रॉड / विनोद दास

Gadya Kosh से
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प्रेम से उसे घृणा थी.

विकास के लिए प्रेम छूत की बीमारी की तरह था.समाज में प्रेम की इस बढ़ती बीमारी की चिंता से विकास का खून गर्म हो जाता. उसका बस चलता तो उन जोड़ों पर खूँखार कुत्ते छोड़ देता जो शादी के पहले खुले आम चूमा-चाटी करते हैं. उसे यह रोग तथाकथित पश्चिमी आधुनिकता जम्बू दीपे भारत खण्डे की पावन संस्कृति को दूषित करने का विदेशी षड्यंत्र लगता. इस कुसंस्कार को जड़ से उखाड़े बिना भारतीय संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती. इस विनाशकारी बीमारी से निपटने के लिए विकास दुबे इधर अपनी बाइक के पीछे लोहे की एक रॉड हमेशा बाँधे रखता था. उसका विश्वास था कि डण्डे के बिना देश सुधर नहीं सकता. रॉड का इस्तेमाल वह प्रेमी जोड़ों को डराने के लिए करता. मारने के लिए वह हाथों का इस्तेमाल करता. यह काम अकेले नहीं हो सकता. अकेले में असुरक्षा और डर है. डराने के लिए समूह चाहिए. समूह और विवेक के बीच दोस्ती नहीं होती. मूढ़ता समूह को एक दूसरे से जोड़ने में गोंद का काम करती है. चार-पांच लड़कों की उनकी भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी थी. विकास और उसके साथी दर्शन वर्मा के पास बाइक थी. विधर्मी लड़के के साथ कोई हिन्दू लड़की पार्क के कोने में या सिनेमा हाल में है, ऐसी ख़बर पाते ही उस वाहिनी के मोबाइल खनखनाने लगते. बाइक पर सवार होकर पवन गति से वे वहाँ पहुँचकर प्रेमी जोड़ों पर हमला कर देते. बिना किसी पूछताछ के ताबड़तोड़ मारना उनकी सोची समझी रणनीति होती. स्वधर्मी लड़का होता तो डाँटकर भगा देते. विधर्मी लड़का होता और स्वधर्मी लड़की होती तो विधर्मी लडके की शामत आ जाती. कई बार उनके ख़बरी गलत भी साबित होते. कई बार प्रेमी जोड़े में कोई विधर्मी नहीं होता.

एक बार नवविवाहित स्वधर्मी जोड़े को उन्होंने पीट दिया था. विवाहिता की ग़लती यह थी कि उसने आधुनिक बनने के फेर में माँग में सिन्दूर नहीं लगाया था. दर्शन वर्मा को उन्हें पीटने का कोई पछतावा नहीं था. उसके मुताबिक़ भारतीय संस्कृति न मानने की सज़ा उनको मिली. यदि नवविवाहिता सिन्दूर लगाए होती तो उसका पति न पिटता. उनकी वाहिनी को यह सब सरासर बेवकूफी और फ़ज़ूल की बातें लगतीं, जब कोई लड़का किसी लड़की की आँखों में आँख डालकर कहता कि उसका चेहरा चाँद सा हसीन है या वह बहारों की मलिका है. भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी के सैनिकों को यह सब गिलगिली भावुकता अपने भीतर जमी गन्दी हवा निकालने जैसी लगती. यही नहीं,उन्हें किसी लड़की के प्रेम में डूबे नाकामयाब आशिक़ का आसमान में बादलों का ताकना या अकेले में ग़मभरे फ़िल्मी गाने गाना या शेरो-शायरी पढ़ना आजकल के तरुणों के समय की बड़ी बर्बादी ही नहीं लगती बल्कि ऐसे नवजागरण के समय में राष्ट्रद्रोह लगता, जबकि देश का प्रधान दिन में अठारह घण्टे काम करके अपने राष्ट्र को अन्तरराष्ट्रीय क्षितिज पर ले जाने के लिए प्राणप्रण से जुटा हो.

पैण्ट की पिछली ज़ेब से पल छिन पर छोटी कंघी निकालकर बाल काढ़नेवाले किशोरों को भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी के सैनिक घूर-घूर कर ऐसे ताकते जैसे वे ऐसे भिनभिनाते मच्छर हों, जिनसे पूरी बस्ती में डेंगू या मलेरिया फैल सकता है. विकास ने ख़ुद का हुलिया भी बदल लिया था. छोटे-छोटे बाल, खेत में उगी ठूँठी की तरह खुरदुरी दाढ़ी, ढीली ढाली पैण्ट-शर्ट और माथे पर लाल तिलक — यही उसकी धजा थी. गले में लाल गमछा उसका ट्रेड मार्क था.

लड़कियों के सजने-सँवरने से विकास को बड़ी कोफ़्त होती. बनी - ठनी लड़कियों को स्कूल या कॉलेज जाते हुए देखकर उसे लगता जैसे वे पढ़ने के लिए नहीं, धन्धे के लिए निकली हों. खुले अंगों वाली लड़कियाँ उसे मर्दों की नज़रों को अंगों से खेलने के लिए खुल्लमखुल्ला न्यौता देती लगतीं. लड़कियों का सड़क पर लड़कों को देखकर आपस में कुहनी मारना या खीं-खीं कर हँसना उसे बेहद अश्लील लगता. उसकी बहन भी जब सज-सँवरकर घर से बाहर निकलती तो उसकी भवें चढ़ जाती. एक बार पड़ोस के लड़के के साथ उसे हँसते हुए देखा तो उसने अपनी बहन को एक झन्नाटेदार चाँटा रसीद कर दिया. तब विकास की माँ ने उसे खूब लताड़ा था — ”जवान बहन का इ तरह मारा जात है।” तब उसने फनफनाते हुए कहा था, — “औरत जात् को मर्याद मा रहेक चाही.”

संस्कृति वाहिनी के सब सैनिक हर शाम को लखन होटल में मिलते. इस वाहिनी के चाय-पानी का ख़र्चा एक छपी रसीद से चलता. हमारा देश उत्सव प्रिय देश है. कभी कोई जयन्ती होती तो कभी त्यौहार टपक पड़ता. वाहिनी का भौकाल इतना ज़बरदस्त था कि इनके ’जय श्रीराम’ बोलते ही दुकानदार अपने गल्ले से नोट निकालना शुरू कर देते और चन्द खरखराते नोटों की दान - दक्षिणा देकर अपनी या अपने दुकान की सुरक्षा ख़रीद लेते. ज़्यादातर हिन्दू दुकानदार ईश्वर भक्त होते, लेकिन इन नए लाल गमछावाले भक्तों से उनकी रूह काँपती. ऐसा भी नहीं था कि उनकी संस्कृतिवाहिनी जयन्तियाँ नहीं मनाती. वह मनाती, लेकिन फिर भी इतना माल-मत्ता बच जाता कि उनका पान-मसाला या लखन होटल की शाम की अड्डेबाजी के लिए चाय-पानी का खर्चा निकल ही आता.

लखन होटल मुख्य शहर से कुछ दूर था, जहाँ ऑटोमोबाइल्स की दुकानें एक कतार में थीं. होटल की कड़क चाय, चाउमिन और चाइनीज़ पास्ते का कोई जवाब नहीं था. यहाँ सुबह-शाम समोसा भी बनता. ऑटोमोबाइल्स के मिस्त्री और दुकानदारों के लिए यहाँ से अदरक-चीनी की खूब उबाली कड़क चाय जाती. यह तो अच्छा था कि मिस्त्रियों की घरवालियाँ यहाँ कभी नहीं आतीं, नहीं तो,कालिख़ पुती उनकी बनियान और देह देखकर ग़श खाकर ज़मीन पकड़ लेतीं. घर जाने के पहले मिस्त्री अपना चेहरा रगड़-रगड़ कर धोते और गन्दी बनियाइन उतारकर सुबह वाली साफ़ कमीज़ पहनकर घर जाते. छह गिलासवाले स्टैण्ड में एक लड़का उन मिस्त्रियों की माँग पर चाय पहुँचाता था. एक बड़ी काली कढ़ाही में सेवइयों की तरह सफ़ेद नूडल्स नौजवानों को लुभाते रहते. पास में एक टोकरी में पत्ता गोभी, गाजर, शिमला मिर्च और प्याज़ सजे होते. आर्डर मिलते ही लखन के हाथ हरकत में आ जाते. उसके गले में एक काले धागे में ताबीज़ झूलता रहता था. पसीने से तर कमीज़ से काली देह चमकती रहती. वह एक चिकने पत्थर पर एक बड़े तेज़ चाक़ू से गाजर और शिमला मिर्च बारीक-बारीक कतरने लगता. दो ट्रे में प्याज के गोल छल्ले और गाजर की कतरनें पहले से कटी रखी होतीं. पास में चिली सॉस, सोया सॉस और विनेगर की बोतलें सजी रहतीं. एक जले से काले फ़्राईपैन में हलके तेल में लखन उबले नूडल्स डालता. दो मिनट पकाकर पलटे की खट -खट कर इधर-उधर उछालता, फिर सॉस विनेगर डालकर ग्राहक के सामने रखने में उसे देर नहीं लगती. प्लेट देते समय वह जब मुस्करा कर कहता — “लीजिये भइया” — तो ग्राहकों को उसकी मुस्कराहट में सिरके की गन्ध आती.

