लघुकथा-साहित्य में वात्सल्य / अशोक भाटिया

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मुख्य रूप से, माता-पिता के हृदय में होने वाला, अपनी संतान के प्रति स्वाभाविक प्रेम-स्नेह का भाव 'वात्सल्य' कहलाता है। इसमें संतान के प्रति संरक्षण, विभिन्न सरोकार, चिंताएँ, सपनों की उड़ान आदि शामिल हैं। इसकी व्यावहारिक परिणति में पारिवारिक समाजार्थिक आयाम मिलकर इसका स्वरूप तय करते हैं। ये आयाम भी चूँकि परिवर्तनशील होते हैं, अतः वात्सल्य भाव के रूप समयानुसार कुछ-कुछ बदलाव लिए होते हैं। स्नेह-संरक्षण की इस प्रक्रिया को माता-पिता तक सीमित न रखकर इसे समाज के विभिन्न सम्बंधों तक खोजने का उपक्रम होना चाहिए। अतः वात्सल्य की अवधारणा को नया विस्तार देना होगा, जिसकी तस्दीक विश्व साहित्य की अनेक रचनाएँ करती हैं। जैसे-मैक्सिम गोर्की के 'माँ' उपन्यास में माँ क्रांतिकारियों से मिलकर उनकी सेवा करती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'काबुलीवाला' कहानी में चार-पाँच बरस की मिनी के साथ रहमत काबुलीवाला के वात्सल्य भाव का रहस्य बाद में खुलता है, जब जेल से बाहर आने पर वह मिनी के लिए अंगूर किशमिश बादाम लेकर आता है। जब काबुलीवाला अपनी बेटी के नन्हे हाथ की छाप वाला कागज बिछाकर कहता है कि 'उसीका चेहरा याद करके तुम्हारी मुन्नी के लिए हाथ में थोड़ा-बहुत मेवा लेकर आया हूँ' , तब मिनी के पिता को अपने और काबुलीवाले में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता-'इस बीच उसकी पुत्री भी इसी तरह बड़ी हो गई होगी' , वह सोचता है। यह वात्सल्य का विस्तार ही है।

मंगलेश डबराल ने अपने भीतर जाकर एक नमी को छूने की जो बात एक कविता में कही है, यह नमी वात्सल्य-भाव में आदि से अंत तक मिलती है। वात्सल्य सदा स्निग्धता से सराबोर होता है। समकालीन संदर्भों में आहत वात्सल्य के सन्दर्भ अधिक मिलते हैं, विशुद्ध वात्सल्य दुर्लभ होता गया है।

पृष्ठभूमि-

पुत्र-मोह के अतिरेक में दूसरों का हक मारने के प्रतिनिधि उदाहरण रामायण से कैकेयी और महाभारत से धृतराष्ट्र के रूप में हमारे सामने हैं।

कबीर जब 'हरि जननी मैं बालक तोरा, काहे न अवगुन बकसहु मोरा' कहते हैं, तो मातृत्व-भाव पर अखंड विश्वास करते हुए ईश्वर को सम्बोधित करते हैं।

सूरदास को वात्सल्य का पर्याय कहा गया है। कृष्ण के बाल-सौंदर्य, बाल-विकास और बाल-क्रीड़ा-तीनों आयामों को जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि से सूरदास ने उकेरा है, वह मोहक, दुर्लभ और आश्चर्यजनक है। खेती और पशु-पालन के उस युग में यह सब सहज रूप से संभव था। सूरदास ने राम के बाल-रूप पर भी लिखा है और तुलसीदास ने भी 'कृष्ण गीतावली' में कृष्ण के बाल-रूप पर कलम चलाई है। इस दृष्टि से सूर अद्वितीय हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सही लिखा है-"बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं।"

भारतवर्ष की पहली शिक्षक सावित्रीबाई फुले (1831-1897) ने 32 निर्धन बालकों को पाला और पढ़ाया; उन बच्चों की जन्मदात्री न होकर भी सावित्रीबाई वात्सल्य का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत कर गईं।

निराला द्वारा 1935 में दिवंगत पुत्री की स्मृति में लिखी लंबी कविता 'सरोज स्मृति' वास्तव में आहत वात्सल्य की करुण चीत्कार है। कन्या का उत्तम पोषण न कर पाने की टीस उसे हमेशा सालती रही। इस कविता में वात्सल्य-भाव व्यंग्य और विडम्बना के साथ उभरता है।

वात्सल्य की धारा किसी भी हृदय में उमड़ सकती है। प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' में हामिद की अभावग्रस्त दादी अमीना ने ईद के लिए हामिद को कहीं से नया कुर्ता और तीन पैसे लेकर मेला देखने भेजा। लेकिन हामिद जब दादी के लिए चिमटा खरीद लाया तो दोनों ओर से वात्सल्य-भाव उमड़ पड़ा। प्रेमचंद की ही 'बूढ़ी काकी' कहानी में जिस बूढ़ी काकी के खाने के लालच को देख बहू ने कहा-तेरी जीभ में आग लगे' और कोठरी में बंद कर दिया, उसी काकी को कुंडी खोलकर पोती बाहर निकालती है। फिर बूढ़ी काकी को बचा-खुचा, गिरा हुआ उठाकर खाते देख बहू को अपनी भूल पर पश्चात्ताप होता है। वह बाज़ार से नए सिरे से उसके लिए खाना लेने निकल जाती है। ये सभी वात्सल्य-भाव के ही आयाम हैं।

वात्सल्य-भाव समाज में हदबंदियों और संकीर्णताओं को तोड़ता है। प्रेमचंद के 'गोदान' उपन्यास में धनिया द्वारा गोबर की प्रेमिका झुनिया को, तमाम सामाजिक विरोध के बावजूद, डंके की चोट पर घर में रखना, या झुनिया के बेटे को काली पहाड़ी औरत द्वारा स्तनपान कराना वत्सल-भाव की स्निग्ध विस्तार-गाथा के ही आयाम हैं। गोविन्द मिश्र की कहानी 'ललमुँहा' में एक अंग्रेज़ किसी बगीचे में छिपा होता है, जिसे घर की स्त्री देख लेती है। फिर अपने भारतीय संस्कारों के वशीभूत उसे खाना खिलाने के बाद भाग जाने को कहती है।

