रोता रोहित / कमलेश पुण्यार्क

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विचार हुआ,इस नववर्ष की आगवानी रोहतास किले में की जाए।पिकनिक का प्रोग्राम बना,और चटपट चल दिया साथियों को साथ लेकर।काया कृश है,पर बुद्धि वैसी नहीं।परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही वन भ्रमण के बाद विछड़ गया टोली से।बैरल से विछड़ कर गोली भले खुश हो,अपने लक्ष्य पर पहुंचने की ललक में;किन्तु टोली से विछड़ा इनसान? ओफ! कहने लायक नहीं।दशा दयनीय हो गयी उस समय। अपराह्न साढ़े चार बजे ही मेरे तो बारह बजने लगे।भटका हुआ आदमी और भटकने लगता है,दलदल में फंसे हुए की तरह।वैसे भी हमें जंगल और दलदल में थोड़ा ही फर्क लगता है।भगीरथ प्रयत्न के बाद भांय-भांय करते भयानक जंगल में, रमणीक ‘सोते’ के किनारे सरकंडे से बनी एक झोंपड़ी को देखकर,अपनी बौद्धिक कुशाग्रता पर पल भर के लिए नाज़ हो आया।होना भी चाहिए। इक्कीशवीं सदी की ओर रफ्ता-रफ्ता के वजाए रफ्तार से बढ़ रहे हैं।फिर क्यों घमंड न करें अपनी बुद्धि पर?अपने तन,मन,धन,ज्ञान,आन,बान, शान के सामने दूसरों को महत्त्व देना दकियानूसी के कब्र में गिरने के बराबर है।यही तो ख़ासियत है, आधुनिकता की।आज भटका भी हूँ तो इन्हीं गुणों के कारण;और पता नहीं यह नया वयार कहाँ ले जाएगा अभी? खैर अभी तो चारों ओर से तेजी से दौड़ता आ रहा अन्धकार,जंगल और पहाड़ के साथ हमें भी अपने आगोश में लेता जा रहा है।कुछ पल पूर्व तक नजर आता- किले का कंगूरा भी अब ओझल हो गया है।मन तो कब का डूब चुका है,गहन अन्धकार में।भय - चौपायों से ज्यादा ‘दोपायों’ का है। सिंह शायद ‘गुलनार’ में ही मिलें,यहाँ बिहार में कहाँ? किन्तु हृंसक चौपाये वनवासियों से कहीं अधिक खूँखार हुआ करते हैं,दोपाये वनवासी,क्यों कि बेचारे चौपायों में बुद्धि नाम का यंत्र तो होता नहीं, ईश्वर ने यह अनुदान सिर्फ दोपायों को ही दिया है,जिसका उपयोग मुकम्मल तौर पर यह प्राणी करता है।सुनते हैं,पहले समय में वन-कन्दराओं में गुप्त होकर आध्यात्मिक ऊर्जा विकसित की जाती थी।चूँकि अब हम आधुनिक हो गए हैं,इसलिए इसकी कोई आवश्यकता नहीं रह गई।अतः अब इन कन्दराओं का कार्यभार विशेष कर ‘अनाध्यात्मिक’ ऊर्जा विकास मंत्रालय को सौंप दिया गया है।क्यों कि यदि यह मंत्रालय सुचारू रूप से नहीं चलेगा तो किसी भी अन्य मंत्रालयों को चलाने में भीषण कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।यही कारण है कि ‘बुद्धिजीवियों’ का विशेष ध्यान है इस पर।

खैर,अभी तो हमें अपनी चिंता है।संकट में घिरा हूँ।ऐसे ही क्षण में याद आती है,भगवान की,और लगता है कि भाग्य नाम की भी कोई चीज है।शेष समय के लिए तो तुलसी बाबा कह ही गए हैं- ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा,का कोई तर्क बढ़ावहीं शाखा।’ अतः पल भर के लिए आँखें मूंद कर इष्टदेव का ध्यान धरना चाहा; पर ध्यान में आया,दोस्तों की टोली और उससे विलग एक अभागा आदमी।स्वयं को समझाने की कोशिश किया।मन को बाँधने का प्रयास किया।किन्तु दुष्ट मन नटखट बालक सा उछलता ही रहा।अन्त में मन मसोस कर, चिबुकों को जानु के घेरे में ले, बैठ रहा उस झोपड़ी में घुस कर- अब तो इसी में रात गुजारनी है।

थकान से बोझिल पलकें थोड़ी ही देर में लग गयी,और धीरे-धीरे टांग पसार दिया।अभी ठीक से सो भी न पाया था कि बाहर दर्द भरी सिसकी सुनाई पड़ी।खरगोश की तरह कान खड़े हो गए।सिसकी समीप ही मालूम पड़ी।