शहर के नवजवानों का यह प्रिय अड्डा था. शहर में कहाँ क्या चल रहा है, इसकी पूरी ख़बर यहाँ शाम की चाय की चुस्कियों पर पता चल जाती थी. कहाँ किसका नैन-मटक्का चल रहा है, कौन किसकी बहन को बाइक पर बैठाकर उड़ रहा है? शहर में किसकी रंगदारी चल रही है? किस सड़क का बनाने का ठेका किसको मिला और किसने दिलाया है? कौन सा जिम अच्छा है? कौन से कॉलेज में किस तरह एडमिशन मिल सकता है? परीक्षा में नक़ल के लिए कौन सा सेण्टर अच्छा है — ऐसे विषयों पर इन युवा विशेषज्ञों की राय निशुल्क यहाँ मिलती. यहाँ से व्हाट्स-एप के नए-नए मीम बनते.

अचानक विकास की नज़र लखन टी स्टाल की दीवार पर लगे पोस्टर पर पड़ी.

सुनहरा मौक़ा, सुनहरा मौक़ा

मिस सिटी सौन्दर्य प्रतियोगिता

अगर आप पच्चीस साल की लड़की हैं.

अपने को खूबसूरत समझती हैं.

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सम्पर्क : विज़न एण्टरटेनमेण्ट, नाका चौराहा

पोस्टर को देखते ही विकास का एण्टीना सक्रिय हो गया. उसे लगा कि उसके शहर में नंगई की गन्दगी बढ़ती जा रही है. यह गन्दगी देह या ज़मीन की नहीं, दिमाग़ की भी है. एक दिमाग़ से दूसरे दिमाग़ तक बड़ी तेज़ी के साथ संक्रामक रोग की तरह पहुँचती है. पश्चिमी समाज की गन्दगी साफ़ करने के लिए विचार का झाड़ू ही नहीं, लोहे का रॉड भी चाहिए.

जिनके विचार में जंगली प्रेतों का वास हो, उनके ज़ेहन में ऐसे कीड़े चलते रहते हैं.

