लंबे इंतज़ार के बाद / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
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जीवन मैं लंबे इंतज़ार के बाद कभी-कभी कुछ ऐसा होने लगता है जो आपने हमेशा चाहा था पर जब वह सच में होने लगता है तब आपको लगता है क्या मैंने वाकई ऐसा चाहा था!

किसी भी चीज़ के जीवन में मिलने की खुशी बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर है कि आपने उसकी क्या कीमत चुकाई है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वह चीज़ इतना समय ले लेती है और इतनी भारी कीमत कि उसके होने ना होने की कोई खुशी महसूस नहीं होती और कभी-कभी तो बिल्कुल उलटा ही होता है, उसका होना खुशी की बजाय एक टीस, एक दुःख, एक अजीब-सा खालीपन देता है।

किसी को भी खुशहाल देखकर आप कभी अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि उसने क्या-क्या और कितनी कीमतें चुकाई होंगी। दिखाई देने वाली हर चीज़ पूरा सच नहीं होती, किसी का भी आकलन करने से पहले यह बात याद रखना बेहद ज़रूरी है।

कुछ बातों के लिए आप उम्र भर मेहनत करते हैं, एक सपना देखते हैं कि यह हो जाएगा, तो खुशी होगी और इतना समय इस पूरे प्रोसेस में गुज़र जाता है कि होने के बाद लगता है...

हो गया बस! अब खुश भी होना है!

जीवन की लंबी यात्रा के बाद समझ आता है कि दरअसल खुशी बहुत ही अस्थायी चीज़ होती है...

शादी करके जब ससुराल आई, तो काफी देर बाहर कार में बैठना पड़ा, क्योंकि अंदर जो पूजा की तैयारियाँ होनी थी, वे अभी पूरी नहीं थी। उस वक्त ही मेरी नज़र बाहर लगे बेल के पेड़ पर गई और मेरा मन बेहद खुश हो गया। जो रोज़ मंदिर जल चढ़ाने जाता हो, उसको इस तरह बेलपत्र घर के बाहर ही मिल जाए, यह किसी नेमत से कम नहीं था। काफी साल बाद जब नया घर बना तो जिस दिन उसकी पहली ईंट रखी गई तभी घर के बाहर बेल भी रोप दिया था कि जब तक घर तैयार होगा यह पेड़ भी फल फूल जाएगा। रोपा तो साथ मैंने गुलमोहर का पेड़ भी था और पिछले आठ नौ सालों में कई बार कोशिश कर चुकी पर गुलमोहर का पेड़ कभी ठीक से जड़ नहीं पकड़ पाया। गुलमोहर से मेरा आकर्षण बहुत छोटी उम्र में तब शुरू हुआ जब घर में पहली बार वीसीआर आया। वीसीआर के साथ कुछ कैसेट आईं और उसमें एक फिल्म प्रेम रोग थी। जब हीरोइन, हीरो को लेने रेलवे स्टेशन जाती है तो बग्घी से लौटते हुए का रास्ता दोनों तरफ गुलमोहर के पेड़ों से ढका होता है। मैंने बहुत चाहा एक सुंदर-सा गुलमोहर घर के बाहर लग जाए, पर यह न हो पाया।

एक ही बगीचा, एक ही मिट्टी, एक पेड़ जड़ पकड़ गया और दूसरा कभी भी नहीं पकड़ पाया।

आकर्षण और प्रेम में फर्क होता है। मोह और आस्था में उससे भी ज़्यादा। शायद इसलिए ही गुलमोहर का पेड़ कभी नहीं लग पाया और बेल का पेड़ पहली बार में ही लग गया।

पर उसके बाद से जब भी सावन आता, जल चढ़ाने के समय सुबह बेलपत्र न मिल पाते कि जहाँ तक जिसका हाथ जाता वह पहले ही बेलपत्र उतार कर ले गया होता। घर के पास तीन मंदिर हैं, शिवजी पर जल चढ़ाने वाले लोग अनगिनत हैं और बेल के पेड़ गिने -चुने।

मैं कभी-कभी झुंझला जाती, यह बेलपत्र का पेड़ समाज सेवा के लिए लगाया था मैंने! जिसको देखो यहाँ से बेलपत्र ले जाता है और मेरे मंदिर में चढ़ाने के लिए बचते ही नहीं। कई बार तो इतनी ऊँचाई तक लोग उतार ले जाते थे कि अगर किसी से सीढ़ी लगवाकर भी उतरवाना चाहो तब भी लगभग पत्तों से खाली हो चुका होता था।

इस बार बेल का पेड़ पूरा भरा हुआ है। ना के बराबर ही पत्ते उतारे गए हैं सावन के महीने में भी। मैं रोज़ बेलपत्र लाती हूँ। चढ़ाने के लिए और मुझे बिल्कुल भी खुशी नहीं होती पेड़ को हरा भरा यूँ पत्तों से लदा देखकर।

यकीन कीजिए जीवन में कोई भी खुशी इस बात पर बहुत निर्भर है कि आपने उसकी क्या कीमत चुकाई है। मैंने यह बेलपत्र इस कीमत पर तो कभी नहीं चाहे थे।

प्रभु पूरे विश्व से इस महामारी को अब दूर कर दें।

मैं चाहती हूँ मुझे सावन के महीने में यह पेड़ पत्तों से खाली ही मिले।

वैसे अकसर चीजें जब तक हो नहीं, जाती तब तक समझ भी नहीं आता

कि यह तो नहीं चाहा था ...