थोड़ा हिम्मत जुटा,उठकर झोंपड़ी से बाहर आया। निविड़ अन्धकार में आँखें फाड़-फाड़ कर देखने का प्रयास किया।स्वरभेदी वाण की तरह आवाज का सूत्र पकड़े डरते-डरते आगे बढ़ने लगा।थोड़ी दूर पर कुरैया के विशाल पेड़ के नीचे छोटे से ढोंके पर मुंह ढांपे बैठा एक विचित्र आदमी दिखाई पड़ा।सिसकी उसके ही रूंधे गलेसे आ रही थी।

पल भर के लिए मानवता का विगुल बजा,चट्टानी दिल की घाटियों में,वैसे यह बजता बहुत कम ही है।पुचकार भरे शब्दों में पूछा, ‘कौन हो भाई,यहाँ बैठे रो क्यों रहे हो?’

सहानुभूति से दर्द शायद बढ़ जाया करता है।कभी पढ़ी गई किसी गोरी चमड़ी की शानदार पंक्तियाँ याद हो आई –Sympathy is a similer fealling of heart….if we ley in sorrow….Sympathy is gretter than gold…(सहानुभूति हृदय की सहज अनुभूति है....यदि हम दुःख में पड़े हों,सहानुभूति महानतर है सोने से भी...) पास में सोना न हो, होने पर भी देने की इच्छा न हो, ऐसी विकट परिस्थिति में ‘सिमपैथी’ का छोटा सा अंश भी खर्च कर महान कार्पण्य दोष से सहज ही मुक्ति पायी जा सकती है- ऐसा विचार मन में आते ही,उससे और निकट आ गया।उसके माथे पर स्नेहसिक्त हाथ फेरते हुए प्रश्न दोहराया।प्यार भरा कोमल स्पर्श पाकर उसने गर्दन ऊपर उठाई,और गौर से मेरी ओर देखने लगा।किन्तु एक तो रात की कालिमा, दूजे मेरी घनी दाढ़ी-मूछें, ऊपर से पक्का आबनूसी रंग- विकट त्रिसंकट की स्थिति में बेचारे को कुछ सूझ न पाया,शायद इसी कारण घबड़ाकर अपना ही परिचय देने लगा- ‘मुझे नहीं पहचानते?’

प्रश्न कुछ इस अन्दाज में किया मानों उसे न पहचानना जेनरल नॉलेज में जीरो होने के बराबर हो। एक लम्बी सांस खींचकर बोला- ‘भाई मैं रोहित हूँ ,रोहित।’

मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘रोहित! कौन रोहित? मैं कुछ समझा नहीं। मेरे उत्सुकता और अज्ञानता पूर्ण प्रश्न पर वह झल्ला उठा, ‘वाह! वाह!! खूब कहा तूने।अयोध्या नरेश सत्यनिष्ट महाराज हरिश्चन्द्र को नहीं जानते? उनके पुत्र रोहित को नहीं जानते? जिनके कुल में दिलीप जैसे गो-सेवक हुए,दशरथ जैसे वचन पालक हुए,राम जैसे दलित तारक हुए...?’

‘मगर भई यह तो कलयुग है,मशीन का युग,कल-बल-छल-प्रपंच का युग,पाप और अनाचार का युग।और तुम बात कर रहे हो सतयुग की।इन बूढ़ी बातों को याद दिला कर तुम क्या साबित करना चाह रहे हो? और सबसे अजीब बात तो यह है कि तुम इतने दिनों तक छिपे कहाँ थे? आज प्रकट भी हुए तो इस बदहाल स्थिति में? किसने, क्या कष्ट दिया तुम्हें? मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है।’ मैं एक ही सांस में इतना कुछ उगल गया।

मेरी बात सुन रोहित की रूलाई थम गयी।इतमीनान से बैठते हुए बोला, ‘बूढ़ी बातों को कैसे भूल जाऊँ? इतिहास की पगडंडियों पर चल कर ही तो भावी भूगोल के प्रशस्त प्रासाद पर पहुंचा जा सकता है। रही तुम्हारी दूसरी बात - मेरे अज्ञातवास की बात,तो मैं गुप्त कब-कहाँ हुआ? मैं तो हर क्षण,हर कण में उपस्थित हूँ।मेरे ही नाम पर यह नगर,यह किला है।यहाँ तक की एक इन्डस्ट्री- ‘रोहतास’ भी मेरे ही

