रेत की दीवारें / नीरजा हेमेन्द्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज भी मैं प्रातः सबसे पहले उठना चाह रही थी, किन्तु न जाने कैसे आँख लगी रह गयी। अक्सर तो समय से उठ जाती हूँ। किन्तु आज पुनः देर हो गयी। हड़बड़ाई -सी मैं बाथरूम की ओर बढ़ गयी। वहाँ से आयी तो देखा साहिल अभी तक सो रहा था। मेरी दृश्टि सामने दीवार घड़ी की ओर स्वतः उठ गयी। साढ़े छः बजने वाले थे। मैं शीघ्रता से रसोई की ओर भागी।

“हम लोगों को उठे हुए घंटा भर हो गया। अभी तक चाय नसीब नही हुई है। “ये स्वर मेरी सासू माँ के थे।

मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना मैं गैस को पूरी आँच पर कर चाय का पानी खौलाने का प्रयत्न करने लगी। “उफ्फ! आज पानी शीघ्र गर्म होने का नाम ही नही ले रहा है। “मैं मन ही मन कह उठी। इसमें पानी और गैस की कोई ग़लती नही है। शीघ्रता करने पर पानी समय से पूर्व तो खौल नही जायेगा? मैने स्वंय को समझाया। अब मुझे अपनी देर तक सोने की आदत पर झुँझलाहट हो रही थी। मैं आधा घंटा पूर्व उठ क्यों नही गयी? मात्र आधे घंटे विलम्ब की ही तो बात थी। उसके लिए मुझे इतना कुछ सुनना पड़ रहा है। खैर! जो हो गया वो वापस तो नही आ सकता। अब कल से उठने में मैं विलम्ब नही करूँगी।

मैं शीघ्रता से चाय बना कर बरामदे में बैठीं साहिल की माँ तथा पिता को दे कर वापस आयी तथा साहिल की चाय ले कर अपने कक्ष में उसे देने चली गयी। उसे उठा कर मेज पर चाय रख मैं शीघ्रता से रसोई में चली गयी। मेरी इच्छा चाय पीने की नही हो रही थी। अभी घंटे-डेढ़ घंटे में मुझे भोजन तैयार कर लेना है। साहिल कार्यालय के लिए नौ बजे निकलेगा। उससे पूर्व उसे भोजन तैयार मिलना चाहिए।

“माँ मैं तैयार हो चुकी हूँ। “ये साहिल की छोटी बहन परिणीता की आवाज थी। वह कॉलेज जाने के लिए तैयार हो चुकी थी।

मैं सोचने लगी कि मेरा विवाह हुए अभी आठ माह ही तो हुए हैं। विवाह के कुछ माह तक तो सब ठीक था। इधर कुछ दिनों से न जाने क्या हो गया है कि परिणीता मुझसे कोई बात नही करती? कुछ भी कहना होता है सीधे अपनी माँ के पास जाती है। बाथरूम से पानी चलने की आवाज आ रही है। कदाचित् साहिल उठ गया है और नहा रहा है।

“देख नही रही हो.... परी तैयार हो गयी है। उसे कुछ चाय नाश्ता दोगी या नही? “यह मेरी सासू माँ थीं। मैं सब्जी काटना छोड़कर शीघ्रता से चाय प्याले में डालकर डायनिंग मेज पर रख कर वापस रसोई में आकर भोजन तैयार करने में जुट गयी। कुछ ही देर में काम वाली आ गयी। वह सिंक में रखे बर्तन धुलने लग गयी। मुझे उसके धुले बर्तन पोंछ कर रखने होते हैं। मैं सोच रही थी कि मुझे अभी कुछ रोटियां सेकनी हैं। रोटियां बनाने के पश्चात् बर्तनों को पोंछ कर शेल्फ में लगाऊँगी। मैं रोटियां बनाने लग गयी।

“परी को सिर्फ चाय दी है? कुछ खाने के लिए मेज पर नही रखा? “साहिल की माँ ने मुझसे कहा।

“ नाश्ते की चीजें डायनिंग मेज पर जार में रखी हैं मम्मी जी। “मैंने धीरे से कहा।

“हाँ...हाँ....! जैसे मुझे कुछ मालूम ही नही है। अब मुझे तुम बताओगी कि कहाँ क्या रखा है? “साहिल की माँ के कर्कश स्वर मेरे कानों में पड़े।