हालाँकि इसके बरक्स शहर के मध्यवर्गीय परिवारों में भूचाल आ गया था. पच्चीस साल से बड़ी तमाम लड़कियों के सपनों पर तुषारापात हो गया था. पच्चीस साल से कम वाली नाटी लड़कियाँ कुछ ज़्यादा ही निराश थीं. उन्हें पता था कि ब्यूटी काण्टेस्ट में लम्बी लड़कियाँ ही चुनी जाती हैं. उनमें कुछ लड़कियों ने गूगल करके पता किया कि कितने सेण्टीमीटर तक ऊँची प्रतियोगी को चुना जाता है. फिर इंच - टेप से अपने को नापने की कवाइद भी की. जिन लड़कियों का क़द मानक सीमा से कुछ इंच कम रह गया वह अपने मां-बाप के छोटे कद को कोसने लगीं.जिन लड़कियों का क़द ठीक-ठाक था और देखने में भी जरा -मरा लुभावनी लगती थीं, वे आइने के सामने खड़ी होकर विभिन्न कोणों से अपनी देह निहारते हुए रैम्प पर चलने की कल्पना करने लगीं. जो लंबी थी लेकिन रंग दबा या सांवला था.वह गोरी बनाने वाली तमाम क्रीम खरीद लायीं.शहर में गोरी त्वचा को बनानेवाली क्रीमों की किल्लत हो गयी.पोस्टर देखने के बाद इन लड़कियों का मन घर के कामकाज और किताबों से उचटने लगा.वे मेकअप,फैशनबल कपड़ों और सैंडिलों की दुकानों में मंडराती रहतीं.रद्दी और ऊँघते ब्यूटी पार्लरों में भी रौनक आ गयी थी.मशहूर ब्यूटी पार्लरों में प्रतियोगितावाले दिन के लिए एडवांस बुकिंग हो गयी थी.हालांकि बेटियों के कुछ पिताश्री खलनायक की तरह उनकी कल्पनाओं को कतरने के लिए अपनी कैचियां तेज़ करने लगे थे.लेकिन फ़िल्मी अफवाहों और गप्पों से बावस्ता कुछ मॉम अपनी बेटियों को फ़िल्मी तारिका और अपने को तारिका की खुर्राट मॉम की तरह देखने लगी थीं.वे इसे अपनी बेटियों के शानदार करियर की तरह ले रही थीं.यह नया समय था.कई माएं तो सपने भी देखने लगी थीं कि जब वह अपनी फिल्म तारिका बेटी के साथ फिल्म सूटिंग पर जायेंगी तो प्रोडूसर से अपनी बेबी के बहाने किन-किन चीज़ों की मांग अपने लिए भी करेंगीं. सौंदर्य प्रतियोगिता पर संस्कृति वाहनी की बैठक लखन होटल में हुई.सभी सदस्यों ने एकमत से माना कि यह हमारे घर की बहनों-बेटियों को बर्बाद करने का षडयंत्र है.यह तय हुआ कि सबसे पहले दीवारों पर लगे पोस्टर फाड़ने और उस पर कालिख़ पोतने की मुहिम चलायी जाय.पोस्टर फाड़ने की मुहिम कामयाब तो रही लेकिन सौन्दर्य प्रतियोगिता के प्रबंधकों पर इसका असर नहीं पड़ा.उन्होंने सौन्दर्य प्रतियोगिता का विज्ञापन स्थानीय अखबार में प्रकाशित करवा दिया.इसके साथ उसी दिन अख़बार के सिटी परिशिष्ट में तीन कालम में खबर भी छपी जिसमें बताया गया था कि मिस सिटी बननेवाली लड़की को एक टीवी सीरियल में भूमिका देने के अलावा उसके एक परिजन के साथ सिंगापुर की मुफ़्त सैर भी करायी जायेगी.इस खबर से उन लड़कियों की भी दबी ख्वाहिशें जाग उठीं जो माता-पिता के डर से पर्दे में अब तक छिपी हुईं थीं.कुछ लड़कियाँ बाग़ी होने को तत्पर थीं जबकि कुछ अपनी कायरता को कोस रही थीं. कुछ आयोजन अपने साथ ख़ास दुनिया ले आते हैं.सौन्दर्य प्रतियोगिता के साथ रोशनी की जगमगाहट,संगीत की मीठी ध्वनि लहरियां,बड़े-बड़े कट-आउट,रंगी चुंगी फैशनपरस्त तितलियाँ और सजे धजे भवरें.पूरा कार्यक्रम चौंचक लग रहा था जैसे गहरे प्रेम में डूबी आबोहवा प्रणय के लिए आमंत्रित कर रही हो.उस दिन हल्की सर्दी थी.वाहिनी के सैनिक हनुमान सरीखे थे.उन्हें आयोजन स्थल की चमक-धमक आधुनिक लंका जैसी लग रही थी.वे जानते थे कि यह उस तरह का स्कूली अनुष्ठान नहीं है जो कमसिन कुमारियों की या कुंदेंदु तुषार हार धवला की समवेत सुर लहरी से शुरू होता है.दिया-बत्ती जलाकर ज्ञान के प्रकाश को बिखेरने की रस्म भी नहीं थी.वेलकम एड्रेस की लंबी कवाइद के बाद शहर की सुंदरियां स्टेज पर एक -एक करके अवतरित होने लगी.विकास को लगा जैसे इंद्र सभा की अप्सराएं हों.संस्कृति रक्षा वाहिनी के शूरवीरों ने प्रवसि नगर कीजे सब काजा की हुंकार के साथ जय श्रीराम का उद्घोष किया और वानर रूप में आ गये.मंच टूटा.माइक लुढका.कुर्सियां फेंकी गयीं.लड़कियां “हाय मम्मी हाय अम्मी” कहकर भागीं.बुज़र्ग भागते हुए कुर्सियों में अरझ गये.जब तक आयोजकों के गार्ड और पुलिस आती वे सब रफ्फूचक्कर हो गये.अगले दिन अखबारों में शहर के पन्ने पर फ़ोटो के साथ खबर छपी.सौदर्य प्रतियोगिता का विज्ञापन छापनेवाले अखबारों ने जिले की क़ानून-व्यवस्था को लताड़ा.पुलिस हरकत में आ गयी.हुडदंग करने से संस्कृति वाहनी सेना के बांकुरों में रक्त संचार बढ़ जाता.लेकिन पुलिस पकडती भी है,इसका ज्ञान उन्हें न था.हालांकि जितनी फुर्ती से पुलिस ने विकास और उनके साथियों को धर दबोचा,उतनी ही ज़ल्दी गुरु जी की कृपा से उन्हें डांट डपटकर छोड़ भी दिया गया. बस उसी दिन से विकास गुरु जी भक्त हो गये.गुरु जी की जिले में धाक थी.वह पार्टी में किसी पद पर नहीं थे लेकिन पार्टी में उनकी तूती बोलती थी.वह एक ऐसे सांस्कृतिक संगठन में थे जो घोषित रूप से राजनैतिक नहीं था लेकिन वह सबसे अधिक राजनीति करता था.गुरु जी की शिक्षा के बारे में किसी को पता नहीं था लेकिन संगठन के स्कूल की कार्यकारिणी में उनका ज्ञान ही चलता था. विकास को लगा कि गुरु जी सर्व शक्तिमान हैं लेकिन उनकी एक ही कमजोरी है,वह अंग्रेज़ी में गूंगे हैं. विकास को वैसे पश्चिमी संस्कृति से वैर था.लेकिन पिछले दिनों उसे यह इल्हाम हुआ कि भारतीय संस्कृति के शिखर पुरुष भी अंग्रेज़ी ज्ञान के सहारे ही सफलता के चरण चूम पाए हैं चाहे वह महान विवेकानंद हों या भारत के राष्ट्रपति और भारतीय दर्शन के उद्भट विद्वान सर्वपल्ली राधाकृष्णनन.विकास विवेकानंद का परम भक्त था.अंग्रेज़ी लिखना भले न आये लेकिन बोलना आना चाहिए.वह विवेकानंद की तरह सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का ध्वज फहराना चाहता था. विकास के पिता राम कृपाल दुबे कचहरी में बाबू थे.वह शाम को कचहरी से जब घर लौटते,रिक्शा रुकवाकर सब्ज़ी-फल लेने के बाद मिठाई की दुकान से एक पाव कलाकंद लेना न भूलते.कचहरी जाते समय उनकी जेब में सिर्फ़ उतने ही रूपये होते जितना रिक्शा का किराया होता.लेकिन घर लौटने पर जब अपनी जेब से घूस की कमाई खाली करते तो पत्नी उसे भगवान के श्रीचरणों में रखकर उसे प्रसाद मानकर तिजोरी में रख लेती.दुबे बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने का सपना देखते थे.कॉलेज आने-जाने में समय बर्बाद न हो,यह सोचकर विवेक को प्रसाद पूंजी से बाइक दिला दी थी.पहले विकास कलेक्टर बनने की दृष्टि से किताबों में चींटी की तरह चिपका रहता था लेकिन जबसे उसकी दोस्ती शुभम मिश्र से हुई,उसे लगने लगा कि देश के सामने बड़े-बड़े सवाल सफ़े बांधे खड़े हैं.उसे देश और समाज के बारे में सोचना होगा.जब तक उन सवालों का सफाया नहीं होगा,वह क्लेक्टरी के बारे में न तो सोचेगा और न ही उसके लिए कोई प्रयास करेगा.वैसे भी जबसे उसे पता चला कि सरकारी नौकरी में आरक्षण का लफड़ा बढ़ गया है,उसकी कलेक्टर तो दूर बाबू बनने की उम्मीद पर भी राख पड़ चुकी थी.अजित सिंह हमेशा रोजगार समाचार देखता और निराश होकर कहता कि आजकल सरकारी नौकरियों के विज्ञापन बहुत कम निकलते हैं.वह अजित सिंह को कम्पटीशन गाइड में आँख फोड़ते हुए जब देखता तो ललकार कर उसे अपनी संस्कृति रक्षा वाहिनी में आने की दावत देता रहता. विकास ने तय कर लिया था कि वह गुरू जी की तरह समाज सेवा करेगा.