रोज / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'

Gadya Kosh से
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रिटायर करना एक साल होय अेलै बनबारी के. मोन हरदम उख-बीख। की करौं, कहाँ जांव। आफिस के दांव-पेच सब खतम। आखिर मोन बनैलकै कि भोरे-भोर घूमै-फिरै के चाही। मनेमन रूटीन बनी गेलै आरो शुरू भे गेलै रोज चार बजे उठना, स्टेडियम जाना, वहाँ तीन चक्कर लगाना, कोय दोकान में चाय पीना आरोॅ टहललो बुललौॅ सात बजे सेॅ पहिनें दुआरी पर हाजिर होना।

आय शनीच्चर रहै। तीने बजे भोर सैॅ फिसिर-फिसिर बुन्दा-बुन्दी शुरू रहै। नीन तैॅ समय पर टूटी गेलै मतर तनी टा आलस में फेरू आँख लागी गेलै। आय बनबारी के आधा घंटा देर होय गेलै। बस वहा धोती गंजी आरो कान्धा में गमछी लपेटने लम्बा डेग मारने बनबारी परिकरमा पूरा करी कैॅ घुमलै। मतर आय चाय के सब दोकान ठंढ़ा। निरास होय कैॅ बनबारी तीनबटिया तरफ सें बढ़ी गेलै। एक ठींयां धूईया देखलकै ते चाय पीयै लेॅ जी लकपकाबे लागलै।

दोकानी पर अैलै तेॅ जानलों पहचानलों चेहरा। चुल्हा में बीनी डोलाय रहलोॅ छेलैै। नजर मिलथै, के! कुलदीप भाय हो। अरे-रे-रे बनबारी भैया। आबोॅ बैठोॅ, आरो सुनाबौॅ आपनोॅ हाल-चाल। बनबारी गमछा झाड़ी कैॅ माथा पोछलकै आरो बांसोॅ के बेंच पर बैठी कैॅ बोललै हाल-चाल तैॅ सब ठीके छौन भाय, रिटायर के बाद बोलै-भुकै बाला के ढेर कमी भैॅ गेल्हौन।

बाल-बच्चा आरो बाल-बच्चा के बाल-बच्चा आपनोॅ-आपनोॅ कामोॅ में आपनोॅ-आपनोॅ पढ़ाय लिखय में मगंन। हों ठीके कहै छोॅ हम्मूं मनबहटारन ही ईसब करै छीयै। सात बजे तक हेल्फर आबै छै। हमरा अरामे-आराम। बस एतने भरी काम छौन। कुलदीप झट-पट केतली के पेनियाँ में लेबोॅ लगाय, पानी भरी कैॅ चुल्हा पर चढ़ाय देलकै आरो चाय बनाबै के सोरसार में लागी गेलै। यहा बीच बनबारी के नजर एक विचित्र दृश्य पर पड़ी गेलै। तरह-तरह के कत्ते बात मनोॅ में घुरैॅ लागलै। अभी छबो नै बजलोॅ छै। ऐसनौॅ फिसिर-फिसर झरिया में भाँथी रंग बूतरू के गोदी में लेने इ जबान औरत मुनसपल्टी के नाला पर पन्नी ओढ़ी कैॅ कोनची करी रहलौॅ छै। बात जब बनबारी कैॅ समझ से बाहर होय गेलै तेॅ लम्बा सांस घीची कैॅ कुलदीप सैॅ पूछलकै। अहो कुलदीप भाय हुन्ने देखौॅ तैॅ इ झरिया में उ जनानी की करी रहलौॅ छै। पगली छीकै। कुलदीप बतैलकै। नै भाय पागल नै लागै छै, उ तैॅ होशियार नाकती काम करै छै। हॉ हो पागल नै, ओकर नामें पगली छीकै पगली। एकर रोज के रोजगार छीकै, केला बेची के जिनगी बसर करै छै। बनबारी तड़ाक दोसर प्रश्न दागी देलकै। ओकर मरद की करै छै।