“ऐसा नही है मम्मी जी। मैं रोटियां बना रही हूँ इसलिए कहा। “इस समय मैं कुछ भी बोलना नही चाह रही थी, फिर भी कहना पड़ा।

“देर से सो कर उठोगी तो इसी तरह आधे यहाँ के, तो आधे वहाँ के काम करती फिरोगी। “उनके स्वर में तीखापन और बढ़ गया था।

साहिल नहा कर बाथरूम से बाहर आ गया था। “क्या हो रहा है?”उसने मेरी ओर देखते हुए पूछा। इस समय मैं कुछ भी कहना नही चाह रही थी अतः चुप रही।

“हो क्या रहा है? कुछ भी नही। काम के लिए कहा जा रहा है। कहो तो वो भी न कहूँ। “साहिल की माँ ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा तथा मुड़ कर अपने कक्ष में चली गयीं।

सहिल भी सिर झुकाये अपने कक्ष में चला गया। मेरा मन खिन्न हो रहा था। उसके पश्चात् भी मैं रसोई के कार्य शीघ्रता से कर रही थी। घर में अधिकांश दिनों में ऐसी स्थिति बन जाती है। मेरे न चाहने पर भी ऐसा कड़वाहट भरा वातावरण बन जाता है। मुझे तो प्रत्येक परिस्थिति में घर के कार्य करने ही होते हैं।

सहिल कार्यालय चला गया। वह एक बहुर्राश्ट्रीय कम्पनी में कार्य करता है। कार्यालय से आने में उसे अक्सर देर हो जाती है। शाम को आठ बजे से पहले वह घर नही आ पाता। अतः वह अपना दोपहर का भोजन ले कर कार्यालय जाता है। जिसे मैं नौ बजे से पहले तैयार कर देती हूँ। साहिल के पापा सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। साहिल की छोटी बहन परिणीता जो विवाह योग्य हो चुकी है। उसकी शिक्षा पूरी हो चुकी है। किन्तु अब समय पास करने के लिए उसने फैशन डिजायनिंग का कोर्स ज्वाइन कर लिया है। नौकरियों के लिए फार्म भी भरती रहती है। प्रतियोगी परीक्षायें भी देती रहती है। वो दोपहर तक कॉलेज से घर आ जाती है। साहिल के पापा घर पर ही रहते हैं। उनकी कोई भी दिनचर्या नियमित नही है। कभी-कभार किसी कार्य से बाहर निकलते हैं अन्यथा उनका पूरा दिन घर में अखबार पढ़ने और टी0वी0 पर समाचार देखने में निकल जाता है।

दोपहर के दो बज गये हैं। सबने भोजन कर लिया है। रसोई में सब कुछ व्यवस्थित कर मैं अपने कमरे में आ गयी। पूरा शरीर थक कर टूट रहा था। अतः लेट गयी। लेटे-लेटे मोबाईल में समय देखा। तीन बज रहे हैं। मन सुबह की घटना से अभी तक खिन्न था। आँखें बन्द कर झपकी लेने की इच्छा हो रही थी। किन्तु मन में भिन्न-भिन्न विचार आ रहे थे। मैंने कभी नही सोचा था कि विवाहोपरान्त मेरे जीवन में ऐसी विशम परिस्थति आयेगी। मुझे छोटी-छोटी बातों पर संघर्श करना व शर्मिन्दा होना पड़ेगा। जीवन के ऐसे रूप की कल्पना मैंने नही की थी। समझ नही पा रही हूँ कि एक स्त्री ही स्त्री के लिए बाधा क्यों बनने लगती है? जब कि सबको इन परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। फिर भी एक स्त्री दूसरी स्त्री को समझ क्यों नही पातीं?

