रोगों का राजा / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
अभिनेता ऋषि कपूर की मृत्यु ल्यूकेमिया से हुई थी। ल्यूकेमिया ब्लड कैंसर का पारिभाषिक नाम है। यह श्वेत रक्त कोशिकाओं का कैंसर है। सिद्धार्थ मुखर्जी ने कैंसर पर अपनी किताब 'द एम्परर ऑफ़ ऑल मैलेडीज़' में लिखा है कि अक्यूट ल्यूकेमिया का केस आने पर अस्पतालों की रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती है। यह कैंसर के सबसे विस्फोटक और हिंस्र स्वरूपों में से एक है। और अगर आपको ल्यूकेमिया है तो आपके शरीर पर उभरी एक खरोंच को भी इमरजेंसी माना जाना चाहिए!
इरफ़ान की मृत्यु कोलोन इंफ़ेक्शन से हुई थी, लेकिन इस इंफ़ेक्शन का कारण भी कैंसर ही था। इरफ़ान दो साल से न्यूरोएंडोक्राइम कैंसर से जूझ रहे थे। कैंसर का मुक़ाबला करने के लिए उन्होंने कीमोथैरेपी के सेशन्स लिए। कीमोथैरेपी ने उन्हें आंतों में संक्रमण के लिए एक्सपोज़ कर दिया। प्रतिरोध के मोर्चे पर पहले ही दुर्बल हुई देह इस संक्रमण को सहन नहीं कर पाई। बोलती आंखों और मंजी हुई देहभाषा वाला यह अभिनेता हमसे दूर चला गया।
जब देश एक रेस्पिरेटरी डिसीज़ से लगभग विक्षिप्तता की हद तक भयभीत होकर अपने घरों में दुबका बैठा था, तब दो दिन में कैंसर ने दो चर्चित चेहरों की जान लेकर अपने वर्चस्व की घोषणा की। दुनिया में हृदयरोगों के बाद सबसे अधिक जानें कैंसर लेता है। भारत में हर साल कोई सात लाख और दुनिया में हर साल कोई एक करोड़ मृत्युएं कैंसर से होती हैं। इसीलिए तो सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसको एम्परर ऑफ़ मैलेडीज़ कहा- रोगों का राजा।
ऋषि और इरफ़ान दोनों को ही दो साल पूर्व कैंसर से ग्रस्त होने की ख़बर मिली थी। दोनों की ही उम्र वैसी नहीं थी, जिसमें मृत्यु को स्वाभाविक और अनिवार्य माना जाता हो। दोनों ही अपने कैरियर के अहम मोड़ पर थे। इरफ़ान देश ही नहीं दुनिया में अपना एक मुक़ाम बना चुके थे, ऋषि अपने अभिनय-जीवन की दूसरी पारी में भांति-भांति की भूमिकाएं कर रहे थे। वे अपने जीवन से संतुष्ट थे। उनके व्यक्तित्व में इससे नया निखार भी आ गया था। और अचानक, उनकी यात्रा का पटाक्षेप हो गया।
बीते दिनों में मैंने इरफ़ान और ऋषि के बहुत साक्षात्कार देखे। इनमें से कई 2016-17 के थे। 'आप की अदालत' में भी इन दोनों से लम्बी बातचीतें पूरी-पूरी देखीं। वे वहां बहुत शांत, संतुष्ट, आत्मविश्वस्त और जीवन-ऊर्जा से भरे नज़र आ रहे थे। एक विचित्र विचार मेरे ज़ेहन में कौंधा-- ठीक इसी समय प्राणघातक रोग उनके शरीर में बीज के रूप में जन्म ले चुका था, किंतु उन्हें इसकी भनक तक नहीं थी। आसन्न मृत्यु का विचार उनसे कोसों दूर था। आज जब दो-तीन साल बाद मैं उन वीडियोज़ को देख रहा हूं, तो मैं पाता हूं कि मेरे पास एक ऐसी सूचना है, जो उन दृश्यों को एक विडम्बना से भर देती है। मैं जानता हूं कि वे दो साल के भीतर मरने जा रहे हैं, किंतु वे स्वयं इस बात को नहीं जानते थे।
