रेत से बनी त्वचा आैर हैंडपंप / जयप्रकाश चौकसे

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रेत से बनी त्वचा आैर हैंडपंप
प्रकाशन तिथि : 25 अगस्त 2014


आदित्य चोपड़ा, प्रदीप सरकार की रानी मुखर्जी अभिनीत 'मर्दानी' सशक्त प्रभावोत्पादक फिल्म है जिसमें मध्यांतर तक दर्शक सीट पर सन्न होकर एकटक परदे की आेर बगैर पलक झपकाए ताकता है आैर मध्यांतर के बाद केवल चंद क्षण फिल्म के प्रभाव से मुक्त है परंतु शीघ्र ही फिल्म उसकी अंतड़ियों में पहुंच जाती है। आश्चर्य है कि गीत नहीं, आइटम नहीं, फूहड़ हास्य नहीं परंतु फिल्म बांधे रखती है, भले ही आप सलमान खान आैर अजय देवगन के प्रशंसक हैं, आपको रानी मुखर्जी में दोनों नजर आते हैं, जी हां वह दबंग भी है आैर सिंघम भी हैं परंतु यहां कला मूल्य थोड़े अलग हैं, प्रस्तुतीकरण यथार्थपरक है।

आज के जीवन के संदर्भ में फिल्म इसलिए यादगार नहीं होगी कि कमसिन बालिकाओं को बेचने वालों का पर्दाफाश करती है वरन् इसलिए यादगार रहेगी कि एक दृश्य में खलनायक नायिका पुलिस इंस्पेक्टर से कहता है कि वह एक अनाथ, सड़क पर फूल बेचकर पेट पालने वाली बालिका के अपहरण के खिलाफ जोखिम क्यों उठा रही है, वह तो उसकी सगी नहीं। नायिका उत्तर देती है कि जिस दिन सारे मनुष्य अपने इर्द-गिर्द अन्य मनुष्यों के दर्द के प्रति संवेदनशील हो जाएंगे उस दिन अपराध का खात्मा हो जाएगा गोयाकि हमारी संवेदनशीलता घट जाने के कारण ही हमारी व्यवस्था में दीमक लग गई है। यह उस दृष्टिकोण पर हमला है कि हम केवल स्वयं के लिए जाते हैं।

यह हमने कैसे समाज की रचना की है कि हर व्यक्ति एक द्वीप की तरह स्वयं को समाज की लहरों से अछूता रखना चाहता है। 'वह तेरा क्या लगता है, या लगती है' इस सामाजिक क्रूरता ने कैसे सर्वत्र पैर पसार लिए हैं। हमें सनसनीखेज खबरों को देखने आैर पढ़कर रद्दी की टोकरी में फेंकने की आदत पड़ गई है। हम लोग अब जीवन के बादलों से यूं गुजरते हैं कि ना उसकी आद्रता को महसूस करते हैं आैर ना ही उसकी बिजली को थामने का साहस रखते हैं। यह निरंतर उपभोगवाद में धंसने का परिणाम है। फिल्म के प्रारंभ में एक पलक झपकते ही चले जाने वाला शॉट है जिसमें एक रेगिस्तानी छिपकली हैंडपंप से रिसते पानी की बूंदों को पीने का प्रयास करती है परंतु असफल होती है। फिल्म का अंतिम शॉट है, रानी मुखर्जी अपराध खत्म करके हैंडपंप से पानी पीती है, मुंह पर डालती है। फिल्म का पहला आैर आखिरी शॉट सिनेमाई मास्टर स्ट्रोक हैं। पूरा समाज रेगिस्तान की तरह हो चुका है, कहीं नखलिस्तान तक का भरम भी नहीं है कि हम सौ कदम चलकर वहां पहुंचें आैर कुछ ना पाकर फिर ठगे जाने के लिए चलते रहें। इस रेगिस्तान में यह मर्दानी एकल महिला जंग छेड़े हुए हैं आैर अब अपने चेहरे, जिस्म पर त्वचा की तरह जमी रेत को धो रही है। ये दो शॉट इसे 'पुलिस-अपराध कथा' से ऊपर उठाकर एक सामाजिक दस्तावेज बना देते हैं। लोप होती संवेदना के काल खंड में भावना को पकड़ने का हलफनामा बना देती है आैर यही मर्दानी व्यवस्था पूरे बाजारी मूल्यों से ग्रस्त समाज को कटघरे में खड़ा करती है। जहां दो घंटे बीस मिनट की फिल्म समाप्त होती है, वहां से यह जीवन मूल्यों आैर आदर्श की अदालत जारी होती है आैर दशकों जारी रहेगी। तमाशबीन आत्म अवलोकन नहीं करता। प्रदीप सरकार की पहली फिल्म शरत रचना पर बनी 'परिणीता' थी आैर उसके अशोक कुमार-मीना कुमारी अभिनीत पहले संस्करण से बहुत कमजोर थी।

अब विमल रॉय बार-बार तो नहीं पैदा होते परंतु प्रदीप सरकार की 'लागा चुनरी में दाग' में क्षीण संकेत था कि यथार्थपरक फिल्म उनके लिए संभव है। 'मर्दानी' उनका अपने से किए वादे का परिणाम है। रानी हमेशा अच्छी कलाकार रही हैं परंतु इस फिल्म में उनका अभिनय उनकी अंतड़ियों से प्रेरित है। मनुष्य के दर्द को देखकर उनकी अंतड़ियों में उठी मरोड़ से ही उनकी ईश्वर प्रदत आंखों का रंग आैर अधिक गहराता नजर आता है आैर सवाल उठता है कि क्या उतने सुंदर नैन बनाने वाला ही प्यारी सी अनाथ को जीवन में नर्क सा दंड देता है। इस फिल्म के खलनायक का चरित्र चित्रण भी कमाल है आैर उस नए युवक का अभिनय भी कमाल है। वह हंसते हुए जितना भय पैदा करता है उतना भय तो गरजते गब्बर, बरसते मोगेंबो भी नहीं कर पाते। गब्बर मोगेंबो मासूम कालखंड के खलनायक हैं आैर यह बाजार काल खंड में संवेदनहीनता के दौर का टेक्नोलॉजी प्रेमी खलनायक है। सारांश यह कि नरगिस की "मदर इंडिया' की ही वर्तमान कड़ी है रानी की "मर्दानी'।