... ... सहिल के साथ जब मेरा विवाह हुआ था, तब मैं एम0बी0ए0 कर रही थी। पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होना चाहती थी। उस समय मेरी इच्छा नौकरी करने की थी। किन्तु मेरे माता पिता मेरे विवाह के लिए चिन्तित थे। कितने अच्छे दिन थे वे मेरे। मेरा ही क्यों किसी का भी विद्यार्थी जीवन... जीवन के सबसे अच्छे दिनों में से एक होता है। कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ सहपाठियों के संग खूब मौज-मस्ती, शापिगं, घूमना-फिरना होता था। जीवन में कहीं भी एकरसता नही थी। बस यही इच्छा होती थी कि जीवन यहीं ठहर जाये। एम0बी0ए0 पूरा कर मैं प्रबन्धन के क्षेत्र में कुछ करना चाहती थी। उन दिनों इच्छाओं की उड़ान अपने पंख फैलाये उन्मुक्त विचरण कर रही थी। जैसा कि अच्छा समय अति शीघ्र व्यतीत भी हो जाता है। मेरे मैनजमेन्ट की शिक्षा के दो वर्श भी किसी परीन्दे की भाँति पंख लगा कर उड़ गये। एम0बी0ए0 पूरा होते ही मैंने कई बहुराश्ट्रीय कम्पनियों में जॉब के लिए आवेदन कर दिया था। इस बीच मेरा विवाह साहिल से तय हो गया।

मैं इस तथ्य से भलि-भाँति अवगत् थी कि प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि वह अपनी बेटियों का समय से विवाह कर एक बड़े उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायें। मैं मम्मी-पापा की विवशता समझती थी। मेरी शिक्षा भी पूरी हो गयी थी। वे भी मेरा विवाह कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहते थे। मुझे विवाह के लिए अपनी स्वीकृति देनी पड़ी। विवाह से पूर्व जब साहिल से मेरा परिचय कराया गया तो साहिल मुझे ठीक लगा।

इस यथार्थ से मैं परिचित थी कि विवाह के पश्चात् किसी भी लड़की के जीवन में परिवर्तन होता है। विवाह से पहले मैं रसोई के कार्यों में सिर्फ माँ का हाथ बँटाती थी। रसोई का पूरा कार्य अकेले नही किया। क्योंकि अधिकांश समय पढ़े-लिखने मे व्यतीत हो जाता था। विवाह के पश्चात् रसोई का पूरा उत्तरदायित्व मेरे ऊपर डाल दिया गया। पहले मैं माँ के साथ रसोई के कुछ कार्यों को कर कॉलेज चली जाती थी। अब मुझे प्रातः उठने के पश्चात् सीधे रसोई में भागना पड़ता है। विवाह के पश्चात् का साहिल मेरे लिए अजनबी है जिसके साथ मुझे जीवन व्यतीत करना है।”

“ओह! ये क्या-क्या मैं सोच बैठी। मुझे स्वंय को इन नकारात्मक बातों से दूर रखना है। “ ... .’शिक्षित होने का अर्थ समझदार होना है। वही व्यक्ति समझदार होता है जो जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर उन पर विजय प्राप्त करे। “माँ द्वारा समझायी गयी इन बातों को अब अपने जीवन में उतारने का समय आ गया है। मैं इन कठिन परिस्थितियों में से ही जीवन का कोई सरल मार्ग निकाल लूँगी... ....”विचारों से जद्दोजहद करते-करते न जाने कब आँख लग गयी।

शाम को उठ कर रसोई में चाय बनाने की तैयारी करने लगी।

“अरे तुम किचन में हो।....मैं तो समझी थी कि सो रही हो। “साहिल की माँ ने रसोई में प्रवेश करते हुए कहा।

“मैं तो उठ जाती हूँ मम्मी जी! शाम की चाय बनाने का समय हो रहा है। पाँच बजने वाले हैं। “ मैंने विनम्रता से कहा।

“चाय तो मैं ही बनाती हूँ। “आगे मैंने कहा।

“ शाम की चाय बनाती हो इस बात का ताना दे रही हो। “उनकी आवाज में क्रोध था।

“मैं ताना नही दे रही हूँ। आपसे बता रही हूँ। “मैंने नम्र स्वर में कहा।

“अक्सर तो तुम शाम को सोती मिलती हो। पूछने पर ताने देती हो। अभी तो हम अपना खा-पी रहे हैं। ईश्वर न करे यदि तुम्हारा दाना खा लिया तो तुम तो पेट फाड़ कर निकाल लोगी। “उनके स्वर सख़्त हो गये थे। जिसे सुन कर मेरे नेत्र भर आये। अश्रुओं को मैंने नत्रों के कोर पर ही रोक कर रखा। छलकने नही दिया। मेरे घर में मेरी मम्मी या किसी और ने भी कभी मुझसे इस प्रकार बात नही की थी। न ही मैंने अपने घर में किसी को इस प्रकार की भाशा में बातें करते सुना था। ये सब कुछ मेरे लिए नया था....अजीब-सा था... मेरे हृदय को आहत करने वाला था।

