित की, जो हिन्दी नाटकों का अभिनय किया करती थी(डॉ. दुर्गानाथ झा 'श्रीश'/मैथिली साहित्यक इतिहास/पृ. 232)। उमाकान्त की नाटक कम्पनी की स्थापना से पूर्व 'सुन्दर संयोग', 'नर्मदा सट्टक', 'सामवती पुनर्जन्म', 'सावित्री सत्यवान', 'मिथिला नाटक' आदि-आदि नाटक, नए भावबोध के अनुसार लिखे जा चुके थे, लेकिन इस कम्पनी ने इन नाटकों का मंचन नहीं किया। मिथिला में प्रायः इस लायक कोई सुव्यस्थित मंच था भी नहीं जो पारसी रीति से टक्कर लेकर मैथिली नाटक करे और लोकरुचि को अपनी ओर मोड़े।

इसी क्रम में सन् 1857 से लेकर 1876-77 के बीच गिरिधर दास, भारतेन्दु, अम्बिका दत्त व्यास, लाला श्रीनिवास दास प्रभृत्ति नाटककारों की अनेक नाट्य-कृतियाँ सामने आ चुकी थीं। पारसी रीति के नाटकों ने लोकरुचि का जो कुछ भी ह्रास किया, लेकिन लाभ इतना अवश्य दिया कि अपनी परम्परा को और गतिशील बनाने के लिए यहाँ के लोग उत्प्रेरित हुए। 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'भारत-दुर्दशा' आदि नाटकों की रचना से भारतेन्दु एक नया आन्दोलन खड़ा कर चुके थे। डॉ. कीथ ने नाटक में मनोरंजन के साथ जिस नैतिकता और आध्यात्मिकता के समावेश को आवश्यक कहा था, अब समाज की परिस्थिति काफी बदल चुकी थी। जीवन-दर्शन, मानव-मूल्य, नीति-बोध के प्रतिमान और सन्दर्भ बदल चुके थे। समाज की अर्थ-नीति, राज-नीति, समाज-नीति, मूल्य-नीति आदि में विशाल परिवर्तन आ गया था। भारतेन्दु के सामने देश की विकृत अवस्था थी, नाट्य-विधा की एक सम्पन्न परम्परा थी और इसके स्वरूप को इस तरह गन्दा करने की हरकत थी तथा सर्वोपरि उनके मन में खौलता हुआ एक प्रयोगात्मक जोश था। उन्होंने हिन्दी नाटक को एक आन्दोलनात्मक स्वरूप दिया। परम्परा, वर्तमान और अपने समस्त कौशल को मिलाकर नाट्य-लेखन का नवनीत उन्होंने तैयार किया। इस परम्परा में लिखे गए नाटकों की भाषा, शैली, उसके अभिनय कौशल... इन सबों में इस बात का सूक्ष्मता से ध्यान रखा गया कि सामान्य जीवन से नाटक का साक्षात और सहज सम्बन्ध हो। वाचिक या आंगिक प्रयास अथवा भाव भंगिमा...किसी भी तरह से उधार लिया हुआ नहीं लगे। इस प्रयास ने एक आन्दोलनात्मक व्यवस्था कायम की। हिन्दी नाटक काफी प्रशंसित हुए। सन् 1904 आते-आते भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की यश-कीर्ति प्रशस्त हो चुकी थी। उनके रंग-कर्म काफी प्रशंसित हो चुके थे। पण्डित जीवन झा ने इसी वर्ष 'सुन्दर-संयोग' शीर्षक नाटक लिखा। भारतेन्दु की नाट्य परम्परा का और कोई प्रभाव पड़ा हो अथवा नहीं--यह बात अधिक निर्णायक ढंग से कही जाए अथवा नहीं, किन्तु यह तय है कि मैथिली के नाटककारों का ध्यान समाज-दशा की ओर झुका और शास्त्र-पुराण से अलग विषयों पर भी नाट्य-वस्तु की खोज शुरू हुई। ऐसा नहीं कि एकाएक पौराणिक-ऐतिहासिक कथा की उपेक्षा हो गई। इन कथाओं पर आधारित नाटक भी अवश्य लिखे जाते रहे, बल्कि इन कथाओं में भी समकालीन