कुलदीप ओझराय गेलै, कहलकै देखोॅ ओत्ते तेॅ हम्मे सब बात नै बताबे पारभौन मतर हम्में आय एक महीना से देखै छीयै के ई रोज एतना बेरा ताय नाला के प्लेट पर आबी जाय छै। एक टोकरी केला गोदी में चिलका, काँच के बोतल में पॉवभर-छौॅ कनमा पानी, एगो पन्नी के टुकड़ा आरो एगो पुरानौॅ-धुरानोॅ गमछा बस। लूरगरी आरो शालीन छै। फूहड़ नै छै। हरदम मांथा पर साड़ी, ससरेॅ नै पारै हँासते ते देखन्हैं नै छीयै कहियों।

हों एक दिना साते बजे भोर मेॅ नेता जी के बेटा तीनमहला के छरदेबाली सें ससरी गेलै। बडका-बड़का डागडर अैलै मतर बचलै नै। बस ओकर आदमी उमताय गेलै, आरो दस बजे तंाय सौसेे बजार बंद करबाय देलकै। फुटपाथ के दोकान उलटाबैॅ लागलै। डोॅर सेॅ लोग धांय-धांय दोकान-दौरी समेटी केॅ हिन्नें-हुन्नें होय गेलै। हम्हंू समेटी के ओसरा पर धरबाय देलियै। पगली अकबकाय गेलै। करैं तेॅ की। हारी-पारी के डलिया मेॅ बूतरूआ घोलटाय देलकै आरोॅ हमरा दोकानी पर आबी के खाढ़ी होय गेलै। हमरा लागलै ज़रूर कुच्छू कहैलेॅ चाहै छै। यहा लेली हम्हीं टोकलीयै। की बात छै बोलोॅ। तन्टा केला के डलिया राखथिहै। नुनूआं के देह गरम लागै छै। हेकरा बाप लींगॉ पहुचाय के अैबै तैॅ डलिया लैॅ जैबै, जो दोकान दौरी फेरू खुलतै तेॅ बेची कैॅ जैबै।

यहा बीच एगो सिपाही हाँथों मेॅ बेंत लेनें सनसनैलों अैलै। केला के डलिया में बूतरू देखी केॅ हिन्नें-हुन्नें देखेॅ लागलै। बेंत सें बचबा कैॅ धिरैलकै। केन्हौ बेंत बचबा के हाँथों में पकडाय गेलै। सिपाही छाड़ाबै के नाटक करै, लेकिन बचबा आँख गुजारी के सनसनाय गेलै। यहा सब देखी के हम्में तेॅ हाँसबे करलियै, पगली भी बूतरू के करदानी देखी के मुस्की देलकै। तखनियें बतैलकै कि हमरोॅ नाम पगली छीकै। नुनूआ के बाप ढेर दिना सेॅ बीमार छै। रोज केला बेचै छीयै तेॅ साँझ कैॅ दू खोराक दबाय कीनीं कैॅ लै छीयै। से कौन बेमारी छौंन। पूछला पर बतैलकै कि डागडर कहै छै जोन्डीस। आबेॅ किजन गेलियै।

गप सुनै केॅ फेरा मेॅ बनबारी के आधा चाय ठंढाय गेलै। फेरू दोसरोॅ भांड़ चाय नै पीलकै। तेज साँस आरो अंगेठी करनेें उठलै। गंजी के थैली सेॅ चाय के पैसा बढ़ैलकै, मतर कुलदीप दोस्ती के बात कही कैॅ आय भरी नै लै के बात कही कैॅ घुराय देलकै। लेकिन जब बनबारी बोहनी के बात कहलकै तेॅ अठन्नी लेॅ केॅ बात मानी लेलकै। बेंच पर सें गमछा उठाय के धौना पर राखनें केला बाली लींगें गेलै। केला मोलाय केॅ पगली के डलिया से तीन-चार दर्जन केला कीनीं केॅ, गमछा मेॅ बाँधलकै आरो दाम चुकाय केॅ घोर सोझियाय गेलै। पगली बढ़ियाँ बोहनी करी केॅ नुनूआ के मूं चुमी लेलकै। कुलदीप रोज के गहकी बनी गेलै आरो बनबारी एक तरह सें गारजियन।