रेहन पर रग्घू / खंड 3 / भाग 12 / काशीनाथ सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रोएँ झड़ गए थे और जो टाट रह गया था? वे नीचे से नंगे थे और गर्भ में पड़े हुए बच्चे की तरह बुक्की मारे बिस्तर पर पड़े थे। उनके ऊपर कंबल के साथ रजाई पड़ी थी जिसके नीचे वे दब-से गए थे!

हीटर से कमरे को गर्म कर दिया गया था!

उनके पैर के एक तलवे में समीर तेल रगड़ रहा था और दूसरे तलवे में सोनल! गरम तेल से। अजवाइन की गंध आ रही थी।

रघुनाथ के गले से निकलनेवाली खर्राटे जैसी साँसें बता रही थीं कि चिंता की कोई बात नहीं है। वे जैसे बेहोशी में लग रहे थे - नींद में ज्यादा, जाग में कम। वस्तुस्थिति को समझने के लिए सोनल ने दो-तीन बार उन्हें आवाज दी। शरीर में जरा- सी हरकत जरूर हुई लेकिन उन्होंने आँखें नहीं खोलीं।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी!

'बत्ती बुझा दें?' समीर ने पूछा।

सोनल ने कहा - 'बुझा दो!'

रघुनाथ का मन हुआ कि मना कर दें।

पैंताने फिर तलवे के पास बैठते हुए समीर ने पूछा - 'कल कै बजे से है तुम्हारा क्लास?'

'कल नहीं, आज कहो! नौ बजे से! लेकिन छुट्टी लेनी पड़ सकती है।'

'अरे नहीं, चंगे हो जाएँगे सुबह तक! टनाटन। केवल ठंड लग गई है। वह तो कहो कि मैं समय पर पहुँच गया। जैसे ही गेट के पास कुछ गिरने की आवाज आई, मैं दौड़ा और देखा तो पापा!'

(देखो इस झुट्ठे का! कहीं नहीं दौड़ा! पोर्टिको से ही डंडे से कोंच-कोंच कर देखा। खुद डरा हुआ था कि जाने क्या हो? कुत्ता, बिल्ली, जाने क्या?)

उन दोनों की आवाजें रतजगे की थीं - खस-खस और फुस-फुस! वे धीमे स्वर में फुसफुसा कर बातें कर रहे थे ताकि रघुनाथ की नींद में खलल न पड़े! उन्होंने अपने नीचे कंबल बिछा रखे थे और शालें ओढ़ रखी थीं!

'एक बात बताओ, पापा। शुरू से ही ऐसे थे क्या? झक्की और जिद्दी। अपने मन के!' समीर बोला।

'पहले यह हाथ हटाओ!'

'कैसा हाथ?'

'यार, सेंसेशन हो रहा है! गुदगुदी। समझते क्यों नहीं?'

'बगल में बैठती हो तो कभी सुनता है मेरी?'

(रघुनाथ को बत्ती गुल होने का रहस्य अब समझ में आया! वे रजाई के अंदर सिकुड़े-सिमटे बंद आँखों से सारा कुछ देख सुन रहे थे और मारे शर्म के न करवट बदल पा रहे थे, न हिलडुल रहे थे!)

'सोचती हूँ, मम्मी और दीदी को खबर दे दूँ सुबह!'

'जैसा चाहो, वैसे जरूरत नहीं लग रही है इसकी!'

'सोचो, अगर तुम न होते तो क्या होता? अकेली क्या करती मैं?... एइयू...!' सहसा चिहुँक उठी वह 'क्या करते हो यह? सब्र नहीं होता?'

'कैसे होगा? ठंड तो देखो?' समीर ने उसके पास - और पास खिसकते हुए कान में कहा - 'रोकना है तो मौसम को रोको। सुन रही हो - फिर टिप्‌-टिप्‌। ये बूँदें कुछ कह रही हैं। क्या कह रही हैं?'