वास्तव में साहित्य को वात्सल्य के कोण से देखने, पड़ताल करने की आवश्यकता है ताकि सामने आए कि उस तरल धारा के आसपास रचनाकारों ने कितनी हरियाली उगाई है।

कुछ कविताओं की चर्चा करें। ऋतुराज की कविता 'कन्यादान' में मातृत्व-भाव तमाम जिम्मेवारी और पीड़ा का रासायनिक मिश्रण लिए है। कुछ पंक्तियाँ देखें-

माँ ने कहा, पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए है

जलने के लिए नहीं

वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं स्त्री-जीवन के

माँ ने कहा, लड़की होना

पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।

भगवत रावत की कविता 'कचरा बीनने वाली लड़कियाँ' में कवि लिखता है-

खुद ही अपनी माँ होती हैं

ये कचरा बीनने वाली लड़कियाँ

भगवत रावत की ही कविता 'वह माँ ही थी' में पति से पिटने के बावजूद पत्नी को बच्चे की चिन्ता सताती है-

वह पीठ पर पड़े नीले निशानों की

परवाह किए बिना उठी थी

और उसे खामोश कोने से खींचकर

गर्म सोते की तरह

फूट पड़ी थी।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'अपनी बिटिया के लिए दो कविताएँ' संवेदना और शिल्प के धरातल पर एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। दोनों कविताएँ वात्सल्य की उच्चतर भाव-भूमि पर संस्थित हैं, किन्तु पहली कविता कला का अद्भुत उदाहरण है, तो दूसरी सहजता और मार्मिकता के कारण अविस्मरणीय। पहली कविता में बेटी से जुड़ी तमाम चीजों को प्रकृति से जोड़कर देखा गया है-कहीं आकार-साम्य, कहीं रंग-साम्य, तो कहीं अन्य समानताएँ। प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें-

पेड़ों के झुनझुने बजने लगे

लुढ़कती आ रही है सूरज की लाल गेंद

उठ मेरी बेटी, सुबह हो गई।

दूसरी कविता अभावग्रस्त पिता द्वारा पीड़ा को दी गई वाणी है। भूखी बेटी को तर्क के द्वारा बहलाने का उपक्रम देख पाठक का मन तार-तार हो जाता है।

नागार्जुन की 'गुलाबी चूड़ियाँ' और 'दंतुरित मुस्कान' भोले बच्चे के प्रति वात्सल्य-भाव की सहज स्निग्ध-आकर्षक कविताएँ हैं। अपनी सात साल की बच्ची की चार गुलाबी चूडियाँ बस ड्राइवर ने सामने लटका रखी हैं। पूछने पर बताया-

टाँगे हुए है कई दिनों से / अपनी अमानत

यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने

और बताते हुए यह असर था-

छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में

तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर।

(गुलाबी चूड़ियाँ: नागार्जुन) 

आइए, कुछ कहानियों की वात्सल्य-भाव के संदर्भ में पड़ताल करते हैं। भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत' में बेटे शामनाथ के घर चीफ साहब की दावत थी। बूढ़ी माँ को चिन्ता है कि 'सारा काम सुभीते से चल जाए।' चीफ साहब नई फुलकारी चाहते हैं। बेटा माँ से कहता है, पर माँ की आँखें नहीं कि बना सके। माँ को पता चला कि इससे वह बड़ा अफसर बन सकता है, तो बूढ़ी माँ का झुर्रियों-भरा चेहरा खिलने लगता है-"तो बना दूँगी बेटा, जैसे बन पड़ेगी-बना दूँगी।"

इन्हीं की कहानी 'पाली' में भारत-पाक विभाजन के समय पाली माँ-बाप से बिछुड़कर संतानहीन जैनब-शकूर के हाथ पड़ जाता है। लेखक बस में पाली संग बैठी जैनब के बारे लिखता है-"जैनब को जिंदगी में पहली बार एक ऐसे सुख का अनुभव हो रहा था, जो केवल उसी स्त्री को हो सकता है, जिसकी गोद सूनी रह गई हो। ...पहली बार जैनब को लगा, जैसे किसी भी क्षण उसके स्तनों से दूध फूट निकलेगा। उसके सारे शरीर में व्याकुल-सा मातृत्व हिलोरें लेने लगा था।"

भीष्म साहनी की ही कहानी 'झुटपुटा' में दिल्ली-दंगों के बाद कर्फ्यू लगा है। लोग दुस्साहस कर दूध लेने बूथ पर जुड़ने लगते हैं। नाउम्मीदी में भी दूध का ट्रक आकर रुकता है। पूछने पर सिख ड्राइवर कहता है-बच्चों ने दूध तो पीना है न! मैंने कहा, चल मना; देखा जाएगा जो होगा। दूध तो पहुँचा आयें। " सौंदर्य इसी तरह वात्सल्य का अनुगामी होता है।

अमरकांत की कहानी 'डिप्टी कलक्टरी' में माँ-बाप दोनों का वात्सल्य बेटे नारायण के प्रति क्रमशः हृदय और बुद्धि से संचालित रहता है।

मधुसूदन आनन्द की मोहक वात्सल्य की कहानी 'मिन्नी' में पाँच घंटे की बस-यात्रा में कथावाचक अपनी बेटी मिन्नी के हाव-भाव और 'दूधिया झरने' जैसी बातों में खोया रहता है।

कठोर यथार्थ के धरातल से टकराकर वात्सल्य न केवल आहत होता है, अपितु प्रत्यक्ष रूप में दिखाई भी नहीं पड़ता। स्वदेश दीपक की कहानी 'महामारी' (1976) में बूढ़े निर्धन माँ-बाप बेटे को रहने के लिए बुलाते हैं। पर पोते के नखरे और हाव-भाव से वे विचलित हो जाते हैं। बूढ़ा अपनी पत्नी को कहता है-" अगर बेटा जाने के लिए कहे, तो उसे रोकना नहीं। ' कहते हुए पिता का हृदय तार-तार हो गया होगा। यह वात्सल्य का हृदय-विदारक रूप है।