नाम पर स्थापित हुआ।यह सब देख-सुन कर मुझे अकूत आत्मतुष्टि मिली थी।प्रजाजन का कल्याण होगा। गरीबों का उद्धार होगा।हजारों-लाखों को रोजगार मिलेगा।हिरण्यगर्भा वसुन्धरा का विकास होगा।हुआ भी प्रारम्भ में बहुत कुछ।मेरे राज्य में छोटे-बड़े कल कारखाने लगे।इक्की-दुक्की आबादी वाला गांव नगर में बदल गया।हालांकि नगर से मेरा नाम हटाकर मालिक ने अपना नाम जोड़ दिया,फिर भी मैं संतुष्ट रहा। किन्तु अब देखता हूँ, कि वास्तव में कुछ नहीं हुआ।हुआ सिर्फ एक काम- एक ने अनेक का शोषण किया।गरीबों और मजदूरों का शोषण जी भर कर किया गया;और जब पेट भर गया,तब धीरे-धीरे

शिकारी अपनी जाल समेट लिया।फैक्ट्रियाँ खुलीं और बन्द भी हो गयी।चमचमाता नगर वियाबान हो गया।चिमनियों के साथ अनेक चूल्हे भी बन्द हो गये।अब तो सांसे भी बन्द होने की कगार पर हैं।’

रोहित की बात मुझे जंची नहीं।अतः बोला- मगर बात तुम्हें गलत ज्ञात हुई है,रोहित भाई! तुम्हारे सम्वाददाताओं ने गलत समाचार दिया है।

रोहित चौका, ‘ऐसा कैसे हो सकता है,समाचार और गलत?’

हाँ भाई,सच कह रहा हूँ,तुमने किसी विरोधी दल का मुखपत्र पढ़ लिया होगा।आजकल पत्रकारिता भी परमुखापेक्षी हो गई है।जितने दल उससे अधिक मुखपत्र।मेरी मानों,सच्चाई यह है कि अमीर ने गरीब

का शोषण नहीं किया।मालिक ने मजदूरों का शोषण नहीं किया,प्रत्युत मजदूरों ने ही मालिक को चूस लिया गन्ने की तरह।बड़ी-बड़ी कीमती मशीनें जानबूझ कर तोड़-फोड़ दी गयी,हड़ताल के हथकंडे से।शायद ही कोई मजदूर मिहनत करना चाहता है।कम मेहनत,ज्यादा मजदूरी- हर कोई यही चाहता है।दफ़तर हो या फैक्ट्री,रॉ मेटेरियल हो या स्टेशनरी,जितना बन सके उठाकर डाल दो अपने घर में।

रोहित जरा ताव में आकर बोला, ‘नहीं-नहीं,तुम दोषारोपण कर रहे हो बेचारे मजदूरों पर।इसमें गहरी चाल है,स्वार्थियों का,धूर्तों का,मुट्ठी भर मेठों का।मजदूरों के कल्याण के नाम पर गुटबन्दी हुई, उन्हें गलत पाठ पढ़ाया गया।गरीबों के लहु के गारे से उधर मालिकों की अट्टालिकायें बनीं,इधर मझोले मगरमच्छ मोटे हुए।तुम नहीं जानते,ये उनके ही पोसे हुए हैं।’

रोहित की बात मुझे असह्य लगी।अतः झल्लाकर बोला- ‘बस-बस बहुत हुआ।बड़े बन रहे हो गरीबों के मसीहा।पुरानी पोथी पढ़ कर नयी जानकारी कहाँ से पाओगे? आँखें खोल कर आज को देखो।उस आज को जिसे जनता ने अगनित वलिदानों से बनाया है।आज का शासक जनता स्वयं है,और शासित भी स्वयं। राजा कौन? प्रजा कौन? राजा है जो आज,प्रजा हो सकता है वही कल।इस नये ‘आज’ में सब कुछ इसी का है।’

‘हाँ सब कुछ जनता का ही है,जूता भी उसी का,सिर भी उसी का।छुरी भी उसी का,गर्दन भी उसी का।’ रोहित के नथुनें क्रोध से फड़फड़ाने लगे।क्रोध में मैंने भी डपट कर कहा- ‘क्या कभी देखा सुना था पहले भी,जो आज हो रहा है? सियार देख कर भाग खड़े होने वाले भी स्वतन्त्रता सेनानी सूची में झांक रहे हैं,जेलरों की कृपा से।वृद्धावस्था पेनशन,बेरोजगारी भत्ता,नौकरी में छूट,पढ़ाई में सुविधा,मकान-दुकान,गाय, भैंस, मुर्गी,बकरी,सूअर,कुत्ता सब दिए जा रहे हैं ताकि जनता आगे बढ़े।अब कोई सुन्दर मकान में खूंटा गाड़ कर बकरी सूअर बांध दे तो दोष किसका? फीस,किताब,कपड़ा,भोजन,और नगदी व्यवस्था के बावजूद स्कूल जाने के वजाय भैंस चराये तो दोष किसका? अनुदानित राशि को ताड़ीखाने में दे आये तो दोष किसका?

