रेणु को जानने-समझने का आईना / भारत यायावर

Gadya Kosh से
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रेणु के देहावसान के बाद उनके साथ होने का अवसर मुझे मिला और धीरे-धीरे मैं इस तरह रेणु-मय होता चला गया कि बरसों मुझे यह होश नहीं रहा कि मैं रेणु से परे या अलग हूं. कोई ऐसा दिन नहीं, जब रेणु की चर्चा न करता. रेणु का प्रेत जो मुझ पर सवार हुआ, अब तक जमा है. उतरने का नाम ही नहीं लेता. मेरे मित्रों ने, शुभ-चिंतकों ने बार-बार समझाया- रेणु के भूत से पीछा छुड़ाओ और अपना कोई मौलिक रचनात्मक लेखन करो! रेणु के पीछे पागल मत बनो. मेरे निंदकों ने मुझ पर रेणु को लेकर तरह-तरह के इलज़ाम लगाये, परेशान किया. मैंने रेणु के प्रेत से बस इतना ही कहा, ज्यादा कहते नहीं बना- ‘तुम्हारे लिए, मैंने लाखों के बोल सहे’. यही बात रेणु ने अपने प्रथम कहानियों के संग्रह ‘ठुमरी’ के समर्पण में लिखी है, और यही बात मैंने रेणु के प्रेत से कही. वह ठठाकर हंसा और बोला- ‘जिससे प्रेम करोगे और प्रेम ऐसा जिसमें तन-मन-धन सब अर्पित, तो लाखों के बोल तो सुनने ही पड़ेंगे.’ और सच कहूं, जो यह मेरी छवि बन गयी है- ‘रेणु के खोजी भारत यायावर’ उससे स्वयं को विलग करना अब इस जीवन में असम्भव है.

जैसा कि रेणु को जानने वाले सभी जानते हैं, रेणु का जन्म पूर्णिया जनपद के औराही-हिंगना ग्राम में 4 मार्च, 1921 ई. को हुआ. उस वक्त पूर्णिया को बिहार का कालापानी कहा जाता था. कोशी कवलित भूमि- जहां के लोग एक तरफ बाढ़ और अकाल जैसी विपदाओं से हर वर्ष जूझते, दूसरी ओर हैजा, मलेरिया, प्लेग, काला अजार जैसी बीमारियों से आक्रांत होते. अस्तित्व-रक्षण की इन विषम परिस्थितियों ने उनमें जीवट, संघर्षशीलता और अदम्य जिजीविषा का संचार किया. मिथिला और बांग्ला की संयुक्त संस्कृति ने विषम परिस्थितियों में भी उन्हें हंसने, मुस्कुराने और गाते रहने को उत्प्रेरित किया. रेणु के रचनाकार-मन का निर्माण इसी लोक-भूमि में हुआ था. उनके पिता शिलानाथ मंडल कांग्रेस से जुड़े थे. असहयोग आंदोलन से जुड़े स्थानीय नेताओं का आना और ठहरना उनके घर में होता. पूर्णिया क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने वाले और रेणु के गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ उनके घर आते, रेणु से हिंदी और बांग्ला रामायण का सस्वर पाठ सुनते. शिलानाथ मंडल राजनीति के साथ ही साहित्य में भी गहरी रुचि रखते थे. वे उस समय की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें मंगवाते. सरस्वती, सुधा, माधुरी, चांद, हिंदू पंच, वेंकटेश्वर समाचार, विशाल भारत आदि पत्रिकाएं नियमित उनके घर आतीं. रेणु जब दस-बारह वर्ष के थे, तभी से वे नियमित इन पत्रिकाओं को पढ़ते. कविता करने की शुरूआत भी यहीं से हुई. ‘द्विजदेनी’ जी ने उनके घरौवा नाम ‘रिनुवा’ को परिवर्तित कर ‘रेणु’ कर दिया था. रेणु ने तुकबंदियां करनी शुरू कीं- ‘कवि रेणु कहे, कब रैन कटे, तमतोम हटे….’ उस समय की एक महत्त्वपूर्ण घटना, जिससे उनकी ख्याति उनके पूरे इलाके में फैल गयी, रेणु की जुबानी ही बयान कर रहा हूं-

‘यह घटना सन् 1931-32 की है, मेरी उम्र जब दस वर्ष के लगभग रही होगी और मैं फारबिसगंज हाई स्कूल का विद्यार्थी था. वहीं हॉस्टल में रहता और सप्ताह में छुट्टी के दिन गांव आ जाता. फारबिसगंज से एक स्टेशन सिमराहा. वहां गाड़ी से उतरकर पांव-पैदल औराही-हिंगना, यानी अपने गांव! पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज्य-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता. खादी पहनते थे, घर में चर्खा चलता था. ‘तिलक स्वराज्य-फंड’ वसूलते थे और दुनिया-भर की पत्र-पत्रिकाएं मंगाया करते थे.

