रोबोट - एक यंत्रमानव / गुरदीप सिंह सोहल

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दिसम्बर का सर्द महीना, प्रातःकाल लगभग सात बजे के आसपास का समय रहा होगा, कड़कती सर्दी के साथ-साथ बना कोहरा भी छाया हुआ था।

कांटेदार तार द्वारा घेरी गई खण्डहरनुमा दूर तक फैली हुई गेरूए रंग की उस इमारत का जालीदार गेट पार कर नत्थूसिंह ने दफतर से लगने वाले एक कमरे की बगल में साइकिल खडी की और अनमना सा कछुए की माफिक जेबों में समेटे हुए गर्म गर्म हाथ पांव बाहर निकालने लगा। मजबूरी थी, होनी भी चाहिए तभी तो इन्सान को कैसे कैसे स्थानों पर कई-कई प्रकार के काम करने जाना पड़ता है। मजबूरी हो भी क्यों न भई इस बेरोजगारी के युग में। वह कच्चा कर्मचारी जो था वहां का, पूर्णतया अंकालिक अस्थाई मीठे खरबूजे जैसा नरम नरम स्वभाव का जिसे जो भी जी चाहें मुंह में रख ले या अगर कड़वा भी होता तो उसे वातावरण को देखते हुए समय से पहले पक कर मीठा होना पड़ता वरना तो उसे अन्य पक्के कर्मचारियों की तरह कड़वे खरबूजे या हरी मिर्च जैसा हो जाना चाहिए था परन्तु मरता क्या न करता। मीठा खरबूजा बनना पड़ा। उसे सैक्शन इंचार्ज मिस्टर प्रकाश शर्मा से हुआ पहला पहला इण्टरव्यू यानि प्रथम अनौपचारिक बातचीत अभी भी हूबहू याद थी, एक भी शब्द वह भूला नहीं था वह। मिस्टर शर्मा के तेज धार वाले चाकू जैसे वाक्य कितने पैने थे कोमल खरबूजे जैसे नत्थूसिंह के दिल को उन शब्दों ने किस प्रकार से काटा था। मिस्टर शर्मा में कितनी शर्म बाकी थी उसका हिसाब तो वह नहीं लगा पाया लेकिन उसकी बेशर्मी को हिसाब तो लगा ही सकता था। वह खुद तेज धार वाला चाकू नहीं बनना चाहता था क्योकि वही चाकू जब फल काटने के साथ साथ हाथ भी काटने लगे तो लोग या तो उसे बदल लेते है या फिर पत्थर पर घिस की उसकी धार मिटा कर काम में ले लेते हैं ताकि उससे केवल तरकारी या फल काटने जितना ही काम लिया जा सके जो भी स्वयं को चाकू की तरह बना लेना चाहते हैं वे लोग हमेशा ही नुकसान में रहते है, अन्य लोग उन लोगों को नकार दिया करते है क्योंकि फल या तरकारी काटना चाकू का काम है लोगों की आवश्यकता है मगर हाथ कट जाये तो दहशत। तेज समझ कर उसे फैंक दिया जाता है या बदल लिया जाता है। निहायत ही बेशर्मी से शर्मा बोला था:-

