रूपान्तरण / अशोक कुमार शुक्ला

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स्कूल से लौटकर आने पर अपनी किताबें बेतरतीब तरीके से कुर्सी पर पटकने के बाद ज्यों ही मैं किचन की ओर बढा मॉं का तमतमाया स्वर मेरे पीछे पीछे हो लिया:-

‘‘आज फिर हाथ मुंह धोये बगैर किचन में घुसे जा रहे हो, अरे भले मानुस! कम से कम हाथ तो धो ही डालेा । मै तब तक तुम्हारे लिये ताजा नाश्ता बना देती हूं। ’’

माँ की आवाज सुनकर मैं मजबूरन् भारी कदमों से बाथरूम की ओर बढ चला। अजीब सी खीज उठी और सोचने लगा माँ भी कितनी कठोर है, दिनभर के बाद उसका बेटा स्कूल से लौटा है। उसके भूखे और प्यासे होने की परवाह नहीं है उसे । बस मुंह और हाथों की सफाई केा लेकर चिंतित है। आखिर कौन सा पहाड टूट पडेगा अगर बिना हाथ मुंह धोये कुछ खा लूंगा? उसे समझ क्यों नहीं आता आखिर अब मैं बडा हो गया हू ? इन्टरमीडिएट में पढता हू। अपना अच्छा बुरा समझ सकता हॅूं। जब देखो बस छोटी छोटी बातों के लिये टोका करती हैं। बाथरूम में हाथ धोने के साथ मैं और न जाने क्या क्या सोचने लगा था कि मॉं का स्वर फिर सुनाई दियाः-

‘‘अरे बेटा अब जल्दी भी कर ! नाश्ता ठंडा हो जायेगा।’’

मैने सोचा होता है तो होने दो नाश्ता ठंडा जब मैं खाने जा रहा था तो तुम्हें ही तो सफाई की चिंता थी। मैं और तन्मयता से हाथ पैर साफ करने में तल्लीन हो गया। शायद मेरी नाराजगी भांप कर अब मां किचन से निकल कर बाथरूम के दरवाजे पर आ चुकी थी। बोली:-

‘‘बेटा! जल्दी से नाश्ता कर ले फिर देख ले शायद तेरे नाम कोई चिट्ठी आयी है।’’

मां का यह कथन मेरे अंदर एक नयी उर्जा ले आया। मैने शीघ्रता की और नाश्ता खत्म करने के साथ ही जल्दी से मॉं के कमरे में जाकर चिट्ठी वाला लिफाफा उठा लाया। अपने कमरे में आकर देखा तो कुछ पहचाना सा लगा। वही गुलाबी आभा वाला लिफाफा था जो अक्सर सावित्री दीदी मुझे भेजा करती थीं। झटपट लिफाफा खोल डाला और पढने लगा। ज्यों ज्यो पत्र पढता गया मेरे चेहरे का रंग उत्सुकता, उत्साह और लाचारी के रंगों से लगातार बदलता रहा और अंत में स्याह पड गया। पत्र इस प्रकार थाः-

पिथौरागढ़, दिनांक 21 मई 1982

प्रिय भैया सार्थक,

शुभाशीष,

आज की डाक में पत्रकारिता महाविद्यालय द्वारा भेजा गया परिचय पत्र और डिप्लोमा प्रमाणपत्र प्राप्त हुआ। उसे देखकर बरबस तुम्हारी याद आ गयी। सच पूछो तो इसके असली हकदार तो तुम हो क्योंकि यह तुम्हारी दी हुयी प्रेरणा और उत्साह ही है जो मैं इसे हासिल कर सकी हूं। यह तुम ही तो थे जिसने प्राइमरी स्कूल की इस अध्यापिका को पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में जाने और कुछ करने के लिये पत्राचार के माध्यम से पत्रकारिता की शिक्षा लेने के लिये बाध्य कर दिया था। आज देखते ही देखते मुझे डिप्लोमा भी मिल गया जो तुम्हारी याद की तरह हमेशा मेरे पास रहेगा।