एक दिन अचानक ही थाने के दारोगा-पुलिस को अपने दरवाजे पर उपस्थित पाकर हमलोग ‘अचरज’ में पड़ गये, मैं भी फारबिसगंज से गांव आया हुआ था और उन दिनों किसी गांव में दारोगा-पुलिस का पहुंचने का मतलब होता था पूरे गांव के लोगों का ‘अंडर-ग्राउंड’ हो जाना, यानी लोग अपने-अपने घरों के दरवाजे भीतर से बंद कर छिप जाते थे- पता नहीं किसे बांधकर दारोगा-पुलिस चालान कर दे.

दारोगा दरवाजे पर आकर सीधे पिताजी के सामने रुके और बोले- हमें खबर मिली है कि आपके पास ‘चांद’ का ‘फांसी अंक’ आया है. आप उसे तुरंत मेरे हवाले कर दो, नहीं तो बेकार में हमरा के खानातलासी करे के पड़ी.

पिताजी घबराये नहीं, बड़ी ही निश्ंिचतता के साथ ही उन्होंने कहा- आया तो था जरूर! और ‘चांद’ का फांसी अंक ही क्यों, ‘हिंदू पंच’ का बलिदान अंक तथा ‘भारत में अंग्रेजी राज’ पुस्तक भी मेरे पास थी. कोई कुटुम्ब-सम्बंधी पढ़ने को ले गये हैं. आप खानातलाशी ले लीजिए.

पिताजी साफ झूठ बोल गये. मैं वहीं खड़ा था. पिताजी को इस तरह झूठ बोलते कभी नहीं देखा था, लेकिन मुझे समझते देर नहीं लगी कि वे क्यों झूठ बोल रहे हैं. उपरोक्त पत्रिकाओं के अंक और ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नाम की पुस्तक एक झोले में लपेटकर उनके बिछावन के सिरहाने रखी है, इस बात की जानकारी मुझे थी. पिताजी ने फिर से अपने वाक्य दुहराये- ‘चांद’ के फांसी अंक के अलावा अन्य पत्रिका-पुस्तक की जानकारी आप लोगों को मैंने इसलिए दे दी कि आज-न-कल आपको फिर खबर मिलेगी कि वह सब भी मेरे यहां आया है और आपको नाहक दौड़ना पड़ेगा. चलकर खानातलाशी ले लीजिए.

मैं वहां से खिसका. पिताजी के कमरे में आया और उनके सिरहाने से पुस्तक-पत्रिकाओं वाली झोली बगल में दबायी, दरवाजे पर आकर छाता लगाया और चलने लगा. दारोगाजी ने देखा तो पूछा – ऐ बाबू, हऊ बगलिया में का बा हो ? मैंने बिना घबराये उत्तर दिया- सिमराहा जा रहा हूं, फारबिसगंजवाली गाड़ी पकड़ने. स्कूल का समय होने को है.

दारोगाजी जैसे मेरे उत्तर से संतुष्ट हो गये- उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि अभी फारबिसगंज जानेवाली कोई गाड़ी नहीं है. मैं दिन-भर पिताजी के एक मित्र के यहां टिका रहा. शाम को वापस आया तो लोग मेरी चालाकी पर दंग थे. ‘चांद’ का फांसी अंक न पाकर दारोगाजी ने बड़े ही निराश स्वर में पिताजी से कहा था- हऊ पतरिका हमरो पढ़ने का ढेर मन है.’

रेणु के जीवन के इस संस्मरण से यह स्पष्ट है कि बहुत कम उम्र में ही वे बेहद परिपक्व हो गये थे. रेणु के बचपन की दूसरी अविस्मरणीय घटना, जिसने उन्हें स्वाधीनता-संग्राम से जोड़ा, उसका उल्लेख भी मैं करना चाहूंगा.

