रेडियो / अरविंद

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कथा पहले मुख्तसर-सी-

पिताजी के विवाह की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि उनके दहेज में मिला हुआ रेडियो था। विवाह के बस एक साल के बाद मैं पैदा हो गया था। इसलिए रेडियो की उम्र मुझसे एक साल बड़ी ही मानी गई। माँ के इतना करीब था वह रेडियो कि लोग मुझे उसका छोटा भाई भी कहेंगे, तो इस उम्र में भी मुझे हिचक नहीं होगी।

लोग बताते हैं कि जब मैं रोता था तो इसके गाने की आवाज सुनकर चुप हो जाता था। माँ मेरे सिरहाने में रेडियो चलाकर छोड़ देती थी और घर के सारे काम निपटाती जाती थी। धीरे धीरे इसकी आदत ने मुझे इतना जकड़ लिया था कि रेडियो की चुप्पी मेरे रोने का सबब बन गई। माँ को इसकी बदौलत अनगिनत गीत याद हो गए थे।

उस रात छायागीत का कोई कार्यक्रम था जब पिताजी बैठके में बैठे कोई कागजी काम निपटा रहे थे। रेडियो की आवाज थोड़ी ऊँची थी। उसके गीत दूर-दूर गलियों से होते हुए कई खिडकियों तक जा रहे थे। और माँ को एक धुन थी उसके गीतकार और संगीतकार याद करने की। सो वह ध्यान से सुनती थी। हुआ यह था कि पिताजी ने एक गिलास पानी माँगा था। रेडियो की ऊँची आवाज की वजह से या फिर गीत में गुम हो जाने के कारण माँ ने आवाज नहीं सुनी। पिताजी ने तीसरी बार पुकारा था। और अंत में गुस्से में आकर रेडियो को पटक दिया था। पटकने की वजह से उसे चूर चूर हो जाना चाहिए था। लेकिन बस उसका एंटिना ही टूटा। कुछ घंटे तक रेडियो बंद रहा और माँ बहुत नाराज रही। फिर जब रेडियो की चुप्पी से मैं रोने लगा तो पिताजी ने खुद रेडियो को ठीक किया। मैं इधर बगल में लेटा था। माँ देर तक सुबकती रही। उसकी आवाज मेरे बगल से जा रही थी। और मैं गाने और उसके रोने की मिली जुली आवाज सुनता रहा। उस वक्त मेरी उम्र कुल जमा डेढ़ेक साल थी।

माँ बहुत खुबसूरत गाती थी। उसका गला लाजवाब था। ऐसे दिनों में जब रेडियो के सेल खत्म हो जाते थे तब वह कंधे पर चिपकाकर मुझे सुलाने की कोशिश करती थी। लेकिन मैं उस वक्त बिना साज की आवाज को समझ लेता था और रोने लगता था। थक हारकर पिता जी को रेडियो का सेल लाना ही पड़ता था। पिताजी इसे फिजूलखर्ची कहते थे। पर मेरी वजह से रेडियो घर में टिक गया था। और माँ के गीतों का शौक को विराम नहीं लगा था। नहीं तो कितने शौक थे उसके जो विवाह के बाद बलि चढ़ गए थे।

आप नहीं मानेंगे लेकिन एक बार क्या हुआ था कि रेडियो बिगड़ गया। बस वह दिन कयामत का था। मैंने रो रो कर सारा घर सर पर उठा लिया। कस्बे से बहुत दूर शहर जाकर पिताजी ने उसे ठीक करवाया। बस से आना जाना था। फिर भी शाम हो गई। जैसे ही पिताजी गली में घुसे। मेरी आवाज सुनकर रेडियो आन कर दिया। और मैंने रोना बंद कर दिया था। उस दिन घरवाले समझ गए कि जैसे किसी राजकुमार की जान तोते में बसती है वैसे ही मेरी जान रेडियो में बसती है।

जब सब लोग सो जाते थे तब माँ बर्तन माँजती थीं। और अंत में जब मैं सोने वाला होता था तो आहिस्ते से रेडियो को उठाकर उसे झाड़ पोछ देती थी। रेडियो को पोछने के लिए एक सूती कपड़ा अलग से था। फिर उसे मेरे सिरहाने से उठकर माँ अपने बगल में रख लेती थी। माँ कई चैनल बदलती थी। कभी साँय-साँय की आवाज में बहुत धीमे-धीमे कम तरंग पर गीत लहराते हुए आता। और फिर बहुत दूर चला जाता था। जहाँ से आता था शायद वहीं। फिर गीत के वह बोल डूबकर सतह पर नमूदार होता। कुछ ऐसी ही किस्मत माँ की भी थी। डूबती उतराती सी।

माँ और पिताजी रहते तो एक साथ थे, पर उनमें पटी कभी नहीं। एक अबोला सा था उनमें। जब घर के बाहर से पिता जी आते थे तो माँ एक गिलास पानी रखकर हट जाती थी। या फिर उनके पेट के हिसाब किताब से गिनकर रोटियाँ उनकी थाली में रख जाती थी। या किसी दिन मनपसंद सब्जी बनी होती तो अलग से प्लेट में रोटियाँ रख आती थी। उनके नमक, चीनी और स्वाद के बारे में सटीक जानकारियाँ माँ ने हासिल कर ली थी। और उसे निभा लेने में पारंगत भी हो गई थी। हफ्ते में एक दिन उनके सभी कपड़े साफ कर दिए जाते थे। और चुपचाप एक निश्चित जगह रख दिए जाते थे। जरूरत के हिसाब से पिताजी हरेक रोज उनमें से एक-एक पहन कर जाते थे। माँ एकदम सीधे नहीं बोलती थी। अगर बहुत ही जरूरत हुई तो माँ अदृश्य हवा में कुछ बात फुसफुसा जाती थी और अगर पिताजी को करने का मन हुआ तो नियत समय पर वह काम कर देते थे। अगर मन नही हुआ तो नहीं होता था। बहुत जरूरी बात में जैसे अगर मुझे कोई विशेष इंजेक्शन लगवाना हुआ तो वह एक ओर मुँह कर के कहती कि मुन्ना को खसरा के इन्जेक्शन लगवाने है। अगर हो सके तो चलना। पिताजी उसी अदृश्य हवा से कहलवा देते कि शाम को जल्दी आऊँगा तैयार रहना। और ऐसी बातें जिसमें कहना हो कि आज छुटकी की शादी है अगर साथ आप भी चलें तो। ...तो वे उसी हवा से कहते कि तुम चली जाना मुझे फुर्सत नहीं है।

इन सब भारी बातों के बीच मैं कैसे पैदा हो गया था, यह एक शोध का विषय था। पिता और माँ के बीच की इस रिक्तता को मैं कितना भर पाया था, बता नहीं सकता। पर यह रेडियो ही एक कारण था जो हमारे बीच की मधुरता घोले रखता था। और मेरे साथ साथ शायद माँ के भी जीने का अच्छा साधन था। कोई गली से आते हुए बहुत दूर से हमारे घर की आवाज सुनता तो समझता हम लोग प्रेम करने वाले जीव हैं। जहाँ से हर वक्त रेडियो की आवाज आती रहती है। गाने की आवाज आती रहती है। पर आपको पता लग ही गया होगा ऐसा बिलकुल नहीं था। यह हमारे अकेलेपन को भरता था। एक रिक्तता को भरता है।