इसी संदर्भ में मन्नू भंडारी की कहानी 'दो कलाकार' , एच.आर. हरनोट की कहानी 'बिल्लियाँ बतियाती हैं' , ज्ञान प्रकाश विवेक की कहानी 'चाय का दूसरा कप' आदि पठनीय हैं।

वात्सल्य की दिशाएँ

वात्सल्य तरलता, स्निग्धता और उमंग का विषय है, त्यागपूर्ण दायित्व का विषय है। इसे दो पक्षों में विवेचित कर सकते हैं-

1. मातृ-वात्सल्य

2. पितृ-वात्सल्य

लघुकथाओं में मातृ-वात्सल्य

ब्रह्मा और विष्णु की अवधारणा को माँ में साकार रूप में देखा जा सकता है। वह जन्मदात्री के रूप में ब्रह्मत्व का और पालन-पोषण करते हुए विष्णुत्व का आजीवन निर्वाह करती है। इस दृष्टि से माँ सदा एक संवेदना, एक भावना, एक स्निग्धता को साकार रूप देती है। उसकी यह संवेदना सारे संसार को अपनी स्निग्धता में आवेष्टित करने की सामर्थ्य रखती है। इस दृष्टि से कुछ लघुकथाओं पर नज़र दौड़ते हैं।

अस्सी के दशक में प्रबोधकुमार गोविल की 'माँ' लघुकथा बड़ी चर्चित हुई थी। सहजता और अर्थ-व्यंजना के कारण यह रचना पाठक की स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है। बस्ती के चार-पाँच बच्चे घर-घर खेलते हैं। सफाई, आग जलाना, कपड़े धोना, खाना परोसना-इन क्रियाओं की परिणति रचना की भी चरम परिणति है-

"अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए...

चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी। "

"तू माँ बनी है क्या?" ये चार शब्द भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता को रेखांकित कर देते हैं।

प्रेमचंद ने 'गोदान' उपन्यास में लिखा है-"मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान फल है।" और यह साधना जीवन-भर की है। एक अनदीखती डोर से माँ आजीवन जुड़ी रहती है। सूर्यकांत नागर की 'ममत्व' लघुकथा में माँ तीर्थयात्रा से लौटते समय मामूली हैसियत के अपने बेटे को देखने की चाह में रास्ते में उतर जाती है। मकान-मालिक से बेटे बारे कई कुछ पूछती है-"कैसा है वह? दुबला तो नहीं हुआ? कब कॉलिज जाता है, कब आता है? कहाँ खाता है? क्या करता है? ..." रचना का अंत कहीं भावुकता का संस्यर्श लिए है। वह बेटे के कमरे में गई-"आत्मविभोर माँ चीकट हो आए उस तकिए को चूम रही है, जिसे उसका बेटा सिरहाने रखकर सोता है। फिर आहिस्ता-आहिस्ता वह बिस्तर को सहलाने लगी। ...लगा, बिस्तर को नहीं, वह अपने बेटे को सहला रही है।"

पंजाबी मिन्नी कहानी-लेखक हरभजन खेमकरनी की बहुचर्चित रचना 'नज़र और नज़र' में रेलगाड़ी में एक पोटली पर एक स्त्री बैठी है, गोद में बच्ची। दूध की शीशी घर रह गई। इधर रोती बच्ची और चारों तरफ कँटीली नज़रें। दुविधा को भाँपकर पास बैठी औरत को ऊँची आवाज़ में कहना पड़ा-"बेटी! कपड़े का पर्दा कर बच्चे को दूध पिला दे, ये लोग भी माँ का दूध पीकर ही बड़े हुए हैं।"

विख्यात रूसी कथाकार दोस्तोयेव्स्की की रचना 'क्रिसमस ट्री' इस लगाव को एक विशिष्ट कोण से देखती है। अँधेरे कमरे में, ठंड से जकड़ा, भूखा बच्चा नहीं जानता कि उसकी माँ मर चुकी है। वह अपने हाथ को मृत माँ के शरीर पर रखता हुआ फूँक-फूँककर अपनी उंगलियों को गर्म करने लगता है। बाहर बगीचे में आता है, तो उसे लगता है कि माँ ने पुकारा है-"मेरे क्रिसमस ट्री के पास आओ, ओ मेरे नन्हे बच्चे।" तभी उसे तेज प्रकाश दिखाई देता है। "उसने देखा, माँ उसकी ओर देख रही है और खुश है।" बाद में वह बच्चा ठंड से जमकर मर जाता है। यह विरल श्रेणी की रचना है।

वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार मोहनलाल पटेल की 'विदाई' लघुकथा वात्सल्य की तरलता में पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। एक दम्पती अपनी भैंस को बेचते हैं, लेकिन वह जैसे-कैसे भागकर वापिस आ जाती है-एक नहीं, तीन बार। विवश हो वे उसे फिर रख लेते हैं। रचना मार्मिक होती जाती है। कुँवर भैंस की पीठ फिराती हुई बेटी को याद करने लगती है-"एक ढोर की आवभगत कर रहे हैं, उतनी बेटी के लिए नहीं कर सके। आश्रय की मारी वह तीन बार घर छोड़कर आई थी, लेकिन हमने ही उसे डरा-धमका के वापिस भेज दिया था।" ससुरालवालों ने उसकी हत्या की थी, लेकिन पिता गणपत की स्वीकारोक्ति है-

"हत्यारे तो हम हैं कुँवर। 'ससुराल ही उसका घर' कहकर घर आई हुई बेटी को अन्दर न आने दिया।"

यह रचना कई सवाल खड़े करती है। क्या कन्या कोई वस्तु है, जिसे हम दान में देते हैं? दान वस्तु का होता है, इन्सानों का नहीं और जिस वस्तु का दान कर दिया जाए, उस पर दान-दाता का अधिकार नहीं रह जाता। तो वर्तमान संदर्भों में 'कन्यादान' शब्द की क्या सार्थकता रह जाती है-यह विचारणीय है।