रेणु अररिया हाई स्कूल के विद्यार्थी थे, महात्मा गांधी की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही बाज़ार बंद हो गया था और स्कूल के सभी छात्र बाहर निकल आये थे. दूसरे दिन भी सभी छात्र हड़ताल पर रहे. रेणु चूंकि खद्दरधारी थे, इसलिए हड़ताल के साथ ‘पिकेटिंग’ भी कर रहे थे. अतिरिक्त उत्साह में उन्होंने असिस्टेंट हेड मास्टर साहब को भी रोका. दूसरे दिन स्कूल पहुंचने पर मालूम हुआ कि हर हड़ताली छात्र को आठ आने जुर्माने की सज़ा होगी. दो-तीन घंटी की पढ़ाई होने के बाद हेडमास्टर साहब का नोटिस निकला- कल जो विद्यार्थी नहीं आये थे, उन्हें आठ आने जुर्माने के और जो बीमार थे या अन्य किसी कारण से स्कूल नहीं आ सके, उन्हें दरखास्त लिखवाकर देना होगा … और जो लोग अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगना चाहें, वे भी दरखास्त दें. इस नोटिस के अंत में विशेष रूप से रेणु का नाम लिखकर कहा गया था कि असिस्टेंट हेडमास्टर साहब के साथ अशोभनीय बरताव के लिए सारे स्कूल के छात्रों के सामने पांचवी घंटी के बाद इस लड़के को दस बेंत लगाये जाएंगे – नोटिस निकलने के बाद ही रेणु अचानक ‘हीरो’ हो गये. ऊंचे दर्जे के विद्यार्थी उन्हें ढांढ़स बंधाते, शाबाशी देते और कोई-कोई तरस खाकर कहता- माफी मांग लो, लेकिन रेणु ने जालियांवाला बाग कांड और मदन गोपाल आदि क्रांतिकारियों की कहानी पढ़ी थी. कई शिक्षकों ने भी समझाया-डराया-धमकाया, लेकिन माफी मांगने को तैयार नहीं हुए. नियत समय पर सभी वर्ग के छात्र मैदान में आकर एकत्रित हो गये. सिक्स्थ मास्टर साहब, तुर्की टोपी और शेरवानी पहने हाथ में बेंत घुमाते हुए मैदान के बीच में आये. सभी शिक्षक सिर झुकाकर खड़े थे. रेणु के नाम की पुकार हुई और वे रिंग में जाकर खड़े हो गये, ठीक विवेकानंदीय मुद्रा में- दोनों बाहों को समेटकर. बेंत मारने के पहले, मास्टर साहब ने अंग्रेज़ी में कुछ कहा, फिर चिल्लाए- ‘स्ट्रेच योर हैंड!’ रेणु ने जवाब दिया- ‘ह्विच हैंड! लेफ्ट और राइट!’ भीड़ से कई आवाज़ें एक साथ आयीं- ‘शाबाश !’ मास्टर साहब ने जब ‘राइट’ कहा, तभी रेणु ने हाथ पसारा. मास्टर साहब ने शुरू किया- ‘वन’ ! रेणु ने नारा लगाया- वंदे मातरम! एकत्रित छात्रों ने भी दुहराया- वंदे मातरम! ‘टू !’ रेणु ने नारा लगाया- ‘महात्मा गांधी की जय!’ अब सड़क, कचहरी और बाज़ार के लोग दौड़े- नारा लगाते- ‘महात्मा गांधी की जय!’ ‘थ्री-ई-ई.’ ‘जवाहरलाल नेहरू की जय!’ अब भीड़ तरह-तरह के सुराजी नारे लगाने लगी. हेड मास्टर साहब ने ‘केनिंग’ रुकवा दी. छुट्टी की घंटी बजवा दी गयी. लेकिन, भीड़ बढ़ती ही गयी और नारे बुलंद होते रहे. सारा कस्बा उमड़ पड़ा. इसके बाद रेणु को किसी ने कंधे पर चढ़ा लिया और लोग जुलूस बनाकर निकल पड़े. दूसरे दिन भी बाज़ार बंद रहा और स्कूल के सभी छात्र हड़ताल पर रहे. इस घटना के बाद रेणु छात्रों के ‘हीरो’ हो गये. उन्हें चौदह दिनों की सज़ा हुई और पूर्णिया जेल में वे बंद कर दिये गये. अररिया स्कूल से उन्हें निकाल दिया गया.

