रेंगता हुआ यातायात और प्रदूषित आकाश / जयप्रकाश चौकसे

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रेंगता हुआ यातायात और प्रदूषित आकाश

प्रकाशन तिथि : 07 जुलाई 2012

सिनेमा का जादू सिर चढ़कर बोलता है। सिनेमा विधा के अध्ययन की सुविधाएं नगण्य हैं और फिल्म उद्योग की बनावट कुछ ऐसी है कि नए व्यक्तिको मुश्किल से प्रवेश मिल पाता है। भविष्य में टेक्नोलॉजी अवाम के लिए फिल्म निर्माण संभव कर देगी। आज भी मोबाइल पर कुछ लोग फिल्म बना लेते हैं। डिजिटल कैमरे के आने के बाद नए लोगों के लिए सिनेमाई संभावनाएं बढ़ गई हैं। केरल में शादी-ब्याह के लिए इस्तेमाल कैमरे से ही फिल्म बनाकर उसके वीडियो घर-घर बेचने का काम होता है। स्थानीय केबल पर भी साधनहीन लोगों द्वारा बनाई फिल्म दिखाई जा सकती है। एक लंबे अरसे से महाराष्ट्र के मालेगांव में इस तरह की फिल्में बनाई जा रही हैं और उनकी पहली चर्चित कोशिश का नाम 'मालेगांव की शोले' था। फैजा अहमद खान ने मालेगांव के फिल्म उद्योग पर एक वृत्तचित्र बनाया है, जिसे गोआ में आयोजित समारोह में दिखाया गया। इन फिल्मों को मुंबई की फिल्मों की पैरोडी भी कह सकते हैं। मालेगांव फिल्म उद्योग के दो कर्णधार हैं नासिर शेख और शफीक शेख। मनोरंजन में कुटीर उद्योग की संभावनाएं उज्ज्वल हैं, क्योंकि मनोरंजन क्षेत्र में अनंत फैलाव के साथ खूब सिकुड़ जाने की भी क्षमता है, गोयाकि 'सिमटे तो दिले आशिक, फैले तो जमाना है।'

बहरहाल 'मालेगांव का सुपरमैन' में उड़ता हुआ नायक कहता है कि फैक्टरी के धुएं से प्रदूषण के कारण उडऩे में आनंद नहीं है। उसी लहजे में निवेदन है कि आकाश से दादासाहब फाल्के मालेगांव के फिल्म प्रयास पर फूल बरसाते हैं, परंतु प्रदूषण के कारण वे वहां की धरती पर नहीं पहुंचते। सारे विश्व में प्रदूषण पर चिंता अभिव्यक्तकी जाती है, परंतु कहीं कोई सार्थक प्रयास नजर नहीं आते। हर शहर में ग्रीन सिटी की नई उभरती बस्तियों के विज्ञापन देखे जा सकते हैं और हमें याद दिला देते हैं कि शहरों के गिर्द कृषि की जमीन के बंजर होने के प्रमाणपत्र रिश्वत देकर लिए जा रहे हैं और परत-दर-परत शहर फैलते जा रहे हैं। इस विषय में प्रभु जोशी का लेख जबर्दस्त है।

प्रदूषण रोकने के सरकारी और संस्थागत प्रयास नागरिक चेतना के अभाव में विफल हो जाते हैं। सरकार जंगल में नए पौधे लगाकर ट्री गार्ड लगाती है और जनजातियों के लोग हजार रुपए के लोहे के ट्री गार्ड को उखाड़कर २०० रुपए में बेच देते हैं। इस तरह चोरी का माल जनता में ही कोई खरीद रहा है। भ्रष्टाचार के खेल में सभी शामिल हैं। वॉटर हार्वेस्टिंग की बात भी अनसुनी रह जाती है।

दरअसल आज की सारी समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। विगत दो दशकों में कुछ लोगों के पास धन आ गया है और बेहतर जीवन के लिए वे खर्च कर रहे हैं। नगरों के पास की जमीन बेचने वाले धनाढ्य कृषक खूब कारें खरीद रहे हैं। टेलीविजन ने सुविधा-संपन्न जीवन का एक खांका खींचा है और इस प्रयास में इच्छाएं सींची जा रही हैं। इच्छाओं के फैलते दायरों में दुनिया सिकुड़ रही है और खतरे में पड़ गई है। दुनिया में अनेक शहरों में धरती और जीवन की रक्षा के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। ब्राजील के क्यूरीटिबा में दिन-रात सुविधाजनक बसें चलती हैं और अधिकांश नागरिक बसों में यात्रा करते हैं। इसलिए सड़क पर कम कारें दौड़ती हैं, कम धुआं निकलता है और यातायात में अवरोध नहीं है। भारत के महानगरों में हर नागरिक के जीवन का बड़ा हिस्सा यातायात अवरोध में नष्ट होता है। इस शहर की बस सेवा सर्वश्रेष्ठ है। तेज गति वाली बसों के लिए सड़कों पर जगह आरक्षित है।

हमारे यहां इस तरह की यातायात व्यवस्था स्थापित करने पर भी अनेक समृद्ध लोगों को अपने मातहतों के साथ सफर करना पसंद नहीं होगा। सामाजिक विभाजन धरती का सबसे बड़ा संकट है। एयरलाइंस चलाने वाले जानते हैं कि समृद्ध लोगों के लिए बिजनेस क्लास नहीं रखने पर व्यवसाय में हानि होती है। कॉर्पोरेट कंपनी के प्रमुख बिजनेस क्लास में बैठते हैं और उनके साथ मीटिंग के लिए जाने वालों को इकोनॉमी में बैठाते हैं। इसी तरह अवाम के आने-जाने वाली पांच सितारा होटल में कॉर्पोरेट प्रमुख ठहरना पसंद नहीं करता। क्यूटीरिबा में मीलों लंबी सड़कें केवल साइकिल उपयोग करने वालों के लिए आरक्षित हैं। पेरिस में कार पार्क से ज्यादा जगह साइकिल पार्क के लिए आरक्षित है। पुराने पेरिस में आप कोई वाहन नहीं ले जा कते। हरे-भरे शहरों में साइकिल चलाने या मीलों पैदल चलने पर भी थकान नहीं होती। दुनिया के सभी देशों में अमीर और गरीब लोग रहते हैं, परंतु भारत जैसे अमीर आपको कहीं नहीं मिलेंगे। वे सारा समय अपनी समृद्धि का मनोवैज्ञानिक भार लेकर घूमते हैं। वे एक क्षण के लिए भी साधारण या अवाम की तरह नहीं होना चाहते। अगर स्वर्ग श्रेणीविहीन जगह है तो वे वहां भी नहीं जाना पसंद करेंगे। यहां श्रेणियों के भीतर श्रेणियां हैं। पुश्तैनी धनाढ्य नवधनाढ्य से रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं करता।

बंजर दिमाग के कारण धरती की हरियाली गायब हो गई है। हम इतने आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्ध हो गए हैं कि हमें संकट ही नजर नहीं आ रहा है। मालेगांव ने अपना सिनेमा तो गढ़ा है, परंतु क्या अपने शहर को प्रदूषण मुक्तकरने का प्रयास भी कर रहे हैं? हम मालेगांव के माध्यम से सबकी बात कर रहे हैं।