अच्छी तरह सोच, विचार-विमर्श कर लेना बरखुरदार कि तुम केवल टाइप ही करना चाहते हो या सब कुछ। यहां सब कुछ से मेरा मतलब है वही सब कुछ जो भी, किसी भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी द्वारा किया जाता है जैसे कि मेज कुर्सियों पर दो बार सूखा और गीला कपड़ा मारना, साफ करना, सजाना, पानी का घड़ा भरना, कर्मचारियों की ठण्डे-ठण्डे पानी से सेवा करना, फाइलें सही करने के साथ साथ अधिकारियों के चैम्बर्स तक छोड़ कर आना, डिस्पोजल होने पर वहां से वापस लाना, फिर अपने अपने ठिकाने पर रख देना आदि आदि। इस काम को मना करने से पूर्व अपने भविष्य में झांकने के साथ साथ परिवार घर में झांक लेना। कहीं एैसा न हो दोस्त कि तुम्हारे चेहरे पर लगे बेरोजगारी के ठप्पे को देखकर परिवार के सदस्य तुम्हे भला बुरा कहें, मारपीट करें, गाली गलौच करें खाना परोसना बंद कर दें, तुम्हारी भूख प्यास को तुम्हारी नौकरी की तरह भूला दे, बिसार दें या रोटियों के साथ साथ बार बार तुम्हे याद दिलाते रहे कि अभी तक तुम बेरोजगार क्यूं हो। जाने कब नौकरी पर लगोगे, कब तुम्हारी नौकरी लगेगी, कब तुम्हारी आमदनी का साधर बनेगा। पैसा आयेगा तो घर के कई काम सम्पन्न होंगे। कब तुम्हारी शादी होगी आदि आदि। तुम्हारी हालत रखवाली वाले कुत्ते जैसी हो जाए और तुम हर आने जाने वाले पर भोकते रहो। हर अखबार में नौकरी के विज्ञापन पर नजर रखों और आवेदन कर दो। तुम्हे रोज रोज धक्के मार-मार कर काम की तलाश में भेजते रहे और फिर परिस्थितियों से समझोता न कर पाने के कारण तुम्हे इसी दफतर में मेरी शरण में आना पड़े और कहना पड़े कि तुमने परिस्थितियों से समझौता करने का मन बना लिया है। तुम्हे मैं दफतर समय के अन्त तक यानि शाम 5 बजे तक ठीक से सोचने का समय देता हूं। ठीक से सोच कर, ठोक-बजाकर, ठण्डे दिमाग से विचार कर लेना कि तुम्हे यही दफतर पसन्द है तुम इसी दफतर में काम करना चाहते हो या कोई और। परिस्थितियों से तुम समझोता करने में कामयाब हो जाते हो या नहीं। परिस्थितियों को तुम अपना दास बना पाते हो या नहीं। तुम नाकाम रह जाते हो और परिस्थितियों का दास बन कर मेरे ही पास रह जाते हो। यदि समझौता करते हो तो किस दफतर में और अगर नहीं करते हो तो क्यों और फिर परिस्थितियों से समझौत करना तो वैसे भी एक समझदार आदमी का काम है परन्तु जो परिस्थितियों से समझौता नहीं करते या कर नहीं पाते वे सब के सब मूर्ख होते है कभी भी कामयाब नहीं हो सकते। कामयाबी मृगतृष्णा की तरह उनको हमेशा ही धोखा देती रहती है क्योंकि परिस्थितियों से समझौता करके इन्सान हमेशा कुछ न कुछ तो सीखता ही रहता है। कुछ न कुछ तो ग्रहण ही करता है। जिंदगी की कच्ची- पक्की, सुखदायक और दुखदायी राहों पर अकेले चलते रहने का गुर भी तो सीख जाता है, अनुभव प्राप्त करने लगता है, वही सब कुछ उसके काम भी तो आता रहता है। जो आदमी मुकाबला नहीं करना चाहते या नहीं कर सकते उन्हे लोग कामचोर या कायर कहा करते है। युद्वाभ्यास किए बिना विजय कैसे प्राप्त कर सकते है। कर्म करने वाले लोग ही तो अनुभव प्राप्त करते है जो कुछ करेगा ही नही तो उसे अनुभव कैसे प्राप्त हो सकता है। वे जीवन में अनुभवहीन रह जाते है। कुछ नहीं कर सकते। खैर यह सब तो तुम्हारी मर्जी है। ये सब सोचना तो तुम्हारा काम है। मेरा काम तो तुम्हे जीवन का दर्शन बताना है श्री कृष्ण ने कहा था कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर रे इन्सान। ये है गीता का ज्ञान ये है गीता का ज्ञान। मेरा काम तो तुम्हे समझाना भर था। समझो या न समझो बाकी सब तुम्हारी समझ है। कभी तुम भी सोचना इस जिंदगी के बारे में और कर्म के बारे मे। जिस दिन समझ जाओगे जिंदगी का असली मजा आना शुरू हो जायेगा। एक बात और इतना सब कुछ सुनने के बाद तुम ना नहीं करोगे क्योंकि तुम मुझे मूर्ख नहीं लगते बहुत समझदार हो।

अकेले बैठे हुए मेज पर रखे हुए टेबल ग्लास में सहसा ही मनौति मानती, प्रार्थना करती, मंदिर की चौखट पर भगवान के आगे शीश नवाती, माथा रगड़ती, पूजा करती, आंसू बहाती नौकरी के लिए वर मांगती, नियुक्तिपत्र लाते हुए डाकिये का इंतजार करती, राह तकती मां की झुकी, वृद्ध और धुंधली आकृति उभर आई। वह भली भंाति अच्छी तरह जानता था कि वहां पर चपरासी के काम से नकारना, जी चुराने, नाक का सवाल बनाने, अपनी योग्यता को बीच में लाने का मतलब होगा फिर से, घर से कहीं न कहीं भेज दिया जाना। थोडी देर बाद शर्मा कहीं से आ टपका और कहने लगा।

कल दफतर में आकर उपस्थित होने का मतलब होगा, तुम्हे सब कुछ मंजूर है वरना मां के उलाहने, बाप के कटाक्ष-व्यंग्योक्तिया, श्लोक, छोटे छोटे भाई बहनों की गालियां सुनने को तैयार हो जाना होगा। इस इमारत की सीमा में घुसने से पहले ही तुम्हे जी जान से मान लेना होगा कि तुम अपने द्वारा सम्पादित किए जाने वाले टाइप कार्य के अतिरिक्त चपरासी भी हो। टाइपिस्ट के साथ साथ सब कुछ करना पडंेगा या वह सब कुछ भी करोगे जो भी मै या अधिकारी महोदय कहेंगे। कल यहां पर आने से पूर्व तुम्हे मान लेना होगा कि तुमने विपरीत परिस्थितियों से समझौता कर लिया है। समय बड़ा बलवान है। इसके आगे कोई भी टिक नहीं सकता। वक्त के दिन और रात, वक्त के कल और आज, वक्त की हर शय गुलाम, वक्ता का हर शय पे राज। किसी की भी नहीं चलती। इसके सामने हर आदमी कमजोर है, खिलोना है, कठपुतली है। सभी को झुकना पड़ता है, खेलना पड़ता है। तुम भी सबके साथ ही हो। किसी से भी अलग नहीं हो। आदमी वक्त के साथ साथ हमेशा ही बदल जाता है लेकिन जो नहीं बदलता या जिसे बदला नहीं जा सकता वह केवल वक्त है। हमेशा आदमी को ही मजबूर कर देता है बदलने के लिए।