‘दोष है बेचारे उस इनसान का जो गरीब के घर पैदा हुआ और खुद भी गरीब ही पैदा करेगा।’ रोहित आवेश में कहने लगा- ‘रहनुमाओं ने बहुत सुविधा दे रखी है,मान लेता हूँ तुम्हारी बात।मगर उस सुविधा का कौन सा अंश उस अभागे तक पहुँच पाता है,क्या यह नहीं मालूम? साम्यवाद का शंख फूंक कर,जनवाद की जादूई छड़ी छुला कर सुला दिया जा है ताकि बोले नहीं,आवाज न उठाए। मुंह में शक्कर डाल कर गले पर छूरी फेरी जा रही है,वह भी बेहोशी की दवा में डुबो कर ताकि तुरत पता न चले।’

‘तुम्हारी बातें बे सिर पैर की हैं।किसी भी भले मानस को अरूचिकर ही लगेंगी।’ मेरे कहने पर रोहित एकबारगी बौखला गया।कड़क कर बोला- ‘जरूर अरूचिकर लगेंगी।सत्य गरिष्ठ हुआ ही करता है। मगर जिसे झूठ बोलने ही न आए,झूठा आश्वासन देने ही न आए- वह क्या करे? प्रगति के नाम पर देश की दौलत पानी की तरह बहाया जा रहा है।कर्ज का अकूत खाता खुलता जा रहा जा रहा है।बहुसूत्रीय कार्यक्रमों की भरमार है,जिसका सूत्र-सूत्र विखंडित है।अब जरा एक ही उदाहरण देखो- वनरोपण।हिसाब लगाकर देखो,कितना खर्च आता होगा प्रति पौधे? और उसकी उपलब्धि क्या होती है? योजनायें कागज

पर बनती हैं,उपलब्धि भी कागज पर- पानी पर की लकीर साबित हो कर रह जाती हैं।असली रूप बड़ा वीभत्स होता है।उन्मूलन रोग और गरीबी का हो रहा है या रोगी और गरीबों का.....?

बहुत देर तक ऐसे ही सवाल-जवाब चलते रहे रोहित के साथ।मुझे वहाँ और ठहरना फिजूल लगा, क्यों कि जब तक वहाँ बैठा रहूँगा,वह उलजलूल ही बकता रहेगा।अतः चुपचाप उठकर पांव दबाए चल पड़ा वहाँ से।

झोपड़ी में आकर दुबक कर बैठ रहा।वाक्युद्ध की बोझिलता को दूर करने के लिए लम्बी-लम्बी सांसें भरा।ओफ! कैसे सनकी से पाला पड़ गया...।मन को शान्त करने के लिए पुनः इष्टदेव को याद किया।मगर आसन-प्राणायाम के बाद भी ध्यान धरा न गया।जब भी आँखें मूंदता एक दृश्य सामने आ जाता- एक ठंढी रात का दृश्य,एक बेवश दम्पति का दृश्य,दो-तीन नंगे बच्चों का दृश्य।वह दृश्य जिसे वातानुकूलित कमरे के सीसे से झांक कर पत्नी नित्य प्रति देखा करती थी,कोठी के पीछे अमलताश के पेड़ तले डेरा डाले उस लघु गृहस्थी को,जो शायद सड़क बनाने वाला मजदूर परिवार था।सारा दिन इधर-उधर की खाक छान, अन्धेरा होते ही वहाँ आ जाता।लत्ते-पत्ते से किसी प्रकार बाँध-बूँध कर सिर पर छप्पर बना लिया था,वही उनका रैनबसेरा था।आए दिन महापालिका के ‘बुलडोजर’ का शिकार भी होता रहा,उनकी झोपड़ी।मगर करता क्या? जाता कहाँ? कोठियाँ हैं तो झोपडि़याँ भी रहेंगी ही,भले ही इनसे कोठी की रौनकता बिगड़ती हो।

उस दिन पत्नी ने कहा था,- ‘देखो न,बेचारे कैसे ठिठुर रहे हैं,आज इनकी झोपड़ी फिर उजाड़ दी गयी।’