अरे हॉं ! मेरे छोटे भाई सुनील की पटवारी ट्रेनिंग भी इसी महीने पूरी हुयी है। वह अल्मोडा से यहां आ गया है। जब तक पोस्टिंग नहीं हो जाती वह मेरे साथ यहीं रहना चाहता है। मैं चाहती थी कि वह गांव में इजा और बाबू के पास रहें क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता परन्तु वह नहीं मानता। इजा और बाबू जी भी चाहते हैं कि अब जल्दी से जल्दी उसका विवाह तय कर दिया जाय। कुछ लडकियों के बारे में विचार भी किया है, एक लडकी बरेली की है जिसके बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं। अगर शादी निश्चित होती है तो तिथि नियत होने पर सूचित करूंगी। सार्थक भैया , तुम शादी में जरूर जरूर आना।

एक बहुत जरूरी बात तुम्हें बतानी है कि मेरे द्वारा तुम्हें पत्र लिखा जाना सुनील भैया को अच्छा नहीं लगता है। इन पत्रों को लेकर वह अक्सर अजीबोगरीब बातें करता है जिसके कारण मैं विगत कुछ समय से गहरे मानसिक संत्रास से गुजर रही हूं।

प्रिय भैया! मै अपनी भावुकतावश उत्पन्न हुयी त्रुटियों के कारण पैदा हुये दुखों को तुम्हें नही बता पायी हूं। इस पत्र को पाते ही मुझे सूचित करना कि तुम आगामी पखवारे में कहीं जा तो नहीं रहे हो , तुम्हारा जवाब आने के बाद मैं तुम्हें एक पत्र विस्तार से लिखूंगी उसे तुम पोस्ट आफिस से सीधे ले लेना , वह पत्र मेरा फैसला होगा। प्रिय भैया, पत्र का जवाब देने में शीघ्रता करना।

तुम्हारी

सावित्री दीदी

पत्र की एक एक पंक्ति पढते हुये मैं अनायास सोचने लगा कि दीदी के द्वारा मुझे पत्र लिखा जाना सुनील दा को अच्छा क्यों नहीं लगता? इन पत्रों को लेकर वे क्यों अजीबो गरीब बातें करते हैं ? आखिर किस तरह की बातें कहते होंगें ? दीदी ने वह सब विस्तार से क्यों नहीं लिखा ? आखिर क्या बताना चाहती हैं दीदी ?

यही सब सोचते सोचते मैं समय की धारा में बहकर कुछ माह पूर्व उस टापू पर आ गया जहां एक बस स्टेशन था और वहां मेरे पिता का स्थानान्तरण होने के कारण पर हम लोग पिथौरागढ़ छोडकर उत्तरकाशी आ रहे थे। मैने देखा कि बस अड्डे पर उत्तरकाशी जाने वाली बस का ड्राइवर उसका हार्न रह रह कर बजाता जा रहा था परन्तु सवारियां थीं कि बस में चढने का नाम ही नहीं ले रही थीं।

मै बचपन से देखता आया था कि मेरे पिता दो तीन साल एक जनपद में रहने के बाद नये स्थान पर स्थानान्तरित हो जाया करते थे । वे राजकीय सेवा में थे और यह राजकीय सेवा का नियम होता था । आज भी ऐसा ही हो रहा था कि हम लोग सपरिवार नये तैनाती जनपद उत्तरकाशी की ओर जा रहे थे। हमारे परिवार को छोडने आये कई लोग आये थे जिनके बीच सावित्री दीदी की ओर सबका ध्यान बरबस आकर्षित हो रहा था जो लगभग चीख चीख कर रो रही थी और मुझे रहरहकर अपने सीने से लिपटा लेती थी। अजीब सा द्वष्य था मैं खुद भी नहीं समझ पा रहा था कि ऐसी हालत में मुझे क्या करना चाहिये ।