मैं जानती थी कि लड़कियों को विवाह के पश्चात् ससुराल में समायोजित होने मे समय लगता है। वहाँ सबके विचार अलग होते हैं। किन्तु ऐसा तल्खी भरा व्यवहार व परिस्थितियाँ ऐसी विशम होंगी ये अनुमान बिलकुल नही था। अब कभी-कभी सोचती हूँ कि काश! मैं विवाह ही नही करती। इस बन्धन में न बँधती। उफ्फ! कितना घुटन भरा समय है यह।

विवाह करने से लड़कियों को कौन-सा सुख मिलता है? घर वालो द्वारा दी गयीं मानसिक यंत्रणायें। साथ-साथ पति द्वारा पत्नी की इच्छा के विरूद्ध बलात्कार की भाँति बनाये गये शारीरिक सम्बन्ध और क्या हासिल कर पाती है वह? पति द्वारा किया गया ऐसा कृत्य उसके प्रति घृणा उत्पन्न करता है प्रेम नही। पत्नी को मिलता है मात्र एक लिजलिजा-सा अहसास। विवाहोपरान्त साहिल के परिवर्तित रूप से भी मुझे कम आश्चर्य नही हुआ है। जो पुरूश विवाह से पहले पत्नी के मार्डन व्यक्तित्व व पाश्चात्य पहनावे के आकर्शण में बँधा रहता था वो विवाह के पश्चात् उन्हीं पहनावों के प्रति व्यग्ंय की भाशा का प्रयोग करता है। मेरे पहनावे पर प्रतिबन्ध लगाता है। मै शिक्षित हूँ, और कहूँ तो समझदार भी इसलिए मैं चुप रह कर सब कुछ अपने अनुकूल करने का प्रयत्न कर रही हँू।

साहिल की माँ के साथ हुई इस समय की बातों से उत्पन्न खटास को मन से निकाल कर मैं रसोई के कार्यों में लग गयी। आठ बजने वाले थे। रात का भोजन लगभग तैयार कर लिया था। साहिल कार्यालय से आ गया था मैं उसके लिए चाय बनाने लगी। हाथ-मुँह धो फ्रेश हो कर वह रसोई में ही चाय लेने आ गया। रसोई में गर्मी बहुत थी। मैं पसीने से लथपथ थी।

“आज गर्मी बहुत है तुम पसीने से तर हो रही हो। आओ कुछ देर कमरे में चल कर बैठ जाओ। ए0सी0 चल रहा है। “चाय पकड़ते हुए साहिल ने कहा। मैंने उसके समर्थन में सिर हिलाते हुए कहा “आ रही हूँ। गैस बन्द कर दूँ।”

“हाँ... हाँ क्यों नही? अब तक तो न गर्मियों में खाना बना है। न कोई रसोई में गया... न किसी को गर्मी लगी। अब ये आयी है, तो यहाँ रसोई में ही क्यों न ए0सी0 लगवा दो। “ये साहिल की माँ के स्वर थे।

उनकी बातें सुन कर मुझे अपमान की अनुभूति होने लगी। ऐसा लगा जैसे चक्कर खाकर गिर न पड़ूँ। मैं रसोई में ही रूक गयी। सभी कार्य समाप्त करने के पश्चात् ही अपने कक्ष में गयी। वहाँ साहिल टी0वी0 पर अपनी पसन्द का कोई कार्यक्रम देख रहा था। मैं निढाल हो कर वहीं बिस्तर पर बैठ गयी। न साहिल ने मुझसे कुछ पूछा न मैंने साहिल से कुछ कहा।