दुघर्टनाग्रस्त पोत टाइटैनिक की तरह नत्थूसिंह मनमानी के भंवर में उतरता ही चला जा रहा था। डूबने के अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य चारा बाकी नहीं बचा था। अन्य विकल्प भी नहीं था, होता भी तो क्या कर सकता था बेचारा। उसे तो ठण्डी बर्फ के किसी न किसी पहाड से टकरा कहीं न कहीं तो डूबना ही था। यहां क्या और वहां क्या। समन्दर में नंहीं तो नदी में ही सही। डूबेगा तभी तो थोडे-थोडे हाथ-पैर मारना ही सीख जायेगा। हाथ पैरों का उपयोग करके तैरना तो सीखेगा कम से कम। डूबेगा नहीं तो तैरना कैसे सीखेगा। तैरना सीख लेगा तो कभी न कभी तो डूबते हुओं के काम आयेगा और उन्हे बचा पायेगा। उसकी नियति जाल में फंसी हुई हिरणी की सी हो गई थी और दूसरी सुबह खुद ही िशकारियों की खुराक बनने चला आया। मजबूरी जो थी वरना सर्दी में उसका जी कितना दुख पा रहा था किसे क्या पता भला। सर्दी में चल रहे नाक को भी ढंग से साफ करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सुबह सुबह दफतर खोलने के काम से लेकर शाम ढले दफतर बन्द करने तक को उसकी ड्यूटी का नाम दे दिया गया था। बड़ी मुिश्कल से उसने कमरे के दरवाजे में लगे ताले में चाबी लगाई, ताला खोलकर फिर सिटकनी में लगाया, दरवाजा खोला। रात भर से बंद पडे़ हुए कमरे में से गर्म हवा का बदबूदार झोंका ज्योंकि उसके नथुनों से टकराया त्यों ही उसके मुख से उन सभी स्थाई कर्मचारियों के प्रति भद्दी सी गाली निकली थी, होठों पर गालियां आ जाना स्वाभाविक ही था क्योंकि एक तो वह जो नहीं करना चाहता था लेकिन वहीं कर रहा था। दूसरें कई बार गालियां देना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है, तनाव दूर होता है, संतुिष्ट होती है। जब गाली देने से दिल का तसल्ली मिले, दिमाग को आराम मिले, जब जी खुश हो जाये तो तो जब जी चाहे जी भर कर गालियां निकालनी चाहिये। शायद नत्थूसिंह का तनाव भी गाली देने से थोडा थोडा करके दूर होता जा रहा होगा।