समाज का नजरिया भरने का प्रयास किया गया और पौराणिक कथाओं का उपयोग अपेक्षाकृत कम हो गया। जीवन झा के और भी नाटक 'नर्मदा सट्टक' (1906) तथा 'सामावती पुनर्जन्म' (1908-1970) हैं। उनके अतिरिक्त लालदास, मुंशी रघुनन्दन दास, आनन्द झा, दामोदर झा, जीवनाथ झा प्रभृत्ति लोगों ने विविध नाटकों की रचना की। लेकिन यह तथ्य सहज रूप से स्वीकार्य है कि नाटकों को जिस तरह मानव-जीवन से अन्तरंगता स्थापित कराने का उत्साह हिन्दी नाटक में दिख रहा था, मैथिली के नाटककारों में कुछ वैसी आतुरता नहीं आई। संस्कृत-नाटकों की जिस परम्परा से प्ररेणा लेकर अथवा फुरसत लेकर नए ढंग से एक नाट्य-संस्कृति कायम करने की अपेक्षा थी और जितनी तेजी से इसे होना चाहिए था, मैथिली में नहीं हो पा रहा था। अनेक सन्दर्भों में मैथिली के नाटककार अपनी उस पवित्र रूढ़ि से शालीनतापूर्वक भी फुरसत लेने को तैयार नहीं थे। विषय अथवा शिल्प--दोनों स्तरों पर, वे लोग खूब साहस से आगे नहीं आ रहे थे। सामाजिक दुर्दशा, राजनीतिक त्रासदी, जीवन की विकृति आदि-आदि चीजें, मैथिली कविता, कहानी, उपन्यास में उतर आई थीं। स्वतन्त्रता आन्दोलन की भावभूमि बनने से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति तक की कहानी खत्म हो गई, देश फिर से स्वदेशी के हाथों 'गुलाम' हो गया, मैथिली नाटककारों को वेद-पुराण से बाहर आने की इच्छा नहीं हुई। यही कारण है मैथिली नाटक आज भी, युग-सन्दर्भ से काफी पीछे है। सन् 1960 से पूर्व के मैथिली नाटकों को प्रगतिशीलता के सोपान के रूप में लिया जा सकता है। इसी क्रम में तीन नाटककार मुंशी रघुनन्दन दास (मिथिला नाटक), ईशनाथ झा (चीनीक लड्डू) और गोविन्द झा (बसात) ऐसे हुए, जिन्होंने अपनी रचना-प्रक्रिया के उत्प्रेरण से आगे के नाटककारों को एक बार फिर जोर लगाने को प्रेरित किया। अब मैथिली के नाटककारों ने पूर्ण साहसिकता से जन-जीवन में नाट्य-तत्व खोजना शुरू किया। इतिहास पुरुष, देव-दनुज कथा, पौराणिक प्रेम कथा, आध्यात्मिक प्रसंग आदि-आदि का उपयोग खत्म तो नहीं हुआ, लेकिन कम अवश्य हो गया। ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं को भी आधार बनाकर नाटक लिखने की परम्परा में गोविन्द झा (महाराज शिव सिंह, 1972), ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म' (कण्ठहार, 1996) और कांचीनाथ झा 'किरण' (विजेता विद्यापति, 1972) प्रभृत्ति ने एक नई दिशा की ओर संकेत किया। लेकिन इस तरह ऐतिहासिक-पौराणिक प्रसंगों पर नाटक लिखने वाले अन्य लेखकों ने इससे प्रेरणा नहीं ली। कुछ भी हो, मुंशी रघुनन्दन दास, ईशानाथ झा और गोविन्द झा का नाट्य-वस्तु, और नाट्य-शिल्प की ओर किया गया प्रयास, साठ के बाद के नाटकों में विपुल रूप से फलीभूत हुआ। सामाजिक प्रसंगों पर बहुतेरे नाटक लिखे गए और समर्थ नाटककारों का एक दल तैयार हुआ। गोविन्द झा का यह अवदान मैथिली नाटक के लिए अमूल्य माना जाएगा।