माँ रेडियो की आवाज भरसक कम ही रखती। कि बैठके तक न पहुँचे। पिताजी को रेडियो एकदम नहीं पसंद था। वह तो दहेज की चीज थी सो ले लिया था। नहीं तो अगर खरीदना हुआ होता तो आजीवन संभव नहीं होता। मुझे ठीक से नहीं पता कि माँ और पिता जी में ठीक से क्यों नहीं जमी। माँ तो बहुत सुंदर थी। या फिर हो सकता है कि पिता जी किसी और को पसंद करते थे। या फिर बीच में ही कभी कोई खटपट हो गई रही हो।

माँ के संदूक में एक पतली सी कापी थी। उसमे उसने रेडियो से सुनकर सारे अच्छे गीतों को कलमबद्ध कर रखा था। उसमे बेसन के पकौड़े, कोफ्ते, सोयाबीन के हलवे बनाने के नियम भी लिखे हुए थे। जब भी कोई अच्छी सी रेसेपी रेडियो पर पढ़ी जाती वह उसे तुरंत लिख भी लेती थी। लेकिन बनाती कभी नहीं थी। बनाए तो तब न जब बाजार से सामान ले आयें। घर में तो वही भोजन बनता था जो शाम को बाजार से लौटते वक्त सब्जी पिताजी ले आते थे। या महीने के सबसे अंत में जब सामानों की कोई लिस्ट बनती थी। सामान में कोई ऐसा अतिरिक्त सामान नहीं होता था जो पिताजी का ध्यान खींचे। मैं आपको बताना भूल रहा हूँ कि इसी कापी के पिछले पन्ने पर 'मेरे प्राणनाथ रवि' लिखकर जैसे जान-बूझकर भूला जा चुका था। यह रवि कौन था मुझे नहीं मालूम! हो सकता है कि यही झगड़े का मूल कारण रहा हो। अगर रहा हो तो उसके लिए कोई अलग कथा कहानी होगी लेकिन पहले मेरी कहानी!!

माँ नाचती भी बहुत अच्छा थीं। जब कोई नहीं रहता था तब वे किवाड़ बंद कर लेती थी। और किसी गीत पर उनके पैर एक गति में घूमने लगते थे। वे संदूक में घुँघरू भी रखती थीं। सच कहूँ तो पिताजी को उनके संदूक से काफी चिढ़ थी। उसमें तस्वीरों का एक एल्बम था। तस्वीरों में कई सारी सहेलियाँ थीं उनकी। बहुत पुरानी चिट्ठियाँ थीं, कुछ शेरो शायरी की किताबें थीं। कहानियों की किताबें थीं। सिधौरा था। जो उनके विवाह में मिला था। चूड़ियों और बिंदियों के कुछ पैकेट थे। मेहँदी के पैकेट थे। कुछ अच्छी साड़ियाँ थी। यहाँ तक कि पहले-पहल जब वे आई थीं तो रेडियो इसी में रखा जाता था। लेकिन जब से मेरा नवजात वाला शौक चढ़ा था तब से वह रेडियो मेरे साथ रहने लगा था। मेरे सिरहाने।

माँ कभी अकेले बाजार नहीं गई। जाती तो बगलवाली मुनिया को साथ ले लेती। मुनिया की उम्र यही कोई पंद्रहेक रही होगी। पिताजी टोकते तो कुछ नहीं पर उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता था। यह उनके चेहरे से समझ में आ जाता था। जब वे नाराज होते थे तो उनका होंठ का निचला हिस्सा लटक आता था। बाजार में रेडियोसाज की एक दुकान थीं। उसके दुकानदार का नाम तो पता नहीं। पर वह बहुत सुदर्शन था। उसकी आवाज बहुत प्यारी और गंभीर और धीमी थी। जैसे कि रेडियो अनाउंसर की होती है। उसे किसी रेडियो स्टेशन में होना चाहिए था। लेकिन इसे किस्मत का धोखा ही कहेंगे कि वह बिगड़े हुए रेडियो की मरम्मत करता था। उसकी दुकान में अनगिनत किस्म के रेडियो भरे पड़े थे। लेकिन अधिकतर बिगड़े हुए। तब बता दूँ कि रेडियो का जमाना था और टीवी नया नया था। और महँगा भी। जैसे कि टीवी देखने के लिए लोग दूसरों के घरों में चले जाते थे वैसे ही उन दिनों रेडियो सुनने लोग दूसरों के घरो में चले जाते थे।

माँ का मायका यानी कि मेरा ननिहाल उसी रेडियोसाज के शहर में था। माँ जब भी उस शहर में जाती थी तब वह कुछ देर तक उस दुकान पर रुकती थी। मैं उनके कंधे से चिपका होता था। और उनकी बातों के समय मैं सो जाया करता था। मैं नहीं बता सकता कि वे क्या बात करती रही होंगी। उस वक्त मुनिया कहीं किसी दुकान में चूड़ियाँ या अन्य सामान देखने में व्यस्त रहती थी। माँ का चेहरा उस वक्त किसी फूल-सा नरम हो जाता था। और आँखों की एक कोनिली परत बहुत गीली हो जाती थी। यह मैं उस वक्त अपनी नीद में भी परख लेता था। किसी को कुछ शक जैसा कुछ न हो इसलिए वह सेल का पैकेट खरीद लेती थीं। रेडियोसाज उस सेल के पैसे नहीं लेता था। या क्या पता कभी-कभी ले ही लेता हो। यह उस वक्त होता था जब दोपहर का वक्त हो तब ग्राहक भी एक्का दुक्का आते थे। मेरे हिसाब से इसी आदमी का नाम रवि होना चाहिए था।

हरेक की तरह मेरे जीवन में भी वह मौसम आया जब मेरे दाँत निकलना शुरू हुए। उस वक्त मेरे पोतड़े लगातार हरे-पीले रंग में गीले होते रहे। मैं पतला और चिड़चिड़ा होता चला गया। दिन रात चिल्लाता रहा। तब रेडियो का जादू मेरे लिए थोड़ा फीका फीका हो गया। अगर गाने थोड़े धूम धड़ाम वाले न हुए तो मैं जल्दी चुप ही नहीं होता था। उस वक्त माँ समझ लिया करती थी और चैनल वहाँ ले जाती रही जहाँ अक्सर आर.डी. वर्मन के गाने आते थे। लेकिन जीवन गानों की तरह मधुर नहीं रहता। उसमें चाहे अनचाहे बदलाव आते जाते रहते हैं। एक बार क्या हुआ कि मुझे जोरों का बुखार चढ़ा। मेरा बदन तवे की तरह तपने लगा था। पिताजी जल्दी ही घर आ गए थे। उन्हें पड़ोस का एक आदमी बुलाने गया था। शहर की बस पकड़ते पकड़ते शाम हो आई। मैं माँ के आँचल में दुबका रहा। मेरा माथा तपता रहा। मैं एक लंबी बेहोशी में था। और हिचक रहा था।