सुबह के लगभग साढे सात बजे का समय रहा होगा। आसानी से कुछ भी दिखाई दिये जाने जितनी रोशनी नहीं हुई थी। दिसम्बर के घने कोहरे ने कुलफी जमाकर बदन को अकड़ा सा दिया था। कोहरा इतना ज्यादा छाया हुआ था कि सामने 15-20 फुट दूर बरामदे के अन्य कमरे भी नजर ही नहीं आ रहे थे। आंखें खोलते ही कोहरा पलकों पर जमता जाता था। संकट में भी हाथ पांव समेटे रखने का ही जी करता था। चिमनी के अभाव में वह इमारत पूर्णतया ईट भट्ठा जैसी ही नजर आती थी जहां पर नत्थूसिंह जैसे कई मजदूर काम करते थे और वहां पर ईट भट्ठो की बजाय कच्ची-पक्की यानि लिखित और मौखिक गालियों का उत्पादन होता ही रहता था। पक्की ईटों, कच्ची ईटों और पिल्ली ईटों की तरह जिनकी कोई कीमत नहीं थी, कोई हिसाब नहीं था। नत्थूसिंह को हर कर्मचारी/अधिकारी हर छोटे बड़े काम के साथ-साथ कच्ची और पिल्ली ईटों की तरह गालियां देता था। कभी कभी पक्की ईटों की तरह गलियां भी मिल जाती थी बदले में उसके मन में उन सब कर्मचारियों के प्रति घृणा की टाइमप्रूफ इमारत बनती रहती थी। मन ही मन और बात बात पर पक्की गाली देना भी नत्थूसिंह के अन्य कामों में शामिल हो चुका था। कमरे के दरवाजे खोल कर कुछ पल गर्म निकलने का इन्तजार करने लगा। साफ हवा आने के लिए पंखा चला कर बन्द किया, बत्तियां जलाई, खिडकियों के पट खोल डाले। सफाई किए जाने वाले फर्नीचर की हालत देखने लायक थी। दैनिक सफाई के बावजूद भी सब पर रेत की पर्तें जम जाती थी। उसकी निगाहें मेज-कुर्सियों का जायजा लेती हुई फाइलों के रैक, अलमारियों, संदूकों और अन्य सभी वस्तुओं पर सरक सरक कर फिसलती रहीं। चारों तरफ ही थार का रेगिस्तान, गंदगी का साम्राज्य फैला हुआ था। कुछ देर यूंही खड़ रहने के बाद कोई बेकार कपडा खोजने का उपक्रम करने लगा जो सफाई के काम में लाया जा सके। कपड़ा हाथ में आते ही सफाई करने में मसरूफ हो गया। मेज-कुर्सियां साफ की, कलमदान, कागजपत्र-फाइलें सब कुछ ठीक किया। मेजपोश सलीके से बिछाये, कुर्सिया व्यवस्थित कीं। संदूक साफ कर उस दिन का अंतिम काम, पानी का घड़ा भरने चल पड़ा। सर्दी के मौसम में उपभोग कम होनेे के कारण रोज रोज ही पानी यूं ही बहा दिया जाता लेकिन घड़ा भरने का क्रम या नियम नहीं बदल पाया। सर्दी में प्यास कभी कभी या बहुत कम लगना व पानी का बर्फ जैसा ठण्डा होना भी हा सकता है। फिर भी कुछ कर्मचारी एैसे भी थे जो रात में रम का उपभोग अधिक करने के कारण दफतर में आते ही सुबह सुबह पानी पीने का आदेश जारी करते रहते थे। सैनिक अनुशासन की तरह हर रोज हर काम सम्पादित करना भी आवश्यक था और फिर पानी बदलने मात्र को ड्यूटी का हिस्सा बनाया गया था। अपने घर की याद को भुलाने के लिए जो सैनिक रातों को अत्यधिक रम का सेवन करते थे वे ही प्रातः दफतर में बैठकर हर वक्त बर्फ जैसा ठण्डा पानी पी पीकर शराब से जलाये हुए कलेजे की आग को बुझाया करते थे, मगर एैसा रोज रोज नहीं होता था। कभी-कभी पार्टियों मेे एैसा होता था। तबादले पर जाने वाले कर्मचारियों के सम्मान में। तब अगले दिन रोज ही भरा जाने वाला पानी का घड़ा वीरगति को प्राप्त हुआ करता था। सैनिक आवास(बैरेक्स) और दफतर साथ साथ होने के कारण रातों को भी काम और पीने पिलाने का दौर चलता रहता था। महफिलें जमा करती थी। गाना-बजाना होता था। शेर-ओ-शायरी होती थी। खाना खजाना होता था। तब अधिकारी और कर्मचारी अपनी अपनी पद प्रतिष्ठा को भुलाकर एक परिवार के सदस्यों की तरह साथ साथ मिल बैठ कर खाते पीते थे, जिंदगी का असली मजा लेते थे। उस समय उन सबमें अधिकारी या कर्मचारी जैसा भेदभाव नहीं होता था, किसी भी प्रकार की अहम की भावना या नाक के सवाल की दीवार नहीं होती थी। रात में होने वाली पार्टियों में सब समान होते थे एक परिवार के सदस्य। शेर और बकरी (टाइगर और लैम्ब) एक ही गिलास से एक ही बोतल की दारू पीकर जश्न मनाते थे, अगले दिन एक ही मटके का पानी पीते थे, एक साथ बैठ कर एक ही मेज पर खाना खाते थे।