सन् साठ के बाद लिखे नाटकों के रचनाकार के रूप में अपनी अस्मिता कायम करने वालों में से प्रमुख हैं--सुधांशु शेखर चौधरी, गंगेश गुंजन, महेन्द्र मलंगिया, उदयनारायण सिंह 'नचिकेता', विभूति आनन्द, शैलेन्द्र आनन्द, अरविन्द अक्कू प्रभृत्ति। सन् साठ के बाद मिथिलांचल के अनेक नगरों-महानगरों में विविध नाट्य संस्थाएँ बनीं। गाँव-घर में महत्त्वपूर्ण अवसरों पर पूर्व में 'सुल्ताना डाकू' और 'चम्बल घाटी का लुटेरा' टाईप नाटक जो खेले जाते थे, उससे हटकर वहाँ के लोगों ने मैथिली नाटक खेलना प्रारम्भ किया। पटना, जमशेदपुर, दरभंगा, मधुबनी, बेगूसराय जैसे शहरों में जब मैथिली रंगमंच की विधिवत व्यवस्था हुई, तो मैथिली नाटकों के स्वरूप और प्रस्तुति में और भी निखार आया। मैथिली नाटक विकास की ओर उन्मुख हुआ। शहरी रंगमंच पर 'अर्थसमृद्धि' और 'साधन सौविध्य' के लक्षण दिखने लगे। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी मंचों के सम्पर्क और वैज्ञानिकता के प्रभाव से इन मंचों को आकर्षक और प्रस्तुति को ओजपूर्ण बनाने में सुविधा हुई। लेकिन ग्रामीण रंगमंच अपनी पुरानी व्यवस्था के साथ अभी भी चल रहा है।

इनके अलावा कुछ और भी नाटककार हैं, जिन्होंने अपने सृजन से इस विधा को पुष्ट किया, लेकिन समग्रता में इन लोगों ने अपनी कोई परिचिति नहीं बनाई। एक नाम लल्लन प्रसाद ठाकुर भी है, जो अपने लेखन को प्रायः एक शौक मानते रहे और नाटक को 'हाथ की सफाई।' अजीबो-गरीब असहज प्रसंगों को सूत्रबद्ध कर मंच पर प्रस्तुत करना और दर्शकों का मनोरंजन मात्र कर देना ही नाटक का उद्देश्य वे समझते रहे। प्रेक्षण के बाद दर्शक के मानसिक जगत में नाटक की प्रभाव-सीमा में उनका कोई विश्वास नहीं था; रहता तो उनके नाट्य लेखन में दिखता भी।

शैलेन्द्र आनन्द विशुद्ध रूप से गाँव के मंचों के निर्देशक और नाटककार हैं। उनकी मान्यता है कि गाँव के मंचों की व्यवस्था शहर से भिन्न होती है। सचाई है कि किसी नाटक की प्रस्तुति की सुविधा मंच की व्यवस्था पर निर्भर करती है। अतः गाँव के मंचों पर मंचनीय नाटकों का अपना अलग संस्कार होता है। और, शैलेन्द्र इसी में विश्वास रखते हैं कि गाँव के मंचों का यह संस्कार बरकरार रहे। गाँव के सारे मंच अभी भी नितान्त अव्यापारिक हैं। यूँ, अव्यापारिक तो कमोबेश शहरी मंच भी है, लेकिन इसमें अपवाद भी हैं। गाँव की आर्थिक सीमा को अक्षत रखने के लिए शैलेन्द्र की मान्यता, एक सीमा तक सही है।