गुरु जी की धाक और उनका रुतबा इतना है कि कलेक्टर भी उनके सामने पानी भरते हैं.थोड़ा बदलकर कहा जाय तो विकास के आदर्श गुरुजी थे.गुरु जी दुलंगी धोती-कुर्ता पहनते.जब भी किसी आयोजन या कार्यक्रम के उदघाटन के लिए जाते,भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी की सेना उनके साथ होती.आमंत्रण सिर्फ गुरु जी को मिलता लेकिन गुरूजी में सेना अदृश्य रूप से शामिल मानी जाती.विकास भी उनके सैनिकों में भर्ती हो गया था.वह शादी हो या मुंडन या जन्मदिन या कोई सभा या संगोष्ठी,गुरु जी के अंगरक्षक के रूप में उनके साथ मुस्तैदी के साथ लगा रहता.इस सेवा के बदले कार्यक्रम या अनुष्ठान में उसकी जिह्वा को मुफ्त में सुस्वाद आहार से तृप्ति मिलती.गुरु जी धीमी आवाज़ में हिंदी की तत्सम पदावली में रुक-रुक कर ऐसा बोलते जैसे उनके मुखारबिंदु से अभी अमृत वाणी की वर्षा होगी, जब वह बोलते तो उसमें कोई सार नहीं होता,फिर भी उनकी वाहिनी के सैनिक अपनी करतल ध्वनि से उसे दिव्य वाणी समझते.बस गुरुजी वहीं लड़खड़ाते जब उनको अंग्रेज़ी बोलनी पडती.फिर वह इधर-उधर बगले झाँकने लगते.विकास अपने साथ ऐसी कोई सूरत आने नहीं देना चाहता था.वह इस कल्पना से बिलकुल निराश हो जाता कि राष्ट्रीय नेता बनने पर जब पत्रकार उससे अंग्रेज़ी में सवाल पूछेंगें तब हिंदी में उत्तर देने पर उसका मुंह कद्दू सा दिखेगा. अंग्रेज़ी भाषा सीखने की प्यास बुझाने की तलाश में विकास कई कुँओं के पास जा चुका था.रेपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग बुक से लेकर अंग्रेज़ी खबरों को सुनने तक कवायत कर चुका था.वह सीखने के लिए जो कुछ शुरू करता तो पहले दिन बहुत उत्तेजक और सकारात्मक लगता.लेकिन एक-दो दिन में ही उसके हौसला पसीना पसीना होकर हांफने लगता.उसके पस्त हौसले के गुब्बारे में हवा भरने के लिए विकास के जामवंत मित्र शुभम मिश्र ने अंतर्ज्ञान दिया कि “वत्स ! तुम्हारे संकट का हल और कहीं नहीं,सिर्फ अंग्रेजी स्पीकिंग स्कूल है.” अंग्रेज़ी बाज़ार की भाषा है.ताकत की भाषा है.वह बिकती है.वह स्कूलों में बेची जाती है.वह सामान बेचने के काम आती थी.दफ्तरों में उसका रौब चलता है.समाज में आदर मिलता है.हर कोई उसे खरीदकर अमीर बनना चाहता है. इसीलिए विकास के शहर में अंग्रेज़ी स्पीकिंग स्कूलों की बहार आयी हुई थी.नवजवानों को समझ में आने लगा था कि अंग्रेज़ी न बोल पाना ही भारत में सफलता की राह में सबसे बड़ी दीवार है.अंग्रेज़ी जानने से ज्यादा महत्त्व अंग्रेज़ी बोलने का है.प्राइवेट कंपनियों में नौकरी के इंटरव्यू में चुने जाने के लिए प्रतिभागियों के आत्मविश्वास के बाद उनके अंग्रेज़ी बोलने की क्षमता को ही तरज़ीह दी जाती.लड़कियों के विवाह के विज्ञापन में भी अंग्रेज़ी बोलने वाली लडकी को वरीयता दी जाती.लड़कियां भी उन्हीं लड़कों को ज्यादा भाव देती जो फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते. विकास की बाइक कई अंग्रेज़ी स्पीकिंग स्कूल गयी.सभी स्कूल ऊपरी मंजिल पर थे.उन सेंटर के क्लास रूम में एक ब्लैक बोर्ड और बैठने के लिए बेंचें या प्लास्टिक की कुर्सिया थीं.दो सेंटर में एसी की ठंडी हवा भी बह रही थी.फैन वाले सेंटर की फीस कम थी और एसी वाले सेंटर की ज्यादा.फ्यूचर लर्निंग सेंटर में एसी नहीं,फैन था लेकिन क्लास रूम में पुरानी लकड़ी का एक पोडियम भी था.पोडियम देखकर विकास का मन उसमें अटक गया.उसे लगा कि एक नेता को पोडियम से बोलने का अभ्यास होना चाहिए.विकास को पोडियम देखकर सहसा लगा कि बोलने का तिलिस्म शायद यहीं से जन्म लेता है.पोडियम और माइक का साथ हो तो संवाद स्वयं बोलने के लिए भीतर कुछ भी अपनी दिशा तय करने लगता है.मसाला चाहे हो या न हो या छोटी-छोटी बेकार की बातें हो,पोडियम का सहारा लेकर पानी के बहाव की तरह बगैर किसी रुकावट के उसने लोगों को गगनचुंबी भाषण घंटों बोलते सुना है.कोई उसे नियंत्रित नहीं कर सकता.तीव्र गति के धावक की तरह उनकी जबान किसी भी दिशा में दौड़ती रहती है. फ्यूचर लर्निंग सेंटर के क्लास रूम की बेंच पर जब विकास पांव लटकाकर बैठता तो उसे मच्छर काट काट कर बेहाल कर देते थे.कभी पंख फैलाकर वे उसके हाथों पर बैठ जाते थे तो कभी बालों में रेंगने लगते.कभी उसके कानों में मीठी तान छेड़ देते तो कभी नाक के छेदों के सामने भिनभिनाकर जीना मुहाल कर देते.पंखे सिर्फ़ इरफ़ान मास्टर साहेब के ऊपर चलते थे.पंखे की हवा उसके पास तक नहीं पहुँचती थी.गर्मी से कई बार कमीज़ पसीने से भीग जाती थी. वह मच्छर को मारने या उड़ाने के फेर में कई बार इरफ़ान मास्साब की बातों की ओर ध्यान नहीं दे पाता था.कई बार विकास की नज़र दीवाल पर रेंगती जीभ लपलपाती छिपकली पर अटक जाती.उसका मन करता कि चप्पल खींचकर उसका काम तमाम कर दे.एक बार क्लास खत्म होने पर उसने चप्पल खींचकर मारा भी लेकिन वह छिपकली इतनी चपल और चतुर थी कि चप्पल का निशान दीवार पर बन गया लेकिन वह भागकर बच गयी.चप्पल का निशान स्थायी तौर पर दीवाल पर छप गया था जिस पर उसकी जब भी नज़र पड़ती तो उसे लगता कि छिपकली उसे जीभ दिखाकर चिढ़ा रही है. छिपकली की तरह उसे कल्पना निगम भी चिढ़ाती लगती.वह जब कान्वेंटी स्टाइल में अंग्रेज़ी में गिटपिट करती तो उसे उसकी ज़बान छिपकली सी लगती.कॉलेज के चुनाव में कल्पना निगम ने सचिव पद के लिए उसे तीस वोटों से हरा दिया था.विकास को लगता था कि कल्पना की उस जीत में उसके अंग्रेज़ी बोलने का बड़ा हाथ था.उसने अपने अज़ीज़ दोस्त शुभम मिश्र से यह झूठ बोला था कि वह राष्ट्रीय नेता बनने के लिए अंग्रेज़ी बोलना सीखना चाहता था.वह दरअसल कल्पना निगम को यह दिखा देना चाहता था कि वह भी अंग्रेज़ी बोल सकता है.कल्पना निगम विकास दुबे को ऐसी हिकारत से देखती जैसे वह कोई उजड्ड हो.वह सोचता कि अंग्रेज़ी ज्ञान न होना क्या मूर्खता की निशानी है.क्या कल्पना निगम मन ही मन उसका मज़ाक उडाती है.फिर उसे लगा कि वह फ़िज़ूल में कल्पना निगम के बारे में सोच रहा है.वह उसकी क्या लगती है? क्या वह उसकी प्रेयसी है? उसे तो प्रेम से घृणा है.अचानक उसे लगा कि वह व्यर्थ में ही अपने समय इस इन विषयों पर नष्ट कर रहा है.प्रेम से ही नहीं,कल्पना निगम के बर्ताव के कारण अब उसे लड़की जाति से भी घृणा होने लगी थी. लेकिन कल शाम से उनका मन भटक रहा है.उसका चेहरा उस समय शर्म से बुझ कर स्याह हो गया जब कोचिंग सेंटर के इरफ़ान मास्साब ने वोट को ओट कहने पर उसे टोका.जनुअरी को जनवरी और फेब्रुअरी को फरवरी कहने के लिए बारहा अभ्यास कराया.फिर भी वह उन शब्दों को इरफ़ान मास्साब के उच्चारण की तरह बोल नहीं पाया.उस समय उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसका मष्तिष्क एक दुर्भेध्य पाषण शिला की तरह निस्पंद,निर्जीव और जड़ है.उसे एक ही शब्द बार-बार दोहराना और इरफ़ान मास्साब का बार-बार उसे सुधारकर बोलने के लिए कहना किसी यंत्रणा से कम नही था.वह भीतर ही भीतर रुआंसा हो गया था.वह आत्मग्लानि से भर गया.उसे लगा कि जैसे कोई उसके पूरे वज़ूद पर हथौड़ा मार रहा है.यह उनके लिए अपमान की घड़ी थी.कुछ अपमान ऐसे होते हैं कि उन्हें जीते जी मनुष्य के वजूद से अलग नहीं किया जा सकता.यह अपमान कुछ ऐसा ही था.उसे उस दिन लगा कि उसका सबसे बड़ा संघर्ष अंग्रेज़ी से है.