एक हाथ में घड़ा, दूसरे में चप्पन उठाकर 10 कदम की दूरी पर लगे हुए नल की तरफ बढ़ गया। बर्फीला पानी कुलफी जमाये जा रहा था। कल-कल की ध्वनि से पानी भरने लगा। उसे याद आने लगा कि जब वह उस सैनिक दफतर में नया नया आया था। कर्मचारियों के साथ साथ अधिकारियों को भी उसकी कितनी आवश्यकता थी। वहां का कोई न कोई कर्मचारी हमेशा छुटटी मंजूर करवा कर घर जाने की ताक में ही रहता था, किसी न किसी बहाने से तार मंगवाकर अवकाश स्वीकृत करवाने को तैयार ही रहता था। कोई पास, कोई दूर, किसी का कोई न कोई बीमार होता तो किसी न किसी के दूर-पास के सम्बन्धी के देहान्त, कोई मां या बाप की मौत के बहाने से घर चला जाता। कोई सालाना छुटटी पर जा रहा होता तो कोई आकस्मिक अवकाश पर। किसी के घर से दुख का तार आ जाता और किसी के घर से शादी-ब्याह का न्यौता। एैसे में छुटटी पर घर गये हुए उन सब कर्मचारियों का काम देखने के लिए कच्ची और गीली मिटटी जैसे कर्मचारी नत्थूसिंह की हमेशा ही आवश्यकता रहती थी जो हमेशा पांचवा टायर बन कर इधर उधर फिट किया जा सके। उन सबका काम देखने के लिए नत्थूसिंह को भी समझौता करना ही पड़ा था, दिल को तसल्ली देनी पड़ी कि मस्टर रोल के कर्मचारी को यह सब कुछ तो सहन करना ही पड़ता है, इसके बिना कहीं भी गुजारा नहीं होता। सैनिक दफतर के अधिकारी एवं कर्मचारी रोज रोज सावन में बिरहन की तरह बाट जोहते, राह तकते, आंखे बिछाते, श्रीराम की राजी खुशी की सूचना देने के लिए माता कौशल्या तरह कोए की चोंच सोने की मढ़ाने का वादा करते मगर जिस मेहमान रूपी कर्मचारी का आना वे पसन्द करते थे वह कभी भी आता हुआ दिखाई न देता था। चौबारों पर काले कोवे तो कांव कांव करते मगर टाइपिस्ट रूपी मेहमान कभी नहीं आता था। थक हार कर बेचारे उस मेहमान की आने की आस अगले दिन पर, भगवान के हाथ, किस्मत के भरोसे छोड देते और एक दिन संयोग से भगवान ने उन सब की दयनीय हालत देख ली प्रार्थना सुन ली, नत्थूसिंह उन सब के बीच में जा पहुंचा। साक्षात्कार या यूं कहिए कि बलात्कार हुआ, स्पीड टैस्ट लिया गया अन्य औपचारिकताओं का पूर्ण कर उसका नाम मस्टर रोल पर चढ़ा दिया गया, काम दे दिया गया।

नई नवेली दुल्हन की तरह दफतर रूपी ससुराल में शर्मीला सा काम में व्यस्त रहता। एक रोज सैक्शन इंचार्ज मिस्टर शर्मा उससे बोला और कह रहा था:-

नत्थू सिंह थोड़ी देर पहले आ जाया करो यार। हमारे कमरे का अर्दली कल से सालाना छुट्टी पर जा रहा है। उससे पहले भी एक और जा चुका है। इन दोनो के वापस आने का कोई अन्दाजा नहीं है। दोनो के चले जाने से हमारे सैक्शन का काम कितने दिनों से खराब हो रहा है। देखो तो धूल-ही-धूल जमी रहती है इन मेज कुर्सियों पर। इन्हे ठीक से झाड़-पौंछ ही दिया करों यार। किसी दूसरे की ड्यूटी लगा दी गई होती तो शायद तुम्हे कहना ही नहीं पड़ता। वैसे भी मैंने अधिकारी महोदय को इस समस्या के बारे में अवगत करवा दिया है। तुम्हे कहने की जरूरत ही नहीं होती अगर हमारे कमरे के लिए एक आदमी रिजर्व में होता। वैसे भी, बैठने से पहले जानवर भी अपने चारों तरफ पूंछ मार लिया करते है। हम तो फिर भी इन्सान है। भगवान द्वारा बनाये गये जीवों की सर्वोतम योनि में हमारा नाम आता है। जानवरों से 100 गुना अच्छे, हम दिल और दिमाग का उपयोग करते है। देश के सक्रिय नागरिकों में से है।

बात गांठ बांध कर वह रोज रोज 15 मिनिट पहले आने लग गया। ठण्डे दिमाग से सोच कर जान पाया कि जानवरों का माध्यम बनाकर चतुराई बरती जा रही थी, किसी दूसरे के कंधे पर रखकर बन्दूक चलाई जा रही थी, बंदूक के वजन का दर्द किस को हो रहा था समझ से बाहर था। बन्दूक शायद उन कर्मचारियों के कंधों पर रखी जा रही थी जो या तो छुट्टी पर चले गये थे या जाना चाह रहे थे। किसी दूसरे का सहारा भी लिया जा रहा था, उसके मन और स्वाभिमान के खिलाफ काम करवाने के तरीको में से वह भी एक था।

कुछ दिन बाद शर्मा ने पहले वाले काम को करवाने के लिये सौरी फील किया उसका धन्यवाद दिया। दुबारा फिर से कहता चला गया:-

द॓खो तो यार नत्थूसिंह। पानी की कितनी दिक्कत आ जाती है। हमारे अर्दली भी लम्बी छुट्टियों पर जा चुके है। पानी पीने के लिए हमें दूसरों के कमरों में इधर-उधर जाना पड़ता है। हमारा ये छोटा सा घड़ा अगर भरा रहे तो हमें किसी दूसरे के कमरे या कहीं ओर नहीं जाना पड़ेगा। वैसे भी कभी हमारा कोई गैस्ट आ जाये तो हम उसे कम से कम ठण्डा पानी ही तो पिला सकते है। इसके सिवा हमारे पास उसे पिलाने के अतिरिक्त कोई ओैर चारा भी तो नहीं है। यहां पर खाने पीने का सब सामान समय समय पर आता है और गैस्ट के आने का कोई समय तय नहीं होता। मेहमान और मौत का कोई समय नहीं होता। बेवक्त आये हुए मेहमान को हम पानी के अलावा पिला भी क्या सकते है। पानी पिलाने के सिवा हमारे पास कोई और सोफट डिंक भी तो नहीं है। लंगर से चाय हम हमेशा नहीं मंगवा सकते। चाय तो अपने तय समय पर ही आती है।