स्वर समीर के गले में कहीं फँस और टूट रहा था!

'सम्मी! प्लीज!' सोनल ने बेचैनी में अपना सिर रघुनाथ के उस पैर पर रखा जिसका तलवा उसकी हथेली में था! उसकी गर्म साँसें उनकी उगलियों पर हवा कर रही थीं!

'यार, उठो तो! पापा सो गए हैं, उन्हें सोने दो!' समीर जैसे गिड़गिड़ाते हुए बोला।

सोनल - घुटनों के बल बैठी और रघुनाथ के तलवे पर माथा टिकाए सोनल - बीच-बीच में सिहर और हिल उठती थी। उसने भर्राई-सी आवाज में कहा - 'समझते क्यों नहीं तुम? इस हाल में कैसे छोड़ दूँ इन्हें? कब क्या जरूरत पड़ जाए?'

लेकिन उसकी नहीं सुनी समीर ने। उसने बैठी सोनल को लगभग अपनी गोद में उठाया और लिए-दिए कमरे से बाहर हो गया!

रघुनाथ को बुरा नहीं लगा! उनके तलवे पर पड़ा हुआ उसका सिर जैसे पहले ही क्षमा माँग चुका था! अभी उम्र ही क्या थी उसकी ? रघुनाथ ने मन बनाया कि अगर वह सचमुच समीर को प्यार करती हो और उसके साथ घर बसाना चाहती हो तो वे पापा की हैसियत से कन्यादान करने में पीछे नहीं हटेंगे।

रघुनाथ को पूरी तरह स्वस्थ होने में एक सप्ताह लग गया। वे रजाई बिछा कर लान में लेटे धूप सेंक रहे थे - दोपहर में। सोनल और समीर अपने-अपने काम पर चले गए थे। कालोनी हमेशा की तरह निर्जन और उदास अपने घरों में सिमटी थी! ऐसे ही में उनके दरवाजे पर एक बोलेरो जीप खड़ी हुई और उसमें से दो नौजवान बाहर आए!

वे पाँव छू कर उनके अगल-बगल बैठ गए ! रघुनाथ ने ध्यान से देखा - वे विश्वविद्यालय के लड़कों जैसे जींस और स्वेटर में थे। एकदम टिप-टाप। भले और सभ्य घर के। पूछने पर नाम नहीं बताया उन्होंने। वे चौकन्ने थे और हड़बड़ी में लग रहे थे। रघुनाथ ने चाय-पानी के लिए पूछा लेकिन उन्हें इतनी फुरसत नहीं थी।

'सर, इस पर सिग्नेचर कर दीजिए!' एक ने एक कागज बढ़ाया जिस पर पहले से कुछ लिखा था।

रघुनाथ ने चश्मा लगा कर पढ़ना शुरू ही किया था कि दूसरे ने छीन लिया - 'हमसे पूछिए न! हम बता देंगे। पहले सिग्नेचर करो।'

रघुनाथ ने उसे घूर कर देखा।

उसने रिवाल्वर निकाल कर दरी पर उनके आगे रख दी!

'कितना दिया नरेश ने? अस्सी हजार? एक लाख? इससे ज्यादा कीमत तो नहीं है जमीन की?'

'सिग्नेचर करते हो कि नहीं?'

'वह तो कर देंगे लेकिन मैं दो लाख दिला दूँ तो?'

'दो लाख? कहाँ से दिलाओगे?'

'इससे तुम्हें मतलब? दिला दूँ तो?'

दोनों ने एक-दूसरे को देखा - 'तो जो कहो, कर देंगे!'

'मार दोगे नरेश को?'

'वह भी कर देंगे!'

'लेकिन मैं उसे मारने के लिए नहीं कहूँगा! काम वह करो जिसमें खतरा न हो, रकम हो, लज्जत हो। जितनी मामूली रकम के लिए दौड़े हुए आए हो उतने की तो पेशाब करता है मेरा एक बेटा!'

