लघुकथावां / भगवानदास शर्मा / कथेसर

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: कथेसर  » अंक: अक्टूबर-दिसम्बर 2012  

लादै वाळो

रेडियो जी दिनूगै की सैर करण अर्जुन क्लब कानी घूमै हा। कीं अंधेरो-सो ई हो। पूरो उजास कोनी होयो हो। “भाईड़ा, थोड़ो स्हारो लगाई ऽऽऽ!” मुसाणां में सूं कोई हेलो मार्यो। रेडियो जी मुसाणां कानी देख्यो। अेक आदमी मुसाणां में धर्मादै की लकड़्यां को लादो बांधै हो। रेडियो जी बीं कनै गया और बीं आदमी नै लादो बंधवा दियो। विचार आयो, बिना कोई ठाडी मजबूरी कै मुसाणां की लकड़्यां कोई क्यूं उठासी?

सिरावण-पाणी कर्यां बिनां ई रेडियो जी गढ कै आगै पूंचग्या जठै घास अर लकड़्यां का लादा बिकण वास्तै आवै। कई देर बाद बो ई लादै वाळो बठै आग्यो। रेडियो जी पूछ्यो, “अरै भाईड़ा, लादै का कित्ता रिपिया?”

“सेठां, चाळीस रिपिया लेस्यूं।” आदमी कैयो।

“लै पकड़!” रेडियो जी बीं नै चाळीस रिपिया दे दिया।

“चालो सेठां, बताओ लादो कठै गेरणो है?” बो बोल्यो।

“भाईड़ा, बठै ई गेरिया, जठै सूं उठायो है।” रेडियो जी आपरै घर अर लादै आळो मुसाणां कानी चल्यो गयो।


गजब गुरुजी

सगळा बांनै गुरुजी कैवै। गुरुजी आछा चित्रकार, ईमानदार अर साफ मन रा आदमी, पण दारू खूब पीवै। अै सगळी बातां लोग जाणै अर मानै। अेक सेठजी गुरुजी नै कैयो, “गुरुजी, म्हारी बैठक में सरजीवण बूंटी ल्याता हनुमानजी की तस्वीर बणाद्यो।” गुरुजी बैठक की भींत को नाप-जोख देख्यो। विचार कर्यो अर बोल्या, “सेठां, इत्ती बडी तस्वीर बणावण का ढाई सौ रिपिया लेस्यूं।” सेठजी कैयो, “डेढ सौ लेल्यो।” मोल-मुलाई पाछै दो सौ रिपियां में बात नक्की होगी।

गुरुजी दो-तीन दिनां में तस्वीर बणादी। खाली हड़मानजी कै हाथ में संजीवण बूंटी आळो पहाड़ बणावणों बाकी हो। गुरुजी सेठ नैं बोल्या, “सेठां, अेक बार पचास रिपिया देया।”

“के करस्यो?” सेठ पूछ्यो।

“दारू पीस्यूं।” गुरुजी जवाब दियो।”

“गुरुजी, म्हारै घर में दारू-वारू कोनी चालै।” सेठजी उळाव काढ्यो।” आं बातां में कांई पड़्यो है सेठां, थारो बडोड़ो बेटो म्हारै सागै ई पीवै।”

“तस्वीर पूरी करो अर थारा रिपिया दो सौ ले ज्याओ।” सेठजी आपरी झेंप मिटावता अर गुरुजी नै धमकावता-सा बोल्या।

“अरै, रिपिया तो मैं दो सौ ई लेस्यूं। डेढ सौ मनैं तस्वीर पूरी होयां पाछै दे देया।” गुरुजी उत्तर दियो।

“मैं थोड़ी देर में आऊं।” कैयो अर सेठजी भीतर चल्या गया। पन्दरा’क मिनट पछै सेठजी बैठक में आया। गुरुजी कोनी दिख्या। तस्वीर कानी देखतां ई चकराग्या। तस्वीर में हड़मानजी कै हाथ में सरजीवण बूंटी कै पहाड़ की जिग्यां थ्री एक्स रम की बोतल दीखी। भीतर गया। अेक बडी-सी चादर ल्याया। ऊंचा चढ तस्वीर नै चोखी तर्यां ढकी अर गुरुजी नै ढूंढण निकळग्या। लोगां पूछ्यो, “सेठां, आज थे गुरुजी नै कियां ढूंढो हो? बै का तो दारू कै ठेकै पर मिलैगा या फेर लाइन होटल में रोट्यां जीमता मिलसी।” खैर, सेठजी हार-खा’र घरां आग्या।

गुरुजी कोई अेक घंटा पाछै खुद ई बैठक में आया। देखतां ई सेठ कैयो, “गुरुजी, थे ओ के कर्यो? हड़मान बाबै कै हाथ में दारू की बोतल पकड़ा दी। रिपिया चाहे थे दो सौ की जिग्यां ढाई सौ ले ल्यो, पण तस्वीर नै ठीक करो।”

“सेठ, मेरै दिमाग में जद दारू की बोतल ही तो मैं हड़मानजी कै हाथ में संजीवणी कठै सूं पकड़ातो? रिपिया तो मैं दो सौ ई लेस्यूं। देख, अब बाबै कै हाथ में संजीवणी बूंटी दे देवां।” गुरुजी बोल्या अर तस्वीर बिलकुल सही बणा दी।