अगले दिन से सुराही व घड़ा भी भरा जाने लगा। मौसम बदलने के साथ साथ धीरे धीरे सुराही और छोटे छोटे घड़ों का स्थान बडे मटके ने ले लिया। नित्यप्रति ताजा जल भरा जाने लगा। घड़ा भर जाने का आभास उसे तब हुआ जब पानी छलक कर नीचे गिरा, बूटों पर गिर कर जुराबों को भी गीला कर गया। जुराबों में भरकर पांव ठण्डे कर गया। घड़ा उठाकर, ले जा कर यथास्थान रखा। टाइपराइटर संभालने लगा। जिस हैसियत से उसे वहां रखा गया था वह पूर्णतया लोपित हो चुकी थी। माइनस तापक्रम के अण्टार्कटिका की ठोस बर्फ से पिघलकर वही धीरे धीरे पानी की तरह हो गया। कोई भी जब चाहे जिस में चाहे भरकर पी ले। शत प्रतिशत गुलाम होकर रह गया था। वेतन के सम्मोहन में यंत्रमानव बनता जा रहा था। सील गाय की तरह व प्रत्येक भेदभाव पूर्ण आदेश भी मानता जा रहा था। चाहता तो अन्य स्थाई कर्मचारियों की तरह सांड के से सींग भी मार देता, जमींन दिखा देता। कईयों का घायल भी कर देता लेकिन करता क्या। कच्चा कर्मचारी होने के कारण उसके सींग नाम की चीज ही नहीं थी, कर्मचारियों ने सींग उगने ही नहीं दिये थे। मजबूरी ही एैसी थी। ठीक किसी कैदी की तरह वह उस दफतर में से आजाद होने की कोिशश करने लगा, छूटने का इंतजार करने लगा मगर यहीं इंतजार तो खतरनाक होता है, बेकरार होता है। बेदर्द होता है। इंतजार ही करवाता रहता है।

काम करते करते वह यही सब कुछ सीख और समझ पाया कि जो भी किसी को जितना खुष करने की कोिशश करता है उसे उतना ही कष्ट, बोझ, डांट फटकार सब कुछ सुनने, सहने करने का आदी हो जाना पड़ता है। नत्थूसिंह ने भी बिना सोचे, समझे, बिना विचारे हर वक्त में हर कर्मचारी के साथ हां में हां ही मिलाई थी, हर काम करने की इच्छा जाहिर की थी, किसी के भी द्वारा, कभी भी, कैसा-जैसा भी उसे करने को कहा जाता था वह बेहिचक वैसे ही सब कुछ करता आया था। एक बार भी उसने इनकार नहीं किया था। किसी भी काम को सम्पादित करने से मना नहीं किया था। वह गधे की तरह काम के बोझ से दबकर रह गया था। परिणामस्वरूप उसे वह सब कुछ समझ में आ रहा था जो किसी कर्मचारी को इनकार करने या पूरी उम्र काम करने के बाद भी समझ में नहीं आया था, पता नहीं चला था। कइयों को यह बात पूरी नौकरी कर लेने के बाद भी समझ में नहीं आती और अगर आ भी जाती तो कुछ प्रतिशत या कई बार लोग इसे पूरी जिंदगी खपा देने के बाद भी नहीं समझ पाते। बहुत की कम आयु में समझौता करके वह सब कुछ जान गया, सीख गया। धूप में बाल सफेद होने की कहावत को उसने अपने अनुभव के आधार पर गलत सिद्ध कर दिया। नवजात बछड़े और नवनियुक्त कर्मचारी में भी ज्यादा फर्क नहीं होता ज्यों ज्यों बछड़े की आयु बढ़ती जाती है त्यों त्यों उस पर हल चलाने की, कोल्हू पेरने की, बैलगाड़ी खींचने की जिम्मेवारियां बढ़ती जाती है। ठीक उसी प्रकार से जब जब कर्मचारी का सेवाकाल बढ़ता चला जाता है, पदोन्नति होती जाती है, रूतबा बढ़ता जाता है वैसे वैसे उसकी जिम्मेवारियां भी बढती जाती है। बछड़ा बड़ा होकर बैल में और कर्मचारी सीनियर होकर सैक्षन अधिकारी या राजपत्रित अधिकारियों में परिवर्तित होते चले जाते है। समय के साथ साथ बढ़ती हुई उम्र लेकर बछड़ बैल का रूप धारण कर खेत में हल खींचने में जुट जाता है, कोल्हू के जुए में बंध जाता है। अधिकारी दफतर में फाइलों के ढेर के पीछे छुप जाता है। दबकर रह जाता है।