वे प्रायः अपनी कक्षा के छात्रों के सामने विभिन्न महत्त्वपूर्ण लोगों एवं शिक्षकों का केरिकेचर किया करते. ब्लैकबोर्ड पर उनके कार्टून बनाया करते. गढ़कर तरह-तरह की कहानियां सुनाया करते. इन प्रवृत्तियों के साथ ही उनके भीतर मानवीयता की, करुणा की भावधारा भी बहती रहती. उन्होंने अपने जीवन की पहली कहानी 1935-36 के आसपास ‘परीक्षा’ शीर्षक से लिखी थी, और अपनी कक्षा के मित्रों को सुनायी थी. उस कहानी में एक विद्यार्थी के अनथक परिश्रम के बावजूद असफलता का मार्मिक चित्रण था. उस कहानी को सुनते हुए कई छात्रों की आंखों में आंसू भर आये थे.

1936 में नक्षत्र मालाकार के साथ मुजफ्फरपुर में आयोजित विराट किसान-सम्मेलन में भाग लेने रेणु आये और यहां से उनका सम्पर्क जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि प्रमुख समाजवादियों से हुआ. किशोर रेणु के मन पर उनकी गहरी छाप पड़ी. 1937 में वे विराटनगर में स्व. कृष्ण प्रसाद कोइराला द्वारा स्थापित ‘आदर्श विद्यालय’ में पढ़ने चले गये. कोइराला-भाइयों में तीसरे, तारिणी प्रसाद कोइराला, से उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गयी. ‘कोइराला-निवास’ में इन दोनों का नाम ‘यार-दोस्त’ रख दिया गया. ये दोनों साहित्य-कला-संस्कृति पर लगातार बातें करते. दोनों कविताएं-कहानियां लिखते. तारिणी प्रसाद कोइराला बाद में नेपाली के प्रमुख कवि-कथाकार के रूप में उभरे कोइराला-भाइयों के बीच रेणु की राजनीतिक एवं साहित्यिक चेतना प्रखर होती गयी. तारिणी के साथ ही उन्होंने 1939 में वाराणसी से मैट्रिक की परीक्षा पास की और आई. ए. में दाखिला लिया. बनारस में रेणु पढ़ाई कम और छात्र-राजनीति ज्यादा करते. उस वक्त उन्होंने ‘अवाम’ शीर्षक एक लम्बी मुक्तछंद की राजनीतिक कविता लिखी थी, जो वहां के छात्रों में मशहूर थी. स्टूडेंट फेडरेशन के वे सचिव थे. बनारस के छात्र-आंदोलन में वे धीरे-धीरे इतना लिप्त होते गये कि साहित्य पर उनसे कोई बात करना चाहता, तो फुरसत नहीं है, कहकर टाल देते. रेणु कई भाषाओं के जानकार थे. नेपाली, बांग्ला, मैथिली, भोजपुरी आदि उनकी मातृभाषा जैसी थीं. उन्हें कभी कम्युनिस्ट ग्रुप अपनी ओर करना चाहते, कभी सोशलिस्ट ग्रुप, बंगाली लोग उन्हें फारवर्ड ब्लॉक में शामिल करना चाहते. धीरे-धीरे उन्हें तीनों वामपंथी संगठनों का सदस्य बना दिया गया.