'इसीलिए इतना बास मार रहे हो! उसी में नहाते हो क्या?' लंबावाला लड़का व्यंग्य में हँसा।

'क्या बोले?' रघुनाथ अपनी हथेली कान पर ले गए - 'जरा ऊँचा बोलो।'

'कुछ नहीं, बताओ क्या करना है?'

'पहले तमंचा जेब में रखो और वह कागज हमें दो या फाड़ दो!'

'हाँ बोलो!' रिवाल्वर जेब में रख लिया दूसरे ने!

'मुझे ले चलो! अगवा करो मुझे और फिरौती माँगो दो लाख!'

'कौन देगा तुम्हारे जैसे सड़े-गले बुड्ढे का दो लाख?'

'सिर्फ दो लाख इसलिए कि रकम नहीं अखरेगी देने में। मिल भी जाएगी और हत्या से भी बच जाओगे?'

'अरे देगा कौन इस सड़े-गले का?'

'सड़ा-गला तुम्हारे लिए हूँ, बेटों के लिए तो नहीं, बेटी के लिए तो नहीं?'

'मान लो, इनमें से कोई फिरौती देने न आए तो?'

'यही तो देखना है कि कोई आता भी है या नहीं?'

'हम भी यही कह रहे हैं कि कोई न आए तब?'

रघुनाथ ने क्षण भर सोचा - 'तो भी चिंता नहीं। तुम्हारी 'पकड़' इतनी गई-गुजरी नहीं। इतना है मेरे पास कि खुद को छुड़ा लूँ!'

'बैठे रहो, हिलना मत!' दोनों उठे, थोड़ी दूर जा कर आपस में खुसुर-फुसुर किया, फिर वहीं से आवाज दी - 'ठीक है, चलो!'

'तो आओ, समेटो रजाई!' रघुनाथ घुटनों पर हाथ रख कर उठ खड़े हुए!

दोनों ने चकित हो कर देखा उन्हें - 'रजाई क्या करोगे?'

'ओढ़ेंगे, बिछाएँगे, सिरहाना बनाएँगे - जरूरत पड़ेगी तो लुंगी मार लेंगे, और क्या?'

रिवाल्वरवाले लड़के ने रजाई समेटते हुए पूछा - 'कुछ खास है क्या इस रजाई में?'

'है न? बेटे ने भेजा है केलिफोर्निया से।'

'लेकिन यह रजाई तो नहीं लगती।' दूसरे ने संदेह जाहिर किया।

'लगे न लगे, मैं तो यही बोलता हूँ।' कहते हुए रघुनाथ चल पड़े।

'ऐ बुड्ढे, चलता कहाँ है? कम से कम पैसा तो रख ले दस दिन के फोन-फान, राशन पानी, पेट्रोल वगैरह का? खाएगा क्या?'

'सब हमीं करेंगे तो तुम क्या करोगे? बैठ कर नोट गिनोगे?' रघुनाथ की भवें तन गईं। उनके अंदर का मास्टर फनफना उठा - 'और सुनो, तुम्हारे जैसे लौंडों को पढ़ाते हुए उमर गुजरी है मेरी, इसलिए तमीज से बात करो। मेरी जरूरत तुम्हें है, मुझे कोई जरूरत नहीं है तुम्हारी। समझा?'

रिवाल्वर वाला लड़का बुदबुदाया धीरे से - 'चल तो पहले! वहीं बताते हैं कि किसकी किसको जरूरत है?'

'कुछ कहा?' रघुनाथ ठिठक गए!

'कुछ नहीं, चलो!'

रघुनाथ जब छड़ी के सहारे बाहर आए तब उनका चेहरा बंदरटोपी के अंदर था और रजाई लड़के के कंधे पर! वे आगे-आगे, दोनों अपहर्ता लड़के पीछे-पीछे - जैसे वे बेटों के साथ मगन मन तीरथ पर जा रहे हों।

समाप्त