परिवार में अपनत्व की ऊष्मा को सिरजने-सहेजने की ललक निश्चित रूप से स्त्रियों में अधिक होती है। विभिन्न पारिवारिक सन्दर्भों में वात्सल्य निर्मल जल की तरह प्रवहमान होने का प्रयास करता है-यही उसका सहज रूप है। प्रताप सिंह सोढ़ी द्वारा संपादित 'माँ के आसपास' लघुकथा संकलन की रचनाओं में ऐसे अनेक संदर्भ देख सकते हैं। बेटा माँ से नाराज़ होकर बिना नाश्ता किए घर से निकल जाए, तो माँ उसे बस-अड्डे पर रोटी का डिब्बा लिए खड़ी मिल सकती है (माँ-गुरदीप सिंह पुरी) या बच्चे के लिए अपनी बनी बनाई सोच को लागू करवाने के लिए माँ 'तिल का ताड़' भी बना सकती है-"आज तिलकुट का व्रत है। कहते हैं कि आज के दिन तिल के लड्डू बनाकर गरीबों को खिलाओ तो बेटे की खूब तरक्की होती है।" (तिल का ताड़-मुकेश शर्मा)

बच्चों की खुशी के लिए मन मारकर झूठ बोलना माँ के लिए कभी कठिन नहीं होता। सुधा भार्गव की 'माँ' लघुकथा में सामने वाले फ्लैट में रह रहे बेटे को जब माँ-बाप न आने का शिकवा करते हैं, तो बेटा गुस्से में मजबूरी बताता है। तब-"बेटे के मुख पर परेशानी की लकीरें देख माँ हिल उठी, मानो उसके अंग-अंग की धज्जियाँ उड़ रही हों।" तभी वह राह खोजती है-"मेरा तो बुढ़ापा है बेटा, शायद सठिया गई हूँ। न जाने क्या-क्या कह गई। कहे-सुने को यहीं दफ़न कर दे।" अपने झूठ को झूठा साबित कर उस पर वत्सलता की स्निग्ध परत चढ़ाने वाली माँ को देखना हो, तो तारिक असलम तस्नीम की 'जिम्मेदारी' लघुकथा पढ़ सकते हैं।

बच्चों की बेहतरी के लिए माँ तमाम सिद्धांतों को धता बता सकती है। 'माँ' (अशोक भाटिया) और 'समन्दर' (मार्टिन जॉन) इसी कोटि की रचनाएँ हैं। 'माँ' में बीमार बच्ची को स्वस्थ करने के लिए पत्नी ज्योतिषी से ताबीज़ दिलाने की बात करती है, जबकि पति-पत्नी सैद्धांतिक रूप से इसके खिलाफ हैं। 'समन्दर' में धार्मिक कर्मकांड के घोर विरोधी पति को उसकी पत्नी अपने दोनों बच्चों की बेहतरी के लिए मदर मेरी का प्रसाद खाने को कहती है, तो पति की स्थिति देखें-"उसे लगा, विचारों की आँधी, प्रतिरोध का तूफान वात्सल्य के समन्दर में समाता जा रहा है।" इससे भी आगे जाकर वात्सल्य और मोह का अतिरेक अप्रिय कदम उठाने का कारण भी बन जाता है। सतीश दुबे की 'वसीयत' लघुकथा में अपनी जन्मांध बेटी को आँखें दिलाने में असफल रहने पर माँ आत्महत्या कर लेती है और अपनी आँखों की वसीयत बेटी के नाम कर जाती है।

भगीरथ की रचना 'क्या मैंने ठीक किया?' अपनी दूसरी बेटी को भी जन्म देने पर अडिग रहते हुए एक माँ अपने वात्सल्य को बचाने की खातिर पिता के घर लौट आती है। स्त्रियों को इसके लिए कितने तूफानों से गुज़रना पड़ता है, इसे स्त्रियाँ ही बेहतर जानती हैं। प्रतिरोधमूलक यह रचना हम सबसे पूछती है कि क्या उस स्त्री ने ठीक किया? उसके पास क्या और कोई बेहतर विकल्प भी था?

वात्सल्य और ममता स्वयं में मानव-धर्म है। वह किसी भी प्रकार की संकीर्णता, गिनती, विभाजन, ऊँच-नीच को नहीं मानता, बल्कि उन्हें अपने साथ बहाता हुआ, तिरोहित करता जाता प्रवाह है। वात्सल्य-भाव अपने जन्म दिए बच्चों तक सीमित क्यों रहे? उससे अगली पीढ़ी है, सारा समाज है, समूची प्रकृति है।

वात्सल्य की छाँव, अपनी उपेक्षा के बावजूद, सदा ठंडक ही देती है। सूर्यकांत नागर की 'माँ' लघुकथा में बेटा-बहू ऊपर रहते हैं। बूढ़ी माँ नीचे अकेली, उपेक्षित रहती है। लेकिन ऊपर गैस खत्म हो गई, तो उस वृद्धा को सुकून से खाना बनाते देख पड़ोसन पुष्पा चकित हो जाती है। बच्चों द्वारा अलग कर देने के बावजूद यह सब क्यों? जवाब है-

"एक बार बेटे-बहू को तो भूखा रख भी दूँ, पर तीनों बच्चों को कैसे भूखा रहने दूँ।"

"तीनों बच्चों को?" चकित हो पुष्पा ने पूछा।

"हाँ तीनों को। दो स्कूल से लौटने वाले हैं और तीसरा जिसे बहू जल्दी ही जन्म देने वाली है।"

वत्सल-भाव की उदारता की सीढ़ियाँ चढ़कर आई यह उदात्तता पाठक को चमत्कृत कर देती है और रचना का मन्तव्य पूरा हो जाता है। इसी रंग की एक और रचना तरसेम गुजराल की 'पर्वतारोही' है। ऊन अटेरने के काम पर लगी बूढ़ी पारवती बीमार है। मालिक उसे घर बिठाने के मकसद से उसका वेतन दो बार कम कर चुका है, पर वह काम नहीं छोड़ती। उसे छोड़ने आए पुत्र से मालिक यह बात कहता है, तो उसका जवाब है-"मैं रोक भी नहीं सकता साहब। मेरी तीन जवान लड़कियाँ हैं। पेट का दोजख भरने से ही फुर्सत नहीं। हाथ पीले करने को कहाँ से लाऊँ। माई ने तो मेरा घर कोठा बनने से रोका हुआ है।" मालिक को डगमगाते कदमों से चलती पारवती अब "किसी पर्वतारोही से कम नहीं लग रही थी।"