आहिस्ता आहिस्ता वह टाइपिस्ट से चपरासी में बदल गया। उस प्रातः के सब काम निपटाने के पश्चात सबसे बड़ा काम था साफ किए हुए कमरों को गर्म करना, एक दिन पहले की स्टोर में से कोयला लेकर अंगीठी भर कर रख छोडी थी, बेकार कागज लेकर, अंगीठी सुलगा कर वापस ले आया। दस बजे चाय की व्हिसिल लगी। ट्रे में से कप प्लेट निकाल कर धो कर साफ किए। अर्दली चाय देकर जाता रहा। जूते पालिश करने के काम से लेकर रात खाने के बाद थाली कटोरी साफ करने तक का काम सैनिक स्वयं की सम्पादित करते है। चाय पी कर उसने कप धोकर ट्रे में रख दिये।

रोबोट-सा वह, यंत्र-मानव सा, ऑटोमैटिक मशीनों की तरह सब कुछ सम्पादित करने लगा। रोज रोज का वही हाल था। दुबारा सुनने की उसने कभी भी आदत नहीं डाली थी। चाय के बाद उसने वहां काम करने वाले अन्य कर्मचारियों से मुलाकात की, मेल मिलाप किया, गुड र्मोनिंग की, हैलो की, सत श्री अकाल की, नमस्कार की, राम-राम की, जय हिन्द की, असलामालेकम किया, सैल्यूट दिया, सबसे सबका हाल चाल पूछा।

टाइप करने के लिए उसने अभी मशीन संभाली ही थी कि अचानक अर्दली आ धमका, शायद मेजर साब, कैप्टन साब या किसी दूसरे अधिकारी ने बुलाया होगा। आकर बोला:-

सत श्री अकाल। बाबू।

सत श्री अकाल। उसने बिना सिर घुमाये ही उत्तर दिया।

बाबू। मेजर साब। अर्दली ने अपने आने का मकसद प्रकट किया।

नत्थूसिंह सब कुछ समझ गया। मात्र मेजर साब, कैप्टन साब, सूबेदार साब बोलकर अर्दली अपने आने का मतलब बता दिया करता है। उसे देखकर ही समझ जाना होता है कि कौन सी प्रजाति के बैल ने सींग मारना है।

ठीक है अभी चलते है।

हाथ में कागज को सलीके से मोड़कर, तह लगाकर ले जाते हुए वह मेजर साब के चैम्बर की तरफ चल दिया। कमरे में प्रविष्ट होते ही सैल्यूट बजाया। मेजर साब कुछ पढ़ते हुए रूके, सिर उठाकर देखा और बोले:-

गुड र्मोनिंग जैण्टलमैन। तुम बहुत ही काबिल टाइपिस्ट हो, हम तुम्हारे काम को देखकर बहुत ही खुश हुए है। यू आर वैरी गुड टाइपिस्ट हैविंग कम्पलीट एक्यूरेसी। आइ एम वैरी प्लीज्ड टू सी योअर क्वालिटी ऑफ वर्क। बट यू हैव लैफट समथिंग, डोण्ट माइण्ड। इट डजनोट मैटर। इधर देखो बेटा। उकुछ टाइप होने से छूट गया है। कोई बात नहीं। इस लैटर को फिर से, इधर से एैसा, री-टाइप करों। हां-हां बहुत सुंदर होना मांगता है। मेरा राइटिंग तो समझ में आता है न तुम्हारे। वैसे अब तो तुम काफी समझदार हो गया है। मेरा राइटिंग भी अच्छी तरह से समझने लगा है। न समझ में आये तो शर्मा साब से पूछ लेना। ऑवर टाइपिंग नहीं करने का, करैक्षन फलूड से बचों। ध्यान से टाइप करेगा तो स्पैलिंग मिस्टेक नहीं होगा।

मेहर साब ने हवा भर कर उसे गोल गप्पा बना दिया जिसे चटपटे पानी से भरकर साबुत ही खाया जा सकता है बिना निगले। मेजर साब भरपूर काम लेना चाहता था। अच्छा काम करने वालों को थैंक्स देना, एप्रििशयेट करना उसकी दिनचर्या में शामिल था। नत्थू सिंह ने एक बात विश॓षकर नोट कर ली थी कि मेजर साब स्थाई कर्मचारियों को दिन में छत्तीस बार डांट पिलाते थे, दिन भर किसी न किसी को किसी न किसी बात पर डांटने का अभियान चलता ही रहता था परन्तु उसे किसी भी बात पर कभी भी डांट नहीं पडी थी। मेजर साब उसके काम से कितना खुश होते थे इस बात का अनुमान तो वह खुद भी नहीं लगा पाया था लेकिन बार बार उसे द्वारा किए हुए काम की भूरि-भूरि प्रशंसा वे करते ही रहते थे। कोई भी उच्चाधिकारी वहां पर निरीक्षण के लिए आता तो वे अक्सर नत्थूसिंह की प्रशंसा भी करते कभी सालाना कार्यक्रमों में उसे सम्मानित भी किया जाता। कभी कभी उसका परिचय भी करवा देते। हमेशा प्यार से पेश आते। उसका कारण नत्थूसिंह का अस्थाईपन था या कुछ और उसकी समझ से बाहर था। उच्चाधिकारियों से हाथ मिलाकर अपनी प्रशंसा सुन कर वह भी फूला नहीं समाता था। मेजर साब के चैम्बर में भी यहीं सब कुछ पहले से ही चल रहा था। चैम्बर के दरवाजे पर जाते ही उसकी जान सूख गई थी। मेहर साब का पारा बहुत ही गर्म था। नत्थूसिंह के चैम्बर में प्रवेश करते ही उन्होने अन्दर वाले कर्मचारी को तुरन्त बाहर निकाल दिया।