इसी तरह रोते बिलखते जब कुछ और समय व्यतीत हो गया तो कन्डक्टर ने मुझे हाथ पकड कर बस मे चढा दिया और ड्राइवर ने धीमी गति से बस को आगे बढाना शुरू किया। अब मैं बस की खिडकी से बाहर गर्दन निकालकर पीछे की ओर देख रहा था और सावित्री दीदी रोती सुबकती मेरी ओर देखकर हाथ हिलाते हुये बस के पीछे पीछे चल रही थी। कुछ देर तक यह क्रम चला और कुछ देर में पहाडी के मोड के पीछे बस के छिप जाने पर मैने बस की खिडकी से बाहर निकली अपनी गर्दन वापस बस के अंदर कर ली।

पहाड की सुरम्य धटियों के बीच बसा था यह छोटा सा शहर पिथौरागढ जहॉं तीन वर्ष पूर्व पापा स्थानान्तरण पर आये थे। हमारे पडोस में रहती थी सावित्री दीदी जो पास ही के किसी प्राइमरी विद्यालय में अघ्यापिका थीं। घर में एकमात्र कमाउ सदस्य थीं तथा सबसे बडी लडकी जिस पर अपने बूढे मॉ बाप ओैर चार छोटे भाई बहिनो की जिम्मेदारी थी। मेहनती इतनी कि कोई भी लजा जाय। अपनी प्राइमरी विद्यालय की अघ्यापकी की बदौलत आजकल एक भाई सुनील को लेखपाल की ट्रेनिंग करवा रही थी और एक छोटी बहिन का विवाह करवा चुकी थी। एक छोटे भाई और बहिन को साथ में रख कर पढा रही थीं। स्वयं संत का जीवन जीते हुये अपने बूढे मॉ बाप ओैर छोटे भाई बहिनो के लिये सांसारिक सुखों को जुटाने में जी जान से लगी रहती थीं। स्वयं के विवाह अथवा प्रेम जैसे विषय के संबंध में सोचना भी जैसे पाप समझती थीं।

हम लोगों के आने के बाद हम सबके साथ पारिवारिक सदस्यों की तरह आदर सत्कार करना और स्नेह देना उन्हें सचमुच महान बनाता था। इस अनजान शहर में हमारे लिये उनका मिलना ऐसा था जैसे किसी वियावान में अकेले भटकते राही को कोई साथी मिल गया हो या तपते रेगिस्तान में चलते हुये जैसे पानी की कोई बूंद आ गिरी हो। मेरे प्रति उनका लगाव दिन प्रति दिन गहराता ही गया। शाम को खाने का समय हो या प्रातः चाय का सावित्री दीदी मुझे अपने साथ शामिल करना नहीं भूलती थीं। स्नेह का यह बंधन हर नये दिन और प्रगाढ होता चला गया। मुझे भी अब अपने सभी कार्यो में सावित्री दीदी के बगैर कुछ अच्छा नहीं लगता था।

अपने अध्यापक के पेशे और पारिवारिक दायित्वों में पारंगत होने के साथ साथ सावित्री दीदी गंभीर राजनैतिक मामलों में अक्सर बेबाक और तर्कपूर्ण वक्तब्य भी सुना दिया करती थीं जिससे मुझे यह समझ में आया कि उन्हे पत्रकार बनना चाहिये था। एक दिन दैनिक समाचार पत्र में पत्राचार के माध्यम से पत्रकारिता कोर्स करने का विज्ञापन देखकर उनसे पूछे बगैर फार्म मंगा लिया और फार्म आने पर दीदी से उसे भरने को कहा। सावित्री दीदी के लिये यह अनोखा सरप्राइज था। उन्होंने प्रसन्नता से मेरा माथा चूम लिया और फार्म भरकर भेज दिया। कुछ माह बाद डाक से आयी शिक्षण सामग्री और अभ्यास को हम दोनो मिलकर हल करने का प्रयास करते। मेरा उत्साह बढाने के लिये दीदी अक्सर कहा करती -

‘‘सार्थक! तू तो बडा होशियार है। काश ! मेरा सुनील भी इतना ही होशियार होता।’’