ससुराल में इसी प्रकार मेरे दिन व्यतीत होते रहे। सुख के हों या दुख के दिन तो व्यतीत हो ही जाते हैं। समय अपनी गति से चलता है। दिन के पश्चात् रात, रात के पश्चात् दिन के आने का क्रम चलता रहता है। ससुराल में मिल रहे तिरस्कार के फलस्वरूप कभी-कभी मैं माँ के घर की विशेशकर कॉलेज के दिनों को याद कर व्याकुल हो उठती। मन में ये भी विचार उठता कि मैंने विवाह पूर्व का अपना सुखी व उन्मुक्त जीवन छोड़ कर विवाह के लिए हाँ क्यों कहा? विवाह के पश्चात् मिलने वाली पीड़ा क्यों लड़कियों को ही भोगनी पड़ती है? क्यों लड़कियाँ ही ससुराल में समायोजित होने का प्रयत्न करती हैं? ससुराल के लोग क्यों नही लड़िकयों के साथ सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न करते? अनेक ऐसे प्रश्न थे जिनका उत्तर मैं पुरूशों से पूछना चाह रही थी। विवाह के पश्चात् मुझे क्यों छोड़ना पड़ा अपना घर? क्यों छोड़ना पड़ा मुझे जीवन जीने का अपना ढंग? क्यों मुझे अपनी शिक्षा का उपयोग अपने लिए करने का अवसर नही दिया गया? मेरी शिक्षा विवाह होने तक टाईम पास तो नही थी? क्यों मुझे ससुराल में सबको प्रसन्न रखने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। क्यों मुझे स्वंय को पति के अधिनस्थ रख कर चलना पड़ता है? क्यों मैं अपने लिए हँस नही सकती? अपने लिए उन्मुक्त हो कर जी नही सकती? “जब-तब खड़े होते इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर मैं किससे पूछूँ? कौन है मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देने का उत्तरदायी?

आज साहिल जब कार्यालय से घर आया तब मैं अपने कमरे में थी। कमरे में मुझे देख उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ। क्यों कि यह समय तो मेरे रसोई में होने का होता है।

“क्या हुआ? तुम यहाँ? किचन में कौन है? “उसने मेरी ओर देखे बिना मोजे उतारते हुए पूछा।

“मेरी तबियत कुछ ठीक नही लग रही है। “वो कुछ नही बोला। न मेरे अस्वस्थ होन पर कोई प्रतिक्रिया थी उसकी।

“अभी जाती हूँ। ’‘ कुछ क्षण रूक कर मैंने पुनः कहा।

मैं उतनी भी अस्वस्थ नही थी कि किसी प्रकार रसोई में जा कर कुछ काम न कर सकूँ? मुझे आश्चर्य साहिल के व्यवहार पर हो रहा था कि क्या यह वही साहिल है जो विवाह पूर्व कभी मेरे साथ होता था तो घर जाने की शीघ्रता कभी नही दिखाता था। मेरे साथ घंटों घूमता रहता । चेहरे पर थोड़ी-सी भी थकान दिखने पर कितना परेशान हो जाता। अब कितना बदल गया है सब कुछ। अस्वस्थता प्रकट करने पर भी वह तनिक विचलित नही है। मानों मेरा अस्वस्थ होना उसी प्रकार सामान्य घटना है जैसे किसी पशु-पक्षी का अस्वस्थ होना। बल्कि लोग पशुओं के प्रति भी दया का भाव रखते हैं। मेरा हृदय व्यथित हो रहा था। अपनी पीड़ा को हृदय में समेट कर मैं उठी और रसोई में जा कर अपने उत्तरदायित्वों से जूझने लगी।

समय आगे बढ़ता रहा। कलैण्डर में दिन, महीने, वर्श बदलते रहे। मेरे विवाह को दूसरा वर्श प्रारम्भ हो गया। घर में अक्सर होने वाली तू-तू, मैं-मैं से कभी-कभी मेरे सब्र का बाँध भी यदा-कदा रह-रह कर टूटने लगता। परिणामस्वरूप रिश्तों से प्रेम, स्नेह, अपनापन समाप्त होने लगा। मैंने साहिल के समक्ष नौकरी करने की अपनी इच्छा प्रकट का दी। मैंने एम0बी0ए0 किया हुआ था। मैं जानती थी कि थोड़े से प्रयत्नों से मुझे नौकरी मिल सकती है। साहिल से नौकरी के लिए सहमति न मिलने पर भी मैंने कई कम्पनियों में आवेदन किया। मेरे ऐसा करते ही घर में सब ने मेरे साथ और भी दूरी बना ली।