एक दिन मिस्टर प्रकाश शर्मा को मेजर साब ने बुलाया और बैठक की तैयारी हेतु मांगी सूचना टाइप करने के लिए दी। कुछ सामग्री लाते हुए वह नत्थूसिंह से बोला था:-

आज रात की गाड़ी से मेजर साब हैडर्क्वाटर जायेंगे। कल कोई विशेष मीटिंग है। गुप्त सूचना है। उन्होने लिख दी है। ये लो, इन्हे आज शाम तक ही टाइप करना है। अभी से शुरू कर दो। काम काफी है और पता नहीं कितनी बार टाइप करना पडेंगा और कितनी बार बदल बदल कर मिलेगा। इसे मेजर साब को देने के बाद ही घर जाना है।

टाइप किए जाने वाले पन्नों का पुलिन्दा देखकर उसे 101 डिग्री बुखार सा आ गया। अचानक चक्कर जैसा दिमाग हो गया क्योंकि लोगों के जाने का, दफतर बन्द करने का समय दौड़ता हुआ सा आ रहा था। लगभग पौने पांच का समय रहा होगा। दफतर समय के बाद जो अफसर न बैठे वह असली अफसर नहीं, गीदड़ की सी चालाकी न करें लीडर नहीं और जो बेकार न रहा हो वह स्टार (अभिनेता) नहीं। गाड़ी जाने का समय रात दस बजे का था। नत्थू सिंह टाइप करने के काम में तभी जुट गया था।

लगभग नौ बज कर तीस मिनिट पर वह काम निपटा कर घर जाने की तैयारी ही कर रहा था कि मेजर साब का अर्दली मीटिंग के पोस्टपोण्ड होने का दुखदायी समाचार देने चला आया। नत्थूसिंह ने सिर थाम लिया, मुर्गी जान से चली गई और खाने वाले को स्वाद न आया। न जाने इससे पहले कितनी ही बार मुर्गियां यूं ही हलाल होती रहीं थी, कितनी ही बार मीटिंग या तो कैंसिल हो जाया करती थी या फिर अनिश्चितकाल के लिए पोस्टपोण्ड हो गई थी। वही एक एैसा कर्मचारी था जो हर बार किसी न किसी के लिए कभी मेजर साब के लिए, कभी कैप्टन साब के लिए कभी किसी के लिए मुर्गी की तरह हलाल होता चला आ रहा था। सारी मीटिंगों का मात्र एक साक्षी। उस बूचड़खाने में उसकी जान की कोई कीमत नहीं थी कोई कद्र नहीं थी। सबने उसे मुफत की मुर्गी बनाकर बार बार हलाल किया था लेकिन प्रशंसा के चक्कर में कई बार वह खुद ही हलाल होता रहा था। घर की मुर्गी की तरह, मूंगी की दाल की तरह हमेशा ही बेस्वाद। वह दाल जो हमेशा ही बेस्वाद समझी जाती है और बेकार में फैंक दी जाती है।

थकावट की हालत में उसने साइकिल उठाई और राकेट की रफतार से घर की तरफ रवाना हो गया। उस कैद से वह जल्दी जल्दी निकल जाना चाहता था, अंतरिक्ष में जाने वाले राकेट की तरह दफतर के गुरूत्वार्कषण को पार कर वह निकल जाना चाहता था। उसके मन में डर बैठ गया था कि मेजर साब अर्दली को उसके पीछे भेज कर वापस न बुला लें कहीं। साइकिल को उसने राकेट बनाने की ठान ली थी लेकिन अंधेरी रात में दफतर उसे किसी प्रेतात्मा की तरह अपने पीछे आता हुआ दिखाई दे रहा था। बड़े बड़े खूनी पंजों के साथ कर्मचारी जिसके पैने और बड़े नुकीले दांत और अधिकारी जिसकी बड़ी भयानक लाल और डरावनी आंखे होती है। जिसकी खुराक अस्थाई कर्मचारियों का खून, सेहत और बेगार में गई हुई्र मेहनत होती है।

(राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की मासिक पत्रिका मधुमती के अक्तूबर 1985 - युवा रचनाकार अंक में प्रकाशित पहली रचना।)