पार्टियों से ऊबने के बावजूद आचार्य नरेंद्र देव से बराबर मिलते रहे और उनके विचारों का गहरा असर उनमें अंत तक बना रहा. 1941 में रेणु ने आई.ए. की परीक्षा पास की. बी.ए. में दाखिला लिया और एक वर्ष बाद बनारस छोड़कर घर चले आये और पूर्णिया के आजाद दस्ता में शामिल हो गये. 42 का आंदोलन शुरू होने के पूर्व ही पूर्णिया के क्रांतिकारी युवकों के साथ उग्र विद्रोही आंदोलनों में हिस्सा लिया. अंग्रेजी प्रशासकों के विरोध में रेलवे पटरी उखाड़ी, राइफल, गोली, बारूद लूटा. नक्षत्र मालाकार उस वक्त के उनके प्रमुख सहकर्मी थे. उस वक्त की एक प्रमुख घटना का ज़िक्र मैं करना चाहूंगा. पुलिस को मालूम हुआ कि रेणु एक गांव में छुपे हुए हैं. उसने गांव का चारों ओर से घेराव कर लिया. रेणु ने एक नयी दुल्हन की लाल साड़ी पहनी, दुल्हन के सभी शृंगार किये और बैलगाड़ी पर बैठ कर, घूंघट किये हुए उस गांव से बाहर की ओर निकल पड़े. साथ में दुल्हन को विदा करवाने वाले की भूमिका में कुछ युवक भी थे. पुलिस ने गांव के बाहर बैलगाड़ी को रोका और तलाशी ली. दुल्हन का घूंघट उठाकर भी देखा, पर रेणु को नहीं पहचान पाये और रेणु फरार हो गये.

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रमुख सेनानी रेणु की गिरफ़्तारी उनके गांव में सितम्बर में हुई. पुलिस ने अन्य क्रांतिकारियों के बारे में जुबान खुलवाने के लिए उन्हें कितनी ही यातनाएं दीं, पर उन्होंने कुछ भी नहीं बताया. उनकी छाती पर चढ़कर बूटों से उन्हें रौंदा गया. उनके मुंह, नाक और कान से खून निकलने लगा, पर उन्होंने कुछ नहीं बताया. तब उनके दोनों हाथों में रस्सी बांधकर घोड़े से खींचते हुए लगभग बीस किलोमीटर दूर अररिया ले जाया गया. रेणु की मरनासन्न हालत हो गयी थी, पर उन्होंने जुबान नहीं खोली. उन्हें वहां की अदालत ने ढाई साल की सज़ा सुनायी. दो-तीन महीने अररिया जेल में रखने के बाद उन्हें पूर्णिया जेल भेज दिया गया. पूर्णिया जेल से हजारीबाग सेंट्रल जेल. जयप्रकाश नारायण ने जब हजारीबाग जेल से पलायन किया था, रेणु वहीं थे. हजारीबाग सेंट्रल जेल से उन्हें फिर भागलपुर सेंट्रल जेल में भेज दिया गया. यहीं उनके गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ और बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी थे. रेणु द्विजदेनीजी को ‘शेखर ः एक जीवनी’ पढ़कर सुनाया करते. रेणु ने कविता कहानी (जो बीच में लगभग छूट गयी थी) फिर से लिखना शुरू किया. उनकी रचनाओं पर नैतिकतावादी नाक-भौं सिकोड़ते. उन्होंने कस्तूरबा की मृत्यु के बाद महात्मा गांधी की मनःस्थिति को चित्रित करते हुए एक लम्बी मुक्तछंद की कविता लिखी- ‘आगा खां के राजभवन में’. इस कविता में एक स्थल पर गांधीजी प्रथम उद्दाम प्रेम के आवेग के मुहूर्त को याद कर कहते हैं- ‘प्रथम उस चुम्बन का आस्वाद ….’ इस पर गांधीवादी वृद्ध श्रोताओं ने आपत्ति की थी – अश्लील और अशोभन बताकर. रेणु को बैठ जाना पड़ा था. वे उदास होकर अपने सेल में बैठे थे, तभी भादुड़ीजी ने आकर उनका हौसला बढ़ाया था. उन्होंने रेणु से पूछा- ‘तो वे लोग क्या बोले, ‘गांधीजी ने कभी कस्तूरबा का चुंबन नहीं किया?’ भादुड़ीजी ने रेणु को कहानी लिखने के प्रति उत्साहित करते हुए कहा- ‘तुम गद्य .. माने गल्प, कथा-कहानी आदि क्यों नहीं लिखते ? कहानी तो देखता हूं अच्छा जमा सकते हो.’