वे इस बात को क्यों नहीं जानते थे? हम अपने शरीर को क्यों नहीं जानते हैं? ऐसा क्यों होता है कि एक रोग हमारे शरीर में पनपता रहता है और हम उसके लक्षण उजागर होने तक उसके बारे में कुछ मालूम नहीं कर पाते! और उसके बाद भी अस्पतालों में की जाने वाली जांचें ही उनके अस्तित्व को सत्यापित करती हैं। इलाज भी हस्पताल ही बतलाते हैं। मुझे लगा, हमारा शरीर एक टिक-टिक करता टाइम-बॉम्ब है, जिसमें कितना समय भरा गया है, यह हमें मालूम नहीं है। अगर यह हमें मालूम ना होगा तो किसे मालूम होगा? हमें इसके सिवा और क्या मालूम होना चाहिए? उन साक्षात्कारों में ऋषि और इरफ़ान को देखकर मुझे महसूस हुआ कि वे एक ज्वालामुखी पर बैठे थे, लेकिन इससे पूरी तरह बेख़बर थे।
आख़िर हम कौन हैं? हम केवल शरीर तो नहीं हैं, यह बात हम अकसर कहते हैं। हम एक चेतना भी हैं, भावना भी हैं, संकल्प भी हैं। शरीर समाप्त होने के बाद भी हमारे द्वारा की जाने वाली चीज़ें शेष रह जाती हैं। लेकिन हम शेष नहीं रह जाते। कम से कम उस रूप में तो नहीं, जिस रूप में हम आज हैं। हम शरीर नहीं हैं, किंतु शरीर के बिना भी हम कुछ नहीं हैं। शरीर से बाहर हमारे होने का कोई रेफ़रेंस पॉइंट नहीं है। हमसे आज अगर हमारा शरीर छीन लिया जाए, या वह रोगग्रस्त होकर अक्षम हो जाए, तो हम कुछ नहीं कर सकेंगे। हम सुई में धागा भी पिरो ना सकेंगे, भले हममें अंतरिक्ष यात्राएं करने की क्षमताएं हों!
हम कौन हैं और रोग कहां पर होता है। इस दुविधा को ज्यून गुडफ़ील्ड ने स्वर दिया था। उन्होंने कहा था- कैंसर मनुष्य के शरीर से शुरू होकर मनुष्य के शरीर पर ख़त्म हो जाता है। हम अकसर इस बुनियादी बात को भूल जाते हैं। डॉक्टर रोग का इलाज करते हैं, लेकिन वे रोगी के शरीर का भी उपचार कर रहे होते हैं। अपनी पेशेवर दक्षता में वे इस बात को अकसर भूल जाते हैं, कि वे दो आयामों में एक साथ काम करते हैं।
ये वही दो आयाम हैं, जिन्होंने इरफ़ान की जान ली। वे अपने न्यूरोएंडोक्राइम ट्यूमर का इलाज कराते रहे, और उन पर घात लगाकर बैठे कोलोन इंफ़ेक्शन ने उन पर झपट्टा मार दिया।
सुज़ैन सोंटाग ने एक भिन्न आलोक में इस द्वैत को रेखांकित किया था। सुज़ैन ने कहा था- जैसे दिन का दूसरा पहलू रात होती है, वैसे ही रोग हमारे उजले जीवन का अंधेरा पहलू हैं। हम सभी के पास स्वास्थ्य और रोगों की दोहरी नागरिकता होती है। अलबत्ता हम केवल हमेशा स्वास्थ्य के पासपोर्ट को संजोकर रखना चाहते हैं, लेकिन देर-सबेर वह दूसरा पासपोर्ट हमें अपने अस्तित्व की याद दिला ही देता है।
देह क्षणभंगुर है- इस विचार को हमने इतनी बार सुना है कि अब हम उसके प्रति 'इम्यून' हो चुके हैं। देह की भंगुरता के आयाम भी हमारी आंख से ओझल हो गए हैं। तब भी यह विचार हमारे आत्मविश्वास के लिए बहुत सेहतमंद नहीं कहा जा सकता, कि जिस शरीर के नीरोगी होने पर ही हमारा समूचा जीवन, उद्यम और कार्य-व्यवहार निर्भर है, वह हमारे लिए अजनबी है। हम अपने शरीर के एक छोर पर उससे अलग-थलग जी रहे हैं और किसी भी दिन लौटती हुई लहर के साथ वह हमें बुला लेगा।
हम अपने शरीर से इतने अनभिज्ञ क्यों बन गए हैं? वह भी ऐसा छली क्यों है? वह अपने भीतर किन जेनेटिक सूचनाओं को छुपाए है, उसकी कौन-सी नियतियां हैं, अनुवंश से मिली कौन-सी व्याधियां उसमें गुंथी हुई हैं, क्या वह सच में ही स्वस्थ है, कहीं वह अपने में कोई रहस्य तो नहीं संजोए है, जिनका जब वह हमारे सामने खुलासा करेगा, तब तक बहुत देरी हो चुकी होगी?
हमने एक ऐसे पहाड़ के ऊपर नगर बसाया है, जिसके भीतर लावा सुलग रहा है, और कभी भी वह फट सकता है- इस ख़याल से साथ चैन की नींद सोना शायद आसान नहीं है।