इस आत्मबोध से उसे पहली बार लगा कि वह अपने आपको देखना सीख रहा है.वह अभी तक दूसरों को देखता था,अपने को देखना कितना कठिन है.निस्संग होकर अपने भीतर झाँकने से हम अपने को पहचान सकते हैं.लेकिन अपनी कमजोरियों को स्वीकार कर पाना अपने अहम को मिटाना हैं. यह आसानी से नहीं होता.विकास से भी नहीं हुआ. एक दिन इरफ़ान मास्साब ने उसे अंग्रेज़ी सीखने की आँखें दे दीं.उन्होंने एक क्लास में मज़ाक में कहा या उसमें अनुभूतिगत सत्य था,कहना मुश्किल है लेकिन किसी अधखुली आँखों वाले महर्षि के आध्यात्म सा उसका असर विकास के अंतर्लोक पर पड़ा.उनकी यह अनूठी सीख थी कि जिस भाषा को सीखना हो,उस भाषा को अच्छे बोलनेवाले से दोस्ती या प्यार कर लो.इरफ़ान मास्साब के इस अपूर्व प्रबोध के समाधान खोजने की प्रक्रिया में विकास का चित्त उस पर जा टिका जिसे वह अब तक छिपकली मानता था. जी हाँ -कल्पना निगम कल्पना निगम का नाम विकास के दिल में चिड़िया की तरह फुदकने लगा.उसके परिचितों में वह ही अच्छी अंग्रेज़ी बोलती है.लेकिन कल्पना निगम लड़की है और वह ब्रह्मचारी.उसका प्रण टूट जाएगा.भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी में उसके नाम पर थू-थू हो जायेगी. विकास अपने जामवंत शुभम मिश्र की शरण में फिर पहुंचे.जामवंत ने गहन चिंतन के बाद कहा कि “बड़े मनोरथ पूरा करने के लिए लोकलाज की बलि देनी पड़ती है.तुम्हें विश्व पटल पर पहुंचना है.इसकी पहली सीढ़ी कल्पना निगम है.वत्स ! उससे मैत्री करो.अंग्रेज़ी सीखो.” विकास के अन्तःकरण में अब कल्पना निगम थी,लेकिन पहुंच से बाहर.मुठ्ठी में पानी की तरह.कल्पना निगम से वह कॉलेज इलेक्शन में पराजय का स्वाद चख चुके थे.उससे दोस्ती के लिए हाथ पसारना एक और शिकस्त लग रही थी.वैसे भी विकास को यह इल्हाम था कि वह उसे अपने टाइप का नहीं समझती.ख़ूबसूरती के पैमाने पर कल्पना निगम दहकती शोला नही थी लेकिन उसकी शख्सियत में हल्की आंच ज़रूर थी.आधुनिक,आभिजात्य,आत्मविश्वास से भरी जबकि विकास खुद देहाती,उजड्ड और पोंगा.विकास को दोनों के बीच जुड़ने का कोई सूत्र नहीं मिल रहा था.वह पशोपेश में था कि जब उन दोनों के बीच बातें ही नहीं होंगी तो उसकी अंग्रेज़ी बेहतर कैसे होगी.उससे दोस्ती के लिए वह खुद कैसे बदले.उसके भीतर की दीवारें सीलन भरी हैं,बाहरी रंग रोगन से क्या होगा.वह अपने मन से लड़ रहा था और पस्त हो रहा था.मनुष्य अपने मन की अंधेरी कोठरी में जाने से सबसे अधिक बचता है.वह भी बच रहा था.आख़िरकार उसे एक बार फिर अपने प्रिय जामवंत शुभम मिश्र के वचनों की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस हुई. जामवंत शुभम मिश्र ने सलाह दी.” वत्स ! असफल होने से न डरें.डर के आगे जीत है.” विकास ने फिर पूछा,:कल्पना तक पहुंचने का रास्ता क्या हो?” उनके जामवंत शुभम मिश्र खुद एक लड़की के मामले में गच्चा खा चुके थे.उनकी चोट ऐसे सवालों की ठंड में जब तब उभर आती थी.लेकिन आज उनके दिमाग में ज्ञान की बिजली कौंधी. “वत्स ! तुम इक्कीसवीं सदी में हो.अठारहवीं सदी के अस्त्रों से कैसे विजय प्राप्त करोगे ?मोटर साइकिल से उसकी स्कूटी का पीछा करने से कुछ नहीं हासिल होगा.मोबाइल है,फेसबुक है,व्हाट्स अप है,ट्विटर है.ब्लॉग हैं.खोजो और फॉलो करो.” विकास के ज्ञानचक्षु खुल गयें.उसने पहले फेसबुक अकाउंट खोला.फेसबुक पर कल्पना निगम नाम से पचास से अधिक चेहरे जगमगाने लगे.अस्पताल के प्रसूति कक्ष में एक बार उसे ऐसी ही उलझन अपने नवजात भतीज़े को खोजने में हुई थी.प्रसूति कक्ष से सटे बालगृह में एक कतार में एक जैसे चेहरे बिछे हुए थे तो फेसबुक में एक नाम से अलग अलग चेहरे.अविश्वसनीय धैर्य का परिचय देते हुए विकास ने कल्पना निगम का उत्खनन कर ही लिया. विकास ने मन ही मन उसे धन्यवाद दिया कि उसने अपनी प्रोफाइल लॉक्ड नहीं की थी.इधर उसे इस चलन से कोफ़्त होती थी कि लोग अपनी प्रोफाइल लॉक करके मैत्री प्रस्ताव भेजते थे. प्रोफाइल में उसके नाम के नीचे आत्म परिचय था. फेसबुक पर नाम खोजने में विकास ने जितना धैर्य बरता था,उससे अधिक अधैर्य उसने मैत्री के लिए बटन दबाने में किया. बाद में कल्पना निगम के नाम के नीचे लिखे आत्म परिचय को पढ़कर विकास की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. I am dreamer.I am honeybee too.Don’t intrude into my messenger.I may sting.Love poetry and music.Muses are here and there. इसके पहले कि विकास की आँखें उनके परिचय और पोस्ट की तरफ बढ़तीं,वह दो लफ्जों पर ठिठक गयीं.स्टिंग और म्युसेज.स्टिंग के बारे में वह समझ गये कि उसे डंक मारना कहते हैं लेकिन म्युसेज के अर्थ जानने के लिए उन्होंने गूगल का सहारा लिया.अर्थ पता चला-कला देवी.विकास समझ गये कि हमारी सरस्वती देवी की तरह अंग्रेजों की कोई देवी होंगी. परिचय के कई कॉलम में भी उन्हें संकट का सामना करना पड़ा. Religious views के कॉलम में athiest और political views के ऊपर left liberal लिखा था. गूगल में Athiest का अर्थ नास्तिक है.यह पढ़कर विकास का दिमाग़ गनगना गया.कनपटियाँ बज उठीं,वह यकीन नहीं कर पा रहा था कि कोई इस दुनिया को बनानेवाले पर ही यकीन न करे.उसका हर काम जय श्रीराम और जय हनुमान के उद्घोष से शुरू होता है और उन्हीं के जाप से संपन्न होता है.ज़रूर इस कल्पना निगम का दिमाग़ अपनी जगह नहीं है जो ईश्वर की सत्ता नहीं मानती.अगर कल्पना ने मुझसे दोस्ती कर ली तो वह मुझे अंग्रेज़ी सिखायेगी और मैं उसे ईश्वर भक्ति.” उसने सोचा. सहसा उसे एक खिलखिलाहट सुनायी दी जैसे वह उसका मज़ाक उड़ा रही हो.वहां कोई नहीं था.विकास के शब्द फ़र्श पर गिर गये.उसे लगा कि धूल उड़ाती कोई गर्म हवा उसे छूकर चली गयी हो. हालांकि विकास ने जब कल्पना निगम की पोस्ट देखी,वह हैरान से ज़्यादा खुश हुए कि कल्पना की पोस्ट अंग्रेज़ी में नहीं,हिंदी में थी.वह अंग्रेज़ी में गिटपिट करती थी लेकिन अपने विचार राष्ट्रभाषा हिंदी में व्यक्त करती है.उसका मुखौटा अंग्रेज़ी का है,दिल राष्ट्रवादी है. विकास ने उत्साह में कल्पना की पोस्ट खोली. मोटेरा स्टेडियम अहमदाबाद में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नमस्ते ट्रम्प यात्रा में उनके आवभगत को लेकर उसने पोस्ट लिखी थी जहाँ लाख से ज़्यादा लोग जमा हुए थे.एअरपोर्ट से लेकर स्टेडियम की सजावट को लेकर पोस्ट में आलोचना की गयी थी कि दो दशकों से रहनेवालों मजदूरों को वहां से बेदखल कर दिया गया और रास्ते की गरीबी और गंदगी को ढकने के लिए करोड़ों रूपये खर्च करके पूरे रास्ते में दीवाल बनायी गयी.कल्पना ने पोस्ट के अंत में लिखा था.जितने रूपये दीवाल बनाने में लगे,उतने में एक बड़ा अस्पताल बन जाता. इस पोस्ट को पढ़कर विकास को लगा जैसे उसकी सांस रुक गयी.यह कैसी सोच की लड़की है.इतने बड़े देश का राष्ट्रपति मेहमान बनकर हमारे देश में आया है और यह ऐसे सवाल उठा रही है.इससे तो दो मीटर दूर रहना ही उचित है.अंग्रेज़ी सीखना गया तेल लगाने.मुझे इससे कोई संबंध नहीं रखना.वह अभी यह सोच ही रहा था कि फेसबुक पर लाल बिंदी चमकी. कल्पना ने उसकी मैत्री को स्वीकार कर लिया था. विकास चिहुक उठा.रेगिस्तान में उम्मीद का फूल खिल गया था.