कमलेश चौधरी की लघुकथा 'कोहरा छँट गया' एक और आयाम उभारती है। भतीजे की शादी में शामिल निर्धन बुआ के बारे बताया जाता है कि जाते समय बुआ का थैला जरूर चैक करना, उसे कई बार थैले में कुछ रखते देखा है। बहाने से चेक किया गया। पोटली बारे पूछा तो जवाब था-"इसमें मेरी गरीबी का सबूत है बहू। सुबह-शाम चाय के साथ तुम जो मिठाई बर्फी लड्डू आदि मुझे देती थी, मैं उसमें कुछ बचा कर अपनी छोटी-सी पोती के लिए रख लेती। उसने मुझसे कहा था कि दादी माँ मेरे लिए बहुत-सी मिठाई लाना।" उससे क्षमा माँगने पर बुआ पूछती है-। "मुझे ये तो बता दो कि रोहित का जरी-पटका ढूँढने के लिए तुमने और किस-किस के थैले खुलवा कर देखे हैं?" सीख भी देती है कि "ऐसा किसी के साथ मत करना बहू।" सहसा सुदर्शन की सुप्रसिद्ध कहानी 'हार की जीत' स्मरण हो आती है। डाकू खड़गसिंह अपाहिज बनकर बाबा भारती का बेजोड़ घोड़ा उड़ा लेता है। बाबा भारती कहते हैं कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना, नहीं तो "वे किसी गरीब पर विश्वास न करेंगे।"

अन्तरा करवड़े की 'किशोरी हो गई बिटिया' लघुकथा सजग वात्सल्य की समृद्ध रचना है। बेटी को उसकी नई स्थिति और निकट भविष्य से परिचित कराती माँ उसे उड़ने का हौसला और समझाइश देती है, फिर दुलार तो स्थायी भाव की तरह आना ही था-"आज मैंने दुआ माँगी है तुम्हारे लिए कि तुम इस खुले आसमान में अपनी कल्पनाओं के सतरंगे पंख लेकर अनन्तकाल तक इस सपनीले प्रदेश में विचरण करो। ...और हाँ! कभी-कभी ही सही, लेकिन तुम्हारा सिर अपनी गोद में लेकर सहलाना मुझे ताउम्र अच्छा लगेगा चाहे कल तुम मेरी उम्र की ही क्यों न हो जाओ।"

'मोह' लघुकथा में विधवा माँ को साथ ले जाने आया बेटा माँ का भारी-भरकम सामान देखकर बार-बार क्षुब्ध हो उठता है। लेकिन जब माँ एक डिब्बा खोलकर बेटे को देती है-"हलके रंग के नवजात शिशु जैसे मुलायम जालीदार दो स्वैटर उसे देते हुए माँ ने कहा-मेरे पोते-पोती का ब्याह होगा, उनके बच्चों के लिए हैं। ' कहते हुए माँ के झुर्रीदार चेहरे पर रंगत आ गई।" तब बेटे को मोह का महत्त्व पता चलता है। (मोह: अशोक भाटिया)

मातृ-वात्सल्य की विस्तृति-

वत्सलता, मातृत्व, ममता ऐसा विराट् भाव है, जो प्राणिमात्र का ताप हरने के लिए अपनी छाया देने को सदा तत्पर रहता है। प्रमुख कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की कहानी 'पगला गई है भागो' पितृसत्ता की नृशंसता को गहराई में जाकर पकड़ती है। यहाँ कैसी भी स्थिति में उग आई वत्सलता को उभारना ही हमारा मंतव्य है। भागो की जिज्जी (बड़ी बहन) को चार लड़कों के बाद सतमासी लड़की होती है, जिसे दाई 'मरी' कहकर तसला में छोड़ देती है। लेकिन भागो उसे प्राणपण से पालकर बड़ा करती है। वह पहली बार उसे बाहों में सहेजती है तो-

"अप्रसूता कोख में ममता का अथाह सागर लहराने लगा। जीवन की एकांगी छाया में वह अनुसुइया को समेटकर कुनबा-कुटुम्ब वाली हो गई। एक जीव से सारा संसार ऐसा भरा-पूरा! भागो को लगता कि उँगली पकड़कर बिटिया उसे अलौकिक ब्रह्माण्ड में उतार लाई है।"

प्रमुख कथाकार डॉ. माहेश्वर की कहानी 'माँ' ममत्व-विस्तार का एक और आयाम सामने लाती है। वात्सल्य तो ऊसर में भी उग आता है। इस कहानी में एक भागा हुआ लड़का देह बेचने वाली औरत के सामने पड़ जाता है। वह उसे अँधेरे में ले जाती है, तो लेटते हुए लड़का बुरी तरह काँपने लगता है। वह नंगी औरत अपनी चादर उसके ऊपर डाल देती है। कहानी की अंतिम पंक्तियाँ वात्सल्य का दुर्लभ उदाहरण हैं-

'सच, इस औरत की उमर मेरी माँ की उमर के आसपास ही होगी' सोचकर टाट के भीतर वह पत्थर की तरह जड़ हो गया। फिर पता नहीं कब उसे नींद आ गई ओर आँखें खुलने पर उसने देखा, औरत लौट आई थी और उसे सीने से चिपकाए गहरी नींद में बेसुध थी। "

ठीक इसी संदर्भ में दीपक मशाल की लघुकथा 'दूध' का विवेचन करते हैं। सोलह-सत्रह साल का लड़का कोठे पर पहुँचता है, वेश्या के वक्षों से खेलते हुए उसके होंठ सूखने लगते हैं। सहसा वह स्त्री सोचती है कि 'सोलह बरस पहले उसने अपना बच्चा न गिरवाया होता, तो आज इतना-सा ही होता।' यह सोचकर वह उसे सीने से जोर से चिपटा लेती है। उधर लड़का कह उठता है-क्यों मम्मी! क्यों चली गईं छोड़कर...क्यों? 'स्त्री उसके सिर पर हाथ फेरती है। लड़का' सॉरी' कहकर चल देता है। और-