यह जानते हुये भी कि वे यह सब मेरा मन रखने के लिये कह रही हैं मैं मन ही मन प्रसन्नता अनुभव करता।

सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक मेरे पिता का स्थानान्तरण आदेश आया और मुझे अपने पिता के साथ उनके नये तैनाती स्थान पर जाना पड रहा था। सावित्री दीदी से कितना लगाव हो गया था इसका अहसास मुझे उत्तरकाशी आने के बाद हुआ। यहां कोई भी परिचित नहीं था । मेरे नये स्कूल में कोई दोस्त भी नहीं था जिससे गिले शिकवे बांटे जा सकें इसलिये अपनी हर छोटी बडी शिकायत या सलाह के लिये सावित्री दीदी के मुंह की ओर ताकने वाला मैं उदास रहने लगा। पत्रेां के जरिये संपर्क बना रहने के कारण सारी शिकायतें और उदासी लिखकर सावित्री दीदी को भेज देता जिसका जवाब मुझे लौटती डाक से मिलता जिसमें हमेंशा कुछ हिदायतें और नये उपदेश होेते थे जो मेरे अंदर की उदासी को कुछ क्षणों के लिये गायब कर देते थे। मैं फिर अनमना और उदास होने पर नया पत्र लिखने लगता। मैं जैसे हमेशा स्नेह और उद्बोधन से भरे पत्र पढने का आदी हो गया था। परन्तु आज इस पत्र केा पढकर विश्वास ही नही हुआ कि यह सावित्री दीदी का ही लिखा हैं। जरूर कोई बडी परेशानी होगी जिसके चलते वे ऐसा पत्र लिखने पर वाध्य्य हुयी होंगी। मैने एक बार फिर पत्र को पढा।

पत्र पाने के बाद मुझे लगा कि जैसे अचानक मैं बडा हो गया हू, एक जिम्मेदार नागरिक, या एक जिम्मेदार दोस्त, सो अब तक शिकवे शिकायतें लिखने वाला मैं विस्तार से एक पत्र लिखने बैठा जिसमें जीवन में निराशा घेर लेने की दशा में स्वयं को पठन पाठन में व्यस्त रखने और निराशा को अपने पास फटकते नहीं देने की सलाह के अलावा हिम्मत नहीं हारने की सामान्य हिदायतें लिखीं थीं। साथ ही दीदी को अपने जीवन का प्रेरणा स्त्रोत बताते हुये उन्हें मानसिक मजबूती प्रदान करने में सहायक होने वाले अनेक द्वष्टांतो का विवरण लिख डाला। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी लेखनी में अनजाने ही एक जिम्मेदार पिता या बडे भाई जैसी कोई भावना आ गयी थी। जीवन मे आने वाली हर समस्या का हल है, ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका हल न निकाला जा सके, जैसी सूक्तियों से पटा पत्र लिखकर डाक में डाल दिया और दीदी का जवाब आने का इंतजार करने लगा।

कुछ दिन लगातार डाकधर के चक्कर लगाने के बाद भी जब दीदी का पत्र नहीं आया तो नियमित रूप से डाकघर जाने का सिलसिला कुछ कम हो गया। दीदी की ओर से पत्र का उत्तर न आने के कारण मन आशंकाग्रस्त होने लगा। सुनील की शादी का कार्ड भी तो नहीं पहुंचा, उसकी पोस्टिंग कहां हुयी यह भी नहीं बताया सो फिर एक पत्र लिख कर पुनः सावित्री दीदी को भेजा जिसके प्रतिउत्तर की प्रतीक्षा नहीं करनी पडी और जल्दी ही चौंकाने वाला रहस्यमय जवाब लौटती डाक से प्राप्त हुआ।