पहले तो मेरे माँ -पिता जी शहर के कई अस्पतालों में चक्कर लगाते रहे। मेरी स्थिति देखकर लगभग हर डाक्टर जवाब देता रहा। बच्चों का एक बहुत बड़ा डाक्टर था। उसने कहा कि यहाँ इसका ठीक होना संभव नहीं है और एक बड़े शहर में एक और बड़े अस्पताल का पता देकर कहा कि वहाँ जाओ। उसने किसी रोग का नाम भी लिया। पर बहुत टेढ़ा होने के कारण वह मुझे याद नहीं रह पाया था। वे वहाँ से निकलकर बढ़ाते हुए एक अँधेरे वाले चौराहे तक आए। और माँ लिपट कर पिता जी से रोने लगी थीं। मेरे जेहन में यह मेरी वजह से पहली घटना थी। पहली बार मैंने उस अर्धचेतन अवस्था में माँ को पिताजी के इतने नजदीक देखा था। यह मेरे ही कारण था। मेरी गंभीर हालत ही इस नेक काम के लिए जिम्मेदार थी। माँ का चेहरा पिताजी के कंधे पर था। पिताजी ने वही खंभे का सहारा ले कर माँ के सर को चूम लिया था। मैं उनके दूसरे कंधे पर था। और एक बहुत गहरी साँस ली थी। यह गहरी साँस ऐसे थी जैसे सदियों से चलकर उन तक पहुँच रही हो। और बीते सालों में मेरे लिए यह एक यादगार घटना थी। मैं उस वक्त साँस नहीं ले पा रहा था और मेरी नब्ज चुप होने कगार पर थी।

अब सब कुछ जैसे सही होने जा रहा था। एक रिक्शा वाला आता हुआ दिखाई दिया। पिताजी ने माँ को कंधे से अलग किया। मुझे उन्हें सौपा। और रिक्शे वाले की ओर बढ़ गए। वे उससे बस स्टैंड चलने के लिए कह रहे थे। माँ को रोता देख उसने कहा था कि क्या हुआ साहेब बच्चे की तबियत खराब है। किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। फिर खुद वही बोला कि एक और डाक्टर हैं उसकी जानकारी में, अगर आप लोग चाहें तो दिखा सकते हैं। रात आधी बीत चुकी थी। तारीख बदल गई थी। और उस अँधेरे सुनसान में हमारा रिक्शा एक गली में बढ़ रहा था। ऊबड़ खाबड़ रस्ते की वजह से और कुछ इस दुर्निवार दुख से माँ बार बार रोती हुई पिताजी के कंधे पर बिछल आती थी। और मैं सही सही बताऊँ तो उस वक्त यही चाहता था।

और अस्पताल क्या था? दो चार स्टूल और तीन चार इंजेक्शन, कुछ दवाई और एक नीला पर्दा लगाकर उसने अस्पताल का एक आभासी संसार कायम कर लिया था। रिक्शे वाले ने बार बार आवाज देकर डाक्टर को बुलाया। वह बहुत पतला सा जीव था। और उबासियाँ लेता हुआ नीद की भँवर से आया था। उसने मुझे एक चौड़े से स्टूल पर लिटाया। और लगातार मेरे सर पर गीली पट्टी करने लगा था।

यह रात के डेढ़ेक बजे का समय रहा होगा। माँ पिताजी जी एक स्टूल पर बैठे मुझे एकटक निहारे जा रहे थे। बहुत दूर से किसी घर के छत वाली खिड़की से रेडियो की आवाज चलकर मेरे कानों तक पहुँच रही थी। कोई चलाकर सो गया होगा। या फिर उस वक्त ऐसे दीवाने भी थे जो इतनी रात गए भी रेडियो सुनते थे। मैं ठीक ठीक नहीं बता सकता था। मेरी आँख खुल रही थी। माँ ने इसे देख लिया था। उसने पिताजी को इशारा किया। और बस समझते हुए देर नहीं लगी उन्हें।

अब पिताजी शहर की गलियों में एक रेडियो खरीदने के लिए भाग रहे थे। वे उस वक्त खुली पनेड़ियों की दुकान से रेडियो की दुकान का पता पूछ रहे थे। और फिर तत्काल रिक्शे वाले से कहते कि जल्दी चलो। उस रेडियोसाज की दुकान का पता जब मिला तो रात के तीन बजने को आए थे। उसके पास सैकड़ों रेडियो बिगड़े हुए पड़े थे। और वह सभी को बहुत जल्दी जल्दी निपटा रहा था। उसकी आँखें नींद से चिपकी जा रही थीं। लेकिन जैसा कि होता है कि एक जूनून में वह खुली थीं। रेडियोसाज ने जैसे ही पिताजी को देखा वह तत्क्षण खड़ा हो गया। पिताजी, जो कि बदहवास थे, ने एक सुर में मेरे बीमार होने की बात की। और एक रेडियो दिखाने की बात की थी।

अब पिताजी और रिक्शा उस टुटपुँजिए-से अस्पताल की ओर भाग रहे थे। लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि वह रेडियोसाज भी अपनी सायकिल से उनके पीछे भागा हुआ आ रहा है। यह एक बहुत अच्छा संयोग था कि रेडियोसाज जो मेरी माँ को जानता था, और पिताजी को भी। मुझे भी। और सच कहें तो जिसकी वजह से बहुत कुछ उलटा-सा था जीवन में। उसे मेरे पिताजी नहीं जानते थे। लेकिन उन्हें आभास था। और शायद यही आभास दरार की एक वजह बनता था। जिसे मैं अपने तई उसे भरने की कोशिश कर रहा था। उस रात की बीमारी तो इस कहानी को सुखांत तक लाने का बस एक बहाना भर साबित होने जा रही थी।

पिताजी, जिसने रेडियो से और गानों से कभी मुहब्बत नहीं की, वे मेरे लिए अब एंटीना निकालकर गली में किसी गीत को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। और यह उनसे संभव नहीं था। सो माँ सामने आईं और जिस गाने को वे शॉर्ट वेव पर पकड़ाने पर कामयाब हो गई थीं। वह खय्याम का संगीत था। धीरे धीरे उन्होंने रेडियो को मेरे सिरहाने रख दिया। उस वक्त बहुत साफ साफ आवाज आ रही थी। लहराती हुई नहीं। शायद रात की वजह से। और मैं यह बात बताना नहीं भूलूँगा कि डॉक्टर इस सब नाटकों से हैरान था। पर यह सब नाटक नहीं था। सच में हुआ था।

रेडियोसाज देर तक मुझे देखता रहा। माँ जो देर तक खड़ी खड़ी थीं वे आकर पिताजी के पास बैठ गई थीं। मैं उन दो घंटों में काफी सुधर चुका था। और अब आज की रात मेरे जीवन और माँ पिताजी के संबंधों को लेकर निर्णायक सिद्ध होने वाली थी। रेडियोसाज देर तक वहीं बैठा रहा। एक सघन अबोला बीच में पसरा रहा। बीच-बीच में मेरे हिचकने से वहाँ की चुप्पी में छेद हो रहा था। यह बिलकुल भोर का समय था जब रेडियोसाज उठा। वह मेरे सिरहाने आया था। उसने रेडियो के खरीदे में लिए गए पैसे को जेब से निकाला और मेरे सिरहाने रखा। और आहिस्ते-आहिस्ते भारी कदमों से बाहर चला गया। यह कुछ ऐसी आवाज थी जो फिर लौटकर हमारे पास आने वाली नहीं थी। उसके सायकिल के खटखटाने की आवाज देर तक आती रही। जब वह आवाज आनी बंद हो गई तो पिताजी ने माँ से कहा था कि रवि था न? माँ ने न तो हाँ कहा और न ही ना कहा था। वे थोड़ा सा और झुक आई थीं। यह बिलकुल अलबेली सुबह थी।