'वह अवाक्-सी खुद को सामने लगे आईने में देखती रह गई, लगा कि सालों बाद छातियों में दूध उतर आया है।'

मातृत्व के दसों दिशाओं में विस्तार की दृष्टि से लघुकथा-साहित्य में समृद्धि के अनेक उदाहरण मिलते हैं।

प्रतिनिधि कथाकार चित्रा मुद्गल की 'रिश्ता' लघुकथा में नर्स मारथा हर मरीज़ के लिए मम्मी है-वात्सल्य की प्रतिमूर्ति। एक मरीज़ चार माह जीवन-संघर्ष झेलकर स्वस्थ होता है तो मारथा से लिपटकर बच्चे की भाँति रोता है। "मारथा मम्मी ने उसके माथे पर ममत्व के सैकड़ों चुंबन टाँग दिए," ईश्वर रक्षा करे, मेरे बच्चे। " आज अरसे बाद वह फिर अस्पताल में जाता है, तो मारथा को पीछे से बाजुओं में उठा लेता है-'मैं आपका बेटा अशोक।' वह गुस्सा होती है-देखता नहीं पेशेंट कितना तकलीफ में हय? 'उधर मरीज़ की कराह और' माँऽऽ औ माँऽऽ' की आवाज़ सुन मारथा उधर जाती है-

"मेरे बच्चे...मैं तुम्हारे पास हूँ...धैर्य रखो..." और उसकी मारथा मम्मी अत्यन्त ममत्व पगे स्वर में उस मरीज़ का सीना सहला रही थीं।

ऐसा ही विस्तार गोपाल नारायण आवटे की 'माँ ने कहा था' लघुकथा में मिलता है। कोरोना-काल के कर्फ्यू में लड़का घर से निकलता है, तो पुलिस पहले पीटती है, फिर बाहर निकलने की वजह पूछती है, तो वह झोले में से फूड पैकेट निकालकर आगे करते हुए कहता है-"माँ ने भिजवाए थे, आप लोगों के लिए, माँ कह रही थी पापा भी ऐसी पुलिस में ड्यूटी करते थे तो कभी मिलता था खाने को, कभी नहीं मिलता था, इसलिए... ।"

इस संदर्भ में चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा 'ममता' संवेदनाओं से भरपूर है। नए साल की पहली सुबह को अनु दूध का लोटा मंदिर में चढ़ाने को निकली है। राह में एक ओर झोंपड़ी से बाहर एक स्त्री गोद लिये बच्चे को दूध पिलाने में असमर्थ दिखाई देती है। वह मंदिर के घंटे को अनसुना कर स्त्री की ओर बढ़ी और लोटा देते हुए कहा-"यह दूध तुम्हारे लिए है।" कहकर अनु ने उसके बच्चे को लिया और अपनी शाल में छिपाकर दूध से गीली हो रही छाती से लगा लिया। " आखिर दूध माँ के शरीर की धरोहर न होकर ममता की धरोहर होता है। (धरोहर-विकेश निझावन)

परिवार के सदस्यों में ममता की तरलता लिए कुछ विविधवर्णी लघुकथाएँ उपस्थित हैं। उर्मि कृष्ण की 'यह मेरा भाई है' में पहाड़ चढ़ते हुए कंबल-कमंडल लिए एक साधु हाँफने लगता है। वह ग्यारह-बारह वर्ष की पहाड़ी कन्या को, जो पीठ पर एक बच्चे को लिए हुए थी, पूछता है-बेटी, इतना बोझ उठाकर तुम कैसे चढ़ लेती हो! ' किशोरी का निश्छल जवाब है-"महाराज, बोझ आपने उठाया हुआ है, यह तो मेरा भाई है।"

कान्ता रॉय की 'सुरंग' नए यथार्थ की लघुकथा है। अभि जिस लड़की से विवाह करना चाहता है, माँ को उसमें अपनी खोई बेटी नज़र आती है। बेटे को बहाने से बाहर भेज उस लड़की को लिव-इन में रहने का सुझाव देती है। पूछने पर बताती है-"उसकी हाथ उठाने की आदत है। वह बात-बात पर, मुझ पर अक्सर हाथ उठा लेता है। माँ हूँ, सहना मेरी किस्मत है, लेकिन तुम।" यह वात्सल्य का विस्तारित, किन्तु सन्तुलित रूप है। ऋचा शर्मा की 'मान जाओ न माँ' में बेटी अपनी बजाय विधवा माँ के लिए वर लेकर घर आ जाती है, जो वात्सल्य और त्याग का श्रेष्ठ उदाहरण है। इससे भी आगे वात्सल्य का उत्कर्ष देखना हो, तो कान्डेगुल श्रीनिवास राव की तेलुगु लघुकथा 'भोज्येषु माता' को पढ़ें। यह स्वार्थ पर वात्सल्य की विजय का अद्भुत उद्घोष है। सूरमा दो दिन से भूखी होने पर भी मालकिन का काम निबटाकर कुछ बचा हुआ खाना पा लेती है, पर खुद न खाकर घर बैठे पति के लिए ले जाती है। एक्सीडेंट में दोनों टाँगें गँवा चुका पति खाना देखते ही उस पर टूट पड़ता है। रचना का उत्कर्ष यहाँ है-

"तुमने खाया या नहीं...यह भी पूछे बिना, एक कौर के बाद दूसरा खाते उसे देख पहले तो घृणा हुई किन्तु बाद में सूरमा को वह खाना खाने के लिए माँ पर आधारित बच्चे जैसा लगा। उसकी आँखों में एक प्रकार की विचित्र कान्ति झलकने लगी।" यह विचित्र कान्ति मातृ-हृदय के सहज उच्छलन का परिणाम होती है। वास्तव में वात्सल्य के समुद्र का एक कतरा भी घर को 'महाभारत से रामायण' (मिन्नी मिश्रा) की ओर ले जा सकता है। लेकिन वात्सल्य को व्यक्त होने के लिए अनुकूल स्थिति चाहिए। सीमा व्यास की 'समदुःखी' लघुकथा इस संदर्भ में नया आयाम लेकर आती है। पिता बेटी की सौतेली माँ को उसके बारे कुछ नहीं बताते। सौतेली माँ अन्याय जारी रखते हुए कहती है-"तेरे बारे में इन्होंने कभी बताया ही नहीं। बता कैसे सहन कर लूँ तुझे?"

