लंदन में खुशवंत सिंह स्मृति समारोह / जयप्रकाश चौकसे

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लंदन में खुशवंत सिंह स्मृति समारोह
प्रकाशन तिथि : 21 मई 2018


पत्रकार एवं उपन्यासकार खुशवंत सिंह का एक स्मृति समारोह दिल्ली में आयोजित किया गया। विषय था 'राष्ट्रवाद।' हुड़दंग की धमकियों के कारण अब यह समारोह लंदन में किया जा रहा है गोयाकि भारत पर खुलकर बात करने के लिए सुरक्षित जगह विदेश में ही मिल सकती है। इस घटना में छिपे संकेत गहरे हैं। क्या विरोध के अधिकार से अवाम वंचित कर दिया गया है? आधिकारिक तौर पर किसी को रोका नहीं जा रहा है परंतु सबसे अधिक स्वतंत्रता हुड़दंगियों को हासिल है। कौन हैं ये उन्मादी लोग?

पूरा देश किसी सनकी न्यायाधीश की अदालत की तरह लगता है। याद आता है अक्षय कुमार अभिनीत 'जॉली एलएलबी भाग दो'। वह आते ही अपने टेबल पर रखे छोटे से गमले में उग रही कोंपल को पानी देता है। कुर्सी पर खड़ा होकर टेबल लैम्प को नीचे खींचता है। उसकी कोपल की तरह नाजुक है न्याय व्यवस्था। दुष्यंत याद आते हैं 'बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं। चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं।' खुशवंत सिंह 1969 में टाइम्स समूह की 'इलस्ट्रेटेड वीकली' के संपादक नियुक्त हुए थे। इंदिरा गांधी ने एक साहसी फैसला किया था। मजबूत सिंडिकेट को ध्वस्त कर दिया था। उसी दौर में पत्र-पत्रिकाओं में साहसी तस्वीरें प्रकाशित होने लगी थीं। अश्लीलता की लहर चल रही थी। शालीनता पर बहस शुरू हो चुकी थी। कालेधन का नंगा नाच जारी था। कुछ समय पूर्व ही कालेधन को खोजने के बहाने करेंसी बदली गई थी। इस अनावश्यक कसरत में सरकार को बहुत आर्थिक हानि हुई परंतु अवाम अनजान बना रहा।

आजकल बीन बजाने पर सांप नहीं नाचता वरन सपेरा ही नाचने लगता है। 'गाइड' में शैलेन्द्र अपना आश्चर्य अभिव्यक्त करते हैं 'आज फिर क्यों नाचे सपेरा।' संपादक खुशवंत सिंह ने अपनी छवि प्रचारित की, जिसके अनुसार वे बेहद शराब पीते हैं, अय्याश हैं। महान पत्रकार राजेन्द्र माथुर के साथ खाकसार को खुशवंत सिंह से मिलने का अवसर मिला। ज्ञात हुआ कि वे शराब को छूते भी नहीं और मधुमेह ने उन्हें अय्याशी के काबिल ही नहीं छोड़ा था गोयाकि उन्होंने गलत छवि गढ़ी थी और इसका वे लुत्फ उठाते थे। खुशवंत सिंह के उपन्यास 'ट्रेन टू पाकिस्तान' पर फिल्म बन चुकी है। वे सदैव मेनका गांधी के मित्र रहे। खुशवंत सिंह ने 'वीकली' में आदिवासी लोगों के जीवन पर चिंता व्यक्त करने हुए आदिवासी स्त्रियों की साहसी तस्वीरें प्रकाशत की थीं। समाज तमाम लादी हुई बंदिशों से मुक्त होने को बेकरार था और इस बेकरारी का उन्होंने जमकर दोहन किया। उन्हीं दिनों 'डेबोनियर' में प्रतिबंधित विषयों पर लेख और साहसी फोटो भी प्रकाशित किए जाते थे। उस दौर को समझने में मुझे इरविंग वैलेस के उपन्यास 'सेवन मिनट्स' ने बड़ी मदद की थी।

सतही तौर पर खुशवंत सिंह इंदिरा गाधी के मुरीद थे परंतु जब इंदिराजी की बहू मेनका अपनी सास से भिड़कर अलग रहने चली गईं तब खुशवंत सिंह मेनका की ओर हो गए। क्या यह निर्णय राजनीति से प्रेरित था या महज अपने धर्म की कन्या का पक्ष लेना था। दरअसल, भारत में धर्म-जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। उसका अनुमान जेपी दत्ता की फिल्म 'बंटवारा' के एक दृश्य में ऐसे उभरता है कि पुलिस अफसर एक दबिश में तीन लोगों को अपनी जीप में बैठाकर पुलिस थाने की ओर जा रहा है। एक बियाबान स्थान पर वह जीप रोककर अपनी जाति के अपराधी को भाग जाने के लिए कहता है और अन्य अपराधियों को गोली मार देता है ताकि उसके जातीवादी कार्य का कोई गवाह नहीं रहे। इसे पुलिस 'एनकाउंटर' कहते हैं। नाना पाटेकर अभिनीत 'अब तक छप्पन' फिल्म में इस विषय का खुलासा हुआ है। 'जॉली एलएलबी भाग दो' में तो सारी फिल्म ही एक नकली एनकाउंटर के गिर्द रची गई है।

राजेन्द्र माथुर की तरह विद्वान संपादक और खुशवंत सिंह जैसे साहसी संपादक इस दौर में दिखाई नहीं पड़ते। दरअसल, जब 'टाइम्स' के मालिक ने एक ही समय में 17 पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद किया, जिसमें 'धर्मयुग,' 'वीकली,' 'माधुरी' आदि शामिल थीं तब इस क्षेत्र में बदलाव आया। उन महोदय का कथन था कि विज्ञापन से बची जगह में खबरें प्रकाशित की जाएं गोयाकि विज्ञापन ही निर्णायक शक्ति हैं। अखबार का अर्थशास्त्र कठिन है। जिस अखबार की एक प्रति तीन रुपए में बेची जाती है उसे प्रकाशित करने की कीमत सात रुपए है। इस घाटे को विज्ञापन से पूरा करना आवश्यक है। दरअसल, सारा प्रकरण उलझा हुआ है। अखबार मालिक अनेक प्रकार के दबाव में रहता है। धंुध गहरी है, चल पड़े हैं मगर रास्ता नहीं, मंजिल का कोई पता नहीं! यह सबकुछ इस तरह है डाक विभाग दिए गए पते पर किसी को नहीं पाता तो इस 'गुमनाम' खत को विभाग के बाहरी हिस्से में लगे एक बोर्ड पर लगा दिया जाता है। इस तरह एक डेड लेटर बॉक्स भी होता है। जी हां, इंसानों की तरह खत भी मरते हैं और शायद उनका दोबारा जन्म भी होता है। इस दौर में आम आदमी को बार-बार साबित करना होता है कि वह ज़िंदा है और राष्ट्रवादी भी है। इस बात को अनदेखा करें कि राष्ट्रवाद पर चर्चा का समारोह लंदन में करने की मजबूरी है।