उस सुबह आने के बाद माँ ने पहला काम किया था कि अपनी डायरी के वे सारे पन्ने फाड़ के जला दिए थे। जिसकी वजह से जो भी कुछ तीता सा था। वह घर से निकल गया था। उस घटना के बाद बहुत बड़ा जो परिवर्तन आया आप मानें या न मानें। वह था कि पिता जी को अब गाने के बोल और गीतकार और संगीतकार याद होने लगे थे। वे उछलते कूदते घर आने लगे थे। आते ही माँ को बाँहों में भरने लगे थे। वे मेरा जरा सा भी रत्ती भर ख्याल नहीं करते थे। मैं ही मुँह फेर लेता था। कि जब एक दुधमुँहे बच्चे की स्मृति में उसके सामने की बातें लोड हो रही हैं तो चलने वाले बच्चे की स्मृति कितनी तेज हो सकती है। मैं अब चलने लगा था।

वह रात के अधियाने का समय था। रेडियो चालू था। मैं कुछ भी बोल पाने में अक्षम था। सो प्यारे रेडियो का सहारा लिया था। पप्पा लाइट ऑफ कर लो। यह रेडियो की आवाज थी। वे चौंके कि अचानक यह आवाज कहाँ से आई। मैंने फिर कहा कि पप्पा प्लीज लाइट आफ कर लो। यह मेरी आवाज थी। लेकिन उन्हें लगा कि रेडियो की आवाज है। वे विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि मैं इतने स्पष्ट स्वर में बोल सकता हूँ...। वे उठे और रेडियो और लाइट एक साथ आफ कर दिए। यह उस वक्त का समय था जब उद्घोषक यह कहकर स्टेशन बंद कर लेते हैं कि बारह बजाकर पाँच मिनट हो रहे हैं और अब ये तीसरी सभा यही संपन्न होती है।

उपसंहार उर्फ किस्से समाप्त नहीं होते हैं, या अंत नहीं होता कोई उर्फ कुछ और असमाप्त वाक्य होते हैं, कुछ चीजें इतनी तीव्रता से घटती हैं कि विश्वास करना मुश्किल सा हो जाता है। अब बस कुछ ही दिनों में मेरा दूसरा भाई आने वाला था। सब कुछ ठीक है। माँ शहर अकेले और पिताजी के साथ कई बार गईं। लेकिन उस रेडियोसाज से नहीं मिलीं। वहाँ वे फिल्म देखते और घूमते। रात में जब माँ बर्तन धो रही होती तो वे सिंक में मँजे बर्तन धो डालते। मैं थोड़ा बहुत बोलने लगा था। और बहुत स्पष्ट स्वरों में और ठहराव के साथ बोलता था। रेडियो मेरे इतने पास था कि जब अपने कुछ बन जाने का स्वप्न देखा तो वह उद्घोषक बन जाने का स्वप्न था।

एक और कहानी जिसे न भी पढ़ा जाए या अलग से भी पढ़ा जाए तो कोई हर्ज नहीं है !!

दृश्य 1

रजनी के कमरे तक रेडियो की आवाज आ रही है। यह आवाज तलत महमूद की है। एक शक्कर में पगे हुए शब्दों और आवाज में मन में उतर रही है। रवि का घर रेलवे की उस कालोनी में चार घर के बाद पड़ता है। कुछ ऐसे कि रजनी को उसके घर से होकर ही अपने घर जाना पड़ता है। रवि के घर में दिन रात रेडियो बजता रहता है। यह रजनी को अच्छा लगता है। रजनी के घर में रेडियो नहीं है। रजनी अच्छा गाती है और ग्यारहवीं की छात्रा है। वह रवि की नई नई पड़ोसन है।

दृश्य 2

यह सर्दियों की शाम का वक्त है जब रजनी स्कूल से लौट रही है। बगल से होकर रवि सब्जियाँ लिए हुए लौट रहा है। और अचानक उसकी सायकिल की चैन उतर गई है। वह सड़क के के किनारे सायकिल खडा कर चैन ठीक कर रहा है। या फिर दूसरे शब्दों मे कहा जाए तो वह रजनी के अपने बगल से गुजर जाने का इंतजार कर रहा है। रजनी गुजरती है। यह गुजरने का कम, साथ रहने का ज्यादा आभास कराता है। फिर आगे जाकर सायकिल का चैन उतर जाती है। रजनी फिर से गुजरती है। यह गुजरना शायद रवि के दिल से होकर गुजरना है। आओ सायकिल पर बैठ जाओ! रवि रजनी से कहता है। रजनी हँसती है। रवि उस हँसी में डूबने लगता है। रजनी फिर गुजर जाती है। उसके साडी का पल्लू पहले रवि के सामने से लहरता हुआ जाता है। फिर उसके अस्तित्व में लहराने लगता है। सामने पश्चिम में जाने कब का सूरज डूब चुका है।

दृश्य 3

यह के.एल. सहगल की आवाज है। टी.एन. मधुप के बोल हैं। और खुर्शीद अनवर का संगीत है। यह एक जलता हुआ गीत है। रवि ने खिड़की के दोनों पाटों को खोल दिया है। रात के दस बजे का वक्त है। छाया गीत का कार्यक्रम। बहुत ठंडी हवा कमरे में भर रही है। रजनी जो इस वक्त शायद जग रही होगी। और खाट पर करवट बदल रही होगी। उस वक्त यह गीत अँधेरे में छलाँग लगाता हुआ उसके बगल तक जा रहा है। बैजंती माला की ही तरह सुंदर उसके मन में एक नृत्य चल रहा होगा। रजनी अभी नहीं सोएगी। वह विविध भारती की अंतिम सभा खत्म हो जाने पर सोएगी। समाचार आने के बाद। लेकिन रवि समाचार के पहले ही रेडियो बंद कर देता है। एक करवट लेकर रजनी सोना चाहती है। लेकिन देर तक जगी रहती है।

दृश्य 4

'क्यूँ तुम्हें दिल दिया। ...पत्थर से दिल को टकरा दिया' में किसकी आवाज है? रजनी रवि से पूछती है। रवि को सारे गीत और उसके लिखे बोल याद है। रवि अपनी चैन ठीक कर रहा है। और यह सवाल रवि के बैठने के लिए कहने पर रजनी ने किया है। नसीम बानो और सुरेंद्र की आवाज है। रजनी बैठती नहीं हँसती हुई चली जाती है। रवि देर तक किनारे बैठा रहता है। बहुत दूर जाकर जहाँ से उसके घर जाने का मोड़ है। वहाँ रुककर रजनी उसे देखती है। फिर चली जाती है। रवि पैडल मार रहा है। पर वह कहीं खो गया है। उसे पता नहीं लग रहा है कि वह पैडल मार रहा है। वह सड़क छोड़कर आसमान में चला गया है।

दृश्य 5

'ठुकरा रही है दुनिया ...हम हैं कि सो रहे हैं। ...बर्बाद हो रहे थे ...बर्बाद हो चुके है। गैरों से न शिकायत गैरों से न गिला' के.एल. सहगल की आवाज है। एक दुख में लिपटी हुई। खिड़की खुली हुई है। आवाज रजनी तक पहुँच रही है। रजनी बार बार उठ कर बैठ रही है। वह आँगन में जाकर टहल आती है। रवि देर तक खिड़की के पास खडा टकटकी लगाए हुए अँधेरे में घूरे जा रहा है। उसे लगता है कि रजनी खिड़की से कूद कर आ रही है। लेकिन बस यह एक भ्रम है। फिर उसे लगता है कि गाने के यह बोल रजनी की खिड़की से आ रही है। लेकिन यह भी एक झूठ है। और अंत में रजनी इस बोल को देर तक गुनगुनाते हुए कब सो जाती है, नहीं पता चलता। रवि देर तक जागता है। रेडियो बंद नहीं करता या बंद करना भूल जाता है। उसे बहुत देर से नींद आती है। और नींद में रजनी आती है।