सुधांशु शेखर चौधरी ने भी मैथिली नाटक को एक नया आयाम दिया है--'लेटाइत आचर', 'भफाइत चाहक जिनगी' और 'पहिल साँझ'--ये तीन ही नाटक हैं उनके। इन तीन नाटकों ने ही उनको मैथिली साहित्य में नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया, जबकि मैथिली साहित्य के अन्य विधाओं में उनकी रचनाएँ अपेक्षाकृत अधिक हैं, प्रशंसित हैं, पुरस्कृत हैं। वस्तुतः नाटक के क्षेत्र में उनकी यह शानदार प्रस्तुति, प्रारम्भ से ही नाटक पर उनके गम्भीर चिन्तन का परिचायक है। प्रारम्भ में शेखर हिन्दी-मंचों से गहरे तौर पर जुड़े हुए थे। उनके नाटक की खास विशेषता, अन्य आधुनिकतम विशेषताओं के साथ यह है कि नाटकों का अभिनय काल जितनी देर का होता है, नाटक की घटना भी उतनी ही देर की होती है। मैथिली में यह अपूर्व प्रयोग है। कथोपकथन, चरित्र-चित्रण, घटना संकलन और कथ्य--सारे स्तरों से उनका नाटक गहन बुनावट से युक्त रहता है। मध्यमवर्ग की विवशता, जेनरेशन गैप में उपजी जटिल ग्रन्थियाँ आदि उनके नाटकों का केन्द्र बिन्दु होता है।

महेन्द्र मलंगिया ने अन्य सब से अधिक नाटक लिखे हैं। 'लक्ष्मण रेखा खण्डित', 'एक कमल नोरमे', 'ओकरा आँगनक बारहमासा', 'कमला कातक राम लक्षमण ओ सीता', 'जुआएल कनकनी', 'ओरिजनल काम' आदि उनके महत्त्वपूर्ण नाटक हैं। इन नाटकों के बल पर वे न केवल प्रसिद्ध नाटककार के रूप में स्थापित हुए, बल्कि मैथिली रंगमंच को अपनी अस्मिता स्थापित करने के लिए एक आधार मिला। 'ओकरा आँगनक बारहमासा' अभी मैथिली के श्रेष्ठतम नाटक के रूप में गिना जाता है। यद्यपि कथा परिवेश का काल आधी सदी से अधिक पीछे है।...महेन्द्र की प्रसिद्धि के दो मूल कारण हैं--पहला, कि उन्होंने सर्वसाधारण के जीवन से कथ्य उठाकर उसे विलक्षण शैली में प्रस्तुत किया। उनके यहाँ कथोपकथन की जबर्दस्त संरचना है। छोटे-छोटे सम्वादों के साथ मुहावरेदार कथन का उपयोग, भावक को आत्मीयता बनाने को मजबूर कर देता है। मजे की बात है कि महेन्द्र मलंगिया के नाट्य-लेखन का शिष्टाचार नाट्य-शास्त्र से कम, जनसाधारण की जीवन-पद्धति से अधिक संचालित है। अपनी लम्बी विरासत से पे्ररणा लेते हुए और उससे पूरी तरह मुक्त होते हुए उन्होंने एक आकर्षक नाट्य शैली अपनाई--भाषा के स्तर पर भी, मंचन की सहूलियत के स्तर पर भी और सम्वाद की लघुता के सहारे बोधगम्यता के स्तर पर भी। निम्नवर्गीय जीवन की त्रासदी को व्यंग्यात्मक स्वरूप में उपस्थित कर उन्होंने अपने नाटकों का सीधा सम्बन्ध जनसामान्य से जोड़ा है।