भादुड़ीजी अपने सेल में बैठकर ‘जागरी’ उपन्यास का लेखन करते और रेणु को सुनाते. रेणु ने भी नियमित कथा-लेखन जेल में ही शुरू किया. 1943 के अंत में वे भीषण रूप से बीमार पड़े और उन्हें पटना कॉलेज मेडिकल अस्पताल में ले जाया गया. वहां उनके पैरों में जंजीर पड़ी होती. लतिकाजी से प्रथम परिचय वहीं हुआ जो धीरे-धीरे प्रगाढ़ स्नेह में बदलता गया. 1944 के मध्य में रेणु स्वस्थ हुए और उनकी शेष सज़ा को माफ कर मुक्त कर दिया गया. घर लौटकर उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू की. उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ 26 अगस्त 1944 के साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई. 1946 से रामवृक्ष बेनीपुरी ने साप्ताहिक ‘जनता’ का प्रकाशन पटना से प्रारम्भ किया, जो सोशलिस्ट पार्टी का मुखपत्र था. रेणु भी सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने और पूर्णिया के कई किसान-मजदूर आंदोलनों में भाग लिया. ‘जनता’ में उनके रिपोर्ताज लगातार प्रकाशित होते. पूर्णिया के शरणार्थी शिविर पर 1948 में उन्होंने ‘एक-टू आस्ते-आस्ते’ रिपोतार्ज लिखा, जिस पर सोशलिस्ट पार्टी में बहुत हंगामा हुआ. रेणु को पार्टी से निकाल देने की पेशकश भी हुई. अंत में, जयप्रकाश नारायण ने रेणु की उस रचना के महत्त्व को स्थापित करते हुए उस विवाद को एक समारोह में समाप्त किया. इस बीच रेणु कोइराला बंधुओं के साथ विराटनगर के विभिन्न कारखानों में कार्यरत मजदूरों के बीच यूनियन स्थापित कर रहे थे. 4 मार्च 1947 से विराटनगर के मजदूरों की पहली और ऐतिहासिक हड़ताल प्रारम्भ हुई.

1949 में रेणु ने ‘नयी दिशा’ नामक एक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन-प्रकाशन शुरू किया. इसमें कई छद्म नामों से वे विभिन्न प्रकार की रचनाएं लिखा करते. नवम्बर, 1950 में वे पुनः नेपाल चले गये और फरवरी, 1951 तक ‘नेपाली क्रांति’ में शरीक हुए . ‘जनता’ में नेपाली क्रांति पर धारावाहिक रूप से उन्होंने ‘हिल रहा हिमालय’ नामक रिपोर्ताज लिखा, जिसका पुनर्लेखन ‘नेपाली क्रांतिकथा’ के नाम से 1971 में किया. रेणु इसी बीच क्षयरोग से ग्रसित हुए और पटना अस्पताल में लम्बे समय तक जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते रहे. रोग मुक्त होकर फरवरी, 1952 में उन्होंने लतिकाजी से विवाह किया और पटना में ही रहकर ‘मैला आंचल’ को पूरा किया. 1953 में उसकी पाण्डुलिपि लेकर प्रकाशकों के यहां दौड़ते रहे और अंत में थक-हारकर पत्नी के गहने बेचकर खुद ही छपवाना शुरू किया. एक वर्ष तक ‘मैला आंचल’ प्रेस में रहा. 9 अगस्त, 1954 को प्रकाशित होकर यह बाहर आया और उन्होंने अपने घर पर शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी, नलिन विलोचन शर्मा, सुशीला कोइराला आदि को निमंत्रित कर एक गोष्ठी में ‘मैला आंचल’ का लोकार्पण किया. उसके बाद की रेणु की कथा से हिंदी के प्रायः सभी पाठक परिचित हैं.

और अब एक बातचीत जो रेणु को जानने-समझने की एक कुंजी है.

प्रश्न ः रेणुजी, सबसे पहले आप बताएं कि कथा-लेखन की प्रवृत्ति आप में कैसे आयी?

उत्तर ः बचपन से ही मुझे कथा-कहानी सुनने और गुनने का शौक रहा है. बुनने का शौक तो बहुत बाद में चलकर पैदा हुआ, और वह भी शायद इसलिए कि बचपन से ही इतने तरह के लोगों को नज़दीक से देखने-समझने का मौका मिला कि बाद में चलकर मैंने महसूस किया- मेरा प्रत्येक परिचित अपने आप में अनगिनत कहानियों की खान है. बस फिर क्या था, कलम उठायी और कथा बुनने में लग गया.

प्रश्न ः आपसे एक सीधा-सरल प्रश्न पूछा जाये कि आप क्यों लिखते हैं ? आपकी विचारधारा क्या है?