दृश्य 6

महीनों हो चुके हैं रजनी को आए हुए। मतलब सड़क के किनारे चैन को ठीक करते करते रवि को भी महीनों हुए आए हैं। रोज रात को वह गाने सुनता है। और एक आग में जलता है। यह आग में जलना कुछ ज्यादा ही हो गया है। सो उसे तेज बुखार है इन दिनों। अब वह घर में पड़ा हुआ है। रजनी जिसे आदत हो गई है उस सड़क के किनारे की जहाँ बैठकर वह सायकिल के चैन ठीक करता है। उसे आते हुए अच्छा नहीं लगता। वह एक कल्पना करती है। एक झूठमूठ के रवि की। वह एक झूठमूठ की एक सायकिल की चैन ठीक कर रहा है। वह उसके पास जाती है। ध्यान से देखिए तो बस वहाँ हवा है। वह हवा को चूमती है। जैसे रवि को चूमती है। उसकी आँखें देह की अंतिम तली तक बंद होने को आती है और उसकी आत्मा एक गश में हो जाती है। वह बहुत धीमे से कहती है 'मैं तुमसे प्रेम करती हूँ रवि' सब कुछ झूठ झूठ रचा जाता है। पर यह कथन सच में उचारा गया होता है। और हवा में कुछ ऐसे घुल जाता है कि उस कथन की सुगंध देर तक उठती रहती है। वह एक झूठमूठ की एक सायकिल पर बैठकर घर आती है। घर से गुजरते हुए वह रवि के घर को ध्यान से देखती है। वहाँ कोई आहट नहीं। वह उस झूठमूठ के सायकिल से उतर जाती है। बरामदे में झूठमूठ का रवि झूठमूठ का सायकिल ले कर जाता है। सायकिल के झूठमूठ के खड़खड़ाने की आवाज रजनी तक आती है। रवि घर में जाने से पहले झूठमूठ का बाय-बाय करता है। लेकिन रजनी सच का बाय बाय करती है। घर आकर रजनी अपनी वह डायरी निकालती है जिसमे रेसिपी और गीत लिखती है। एक कोरे पन्ने को ध्यान से देखती है और अनजाने में वह कब 'मेरे प्यारे प्राण नाथ रवि' लिख जाती है पता ही नहीं चलता।

दृश्य 7

रवि जो बुखार में खूब झुलस चुका है। और रेडियो की आवाज उसके सिरदर्द में एक ठोकर की तरह लग रही है। एक रात वह रजनी की खिड़की से गानों को आते हुए सुनता है। वह धीरे धीरे खिड़की के पास आता है। और देर तक वह खड़ा रहता है... और यह कहने वाली बात नहीं है। आप समझ चुके होगें कि रजनी भी वहाँ खड़ी मिलती है। वे रात भर ऐसे ही खड़े रहते हैं। और इस कहानी में होता यह है कि अगली सुबह तक रवि बिना दवाई और दारू के ठीक हो जाता है। और पहले अपेक्षा ज्यादा उर्जस्वित महसूस करने लगता है।

दृश्य 8

शहर से दूर एक पहाड़ी का उपरी हिस्सा है। वहाँ रजनी के गोद में रवि लेटा है। बगल में रेडियो के गाने है। रवि कहता है कि वह उद्घोषक बनना चाहता है। रजनी कहती है कि मैं गायिका बनना चाहती हूँ। वे आसमान के नीलेपन को देर तक देखते हैं। उनकी नजरें एक साथ एक में लिपटी हुई एक बादल तक जाती है। और फिर लौटकर दूर एक पेड़ को छूकर आ जाती है। उन्हें कोई देखता तो नहीं देख पाता... रजनी और रवि एक ओट में छिपे हुए हैं। उन्हें एक साथ कोई देखता तो बदनामी होती। रवि उठता है और रेडियो बंद कर देता है। और अपनी बहुत प्यारी और मीठी आवाज में कहता है कि सुनिए ...एक प्यारी आवाज में एक गीत। बोल तितलियों के हैं। संगीत हवा ने दिया है। आवाज है रजनी की। रजनी बहुत धीमे धीमे स्वरों में एक प्यारा गीत गाती है। दूर से सुनने पर लगता है कि रेडियो की ही आवाज है। सूरज धीरे धीरे डूब रहा होता है।

रजनी और रवि दो दिशाओं में लौट जाते हैं। रजनी के साडी का पल्लू पहाड़ से उतारते हुए देर तक लहराता है। तो उसके उड़ने का भ्रम लगता है। रवि रेडियो के फंदे को कंधे में लटकाए सायकिल से तेजी से पहाड़ से सरकता जा रहा है।

दृश्य 9

रजनी की बुआ आई हुई है। इसीलिए कुछ दिनों के लिए रजनी को अपने फुफेरे भाई का लाया गया रेडियो सुनने को मिल जाता है। वह रेडियो अब एक दिन अंतराल देकर सुनते सुनाते रहते हैं। जैसे आज अगर मंगलवार है और बारी रजनी की है। तो कल यानी बुद्धवार को रवि, रात में खिड़की के पास रेडियो सुनाएगा। आज की बारी रजनी की है। रजनी ने अपनी खाट खिड़की के पास खींच ली है। रवि को खड़े रहने की देर तक आदत है। 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ रजनी' यह रेडियो की आवाज है। यह आवाज देर तक वातावरण में गूँजती रहती है। रवि भी इसे सुनता है। रवि इस आवाज की बार बार नकल करता है। बिलकुल उद्घोषक की तरह। या यूँ कहें कि खुद उद्घोषक ही रवि की नकल करता है। अगर कोई रात में जगा होगा सुन लेगा तो क्या कहेगा। आवाज बाहर देर तक दौड़ती रहती है। रजनी बहुत धीमे धीमे मुस्कराती है। और सो जाती है। वही आवाज अब उसके सपनों में दौड़ी आ रही है।

दृश्य 10

बुआ के दूर के पहचान में एक लड़का है। क्लर्क है। कस्बे में रहता है। इतना कमा लेता है कि रजनी खुश रहेगी। रजनी की माँ से बुआ उसके बारे में कहती है। उसके हाथ पीले करने के बारे में। रजनी की माँ कहती है कि रजनी को वे और पढ़ाएँगे। रजनी अच्छे नंबरों से पास होती है। चलते हुए इन दिनों उसकी साड़ी खूब लहराती है। रजनी माँ के फैसलों से बहुत खुश होती है। रात में वह रेडियो की आवाज को थोड़ा और बढ़ा देती है। रवि उसके उमंग को पहचान लेता है। वह देर तक मुस्कुराता है। रात में जब समाचार खत्म हो जाते हैं तो 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ रजनी' की आवाज दूर दूर तक फैल जाती है। बदले में एक जवाब रजनी फुसफुसाती है। लेकिन तभी रेडियो पर स्टेशन बंद होने की एक खरखराहट आने लगती है।