सर्वथा स्पर्शहीन विषय एवं अधुनातन शिल्प के साथ नए-नए उद्यमों को जोड़ते हुए उदय नारायण सिंह 'नचिकेता' का पदार्पण जब मैथिली नाट्य लेखन में हुआ, तो भावकों के मन में बड़ी उम्मीद जग आई। मिथकीय संरचना और समकालीन जनजीवन की वास्तविक पर्यवस्थिति के कोलाज की तरह का उनका नाटक 'एक छल राजा' लोगों को पर्याप्त प्रभावी लगा। राजवंश और सेवक समुदाय के बीच अस्तित्व एवं अस्मिता के संघर्ष का जैसा परिदृश्य वहाँ दर्ज हुआ है, वह आज भी उत्तरऔपनिवेशिक परिवेश के एण्टीनैरेटिव्स का उदाहरण है। पर उनके नाट्य लेखन की निरन्तरता बनी नहीं रही, वह क्रम टूट-सा गया। मैथिली नाटक को उनसे बहुत कुछ मिलने की जो आशा थी, वह जारी न रह सकी। यह सुखद है कि लम्बे समय बाद इस बीच उत्तर आधुनिक सोच और संरचना से भरा हुआ उनका नया नाटक 'नो इण्ट्री: मा प्रविश' प्रकाशित हुआ है, इस नाटक के साथ उन्होंने फिर से मैथिली नाट्य लेखन के क्षेत्र में एक नया प्रयोग किया है। पर्यवस्थिति के द्वन्द्व और दुविधा के नेपथ्य को अनावृत करना उनके नाट्य लेखन का केन्द्र बिन्दु दिखता है।

गंगेश गुंजन, मैथिली में आज तक के इकलौते नाटककार हैं, जिनका 'बुधिबधिया' नाटक नुक्कड़ नाटक है और फुल लेंग्थ नाटक है। नुक्कड़ शैली में लिखा गया यह नाटक मैथिली में प्रयोग ही है। यह पहला ही प्रयोग इतना सशक्त है कि हिन्दी की समृद्ध नुककड़ शैली के साथ कदम मिलाकर चल सकता है। गुंजन ने अपने इस प्रयोग में मैथिली नाट्य लेखन को एक नई दिशा दी है, पर दुखद है कि आज तक इस दिशा में कोई दूसरे नाटककार अग्रसर नहीं हुए हैं। यहाँ तक कि इस दिशा में अपने प्रयास की पुनरावृत्ति खुद उन्होंने भी नहीं की, जबकि वे आज भी पूरे जोश-खरोश से रचनाशील हैं। नुक्कड़ नाटक आज के सन्दर्भ में सामाजिक जरूरत है। इस प्रसंग में मैथिली के प्रसिद्ध लेखक श्री जीवकान्त कहते हैं--'कुछ नुककड़ नाटक मैथिली में लिखना पड़ेगा। जिसमें निरक्षरता का अभिशाप, स्त्री शिक्षा के अभाव की दुर्दशा, धार्मिक अन्धविश्वास के कारण उत्पन्न अधोगति आदि को विषय बनाया जाना चाहिए। समस्याओं के समाधान हेतु सामूहिक प्रयास का महत्त्व जानने के लिए नुक्कड़ एकांकी चाहिए(श्री जीवकान्त/जनान्दोलन लेल नाटक/भंगिमा, दिसम्बर 1991)।' वस्तुतः नुककड़ नाटक के अभाव और ग्रामीण जनता के बीच इसके प्रदर्शन की उपेक्षा के कारण ही मैथिल पे्रक्षकों की रुचि में जागृति नहीं आई, अन्यथा मैथिली नाटक प्रेक्षकों की जरूरत हो सकता था और पे्रक्षकों की माँग पर रंगमंच को कुछ और प्रशस्ति मिल सकती थी।

गुंजन का नाट्य-लेखन एक और दिशा में उन्मुख हुआ और इस दिशा को उन्होंने नाट्य-लेखन के लिए खूब ऊर्बर साबित किया। यह दिशा है, शोषित वर्गों की चेतना की वापसी, उसका आत्मबोध, उसका शक्तिबोध, जहाँ मजदूर और शोषक वर्ग, श्रम और पसीना बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाने वाला वर्ग किसी की दया का मोहताज नहीं होकर, शोषकों से अपनी मजदूरी गिड़गिड़ा कर नहीं, अधिकारवश माँगता है और अपना एक आतंक कायम करता है। उन नाटकों में शोषक वर्गों द्वारा स्थापित आतंक का परिदृश्य खण्डित होता है, और शोषितों का आतंक कायम होता है। आतंक दोनों जगह है, पर पहले आतंक में हैवानी है, बेइमानी है; जबकि दूसरे आतंक में अधिकार की लड़ाई है और पहले से छाए हुए अवांछित आतंक का जवाब है। इस दिशा में और-और नाटक आने चाहिए। साहित्य वस्तुतः समाज की परिभाषा होता है, अस्तु यह मानव-जीवन को अग्रसर करने के लिए नई दिशा भी तलाशता है। नई दिशा की यह तलाश निश्चित रूप से जनसामान्य को एक प्रेरणा देगी।