पिथौरागढ़, दिनांक अस्पष्ट 1983

प्रिय भैया सार्थक,

शुभाशीष,

तुम्हारा पत्र मिला, तुम्हारा पिछला पत्र भी प्राप्त हुआ था परन्तु कुछ सोचकर मैने उत्तर नहीं लिखा। इससे पूर्व वह पत्र शायद भावातिरेक में आकर मैने तुम्हें लिखा था जिसका कोई अर्थ नहीं था। आज फिर तुम्हारा पत्र पाकर मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुयी। तुमने लिखा है कि मैं तुम्हारी प्रेरणा हूं, यह कैसा मजाक है ? मैं किसी तरह की प्रेरणा नहीं हो सकती। मैं जिस पारिवारिक परिवेश में रहती हूं उसमे सभी काम अपनी इच्छा से कर सकूं यह संभव नहीं है। सुनील की पटवारी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उसकी शादी हो चुकी है। वह अपनी पत्नी सहित यहीं मेरे साथ ही रहता है। मैं अपने इजा बाबू और उनकी इच्छाओ के लिये पूर्णतः समर्पित हूं । इस पत्र को पढकर तुरंत फाड देना और आइन्दा कभी मुझे पत्र न लिखना और न ही मुझसे मिलने की कोशिस करना और किसी से मेरे विषय में बात भी न करना। विगत कुछ समय से जो पत्राचार हमारे बीच हुआ उन पत्रों को भी जला देना । मुझे भूलने की कोशिस करना और सदा खुश रहना।

तुम्हारी

सावित्री दीदी

पत्र पर पानी की कुछ बूंदे जैसी गिरी थीं जिससे उसके अक्षर धुंधला गये थे। मैने गौर से देखा वे आंसू की बूदें थीं जो पत्र लिखते लिखते उनकी आंखों से छलक कर पत्र पर आ गिरी थीं। पत्र पढने के बाद मैं हक्का बक्का रह गया। मुझे अपने अन्दर कुछ नये परिवर्तन होते हुये अनुभव हो रहे थे, ऐसा लगने लगा कि जैसे अचानक मेरे मस्तक पर सींघ उग आये थे। वैसे ही सींघ जो किसी बछडे के मस्तक पर उसकी वयःसंधि पर उगने लगते हैं। मैं एक अबोध बच्चे से किसी वयस्क पुरूष के रूप में परिवर्तित होने लगा था। अपनी पढाई की टेबल पर आकर मैने उस पत्र को पुनः पढा और उसमें छिपे अर्थ को बार बार समझने का प्रयास करने लगा।

उस पूरी रात मैं सेा न सका। प्रातः जल्दी उठा और सावित्री दीदी के लिखे सारे पुराने पत्रों की पूंजी निकाल लाया। एक एक कर उन्हें अपनी पढाई के टेबिल पर बिखराकर पुनः नये सिरे से पढने लगा। उन पत्रों को नयी द्वष्टि से पढते हुये सोच रहा था कि

‘क्या सचमुच दीदी के आखिरी पत्र में लिखी हिदायत के अनुरूप इन्हे नष्ट कर दिया जाय ?’

इन सारे पत्रों में तो मुझे अब भी उद्बोधन और प्रेरणास्पद सूक्तियां ही दिखलायी पड रही थीं। बडे प्रयासेां के बाद भी मैं उन पत्रों ऐसा कुछ भी न खोज सका जो उन्हे आपत्तिजनक या असंग्राही बनाता हो। अंत में हार कर एक ब्लेड ले आया और उन सारे पत्रों में जहां जहां ‘‘भैया’’ और ‘‘दीदी’’ नामक संबोधन अंकित था उसे ब्लेड से कुतरने लगा। सावित्री दीदी के उस आखिरी पत्र में दी गयी हिदायत के अनुरूप आखिर उन्हें नष्ट जो करना था। इस तरह एकत्रित हुयी ‘भैया’’ और ‘‘दीदी’’ की कतरनों को कूडे में बहाने के बाद शेष बचे पत्रो को बार बार पढकर मैं इस नये रिश्ते में खो गयी अपनी मासुमियत को ढूंढ रहा था।

मेरा अंतरमन बस एक ही सवाल पूछना चाहता था कि क्या सचमुच इसी तरह बडा हुआ जाता है ? लेकिन अब किससे पूंछूं यह सवाल मै इसी पशोपेश में था ?