एक दिन साक्षात्कार के लिए मैंने अपने पैर घर से बाहर निकाले तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे भीतर से मेरा आत्मविश्वास समाप्त गया है। मैं कुछ कर नही पाऊँगी। कुछ दिनों पश्चात् नियुक्ति पत्र मिलते ही मैं सहम गयी। नौकरी पर जाने के लिए सबसे कैसे पूछँगी? कैसे जाऊँगी? कोई भी तो इस कार्य में मेरा साथ नही देगा। ये सब कुछ सोच कर साहस मेरा साथ छोड़ने लगा। विचारों के साथ जद्दोजहद करते हुए बमुश्किल मैं नौकरी पर जाने का साहस जुटा पायी। परिस्थितियों के साथ यह मेरी आर-पार की लड़ाई थी। आज प्रथम दिन मुझे कार्यालय जाना है। सवेरे से साहिल ने मुझसे कोई बात नही की है। प्रतिदिन से एक घंटा पूर्व मैं उठ गयी। चुपचाप घर के सभी कार्य करती रही। साहिल से मैंने स्पश्ट कर दिया था कि मैं नौकरी अवश्य करूँगी। मेरी बात सुनकर वह कुछ नही बोला। मैं जानता हूँ उसकी खामोशी सहमति नही है।

कार्यालय में प्रथम दिन ज्वाइनिंग के अतिरिक्त कार्य समझने में व्यतीत हो गया। कार्यालय से घर आकर फ्रेश होने के पश्चात् मैं सीधे रसोई में चली गयी। मेरा प्रयत्न यह था कि मेरी नौकरी से किसी को तकलीफ न हो....ऐसा न लगे कि मेरी नौकरी से घर में अव्यवस्था हो रही है।

कार्यालय से घर आकर भी साहिल ने मुझसे कोई बात नही की। मैं भी बात करने से बचती रही। ये सोच कर कि कहीं ऐसा न हो कि मेरे कुछ भी बोलते ही साहिल के भीतर का गुब्बार फूट कर बाहर आ जाये। जिससे मेरे व उसके बीच तनाव की स्थिति बन जाये। मैं चुपचाप अपना कार्य करती रही। विवादित बातचीत से कोई बातचीत न होना ही बेहतर है। सोने से पूर्व साहिल ने इतना ही कहा कि, “कमरे की बत्ती बुझा दो।”

तनावपूर्ण वातावरण में नौकरी करते हुए एक माह हो गये। मैं नौकरी के साथ-साथ घर के कार्यों भी सुचारू रूप से करती। साहिल की माँ व उसके घर वालों के तानों....व्यंग्यवाणों को अनसुना कर मैं अपने कार्य करती जा रही थी। एक माह में ही पति-पत्नी के मध्य होने वाली बातचीत, भावनात्मक सम्बन्ध सब कुछ जैसे अदृश्य होने लगा। आज मुझे कम्पनी ने पहला वेतन दिया। जिस नौकरी के लिए अनेक बेराजगार युवक-युवतियाँ भटक रहे हैं, उस नौकरी को मैंने अपनी योग्यता व थोड़े से प्रयत्नों से पा लिया था उसके लिए मेरे परिवार को प्रसन्न होना चाहिए था। प्रसन्न होना तो दूर आज प्रथम सैलरी मिलने की मेरी प्रसन्नता में भी कोई मेरे साथ नही है। किन्तु मैं खुश हूँ क्यों कि मैं जानती हूँ किसी महिला के लिए उसकी आत्मनिर्भरता का मूल्य। शिक्षा व आत्मनिर्भरता किसी भी स्त्री की पहचान व उसके विकास का प्रथम सोपान है।

प्रथम वेतन का मिलना मेरे जीवन का महत्वपूर्ण दिन था। कार्यालय से फोन कर मैंने ये बात पापा को बतायी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । माँ-पापा ही तो हैं जो मुझे समझते हैं। पापा ने कितना आशीश दिया था मुझे फोन पर। उनकी आवाज में कितनी प्रसन्नता छुपी हुई थी। मन व्याकुल हो उठा था माँ-पापा से मिलने के लिए। बार-बार माँ के घर की स्मृतियाँ मुझे घेर ले रही थीं। मैं जानती हूँ कि विवाह के पश्चात् किसी भी लड़की का घर उसकी ससुराल होता है। मैं समाज के ताने-बाने को समझती हूँ। यहाँ विवाह के पश्चात् लड़की माँ-पिता के घर अतिथि के रूप में अच्छी लगती है। वह वहाँ कुछ दिनों के लिए जा सकती है। रहना उसे ससुराल में ही होता है। विवाह के पश्चात् लड़की को अपने घर से विदा करने में माता-पिता को आन्तरिक सुख मिलता है। अतः माँ-पापा के घर जा कर अस्थाई खुशियाँ ढूँढने का विचार मैंने त्याग दिया।