दृश्य 11

शहर से थोड़ी दूर पहाड़ी का एक दृश्य है। रजनी रवि की बाँहों में सिमटी हुई है। बगल में रेडियो पड़ा हुआ है। रेडियो बंद पड़ा हुआ है। रजनी के रहते रवि को किसी गीत संगीत की जरूरत नहीं पड़ती है। वे बस साथ हैं। बिना किसी कारण कार्य के साथ है। वे एक दूजे के बिना अधूरे हैं। तो वे अब पूरे हैं। अब कोई अतिरिक्त चीज जैसे हवा, बादल, पानी की जरूरत नहीं रह गई है। रेडियो तक की भी नहीं। यहाँ तक कि उन्हें देखने की भी जरूरत नहीं है। वे बिना दृश्य के भी सब कुछ देख ले रहे हैं। एक चिड़िया गई है। वे आँखें मूँदे मूँदे हैं। उसके पंखों की आहट दोनों के पलकों से होकर गुजर गई है। उनके कानों से होकर लता जी की आवाज जा रही है। यह किसी चैनल पर प्रसारित होगी। एक बादल है जो उनके ख्वाबों में आकर बरस-बरस जा रहा है। एक ताप रजनी के होठों के इर्द गिर्द चढ़ता जा रहा है। रवि के आँख और शब्द जो लगातार बर्फ की तरह ठंडे होते जा रहे हैं। उस पर एक रंग चढ़ता जा रहा है। बहुत दूर आसमान में ठहरे ठंडे बादल में सूरज छिपता जा रहा है।

दृश्य 12

रवि की सायकिल बार बार लड़खड़ा रही है। रजनी चुपचाप करियर पर बैठी हुई है। वह हिचकोले खा रही है। वह होकर भी वहाँ नहीं है। बहुत दूर कहीं अटकी हुई है। सामने मैदान में कुछ लड़के पतंग उड़ा रहे हैं। हवा का रुख पहले की तरह नहीं है। हवा दृश्य से गायब हो रही है। पतंग जो उसके हाथ थाम कर उड़ रही है। वह धीरे धीरे नीचे आ रही है। लड़का जो छोटा सा बच्चा है वह बहुत तेजी से परेता लपेट रहा है। पतंग जो अपनी अंतिम साँस के आस पास है। वह लडखडा कर धरती पर आ रही है। और एक पेड़ में फँस गई है। लड़का उसे निकलने की कोशिश कर रहा है। वह अब फटने को है। यह दृश्य रजनी देख रही है। रजनी के सीने में एक बगुला उठता है। रवि बहुत तेजी से पैदल मार रहा है और वह एक पेड़ से टकराने से बचता है। शाम अपने साथ उदासी का पीलापन लिए हुए झर रही पत्तियों पर टपक रही है। बहुत दूर कहीं पिटारे के समाप्त होने की एक धुन उड़ती हुई आ रही है।

दृश्य 13

रात का समय है। ग्यारह बजे का आस पास। रजनी काम धाम निपटा कर खिड़की के पास किताब लिए पढ़ने के अदा में बैठी है। रवि के घर की खिड़की से कोई गीत चलकर रजनी के पन्नों पर गिरता है। शब्द एक स्वप्न में बदल जाते है। फिर रजनी की आँखों में चढ़ जाते हैं। फिर होठों पर। तभी पहले अम्मा आती हैं और फिर बुआ। अब सब कुछ लुटने वाला है। अम्मा किताब को रजनी के गोद से उठाकर किवाड़ पर दे मारती है। पिताजी दीवार के पास खड़े हैं। उनके कदमों में शब्द पहले बिखरते हैं। फिर स्वप्न बिखर जाते हैं। फिर गीत का वह हिस्सा जो रजनी के होठों पर चढ़ा हुआ है। वे अपने कदमों से उस गीत को बुरी तरह कुचल रहे हैं। वह गीत पहले एक बगूला बनता है फिर एक रुलाई बन जाता है। वह रुलाई निकलकर रवि के खिड़की से होकर उसके पास तक जाती है। रवि रेडियो बंद कर देता है। रजनी रात भर रोती रहती है। दरवाजे पर पड़ी किताब रात भर ओस में भीगती रहती है।

दृश्य 14

रजनी अब घर में कैद है। उसकी खिड़की बंद है। रेडियो की आवाज लगातार उसके खिड़की के पल्लों तक आती है और उसे न पाकर वहीं लौट जा रही है। रजनी का कमरा अलग कर दिया गया है। जहाँ खिड़की नहीं है। साँस आने जाने के लिए एक छोटा सा रोशनदान है। वह कुछ देर तक के लिए अपने बरामदे में निकलती है। फिर बुआ की आवाज सुनकर घर में चली जाती है। बुआ ने रजनी से वह रेडियो ले लिया है। नहीं तो आज की बारी उसी की होती। रवि देर तक रेडियो बजाता रहता है। कि कभी भी किसी तरह कोई गीत वह सुन सके। रेडियो एक तरह से रजनी के जीवन से गायब हो चुका है। इस तरह से एक स्वपन भी भहरा गया है। एक आधार अनंत में कहीं गुम हो चुका है। रजनी की रातें रेत की तरह हैं। जिसमे लगतार अंधड़ चलते हैं। और रजनी उस गिरती पड़ती जलते हुए अंगारों पर चल रही है।

दृश्य 15

रो रो कर रजनी की सुबह से आँखें लाल है। लड़के वाले देखने आ रहे हैं। लड़का बुआ का सुझाया हुआ है। उसका कहना है कि कुछ भी हो लड़की हाथ से निकल न जाए इससे पहले कोई कदम उठा लेना है। लड़का भी आया हुआ है। लड़का लंबा छरहरा और अच्छा है। रजनी की माँ को खूब पसंद है। पिताजी के साथ बैठके में बैठा हुआ है। और अब बारी है रजनी के दिखाने की। बुआ के साथ चल कर वह आती है। जबरदस्ती उसका श्रृंगार किया गया है। काजल की कोर जोर से झटक देने से कुछ ज्यादा तिरछी और असंतुलित हो गई है। जो पहचान में आ रही है। रजनी की नजर जमीं पर है। वह एक निर्वात में हो जैसे रजनी न हो। जैसे उसकी डमी हो। वह लड़के को क्या किसी को नहीं देखती है। उसकी नजर खिड़की के पार जाती है और एक ठूँठ हो चुके पेड़ से टकरा के लौट आती है। उस ठूँठ पर एक कठफोड़वा बैठता है और बचे हुए ठूँठ को ठोकने लगता है। रजनी के बहुत भीतर कहीं एक बड़ा सा छेद होता महसूस होता है। उसके अंदर एक हूक सी उठती है। वह उसे दबाती है। वह हूक फिर आती है। इस बार वह उसे छोड़ देती है। और जाते हुए वह जोर से रोने लगती है। लड़के को बड़ा अजीब सा लगता है। बीच में बुआ आ जाती है और बात सँभाल लेती है। कहती है कि लड़की को बड़े जतन से पाला है बेटा! घर छोड़ने का दरद तो एक लड़की ही जानती है न!! और बबुआ लड़की का गला बड़ा सुरीला है। जितना अच्छा रो लेती है उतना अच्छा गा भी लेती है। उसे रेडियो खूब पसंद है। एक हँसी गूँजती है। जिसमे लड़के की बस मुस्कुराहट शामिल होती है।