वह समझता था कि उसके खिलाफ चुनाव लड़ने के कारण कल्पना के अंतस में उसके लिए शत्रु भाव होगा.क्रोध की अग्नि होगी.चिढ़ की दूषित वायु होगी.घृणा का विष होगा. उसे लगा कि खुली आँखों से सब कुछ नही देखा जा सकता.कुछ चीज़ें मन की आँखों से देखी जाती हैं. यह वह समय था जब एक छोटा सा करोना वायरस हवाईजहाज़ में चढ़कर अदृश्य शत्रु की तरह हमारे देश में आ गया.वह कभी नाक से आत्ता था तो कभी मुंह से.स्पर्श से भी फेफड़ों तक पहुंच जाता था.लोग हाथ मिलाने से डरने लगे थे.बाहर से आने वाले बच्चों को माएं गले नहीं लगाती थीं.सब्जी,फल,दूध के पैकटों को घर में आने से पहले उसी तरह स्नान कराया जाने लगा था जैसे श्मशान से लौटने के बाद लोग स्नान करते हैं.घरों में अखबार आने बंद हो गये. कामवाली बाइयां काम से हटा दी गयीं.बाज़ार,दफ्तर,कारखाने,स्कूल-कॉलेज सब बंद हो गये.सड़कें निर्जन हो गयीं.घर से दफ्तर का काम होने लगा.घर से क्लासेज होने लगी.घर दफ्तर और स्कूल बन गये.बच्चे जिन्हें मोबाइल छूने नहीं दिया जाता था,उनकी ज़िन्दगी उसके बिना बेकार हो गयी.जिन घरों में मोबाइल नही था,वे पढ़ाई से महरूम हो गये.घर कैदखाना बन गये. बचने का मंत्र था-मुंह पर मास्क,दो गज दूरी और थोड़ी-थोड़ी देर पर साबुन से हाथ धोना या सैनीटाइजर का इस्तेमाल. विकास का लखन का अड्डा भी छूट गया.मोबाइल पर दोस्तों से बात करना और फेसबुक पोस्ट देखना ही बाहरी जीवन से संपर्क रह गया था.टीवी पर पापा का कब्जा हो गया था.वह समाचार देखते थे या कोई आध्यात्मिक चैनल लगाकर उसी में खोये रहते थे. कल्पना की पहली पोस्ट में थाली,ताली और शंखनाद बजाने की दो टूक आलोचना की गई थी.उसका कहना था कि ऐसे कामों पर ऊर्जा बर्बाद करने के बजाय अस्पताल की सुविधाओं को बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए.सरकार के प्रधान के परम भक्त विकास दुबे को उस पोस्ट को पढ़कर मिर्ची लग गयी,वह तिलमिला गये.उन्होंने लिखा कि ऐसी महामारी के समय डॉक्टरों और सेवाकर्मियों के कार्यों का सम्मान करने के बजाय मीनमेख निकालना किसी राष्ट्रदोह से कम नहीं है.विकास के गुरु जी ने यह सिखाया था कि अगर कभी अपने किसी विरोधी से तर्क में कमजोर पड़ जाओ तो उसे पाकिस्तानी या देशद्रोही कह दो.विरोधी की शक्ति अपने आप क्षीण हो जायेगी. विकास को तब और आश्चर्य हुआ जब कल्पना निगम ने उसकी टिप्पणी पर कोई प्रति टिप्पणी नहीं की.वह कल्पना निगम से कोई तल्ख़ प्रत्युत्तर की अपेक्षा कर रहे थे.उन्हें कल्पना का नज़रन्दाज़ करना अपना अपमान सा लगा कि कल्पना निगम के लिए उसके विचार का जरा सा भी महत्व नहीं है. लॉक डाउन के नौ दिन गुज़रे थे कि दिल्ली मे हुए मरकज़ में शामिल कुछ लोग कोरना संक्रमित पाए गये यह सही था कि ऐसी महामारी में इतने बड़े स्तर पर सम्मेलन करना पूरी तरह से गलत था.इसकी आड़ में मीडिया ने उस धर्म विशेष को कोरोना खलनायक बनाने में जुट गयी.विकास दुबे भी कहां पीछे रहते.उन्होंने लिखा कि सभी मरकजियों पर मकोका लगाया जाय और पकड़कर जेल में भरा जाय.उसने उन मरकज़ियों का उदाहरण भी दिया जो क्वारंटाइन किये गये थे.अस्पताल में नर्सो से अश्लील हरकतें की थीं.अस्पताल के डॉक्टरों और कर्मचारियों को गालियां दी थीं. कुछ चोरी से भाग भी गये थे.पुलिस उनका पता लगा रही थी. विकास की पोस्ट पर कल्पना निगम की तैश भरी टिप्पणी थी.दोषियों को सज़ा मिलनी चाहिए लेकिन किसी धर्म विशेष को इस बहाने निशाना बनाना क्रूरता है.इस पोस्ट को पढ़कर विकास के दिल को करार आ गया कि उन्होंने ऐसा कुछ लिखा जिसे कल्पना निगम हज़म नहीं कर सकीं.आख़िरकार विकास के जलवे को कल्पना को क़ुबूल करना पड़ा. संक्रमित लोगों से दूसरों को बचाने के लिए एक ही उपाय था-संक्रमित व्यक्ति को क्वारंटाइन करना चाहे घर हो या बाहर.महानगरों में जहाँ एक कमरे में आठ दस लोग रहते हों,उन्हें वहां क्वारंटाइन करना असम्भव था.लोगों के रोजगार छूट गये थे.उन्हें कमरे का भाडा भी देना था.वे शहर छोड़कर भागने लगे. लॉक डाउन में कल्पना निगम ने प्रशासन के क्वारंटाइन के अमानवीय तौर तरीकों पर एक पोस्ट लिखी.दस बाई बारह के छोटे घरों से बाहर न निकलने के कारण रोजी रोटी से वंचित जब अपने गाँव देश जाने लगे तब पुलिस उन्हें रास्ते में पकड़ने लगी.किसी के माथे पर यह मोहर लगा दी कि इनसे दूर रहना तो बहुतों को स्कूल के छोटे से कमरे में जानवरों की तरह कैद कर दिया.एक जगह तो घर लौटनेवाले ग्रामीण जन को सड़क पर बैठाकर उन्हें सैनिटाइज करने के नाम पर कीटनाशक का छिड़काव कर दिया गया. विकास को कल्पना निगम की पोस्ट बजा लगी.उसने यह बजा बात अपने गुरु जी को बतायी.लेकिन कल्पना की बजा बात उसके गुरूजी को बजा नहीं लगी.गुरु जी के संस्थान की बुनियाद बजा बातों पर नहीं बल्कि मौजूदा सरकार की हर बात को बजा बताने पर कायम थी. महानगरों से पलायन के दृश्य ह्रदय विदारक थे.रेल गाड़ियाँ और बसें बंद थीं.सिर पर पोटली,गोद में बच्चा,घिसी हुई चप्पल,थैले में बिस्कुट के पैकेट लेकर लोग सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र पर उस शहर से बेसहारा होकर निकल पड़े थे जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा था.कोई साइकिल से जा रहा था.कोई टेम्पो से.कोई ट्रक वाले से साथ ले जाने की मिन्नतें कर रहा था .क्वारंटाइन की यंत्रणा से बचने के लिए वे सीधे रास्ते से न जाकर टेढ़े-मेढ़े रास्ते से जा रहे थे.पुलिस वालों के डंडे पड़ रहे थे.उस दिन तो पूरा देश सकते में आ गया जब रेल पटरियों पर लाशों के पास छितरी हुई सूखी रोटियां मिलीं. कल्पना निगम की पोस्ट बेहद पीड़ा से भरी थी.पोस्ट को पढ़कर विकास की भी आँखें नम हो गईं.आज उसके भरमाये मन पर नर्म फूलों की चोट पड़ी थी.उसने यह पोस्ट पहली बार शेयर करने के लिए कल्पना से अनुमति माँगी.कल्पना ने उसे हरी झंडी दी.जब कल्पना की पोस्ट उसके वाल पर दिखाई दी.उसकी भारतीय संस्कृति रक्षा वाहिनी के सैनिकों की टीपें उसके खिलाफ़ आने लगीं.एक ने लिखा.यह जीवन है.कहीं मूसलाधार बारिश और कहीं सूखा.कभी अँधेरा-कभी उजाला.कभी दुःख-कभी सुख.सब प्रभु की माया.दूसरे ने तुलसीदास की पंक्ति उद्धृत की.”होइहैं वही जो राम रुचि राखा,को करि तर्क बढ़ावे शाखा. कल्पना निगम ने झुंझलाकर इन पर प्रति टिप्पणी की,”रोबोट प्रजाति के लोग कुछ नहीं समझते.बस सिर्फ़ बोलते हैं. विकास कल्पना की इस बदसलूकी से आहत था कि एक दिन अचानक सुबह गुरु जी के घर से फोन आया.गुरु जी स्वस्थ नहीं हैं.पहले उनको हल्का जुकाम हुआ.कल से गुरु जी को तेज बुखार है.गले में खराश है.सांस लेने में दिक्कत होती है.कोरोना टेस्ट कराया है.अभी रिपोर्ट नहीं आयी है.वाहिनी के लोग कुछ दिन उनसे संपर्क न करें.गुरु जी को कमज़ोरी महसूस हो रही है.सांस फूल रही है.अस्पताल ले जाना होगा. विकास को कई सांप एक साथ सूंघ गये.उसकी देह कांपने लगी जैसे बिजली के नंगे तार को छू लिया हो,अब घर में एक पल भी गुज़ारना उसे पहाड़ लगने लगा.पिता जी के मना करने के बावजूद विकास ने अपनी बाइक निकाली जिसे प्यार से वह चेतक कहता था और पिछले कई महीनों से धूल खाने के कारण उसके टायर में हवा कम हो गयी थी.अपने चेतक को पैदल घसीटकर वह पेट्रोल पंप ले गया और गुरूजी के घर पहुँच गया.गुरु जी घर में नहीं थे.