उत्तर ः साहित्य के राजदार पंडित-कथाकार आलोचकों ने हमेशा नाराज़ होकर मुझे ‘एक जीवन-दर्शनहीन- अपदार्थ- अप्रतिबद्ध-व्यर्थ-रोमांटिक प्राणी’ प्रमाणित किया है … सारे तालाब को गंदला करने वाला जीव! इसके बावजूद कभी मुझसे इससे ज्यादा नहीं बोला गया कि अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढ़ता फिरता हूं. अपने को, अर्थात आदमी को.

प्रश्न ः यह अपने को, अर्थात आदमी को ढूंढ़ने का मतलब क्या है?

उत्तर ः देखिए, आप अपनी कथा के पात्र का नाम राम-श्याम-यदू रखिए, या हेरी-डिक-टॉम, बुझक्कड़ लोग उसको आपकी ही कहानी बूझेंगे. आपको ही अपनी कथा का पात्र मानेंगे. कथा-शात्रियों का कथन है, हर कथा में एक जीवन-दर्शन होना आवश्यक है. हर कथाकार का जीवन-दर्शन होना चाहिए कोइ. सो, अपनी कथा का जीवन-दर्शन, सोदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं.

अपनी गली की गूँगी बूढ़ी को मैंने इस कथा की पात्री के रूप में पेश किया है। तो, मैं ही यह गूँगी हूँ। उस बूढ़ी को सबसे अधिक सताने वाला, गली का सर्वोच्च शैतान छोकरा सतना भी मैं हूँ। क्लाइमेक्स के आस-पास, गूँगी बूढ़ी को चिढ़ाने-सताने में मशगूल। सतना का प्यारा कुत्ता मोटर के नीचे कुचलकर मर गया जो, वह मैं ही था। वह चीख़ मेरे ही कण्ठ से निकली थी। कथा के अन्त में, सतना रोया, मैं रोया। अपने सबसे बड़े दुश्मन के प्यारे कुत्ते की मौत पर बूढ़ी रोई, मैं रोया। बूढ़ी ने सतना की पीठ पर बड़े प्यार से अपनी हथेली रखी, मैंने अपनी पीठ पर अपना हाथ रखा ! ….मतलब यह कि हर कथा, लेखक की आत्मकथा होनी चाहिए। वरना, कथा असफल है…. मेरे सामने समस्या है, अपनी कथा से अपने को कैसे बहिष्कृत करूँ ? कैसे निकाल दूँ ‘मैं’ को ? क्यों निकाल दूँ ?

प्रश्न : अच्छा रेणुजी, आपको आँचलिक कथाकार कहा जाता है। इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?

उत्तर : देखिए, हिन्दी साहित्य में एक प्रकार से मुझ पर आँचलिकता का ठप्पा लगाकर खारिज किया गया। कहा गया कि यह आँचलिक लेखक रेणु, इसका तो सिर्फ पूर्णिया जनपद से सरोकार है, देश के अन्य जनपदों से इसका क्या लेना-देना ! देश की समस्याओं से इसका क्या सरोकार ? ‘मैला आँचल’ तक तो आँचलिकता का हौव्वा कम था, ‘परती-परिकथा’ के बाद तो उसकी लहर-सी उठी। आँचलिकता का एक बड़ा आन्दोलन शुरू हुआ। मैंने पूर्णिया जनपद का चित्रण किया था और एक-एक कर कई जनपद उठने लगे। इस पर जब हरिशंकर परसाई ने ‘कल्पना’ के ‘और अन्त में’ स्तम्भ में आक्रमण किया था, तो मुझे अच्छा लगा था। मैंने परसाई को इस पर एक लम्बा पत्र लिखा था और बधाई दी थी … मैं उपन्यास को उपन्यास, कहानी को कहानी कहना ज्यादा पसन्द करता हूँ। ऐतिहासिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास या आँचलिक उपन्यास आदि कहना ठीक नहीं मानता। इस पर मुझे एक चुटकुला याद आ रहा है, जिसे प्रयाग के कॉफ़ी-हाउस में धर्मवीर भारती ने कभी सुनाया था।

चुटकुला इस प्रकार है –

साहित्यिक गुरु ने शिष्य से पूछा, वत्स, उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं ? शिष्य ने हकलाते हुए प्रश्नोत्तर देना प्रारम्भ किया – जी, गुरुजी, धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक… और … और आँचलिक !