इस भव्य विरासत को साथ लेते हुए विभूति आनन्द ने अपने लिए सर्वथा नवीन भाव-भूमि तैयार की। उन्होंने एक शिक्षित बेरोजगार की जिन्दगी पर अपने नाट्य कर्म की शुरुआत की। व्यवस्था की तंग गलियों से गुजरता हुआ कोई बेरोजगार सारी विसंगतियों का दंश भोगता है और नक्सली जीवन की ओर उन्मुख होता है। कीर्तन शैली और अधुनातन प्रशंसित नाट्य शैली के सम्मिश्रण से विभूति ने 'समय संकेत' नाटक में एक नई नाट्यभूमि प्रेषित की है। मैथिली नाटक में कीर्तन शैली और नक्सली जीवन की ओर उन्मुखता का समावेश भी प्रायः एक नया प्रयोग ही है। इसे सुपुष्ट करते हुए क्रमशः श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर नाट्यशैली और नाट्यभूमि की तलाश की अपेक्षा है, आवश्यकता है।

अरविन्द अक्कू ने भी कतिपय नाटक लिखे। नाटक लेखन में अक्कू प्रायः रंगमंच के निर्देशकों के इशारे के कारण अथवा एक अच्छे-से-कथ्य को सँभाल पाने की अक्षमता के कारण, एक विशाल सम्भावना से फिसल जाते हैं। मैथिली रंगमंच के निर्देशकों में अभी भी कुछ ऐसे दोष हैं, कि नाटक की पटकथा और उसकी माँग के आधार पर अपने कौशल को पुष्ट नहीं कर नाटक में ही परिवर्तन करना चाहते हैं। यहाँ एक भूल तो निर्देशक करते ही हैं, दूसरी भूल नाटककार करते हैं, कि उनकी बात मान भी लेते हैं। मैथिली नाटक में ऐसी अनेक घटनाएँ सुनने को मिल सकती हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जाना चाहिए कि मैथिली नाटक और रंगमंच को अभी बहुत अधिक विकसित करने की अपेक्षा है। बल्कि ऐसा कहा जाए कि अभी बहुत कुछ हुआ नहीं है। जीवकान्त के उल्लिखित उद्धरण से यह संकेत भी मिलता है, कि मिथिला में स्त्री शिक्षा का तो घोर अभाव है ही, पुरुष भी अपेक्षाकृत अधिक ही अशिक्षित हैं। यहाँ तक कि वैचारिक प्रगतिशीलता के क्षेत्र में ऊँची-ऊँची डिग्री वाले व्यक्ति भी घनघोर रूप से पिछड़े हैं। आज भी यहाँ के सामाजिक परिदृश्य के खास हिस्से में झाड़-फूँक, जड़ी-बूटी, टोना-टोटका, चरणामृत-भभूत, भूत-पिशाच, धार्मिक अन्धविश्वास, वैज्ञानिकता की अनभिज्ञता, सामन्ती प्रवृत्ति, स्त्री-जीवन के लिए शंकालु और रहस्यमयता की भावना आदि का वातावरण छाया हुआ है। शादी-विवाह में पंजीबद्धता और वंश-कुल की श्रेष्ठता का ध्यान रखा जाता है। वैयक्तिक विशेषता से अधिक महत्त्व कौलिक मान्यता का दिया जाता है। पर मैथिल और मिथिला की दूसरी सचाई यह भी है कि अब यहाँ के खास कोटि के नागरिकों का बौद्धिक और वैचारिक सामथ्र्य सारे बन्धनों, वर्जनाओं, दुविधाओं को त्यागकर आगे आ गया है। जाति, धर्म, जनविरोधी मान्यता, द्रोह-द्वेष के जाल से मुक्त होकर लोग अब जनहित और जनसमुदाय के सर्वांगीन विकास की दिशा में सोचने लगे हैं। एक तीसरी सूरत भी है। समाज के ढेर सारे पढ़े-लिखे लोग, जिन्हें नैतिक रूप से समाज के सुधार-परिष्कार की दिशा में चिन्तित रहना चाहिए, वे सारी नैतिकता को ताख पर रखकर तमाम अनैतिक उद्यमों में लिप्त हो गए हैं, और खुद को नैतिक-शिक्षा का उपदेशक साबित करने में प्राणपन से लगे हुए हैं। परस्पर विरोधी, और द्वन्द्व-दुविधा से भरे इस सामाजिक पर्यवस्थिति में नाटककारों का दायित्व बहुत जोखिम भरा हो गया है। इन परिस्थितियों से निपटना आज हर बुद्धिजीवी का कर्तव्य हो गया है। जो लोग इसे अपना दायित्व नहीं समझते, उन्हें समझना चाहिए। इन परिस्थितियों में सुधार की बड़ी जरूरत है। आन्दोलन की बड़ी अपेक्षा है। लोगों के अज्ञान, अहंकार, दुविधा, और छद्म के बादल को हटाना होगा। यह काम नाट्य-आन्दोलन ही कर सकता है, खासकर नुक्कड़ नाटक इसमें अधिक कारगर साबित होगा।