मैंने नाक-भौं सिकोड़ कर कहा था- ‘क्या झांकती रहती हो? उनका कर्म ही ऐसा है।’ और फिर कर्म और भाग्य पर बहस छिड़ जाती,जिसका ठोस निर्णय आज तक हो न पाया।वह कहती- ‘इन गरीबों के खून-पसीने से ही तो हमारा ‘एयरकन्डीसनर’ चल रहा है। उनका शोषण बन्द तो यह गाड़ी-बाड़ी सब बन्द हो जाय।’ खीझ के साथ मैं कहता- ‘क्या बकवास करती हो? उनके मुंह में कोई घुट्टी पिलाए? अकल की घुट्टी आज तक किसी दवा कम्पनी ने नहीं बनाई...।’

हम दम्पति का वाक्युद्ध यों ही चला करता,पर एक दिन वह दम्पति ठिठुर कर बर्फ हो गया।पहले पति मरा,फिर हाय-हाय करती पत्नी।अनाथ विलखते दो बच्चे एक दिन मोटर के नीचे आ गये। उस दिन दांत पीसती पत्नी ने कहा था,- ‘यह मोटर किसकी है,किसी खटमली इनसान के ही तो?’ और भाग कर उठा लायी थी,बन्दरिया की तरह उसके तीसरे बच्चे को।

दृश्य ने मन को कसैला कर दिया। शान्ति की खोज ने अशान्त कर दिया।लगा कि दिल के भीतर भी एक रोहित बैठा है।एक राम बैठा है।एक अर्जुन बैठा है।एक रावण भी,एक दुर्योधन भी। और मानस-कुरूक्षेत्र में महाभारत प्रारम्भ हो जाता है।

सोचने लगा- क्या यह जनतन्त्र है? जनवाद है? साम्यवाद है? जन कल्याण की रत्ती भर भी भावना है हमारे अन्दर?

जवाब मिला- तिल भर भी नहीं।जो भी नजर आ रहा है,वह सिर्फ मुखौटा है।आधी आवादी चांद को रोटी समझ गटकने को बेताब है;और हम लेनिन और मार्क्स के सिद्धान्तों का डंका बजाकर गौरवान्वित हो रहे हैं।हम दो,हमारे दो से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का नारा बुलन्द कर रहे हैं। बूढ़े माँ-बाप के लिए बृद्धाश्रम बनाए जा रहे हैं, और ‘सीनियर सीटिजन’ सहायता की बात कर रहे हैं।भोग से अवकाश नहीं,और योग-विश्वविद्यालय की स्थापना किए जा रहे हैं।भाव का सर्वथा अभाव है,और भावना की

उपासना कर रहे हैं,भावातीत ध्यान की तुरही बजा रहे हैं।अशान्ति का बीज बो रहे हैं, और शान्ति-सन्धि पर हस्ताक्षर भी हो रहे हैं। प्रेम का गला घोट दिये हैं।सौन्दर्य का दीप बुझा चुके हैं।सत्य का दम

घुट रहा है।खण्ड-खण्ड होने पर तुले हैं,और अखण्डता का आह्नान कर रहे हैं.....।

सोचते-सोचते सिर भन्नाने लगा।अन्धकार काटने लगा।सर्दी से शरीर अकड़ने लगा।ध्यान का भूत भाग गया।तफरीह के लिए जेब में हाथ डाला।लाइटर निकाला।सिगरेट नदारथ था।मन का भड़ास झोपड़ी

पर निकाल दिया।लाइटर जलाकर झोपड़ी से लगा दिया।उस झोपड़ी से - जिसने सर्दी में शरण दिया था।वियावान वन में आश्रय दिया था।

पल भर में ही झोपड़ी धू-धू कर जलने लगी।अन्धकार पर प्रकाश का आधिपत्य हो गया।सर्दी सिकुड़ कर सरक गयी कन्दराओं में।पैर पसार कर आग का आनन्द लेने लगा।मगर कुछ ही देर में

लगा कि गहन अन्धकार के सामने प्रकाश बहुत छोटा है।सर्दी के मुकाबले गर्मी क्षुद्र है।रौशनी धीरे-धीरे बुझने लगी।दिलो दिमाग में धुआँ और अन्धकार भरने लगा।सरकंडे की मुट्ठी भर राख मात्र बच

गई- सच्चाई की राख,वास्तविकता की निशानी,रौशनी की राख।पल-पल ठण्ढे हो रहे राख को घेरे सुबह - सुनहरे सुबह की प्रतीक्षा करने लगा।उस सुबह की,जो शायद रास्ता दिखा सके अपने घर का, अपने

गन्तव्य का, अपनी मंजिल का।