गुरु ने कहा – मूर्ख! एक नाम तो तुमने छोड़ दिया – धारावाहिक उपन्यास कहाँ गया?

चुटकुला सुनकर मैं जी खोलकर हंसा था. आज भी हंसता हूं. और सच कहूं, ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ पर आंचलिकता का जो ठप्पा लगा, उसने मुझे आतंकित ही किया. बाद के लेखन में मैंने इससे उबरने की ही कोशिश की है.

प्रश्न : कुछ आलोचक आपको प्रेमचंद की परम्परा का कथाकार मानते हैं, कुछ नहीं. रामविलास शर्मा तक ने यह पूरी शक्ति लगायी कि आप प्रेमचंद की परम्परा के कथाकार नहीं है. इस पर आप किस तरह सोचते हैं ?

उत्तर : प्रेमचंद मेरे वरिष्ठ कथाकार हैं और आदरणीय भी. उनकी कथाकृतियों के केंद्र में गांव और किसान-जीवन रहा है और मेरे भी. इसीलिए मेरे कथा-साहित्य को प्रेमचंद की परम्परा में रख कर आलोचना की जाती है. कितना मैं प्रेमचंद की तरह हूं और कितना नहीं. देखिए, यदि साहित्यिक परम्परा की ही बात है तो मैं किसी एक कथाकार से प्रभावित नहीं हूं. मैं मिखाइल शोलोखोव, बांग्ला के ताराशंकर बंधोपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा प्रेमचंद को अपना आदर्श और प्रेरक मानता हूं. परंतु मैंने अपना एक अलग रास्ता चुना. और मैं मानता हूं हर कलाकार को, क्यों न वह कथा-शिल्पी ही हो, अनुकरण से बचना होता है.

प्रश्न : आपने अपने कथा-साहित्य में रंगों, गंधों, ध्वनियों, गीतों के टुकड़ों, ऐंद्रिक अनुभूतियों का विशद चित्रण किया है. ऐसा करने की अनिवार्यता क्या थी ? क्या ये मूल कथा से विषयांतर नहीं है ?

उत्तर : देखिए, मैं किसी भी आदमी, पेड़-पौधा, चिड़िया, जानवर, या वस्तु की कल्पना उसके रंग के बगैर नहीं कर सकता. फिर हर चीज़ की एक गंध होती है. तो, जब मैं लिख रहा होता हूं तो रंगों और गंधों के बारे में बताना भी ज़रूरी समझता हूं. फिर उन रंगों और गंधों का हमारी इंद्रियों पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है. वे प्रभाव किस प्रकार के हैं, इसे भी बताना होता है. ध्वनियों का चित्रण एक खास तरह की गीतात्मकता ही नहीं, कथा को गतिमयता में भी बदलता है. जिस तरह हर शब्द की ध्वन्यात्मकता होती है, प्रकृति की हर इकाई, जिसमें सक्रियता या गतिशीलता है, उसकी ध्वनि भी है. और हर समय यह ध्वनि एक जैसी नहीं होती. उसमें बदलाव होता रहता है. मैं जब लिखने बैठता हूं तो पूरे परिवेश पर मेरा ध्यान होता है. एक असली कथाकार में चित्रकार और संगीतकार की आत्मा भी पैठी होती है. फिर आप देखेंगे कि हर आदमी, भले ही वह गांव का ही क्यों न हो, उसकी भाषा में एक अलग तरह की लय होती है, उसके उच्चारण के आरोह-अवरोह अलग होते हैं. मेरे जितने भी कथा-पात्र हैं, उनके बोलने का ढंग अलग है. और कभी-कभी ऐसा होता है कि एक ही डायलॉग में वह पात्र पूरी तरह उभर कर आ जाता है. ये तमाम चीज़ें आपको विषयांतर लग सकती हैं, पर ये मूल कथावस्तु की संवेदना को ज्यादा जागृत और प्रगाढ़ बनाती है. और स्पष्ट शब्दों में कहूं, विषय को जाननेवाला ही विषयांतर से अपने विषय को स्पष्ट करता है. और ये विषयांतर ही उसकी निजी पहचान के वाहक बनते हैं.