आर्थिक-दुर्दशा मिथिला के रंगमंच की एक अवान्तर समस्या है। यहाँ के नागरिक अर्थ-चक्र में इस कदर पिसते रहते हैं कि उन्हें अन्य कुछ सोचने की फुरसत नहीं मिलती। सुबह से लेकर अगली सुबह तक का समय तन ढकने को वस्त्र, जीवन ढकने को रोटी और मन ढकने को एक अदद स्त्री के इन्तजाम एवं उसकी सुरक्षा में बीत जाता है। इस दौरान कब उसे नीन्द आ जाती है और कितनी देर सो पाता है, पता नहीं चलता। ऐसे में यहाँ का नागरिक क्या प्रगति करे, क्या नाटक लिखे, क्या नाटक करे और क्या नाटक देखे?

मैथिली मंच पर स्त्री-पात्रों का अभाव एक हास्यास्पद समस्या है। शहरी मंच पर तो किसी तरह दूसरे प्रदेश की नारियों को भाषाई प्रशिक्षण देकर अथवा कुछ गिनी-चुनी मैथिलानियों (जो शहर में प्रगतिशील हो जाती हैं, मन्त्रोश्वर झा ने अपने एकाध नाटकों में इस बात का जिक्र किया है) को ही ले आया जाता है, लेकिन ग्रामीण मंच पर अभी भी घोर संकट है। भीतर-ही-भीतर यह संकट शहरी मैथिलानी पर भी रहता है। अविवाहित बालाओं को मंच पर इसलिए नहीं जाने दिया जाता है कि उसकी शादी में समस्या होगी, वर पक्ष के लोग उस लड़की को चरित्रहीन मानेंगे और विवाहित महिला इसलिए नहीं जाती कि चरित्रहीनता के आरोप से उसका दाम्पत्य खराब होगा। अशिक्षित परिवारों में तो इस मुद्दे की चर्चा भी नहीं हो सकती, यह तो शिक्षित परिवारों की कहानी है, जहाँ औरत का मंच पर जाना, उसकी चरित्रहीनता का द्योतक है। मैथिलों में वैचारिक चेतना यदि शिक्षा से आनी होती तो कम-से-कम उन लोगों में आ गई होती।