दृश्य 16

रवि की सायकिल बेवजह शहर भर में चक्कर लगा रही है। कहीं से कुछ भी सुराग तो मिले। वह बार बार रजनी के घर से होते हुए गुजरता है। रजनी का कहीं अता पता नहीं है। एक शाम वह बरामदे में भीड़ देखता है। और एक बिजली की झलक की तरह सजी धजी रजनी की आकृति। इस उत्सवधर्मी माहौल को बूझते हुए रवि को एक पल भी नहीं लगता है। उसके अंदर कुछ टूटता है। वह सायकिल मैदान की ओर भगाता है। और गई रात तक एक चक्र में वह कई किलोमीटर तक सायकिल चला चुका होता है। वह लड़खड़ाते हुए लौटता है तो बहुत देर तक रजनी के घर के सामने वह अँधेरे में खडा रहता है। दरवाजे के सामने वह रजनी की कई आकृति बनाता है। फिर उसे पुकारता है। रजनी नहीं आती है। बार बार उस अँधेरे से बनाई गई रजनी फिर अँधेरे में घुल जाती है... उसकी आवाज अँधेरे में टकराकर फिर लौट आती है। कोई एक आदमी गुजरता है। तो रवि चैन चढ़ाने लगता है। वह झूठमूठ का उतरा हुआ चैन चढ़ा रहा है। फिर एक झूठमूठ की रजनी बनाता है। और उससे कैरियर पर बैठने के लिए कहता है। झूठमूठ की रजनी नहीं बैठती है और वह उस अँधेरे वाले दरवाजे की ओर भाग कर गुम हो जाती है। सच की रजनी रहती तो जरूर बैठ जाती। रवि पैदल ही घर की और चल पड़ता है। और रेडियो शांत पड़ा हुआ है। वह चुप रहता है। रात भर!

दृश्य 17

एक दिन बहुत सुबह सुबह, जब हवाएँ बहुत नम होती है, तब रवि समाचार के लिए रेडियो खोलता है। और एक सूचना पाता है कि रजनी की शादी तय हो चुकी है। अगले महीने की किसी तारीख को। रेडियो का उद्घोषक दिखता नहीं है। नहीं तो वह तफसील से पूछता। रेडियो बंदकर वह रजनी के घर की ओर भागता है वहाँ बरामदे में एक सन्नाटा पसरा हुआ है। घर में सबके होने की आहट तो समझ में आ रही है, सिवाय रजनी के। तो रजनी कहाँ गई? वह फिर लौट आता है। वह दोपहर के समाचार में फिर से सूचना पाता है कि रजनी की शादी मुकर्रर है। और वह होकर रहेगी। इससे पहले कि वह कुछ और सुने, ठीक उसी शाम वह सायकिल उठाता है और कंधे में रेडियो टाँगता है और रजनी के घर वाले रास्ते से होकर गुजरता है। वह चाहता है कि उसकी सायकिल की चैन वहाँ उतर जाए। लेकिन बरामदे में कई नजरें उस पर टँगी हुई हैं। और चैन को वह उतरने नहीं दे रही हैं। वह आहिस्ते आहिस्ते गुजरता है जैसे कि हवा गुजरती है। फिर वह एक बेचैनी और गुस्से में सायकिल के पैडल पर अपना गुस्सा उतारने लगता है। एक गति में भरकर वह कहीं गुम हो जाना चाहता है। जैसे कि लोक कथाओं में पात्र चलते चलते कहीं खो जाते हैं। वह कुहरे में खुद को खत्म कर देना चाहता है। वह धूप, हवा, समय से आगे निकल जाना चाहता है। लेकिन वे पात्र जो लोक कथाओं में गायब-से मिलते हैं, वास्तव में वे कहीं जाते नहीं। वे वजूद में वहीं आसपास रहने लगते हैं। सबकी विज्ञता के बावजूद। और लोग उस पात्र को खोजने लगते हैं। वह पात्र जो सामने से ही गुजरता है। लोग उसे नहीं पहचान पाते हैं। और उसके गायब हो जाने की अफवाह फैला देते हैं।

शायद वही हाल तो रजनी का नहीं है! रजनी घर में होकर भी नहीं है। वह अपनी पहचान खो रही है। उसके त्वचा की परत कहीं बहुत अंदर से दरार छोड़ रही है। इस वक्त उसके आँखों से वाष्प में डूबी एक धुंध-सी रोशनी निकल रही है। वह उस कमरे में नहीं है। वह लगभग कैद है। उस रोज जब रवि उसे बरामदे में ताक रहा होता है। तब उसकी गायब हो चुकी त्वचा और देह के कारण उसे नहीं देख पाता है। रजनी जीती जागती लोक कथाओं की पात्र बन चुकी है। उसके देह से होकर हवा गुजर रही है। समय उसके लिए मुर्दा हो चुका है। और धूप जिसके ताप पर विश्वास हरेक प्रेमी का होता है उसकी किसी किस्म की परछाई बना पाने में नाकामयाब है। वह रवि को देख कर जोर से चिल्लाती है। आवाज निकलती तो है पर हवा उसे ढोने से साफ मुकर जाती है। जब हम प्रेम में नाकाम होते हैं तो सबसे पहली हमारी साँस साथ छोड़ जाती है। रवि को जोर से पुकारने में रजनी के गले की नसें तन जाती है। आँख जैसे उबाल में आ जाती है। रवि उसे नहीं सुन पाता है। बुआ सुन लेती है। वह हवा जिसे चाहिए था कि उस आवाज को रवि तक ले जाए। वह बुआ तक ले जाती है। रवि सायकिल से आगे बढ़ जाता है। उसके कंधे पर लटका रेडियो झूलता रहता है।

दृश्य 18

वह पहाड़ के उसी छोर पर अपनी सायकिल रोकता है। फिर आसमान की ओर देखता है। आसमान बहुत धुँधला है। वह एक परिंदे की उड़ान को देखता है। आसमान में वह गोते लगाकर फिर अपनी परवाज साध ले रहा है। वह बगल में उड़ते हुए पतंगों को भी देखता है। आसमान में चमकती हुई कई सारी रंगीन पतंगें हैं। वे परिंदे की उड़ान को चकमा दे रहीं है। परिंदा बार बार गोता खा रहा है। उनसे बच रहा है। परिंदा शायद सोच रहा है कि अचानक इस मौसम में ऐसा क्या हो जाता है जो उसकी दुनिया को उजाड़ कर रख देता है। उसका पंख अब एक पतंग के तीखे धागे की चपेट में आ गया है। परिंदा लगातार नीचे आ रहा है। लेकिन वह अब भी पंख फड़पड़ा रहा है। लेकिन और अब फिर वह ऊपर जा रहा है। और ऊपर। और ऊपर। ...उसके एक-एक पंख उस बेचैन और अंत में नाकाम हो जाने वाली उड़ान में टूट कर नीचे आ रहे हैं। और एक विशेष सीमा के बाद वह सीधे फिर नीचे आ रहा है। शायद वह फिर कभी उड़ ही नहीं पाए। इस दृश्य से रवि आँखें हटा लेता है।