दस वर्षीय भोली लड़की कहती है-"मेरे जैसे। बाबा ने मुझे भी कहाँ..."

असर होता है। उसने "कुछ क्षण बाद ही अपनी थाली में से एक गुजिया लड़की की थाली में परोस दी।"

समुद्र की भी सीमा होती है, वात्सल्य की नहीं होती। यह समूची प्रकृति तक पहुँचता है। माधव नागदा की 'सृजन' ऐसी ही सुन्दर रचना है। पत्नी मुरझा गए पौधों को मायूस निगाहों से देखकर पति से चिंता प्रकट कर दवा लाने को कहती है। दवाएँ लाकर देते हुए पति कहता है-"अस्सी रुपयों की हैं। इतने की तो सब्जियाँ भी नहीं लगेंगी। फिर तुम्हारा श्रम।" पत्नी का उत्तर इस प्रतिप्रश्न में है कि दिन-भर पढ़ना, लिखना, छपना, पर उतना पारिश्रमिक कहाँ मिल पाता है? "फिर भी तुम अपने काम में डटे हुए हो। भला क्यों?"

इसके बाद पशु से मनुष्य की ओर, तन्द्रा से सजगता की ओर लौटने वाली लघुकथा है बलराम अग्रवाल की 'गोभोजन कथा'। स्वार्थ के लिए दम्पती एक गर्भिणी गाय को कुछ खिलाने गए, तो भीतर से बशीर की गर्भवती विधवा बाहर आई। उसकी खस्ता हालत देख माधुरी तन्द्रा से जाग उठी-"आटा लाई हूँ। ... ज़्यादा तो नहीं, फिर भी अपनी हैसियत-भर...तुम्हारे लिए जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे बहन।" बर्तन के ऊपर से पल्लू हटाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, "संकोच न करो...रख लो...बच्चे की खातिर।"

इस दृष्टि से छवि निगम की 'लिहाफ' विरल श्रेणी की लघुकथा है। यह रचना रीना की कामवाली राधा के वात्सल्य-भाव की रक्षा के बहाने स्त्री-समाज के दबे-घुटे-कटु यथार्थ से परदा उठाने का उपक्रम है। इधर भुक्तभोगी रीना के चाचा घर आ रहे हैं, साथ ही राधा के गाँव से रिश्ते के चाचा राधा के घर आ रहे हैं, जिसके लिए वह 'पुराना-उराना कम्बल' माँगती है। अपने चाचा के आने की खबर से ही रात-भर करवटें बदलने वाली रीना को जब राधा बताती है कि अपनी बिटिया को चाचा के साथ ही सुला देगी, तो रीना की भावभंगिमा बिगड़ जाती है। सर्द आवाज़ में पति से तुरन्त भीतर से नया लिहाफ़ मंगाती है-

"ले राधा, ले जा इसे। ये सिर्फ तेरी बिटिया के लिए है। हमेशा वह इसीमें सोएगी और अकेले और तुम जो दिन-भर मुन्ना-मुन्ना करती रहती हो, ध्यान इसका भी रखा करो। ये कुछ न भी कह पाए, तो भी इसके इशारे समझो और खबरदार! जे इसे कब्भी किसी मामा, दादा, चाचा के साथ..." इस संवाद में एक स्त्री के वात्सल्य को बचाने की जिद-भरी जद्दोजहद छिपी है। समाज का ऐसा बीभत्स यथार्थ कब पूरा सामने आएगा?

नारी के वत्सल-भाव की व्यापकता और गहराई-दोनों का अनुभव करना हो, तो हरभगवान चावला की 'प्यारी अम्मा' और 'विरासत' लघुकथाओं के पास जाएँ। 'प्यारी अम्मा' रचना में घुटने में तेज़ दर्द के बावजूद अम्मा आराम करने की डॉक्टरी हिदायत न मानकर गाँव में कहीं-न-कहीं चली जाती है। किसी की तबीयत पूछने, कहीं मोठ की बड़ियाँ या सेवइयाँ बनवाने, किसी के सर पर मालिश करने, किसी के घर चूल्हा न जलने की बात पता चलने पर दो-चार सेर गेहूँ पहुँचाने... सारा गाँव उसे अपनी अम्मा मानता है। यह स्नेह और अपनत्व-भाव ऊँचे दर्जे का वात्सल्य है।

हरभगवान चावला की ही 'विरासत' लघुकथा में वत्सल-भाव की गहराई की थाह भी ले लेते हैं। इसमें नाना हतप्रभ है कि माँ के बाद पत्नी, बेटी और अब छह साल की नातिन भी बिना बताए कैसे जान गई कि उसे ठंडी पूरियाँ पसन्द हैं। नानी से बहस के बाद नातिन ने आकर पूछा-"आपको ठंडी पूरियाँ पसन्द हैं न नानू।"

"हाँ मेरी माँ।" नाना के मुँह से अनायास निकला। ... उन्हें लगा, उनकी एक नहीं चार माँएँ हैं। "

छायावाद की कवयित्री महादेवी वर्मा ने 'दीपशिखा' की भूमिका में उचित ही लिखा है-"भारतीय पुरुष जीवन में नारी का जितना ऋणी है, उतना कृतज्ञ नहीं हो सका। ...पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव।"

स्त्री का मन बाहर से कठोर भी लगे, पर भीतर से वात्सल्य-सा स्निग्ध और तरल होता है। विष्णु नागर की चर्चित लघुकथा 'झूठी औरत' हर बार बाहर से ऐसी ही दिखती है, पर उसकी भीतरी परत में छिपा स्नेह, त्याग और तरलता का गुण उसे वात्सल्य की प्रतिमूर्ति सिद्ध करता है। रचना के तीन में से एक भाग में निम्न मध्यवर्गीय स्त्री के दो संवाद देखें-