ये रूढ़ियाँ, ये पाखण्ड कमोबेश नाट्कों के निर्देशकों पर भी सवार रहते हैं। वे भी रंगमंच पर किसी ऐसी प्रस्तुति से बचने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसा वे या तो अपने आत्मबल के अभाव में करते हैं अथवा सामज के आतंक से। अर्थात्, अभिनेता, अभिनेत्री, नाटककार, निर्देशक, प्रेक्षक, सबकी कुछ-कुछ समस्याएँ हैं। ऐसा नहीं कि अन्य भाषा के नाटक एवं रंगमंच एकदम निरापद हैं। समस्याएँ वहाँ भी हैं, लेकिन वहाँ के लोग इन समस्याओं से लड़कर अपने में लचीलापन लाकर रास्ता निकालते हैं, जबकि मैथिली-नाटक से सम्बद्ध ये तत्व पीछे की ओर मुड़ जाते हैं। अच्छे-अच्छे नाटकों का अभाव हिन्दी में भी है। यही कारण है कि हिन्दी में कहानियों का नाट्य रूपान्तरण कर मंचन किया जाता हैं। मैथिली में तो इस उद्यम का भी अत्यधिक अभाव है। वैसे यहाँ भी नाट्य रूपान्तरण धड़ल्ले से होता है।

'मैलोरंग'(दिल्ली) स्वैच्छिक संगठन के कुछ नौजवानों ने इन तमाम असुविधाओं से टक्कर लेते हुए मैथिली रंग-कर्म की दशा-दिशा को पर्याप्त अधुनातन बनाने की चेष्टा की है। कई बार उन्हें अपने उद्यमों और किए गए नए-नए प्रयोगों में सफलता भी मिली है। पर मूल प्रश्न उनके साथ भी बना हुआ है। शक्तिशाली नाटकों का अभाव उनके साथ भी है। यद्यपि मैथिली में नाटक लिखनेवाले लोगों को यह बात नहीं सुहाएगी, वे अवश्य कहेंगे कि मैं तो नाटक लिख रहा हूँ, और अच्छा लिख रहा हूँ, मेरे नाटकों का मंचन करें! पर, सचाई है कि 'मैलोरंग' के रंगकर्मी अच्छे स्क्रिप्ट की बाट आज भी पपीहे की तरह जोहते हैं। मजबूरी में अनूदित स्क्रिप्ट (या तो दूसरी भाषाओं के नाटकों का अनुवाद कर, या फिर मैथिली की कहानियों, उपन्यासों को रूपान्तरित कर) मंच पर लाते हैं। अभिनेत्रियों के अभाव की समस्या इस टीम के साथ भी बनी हुई है। फिर भी किसी प्रेक्षक को यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि इन रंगकर्मियों ने मैथिली के नाटककारों को चुनौती दे दी है; मैथिली के नाटककारों से बहुत आगे आकर ये रंगकर्मी, उन्हें आवाज दे रहे हैं; उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देने के लिए अपने हाथ बढ़ा रहे हैं।

इधर के कुछ वर्षों में मैथिली नाटककारों का नाट्य-लेखन छोड़कर निर्देशन में, और निर्देशकों का निर्देशन छोड़कर नाट्य-लेखन में जुट जाने से भी बड़ी उधेड़बुन खड़ी हो गई है। इन तमाम परिस्थितियों से टक्कर लेना होगा। नाट्य-विधा को अभी काफी यत्न से सुपुष्ट करने का प्रयोजन है। मैथिली नाटक को अभी अपने विकास के अनेक आयाम ढूँढने हैं। इस ढूँढने के क्रम में कभी-कभी नाटककार अपना मौलिक रास्ता भूलने लगते हैं, जिससे बचने की आवश्यकता है। छत्रानन्द सिंह झा (बटुक भाइ) ने मैथिली नाटक की भाषा पर एक सवाल उठाया है, नाटककारों को भाषाई विवाद खड़ा करने के पचड़े से भी बचने की जरूरत है। मैथिली नाट्य लेखन में अनावश्यक रूप से आंचलिक पुट खोजने के बजाय अभी आवश्यकता है, नाट्य-वस्तु इकट्ठा करने हेतु चतुर्दिक आँख फैलाने की। ढेर सारे विषय हैं लिखने को...। मैथिली नाट्य-लेखन जिस दिन वस्तुनिष्ठता से सम्पन्न हो जाएगा, शेष सम्पन्नता स्वयमेव उसका चरण चूमने लगेगी।