पता चला कि जिला अस्पताल के आईसीयू में भर्ती है.विकास की बाइक अस्पताल की ओर दौड़ पड़ी.सड़कें सूनी थीं.जहाँ धूल,शोर और लोगों का पसीना महकता था,वहां सन्नाटा पसरा था.दुकानें बंद थीं.आज वह अस्पताल इतनी जल्दी पहुंच गया गोया सड़क की दूरी कम हो गयी हो.सड़क पर ऑक्सीजन पहले की तुलना में अधिक थी लेकिन लोगों के फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुंच नहीं रही थी.विकास अस्पताल में हाँफते हुए पहुंचे तो उन्हें कोविड वार्ड में भर्ती गुरु जी से मिलने भीतर नहीं जाने दिया गया.अस्पताल में अजीब आलम था.सफ़ेद एप्रन के ऊपर पीपीई किट पहने डॉक्टर और सफाई कर्मचारी में फर्क नहीं लग रहा था.परिजनों का रेला था.कोई अपने मरीज़ को बेड न मिलने पर चीख चिल्ला रहा था तो कोई वहां से दूसरे अस्पताल जाने की तैयारी कर रहा था.कोई अपने मरीज़ का हाल जानने के लिए अस्पताल के वार्ड बॉय के हाथ में चुपके से रुपया थमा रहा था.कोई अपने मरीज़ के लिए ऑक्सीजन या दवाई लाने के लिए इधर-उधर छटपटा रहा था.कुछ बरामदे में ही जमीन पर लेटे हुए बेड का इंतज़ार कर रहे थे.साइरन बजाते हुए एम्बुलेंस अस्पताल के दरवाजे पर आती.लेकिन मरीज़ को एम्बुलेंस से निकालने के लिए वार्ड बॉय जल्दी नहीं मिलते.वे मरीज़ उठाते उठाते थक चुके थे.शवगृह में लाशों को रखने की जगह नहीं थी.मुर्दागाड़ी में शवों को रखने के लिए और शमशान घाट तक पहुँचाने के लिए हजारों रूपये मांगे जा रहे थे. विकास ने ऊपर हाथ उठाकर प्रभु के प्रति कोटिशः कृतज्ञता व्यक्त की कि आईसीयू में गुरु जी को बेड मिल गया था.हालांकि सच यह था कि अस्पताल में बेड मिलने में गुरु जी का रसूख ही काम आया था. अस्पताल में विकास को वाहिनी के तीन चार सैनिक और मिल गये.विकास ने गले मिलने के लिए बाँहें फैलाई.एक ने चिल्ला कर रोक दिया.हाथ मिलने के लिए आगे बढ़े लेकिन उसी तेजी से वापस लौट गये.आसपास चाय पीने के लिए नज़र दौड़ायी.कोई दुकान खुली नहीं थी.पहले अस्पताल के सामने चाय की दुकान रातभर खुली रहती थी.उनकी वाहिनी को जब देर रात में कहीं चाय नहीं मिलती थी,वे यहाँ पीने आते थे.वाहिनी के सबसे मुखर और आक्रामक सैनिक गिरीश सिंह अस्पताल नहीं आया था.उसकी मां इस बीच कोविड से नहीं रही थीं.श्मशान घाट पर वाहिनी सैनिक केवल शुभम मिश्र ही उनके अंतिम संस्कार पर पहुंच पाया था.बाकी सबके मन में वहां न पहुंच पाने का अपराध बोध था.गिरीश सिंह की माँ के न रहने का जिक्र चलते ही सब दोस्त अपनी-अपनी खामोशी में खो गये जैसे कंधों पर लाश उठाये हुए हों.हालांकि एक हद से गुज़र जाने के बाद ज़िन्दगी को छोड़कर सब कुछ बेमानी हो जाता है.अपराध बोध भी.यह वह समय था जब लगता था कि मैं हूँ.मैं बचा हूँ.मुंह में मास्क लगाये दूर खड़े-खड़े उन्होंने कुछ देर बात की.गुरूजी का बेटा जब अपने घर जाने के लिए कार में बैठ गया तो विकास और उसके साथी भी अपने घर के लिए लौट पड़े. गुरु जी कुछ ही दिनों में अस्पताल से घर आ गये.विकास उनको देखने गया.वह बेहद कमज़ोर हो गये थे.उनकी आवाज़ अचानक बूढ़ी और कमज़ोर हो गयी थी जैसे लंबे समय से उसने धूप न देखी हो.उनकी ऊँची और चमकीली नाक का रुआब फ़ीका हो गया था.घर की हलचल चुप थी जैसे किसी ने उसके मुंह पर पट्टी बाँध दी हो.जल्दी ही हाथ जोड़कर विकास चला आया.उसका मन डरा हुआ था. कल से उसके पिता जी की सेहत ठीक नहीं लग रही थी.कोरोना वायरस कब हमला बोल देता है,पता नहीं चलता.कई बार चोर की तरह सेंध मारकर देह में छिपा रहता.विकास पिता जी का कोरना टेस्ट नहीं कराना चाहता था.उसे डर था कि रिजल्ट पॉजिटिव आने पर पिताजी को अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा.लेकिन जब घर पहुंचा तो पता चला कि पिता जी ने तेज बुखार के कारण अपने को एक कमरे में कैद कर लिया है.उसने देखा कि दुबली-पतली सांवली दमा की मरीज़ उसकी माँ कमरे के सामने चाय का प्याला रखकर पिता को आवाज़ दे रही थीं.कमरे से हाथ निकला.उसने धीरे से कप उठा लिया.यह एक दृश्य भर न था.यह घर में एक कैदखाना बनने की शुरुआत थी.उसकी माँ को सदा घर ही कैदखाना लगता.घूस के पैसे के रखने के अलावा घर में उनकी हैसियत एक कैदी सी ही थी.घर में क्या खाना बनेगा,इसका निर्णय विकास के पिता करते थे जबकि खाना वह पकाती थीं.वह बाज़ार से अपनी पसंद की सब्जी लाते.उनके स्वाद का खाना बनता.विकास के पिता की पसंद का धोती पहनतीं.गहने की दुकान पर भी विकास के पिता की पसंद के गहने का बिल कटता.किसके घर जाना है,वह तय करते.किसके घर नहीं जाना है,वह भी उनकी मर्जी से होता. विकास के पापा के लिए कमरे की खिड़की से दिखते दृश्य ही अब उनकी दुनिया थी.बस उतना ही दुनिया जितनी खिड़की की चौखट में समाती थी.दिन में आसमान में ऊँची उड़ती हुई चीलें दिखती थीं.कभी भटकते हुए बादल आकर उनकी सूखी आँखों को गीला कर देते थे.रात इतनी मोहक उन्हें कभी नहीं लगी थी.चाँद सरकता हुआ जब पेड़ की ओट से कनखियों से झांकता था तो उन्हें विकास की माँ का वह चेहरा याद आता जब वह घूँघट की ओट से सास ससुर की लाज के चलते उन्हें छिपकर देखती थीं.कभी चौके से तो कभी किवाड़ की ओट से.वह देखना भर न था-वह अपने साथ उस खुशबू को भी लाना होता जिससे शरीर और मन गम-गम गम-गम करने लगता.वह सिर्फ़ घर की चक्की में पिसती रहीं और वह कचहरी के दांव-पेंचों में.उन्हें पहली बार लगा कि उन्होंने कितना कुछ खोया है.कितना कुछ अपने पास होते हुए भी नहीं देखा.देखने या जीने के लिए भी इच्छा का होना जरूरी है.वह रोना चाहते थे लेकिन हिचकियों तक सिमट कर रह गये. किसी के आने की आहट से विकास के पापा खुश हो जाते चाहे वह दरवाज़े को खटखटाती हवा ही क्यों न हो.खाने में स्वाद नहीं आता.स्वादिष्ट खाना न बना हो तो वह अक्सर थाली को पटककर उसका मानमर्दन कर देते लेकिन अब तो खाने का ही मन न करता.उनकी नाक पहले इतनी तेज थी कि विकास की माँ जिस दिन अपने बाल धोतीं तो उसकी गंध उन्हें दिन भर कचहरी में बेचैन करती रहती और रात का इंतज़ार करती रहती.अब उन्हें कमरे की सीलन की गंध भी महसूस नहीं होती. पापा के कमरे का चक्कर लगाते और चाय खाना देते हुए विकास की माँ का अभी एक दिन बीता था कि उन्हें भी तेज खांसी के साथ बुखार चढ़ आया.वह खांसतीं तो लगता जैसे जंग लगे पहिये चल रहे हों.उनका दमा बढ़ गया था.सांस फूलने लगी.रसोईं में जाने की उनमें ताब नहीं रह गयी थी.वह बार-बार नाक सिनक रही थी.उससे पानी की धार बह रही थी.नाक पोंछते-पोंछते उनका सिरा लाल हो गया था.पल्लू गीला हो गया था.उस समय तो विकास की बहन बेला चीख ही पड़ी.जब माँ अचानक भरभराकर गिर गयीं.माँ को अस्पताल ले जाने के अलावा विकास को कोई चारा नहीं दिख रहा था.वह अस्पताल भागा कि एम्बुलेंस ले आये.वहां एम्बुलेंस नहीं थी.कोई उम्मीद भी नहीं थी कि एम्बुलेंस कब मिलेगी.उसने अपने दोस्त हर्षद को फोन लगाया.उसके पास कार थी.कोविड के डर से हर्ष के पिता ने कार देने से मना कर दिया.विकास को कुछ समझ नहीं आ रहा था.उसने एक ऑटोवाले से घर चलने को कहा.उसने सीधे मना कर दिया.बड़ी मुश्किल से चिरौरी करने पर एक ऑटोवाला तैयार हुआ.पिता की देखभाल के लिए बहन बेला घर में रह गयी.वह ऑटो में माँ को लेकर सरकारी जिला अस्पताल गया.अस्पताल में जगह नहीं थी.वह शहर के पांच छह नर्सिंग होम गया.