रवि रेडियो चालू करता है। रेडियो की खरखराहट बहुत ज्यादा है। वह कोई गीत ठीक से प्रसारित नहीं कर पा रहा है। रेडियो के फ्रीक्वेंसी की परवाज भी परिंदे की ही तरह है। लगातार डूब रही है। और फिर अचानक साँय साँय की आवाज। तभी समाचार का वक्त होता है। और रवि फिर सुनता है कि रजनी की शादी तय है। रवि झटके में उठता है और रेडियो को उठाकर वह पहाड़ी से बहुत दूर एक खाई में फेंक देता है। रेडियो पहले हवा में कई कलाबाजियाँ खाता है फिर वह एक चट्टान से टकराता है और फिर वह एक जगह फँस कर रुक जाता है। पहले रेडियो से सेल निकलकर गिरते हैं। फिर वह सूचना शब्द बनकर चट्टान पर पसर आते हैं। फिर बोल रहे उस उद्घोषक की आवाज में चट्टान की गहरी खामोशी घर करने लगती है। रवि जो कहीं बहुत ऊपर खडा है, वह जोर से रजनी का नाम लेकर चिल्लाता है। आवाज चट्टानों से लड़ती है और वापस चली आती है। और वह गले में घर कर जाती है। वही वह अपने गले से उस आवाज को खो भी देता है जो उसकी पहचान बनती या थी। वह इस प्रयास में फिर बोलता है और पाता है कि उसके गले से उसकी मीठी और गंभीर आवाज गायब हो चुकी है। जिसके अंतराल में उद्घोषक बन जाने का स्वपन बसता है।

सपने बेआवाज टूटते हैं। और समय की हवा में गुम हो जाते हैं। बस जमीं पर बिखरी हुई उसकी किरचें जीवन में चलते हुए बहुत गहरे धसती रहती है। और जो बदले में एक रोना बहुत अंदर तक गूँजता रहता है। हम उम्र के एक पड़ाव पर उसे भले भूल जाएँ पर उसकी प्रतिध्वनि पहाड़ से टकराए हुए उस रजनी की नाम की तरह लौटती रहती है। जो अभी रवि के अंदर लौट रही है।

दृश्य 19

रवि की आवाज का गुम हो जाना रजनी को साल जाता है। वह बंद कमरे से एक आवाज लगाती है जो उसके होठों के कोरों तक आते ही बिला जाती है। एक हूक आती है और आँखों तक आते आते पिघल जाती है। आज मेहँदी धराई की रात है। और रजनी हाथ बार बार खींच ले रही है। इस बलखम में उसके हाथ से मेहँदी की अँगड़ाई टूट कर फैल फैल जा रही है। एक चीख पुकार और गर्म साँस के ताप में मेहँदी की गंध जलकर धुआँसी हो जाती है।

सोई हुई रात के बीच का कोई निढाल पहर है। रवि की नीद किसी आहट पर टूटती है। अँधेरे में देखता है। कोने में जहाँ वह रेडियो रखकर सुनता है, वहाँ रजनी खड़ी है। या क्या पता कि रजनी की आकृति की कोई प्रतिछाया ही हो। वह उठता है... अरे! यह तो सचमुच ही रजनी ही है। वह सपना तो नहीं देख रहा है! वह उसका हाथ पकड़ता है। हाथ की गर्मी भी वैसे ही है। देह की गंध भी वैसे ही है। वह बहुत धीमे से कहता है रजनी!! एक भारी खरखराहट वाली आवाज उस अँधेरे में उभरती है और फिर अँधेरे में गुम हो जाती है। बहुत देर तक वह अँधेरे वाली आकृति रवि के साथ रहती है। एक गर्म साँस की आवाजाही वह अपनी गर्दन के आस पास महसूस करता है। वह जैसे बहुत नर्म और फाहे से उसके गले की आत्मा में उतर रही हो। फिर वह आकृति जैसे आई होती है वैसे ही चली जाती है। उसी आकृति के बराबर घनत्व और अस्तित्व में वह अपने अंदर एक खालीपन महसूस करता है। क्या पता वह सचमुच की रजनी नहीं रही हो। बस वह उसके अंदर से चल कर ही आई हो और खिड़की के रास्ते बाहर निकल गई हो... या फिर क्या पता रही हो! और रवि की आवाज उस सुबह से सुधरती जा रही है

उपसंहार का दृश्य उर्फ किस्सा असमाप्त-सा

और दो चार दिन बाद ही रजनी चली गई थी। रवि शहर में बेतरह सायकिल दौड़ाता था। वह वहाँ-वहाँ जाता था जहाँ-जहाँ रजनी दिनों में वक्त गुजारा था। कई दिनों तक वह उदास कमरे में पड़ा रहा। उबता रहा था। एक दिन जब वह कमरे में बैठा किसी किताब से मन बहलाने की कोशिश कर रहा था। कि कहीं से रेडियो की आवाज सुनाई पड़ी। यह वही गीत था जिसे रजनी अक्सर गुनगुनाया करती थी। वह कमरे से चलकर बरामदे तक आया। दूर किसी पान वाले दुकान से वह आवाज आ रही थी। वह बढ़ता गया और जाकर वहाँ रुक गया। और सुनता रहा। पान वाले ने जब कहा कि क्या चाहिए भैया! कुछ लेंगे! तब उसकी नींद टूटी। और उसी दोपहर जब उसका मन लाख समझाइश के बाद भी नहीं लगा और मर जाने जैसा किया तो वह उस पहाड़ी पर गया जहाँ से उसने रेडियो को फेंका था। वह उसी चट्टान पर अटका हुआ था मानो किसी की बाट जोह रहा था। उसने रेडियो उठाया और कंधे में टाँगा और घर आकर बरामदे में उसे बनाने लगा था। एक हलके प्रयास के बाद वह बजना शुरू हो गया था। और इसके बाद रवि के जीवन में कुछ विशेष नहीं हुआ था। उसके स्वप्न पहले ही बिखर चुके थे। उसे समेटने में वक्त तो लगता पर जैसे उसका मन ही नहीं हुआ था। जीवन जिस गति से बिखरता है उसी त्वरा से वह खुद को समेटता भी है। उसने रेडियो मरम्मत की एक दुकान खोल ली। और थोड़े ही दिनों में वह शहर में ख्यातिलब्ध हो गया। बाद में उसने शादी भी की। और बच्चे भी हुए। वह उद्घोषक तो नहीं बन पाया था, लेकिन बहुत उम्दा रेडियोसाज जरूर बना था। और रजनी जिसके हाथों की मेहँदियाँ ही इतनी अनगढ़ और भद्दी थी कि देखने वाला एक नजर में बता सकता था वह बेमर्जी और एक कैद में आई है। उससे रवि की भविष्य में मुलाकात हुई हो या नहीं, कह नहीं सकता। लेकिन अगर हुई भी हो तो वे अब नए जीवन में इतने मुब्तिला हो चुके थे, इतनी किस्म के लगाव और मोह आ चुके थे कि क्या पता घटनाएँ क्या आकार ले लें, कुछ कहा नहीं जा सकता था। लेकिन एक तमन्ना, एक इंतजार जो अतीत को लेकर रहती है, वह अपना असर, अपना पक्ष तो रखती ही है। बिछड़ना तो इस जीवन की अंतिम सच्चाई है। इसे समझना और झेल ले जाना बस बहादुरी का काम है। जीवन तो वह भी दाद देने लायक होता है, जो अपने साथ एक नहीं कई जीवन को पालता और सँभालता है। तो साथियों! उनकी कहानी तो बहुत तरह से आकार ले सकती है...। और एक तरीका शायद ऊपर की तरह भी हो सकता है। आप क्या कहते हैं?? बताइएगा !!!