शाम को साहिल के आने पर रसोई से निकल मैं अपने कमरे मं आ गयी। साहिल आलमारी में अपने कपड़े टांग रहा था।

“चाय बनाऊँ? “उससे बातचीत का प्रारम्भ करते हुए मैंने पूछा।

“हूँ.... । “उसने धीरे से गर्दन हिलाते हुए कहा।

दो लोगों के होते हुए भी कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था।

“आज मुझे सैलरी मिली है। “मेरे कहते ही सहसा साहिल ने अपना हाथ रोक कर मेरी ओर गहरी दृश्टि से देखा। बोला कुछ नही।

मैं रसोई में गयी। उसके लिए चाय बनाकर उसे कमरे में दे कर वापस रसोई में आ गयी। मैं काम वाली के साथ बर्तन धुलवाती रही प्रतिदिन की भाँति....साहिल चैनल बदल-बदल कर टी0वी0 देखता रहा प्रतिदिन की भाँति। तत्पश्चात् भोजन बना कर डायनिंग मेज पर लगाकर साहिल की मम्मी को आवाज लगा दी थी प्रतिदिन की भाँति... सबने भोजन कर लिया तो अन्त में मैं रसोई को व्यवस्थित कर अपने कक्ष में आ गयी। थकान के कारण मन व शरीर निढाल हो रहे थे प्रतिदिन की भाँति। नेत्र नींद से बोझिल हो रहे थे। मैं नींद की आगोश में जाने लगी। सहसा मुझे अपने निढाल पड़े हाथों पर साहिल के हाथों का स्पर्श अनुभव हुआ। यह प्रतिदिन की भाँति नही था।

“नीलू....। “साहिल ने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा।

“हूँ....। “मैंने अँधेरे कक्ष में अपने स्वरों से उसका संज्ञान लिया।

मैं पूरी तरह जाग तो उसी समय गयी थी, जब उसके हाथों का स्पर्श मैंने महसूस किया।

“क्या तुमने अपनी पूरी सैलरी बैंक में जमा कर दी है। “मेरे भीतर भरभरा कर कुछ टूटने लगा जैसे रेत की दीवार।

“नही तो! “कमरे में पुनः सन्नाटा पसर गया। कोई ध्वनि थी तो मात्र हम दोनों के साँसों की।

“सोच रही हूँ कल बैंक में जा कर जमा कर दूँ। ’‘ कुछ क्षण रूक कर मैंने कहा।

“इस महीने पैसे मुझे दे सकती हो? “मैं चुपचाप साहिल के शब्दों को सुन रही थी।

“अपनी शादी में कुछ पैसे मैंने उधार लिए थे... दे नही पा रहा हूँ... . इंटरेस्ट लगते-लगते ग्रास अमाउण्ट बढ़ता जा रहा है। “साहिल ने धीरे-धीरे अपनी बात पूरी की। कुछ ही देर में मैं अपने शरीर पर साहिल के हाथों का लिजलिजा-सा स्पर्श महसूस करने लगी। मुझे बलात्कार पीड़ित स्त्री की पीड़ा की अनुभूति होने लगी। उबकाई-सी उठी और मैंने अपनी गर्दन दूसरी तरफ घुमा ली।

“क्या हुआ? “साहिल अधीर हो उठा।

“कुछ नही... छोड़ो मुझे? “मैंने दृढ़ता से कहा।

दूसरे दिन कार्यालय से कुछ समय का अवकाश ले कर मैं बैंक की तरफ जा रही थी। बैंक में जाना आवश्यक था। रेत की बुनियाद पर टिके रिश्तों को देखने के पश्चात मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि कुछ पैसे अपने लिए बचाकर अवश्य रखूँगी। शेश रेत की दीवारों की बुनियाद में डालती रहूँगी। अन्ततः इन रिश्तों का पोषणण स्त्री ही तो करती है।