कहीं बेड नहीं मिला.जिस शहर में उसकी मोटर साइकिल से बंधे रॉड की तूती बोलती थी,वहां उसकी हालत दुरदुराते कुत्ते की तरह हो गयी थी.माँ की हालत बिगड़ रही थी.ऑटो वाला उसे जल्दी छोड़ने को कह रहा था.आख़िरकार सरकारी अस्पताल में बेड के इंतज़ार की कतार में लगने के लिए उसने माँ को उतार लिया.माँ की सांस टूटती देखकर वह डॉक्टर के पास भागा.माँ घायल गौरैया की तरह छटपटाती अस्पताल के गंदे फर्श पर लेट गयी.विकास डॉक्टर के पास दौड़ा.एक लेडी डॉक्टर ड्यूटी पर थी.वह हाथ जोड़कर माँ को देखने के लिए गिड़गिड़ाने लगा.डॉक्टर ने कहा कि भर्ती होने के लिए नियमानुसार कोराना का टेस्ट जरूरी है.वह मरीज़ को तभी देख पाएंगी.विकास ने लेडी डॉक्टर के पांव पकड़ा लिये.लेडी डॉक्टर का मन पसीज गया.वह विकास के साथ बरामदे में आयी.विकास की माँ की सांस धौकनी की तरह चल रही थी.डॉक्टर ने उसे देखा.वार्ड बॉय को बुलाया और उसे आईसीयू में ले जाने के लिए कहा.वार्ड बॉय ने जवाब दिया,” वहां बेड खाली नहीं है.” लेडी डॉक्टर के माथे पर चिंता की लहरियां दिखने लगीं.फिर उसने विकास की माँ को ऑक्सीजन वाले बेड के पास ले जाने के लिए कहा.जब विकास माँ के स्ट्रेचर के साथ चलने लगा तो उसे वार्ड बॉय ने भीतर आने से मना कर दिया. दो दिन विकास अस्पताल आता जाता रहा.अस्पताल के सामने खड़ा रहता जैसे अफ़सर के कमरे के सामने अर्जी लिए आम आदमी फरियाद करने के लिए खड़े रहते हैं.अम्मां का हाल पता करने के लिए वार्ड बॉय से चिरौरी करता और फिर धीरे से उसकी मुट्ठी में चंद रुपये थमा देता.उधर विकास के पिता घर के बंद कमरे से बार-बार अपनी पत्नी का हाल पूछते रहे.”ठीक हैं माँ” कहकर विकास की बहन बेला उन्हें तसल्ली देती रही. दो दिन बाद विकास को सफ़ेद कफ़न के ऊपर पॉलिथीन से लिपटी हुई माँ का शव मिला.उसके पिता बंद कमरे से बाहर आ गये.शमशान घाट तक शव ले जाने के लिए वहां एम्बुलेंस भी नहीं मिल रही थी.मुर्दागाड़ीवाला दो किलीमीटर दूरी के लिए आठ हज़ार रूपये लेकर शव पहुंचाने पर राजी हुआ.श्मशान घाट पर लंबी कतार थी.अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को टोकन दिये जा रहे थे.विकास की बहन बेला भी अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए जिद करके साथ आ गयी थी.अंतिम संस्कार में कुल पांच लोग थे.विकास के चाचा और उनका बेटा पीपीकिट और मास्क लगाकर आये थे.उनका मन था कि बिजली मशीन से दाह संस्कार हो.लेकिन विकास के पिता लकड़ी वाले दाह संस्कार के लिए अड़े रहे.आखिरकार तीन घंटे के इंतज़ार के बाद विकास की माँ का दाह संस्कार हुआ. घर लौटने पर विकास को अपना सिर भारी लगने लगा.देह गर्म महसूस हो रही थी.छाती भारी लग रही थी.कोरोना की आशंका से अपने पिता की तरह वह भी कमरे में अकेले बंद हो गये.घर के काम का सारा बोझ बहन पर आ गया.बहन को रसोईं में क्या कुछ है,पता नहीं था.वह दाल छौंकने के लिए कभी हींग खोजती तो कभी गूंथते समय उसका आटा गीला हो जाता.वह हर समय सिर्फ़ बड़बड़ाती रहती.माँ सब कुछ छोड़कर चली गयी और मुझे मुसीबत के कुएं में फेंक गयी.जब तक कोई रहता है.उसका महत्व नहीं पता चलता.विकास बहन की बडबड़ाहट सुनकर दुखी हो जाता.अचानक उसे अपनी छोटी बहन बड़ी लगने लगी.कद और उम्र से कोई बड़ा नहीं होता,कर्म से होता है.उसे याद आया कि चिड़िया सी नाजुक गीता को किस तरह पड़ोस के लड़के से बात करने पर उसने चांटा मारा था.वही सांवले पंखों वाली मेरी चिड़िया आज पूरे घर को किस तरह सम्हाल रही है.”उसने सोचा. अकेले कमरे में विकास को माँ की याद आ रही थीं.वह विकास और पिता जी के बीच पुल थीं.विकास को कुछ भी पिताजी से लेना होता,वह बस माँ के कान में पहुंचा देता.जैसे पानी जड़ में डाला जाय और वह पत्तियों तक पहुंच जाय.फिर वह निश्चिंत हो जाता.बचपन से माँ उसका घोसला थी.पापा विकास को डांटते,दुखी माँ हो जाती.इम्तहान में वह फेल हो जाता तो माँ को लगता कि वह फेल हो गयी.वह अंग्रेज़ी में फेल हो गया था और साइंस उसे समझ नही आती थी.वह साइंस और अंग्रेज़ी नहीं पढ़ना चाहता था.पिताजी उसे डॉक्टर बनाने पर आमादा थे.उसने माँ के कान में बात डाल दी.बस उसे दोनों विषयों से मुक्ति मिल गयी.कॉलेज जाने के लिए वह मोटर साइकिल चाहता था लेकिन पिता जी उसके कारनामों से त्रस्त थे.उसकी शिकायतें आये दिन मिलती रहती थीं कि वह लखन के होटल पर बैठकर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता है.दुकानदारों को चंदे के लिए हड़काया करता है.माँ ने पापा से कहा कि बेटा अभी जवानी में मोटर साइकिल से नहीं चलेगा तो क्या आपकी तरह जिंदगी भर रिक्शा खोजता रहेगा.बेटा मोटर साइकिल सीख लेगा तो कभी घर के किसी काम आयेगा.अगले दिन उसके पांव के नीचे बाइक का एक्सीलेटर था.जब वह देर रात में चुपके से घर आता था तो माँ को पता चल जाता.माँ से उसने एक बार पूछा था कि आपको कैसे मेरे आने की खबर मिल जाती है तो माँ ने हंस कर कहा था कि तुम्हारी देह की खुशबू से.मेरे पसीने में आपको कैसे खुशबू कैसे आती है.वह पूछता.यह तुम नहीं समझोगे.अगले जन्म में जब माँ बनोगे तो शायद समझ जाओ. वही माँ राख हो गयी.उसने आकाश की तरफ़ देखा जैसे तारों के झुरमुट में उस तारे को खोज रहा है जो मृत्यु के बाद माँ बन गयी है. विकास को अपनी मौत से डर लगने लगा था.वह अभी ज़िंदा रहना चाहता था.वह दुनिया की सैर करना चाहता था.हवाई जहाज में बैठना चाहता था.वह कल्पना से अंग्रेज़ी में बात करके उसे चौंकाना चाहता था लेकिन चारों ओर मौत का डरावना दृश्य था.वह अभी भी चलते-चलते हांफ जाता था.उसकी आँखों के सामने अक्सर श्मशान में अपने नाते रिश्तेदारों के अंतिम क्रिया कर्म की कतार घूमने लगती.उसे वे सब मौतें हत्या लगतीं.वह जितना उन दृश्यों को आँखों से परे ठेलता,वे उतने उसकी आँखों के सामने तैरते रहते.वह चुप हो जाता.यह दुःख की चुप्पी थी. विकास ने अपने मोबाइल में फेसबुक खोला.सबसे ऊपर कल्पना की पोस्ट थी.उसने अपने पोस्ट में जिले के अस्पताल में खाली बिस्तरों.दवा दुकानों,एम्बुलेंस के साथ उन जगहों के मोबाइल नम्बर दिए थे जहाँ ऑक्सीजन सिलिंडर मिल सकते थे.पहली बार कल्पना निगम के लिए विकास के मन में सम्मान जगा.अभी तक वह कल्पना को केवल पश्चिमी फैशनपरस्त गुड़िया समझता था जो अंग्रेज़ी जानती है.लड़कों से गिटिरपिटिर करती है.खुले बदनवाले कपड़े पहनती है.कॉलेज में चुनाव लड़ती है. चौदह दिन विकास ने घर की जेल में काटे.इतने दिन वह कभी भी घर में बंद नहीं रहा था.पिता जी भी अब बेहतर थे.हालांकि वह काफ़ी कमजोर हो गये थे.बहन गीता ने माँ की जगह ले ली थी.एक महीने से अकेले घर-बाहर जिस तरह सम्हाल रही थी,उसे देखकर विकास को विश्वास नहीं हो रहा था कि वही गीता है जो काकरोच देखकर डर जाती थी. चौदह दिन बीत गये थे.विकास कोविड से इतना डर गया था कि घर से बाहर पाँव नहीं निकालता था. अचानक एक दिन उसने कल्पना की फेसबुक पोस्ट में लिखा देखा कि उसके एक परिचित कोविड मरीज़ को प्लाज्मा की दरकार है.विकास ने प्लाज्मा देने का फैसला ले लिया.हालाँकि उसके पिता जी विकास की कमज़ोर हालत देखकर मना कर रहे थे. विकास की मोटर साइकिल लंबे समय बाद फरफर अस्पताल की तरफ भाग रही थी.लेकिन आज उसकी मोटर साइकिल में लोहे का रॉड नहीं बंधा था.