"लोग तो एक-एक पैसे के लिए जान छोड़ते हैं। हमीं क्यों छोड़ें अपने दस रुपए। बिना माँगे पड़ोसी देने वाले नहीं। हमें बेशर्म होकर माँगना पड़ेगा।"

यही औरत थोड़ी देर पहले पति से कह रही थी, "बिचारों की हालत खस्ता है। मुझसे तो देखा नहीं जाता। हम और तो क्या कर सकते हैं? उसके बच्चों को किसी-न-किसी बहाने घर बुलाकर खाना खिला देती हूँ।"

ऐसे स्निग्ध पल स्मृतियों में संजोने के योग्य हैं। दीपक मशाल की लघुकथा 'बेचैनी' में कुछ ऐसी ही स्थिति बनती है। घर बुलाने के क्रम में आज दूसरा दोस्त मुख्य द्वार पर पहुँचकर आगमन बारे सूचित करता है। मेजबान उठने लगता है, तो पत्नी पहले कहती है कि उन्हें भी हमारी तरह थोड़ा इन्तज़ार करने दीजिए, लेकिन फिर-

"वही मुझे लगा कि फिर उनका छोटा बच्चा भी तो बाहर सर्दी में खड़ा होगा, आप जल्दी जाइए।"

वात्सल्य-भाव से लबरेज़ ऐसे पल किसी बड़ी उपलब्धि या विकास से भी बड़े हैं, जिन्हें रेखांकित करने की ज़रूरत है।

वास्तव में स्त्री को वात्सल्य का चेहरा कई बार छिपाकर रखना पड़ता है, किन्तु स्थितियाँ स्निग्धता को बाहर ले ही आती हैं। सुकेश साहनी की लघुकथा 'दूसरा चेहरा' को पढ़ें, तो वास्तव में वह प्रत्येक स्त्री का पहला चेहरा होता है। घर में पिल्ले को देखते ही 'कुत्ता सोई जो कुत्ता पाले' कहने वाली दादी ठंडी रात में पिल्ले की कूँ-कूँ से जाग जाती है और फिर-"दादी ने दाएँ-बाएँ देखा, पिल्ले को उठाया और पायताने लिटाकर रजाई औढ़ा दी।"

स्त्री का स्वाभाविक विकास मातृत्व तक पहुँचकर परिपूर्ण हो जाता है। मातृत्व प्रत्येक स्त्री की स्वाभाविक चाह और सपना होती है। कमल चोपड़ा की 'प्लान' लघुकथा पढ़कर भीष्म साहनी की कहानी 'खिलौने' का स्मरण हो आना स्वाभाविक है, जिसमें पति-पत्नी अपनी तरक्की के लिए बच्चे को खिलौने की तरह इस्तेमाल करते हैं। 'प्लान' में भी श्रेया और राहुल पहले सेट होने के लिए बच्चे का प्लान टालते जाते हैं। यहाँ तक कि लिव इन में रहते हुए भी और बाद में भी वह प्रेगनेंट हुई तब भी, पर राहुल का दबाव हर बार काम कर गया। एक दिन पड़ोस का बच्चा शाम तक के लिए रहने आता है, तो श्रेया को रोज़ होने वाली थकावट, सिर दर्द, डिप्रेशन-कुछ भी नहीं होता। शाम को राहुल के आने पर वह अलमारी से गर्भ-निरोधक गोलियाँ निकालकर डस्टबिन में फेंकते हुए वह कहती है-"अब बच्चे के सिवाय कोई प्लान नहीं।"

वात्सल्य की नदी, अपने स्वभावानुसार, उपयुक्त स्थिति पाकर कहीं भी उमड़ सकती है। प्रतापसिंह सोढ़ी की लघुकथा 'माँ फिर लौट आई' में इतनी-सी बात है कि एक व्यक्ति अपनी बूढ़ी माँ को बस में बिठाते हुए कथानायक से उसे इंदौर में रिक्शा पर बिठा देने का आग्रह करता है और उसने भी इतना ही तो किया कि-

"मैंने उनके पाँव छुए। मेरा माथा चूमते हुए उन्होंने मुझे आशीषों से लाद दिया। इसके बाद उनकी आँखों से झरे आँसू आँखों के नीचे बने गड्ढ़ों में समा मोतियों से झिलमिलाने लगे। मुझे लगा, बीस साल पहले गुजरी मेरी माँ फिर लौट आई है।"

यहाँ भावुकता नहीं है, बल्कि संवेदना की शक्ति का उच्छलन है, जो तमाम भेद-भावों और बंधनों से ऊपर उठकर तरल ऊर्जा के बीज मानव-प्रकृति में बोता जाता है। यही तरलता कमल कपूर का 'साझा दर्द' बनकर सामने आती है। जब दो दिन बाद कामवाली लौटती है और उसके बेटे की मौत का पता चलता है, तो मालकिन के तीखे तेवर तिरोहित हो जाते हैं और तरलता तारी हो जाती है-

"मैं इतनी जालिम हूँ क्या? अरे! मैं भी एक माँ हूँ...दूसरी माँ का दर्द नहीं समझूँगी क्या? मैंने भी अपना बच्चा खोया था कभी...फर्क बस इतना है कि वह अजन्मा था और संजू सात साल का। हम साझे दर्द की डोर में बँधे हैं पारो।"

अब स्थिति उलट जाती है, 'ईदगाह' की अमीना और हामिद की तरह। यहाँ अब नीरा रोती है और पारो उसके आँसू पोंछती है।

राम करन की दो माँओं की ही लघुकथा 'नासमझ' को इसीके साथ पढ़ा जाना चाहिए। जनवरी की सर्द रात में स्लीपर बोगी में बर्थ पर बैठी महिला नीचे बैठी स्त्री की बच्ची का फटा फ्रॉक देखती है। भूख और ठंड से त्रस्त उस बच्ची के लिए वह स्वैटर, फिर ऊनी टोपी, पायजामा और मोज़ा देती है। वह बच्ची सो जाती है। उसकी माँ से संवाद कर वह महिला खड़े होकर उस बच्ची को, सो रही अपनी बेटी के पास, सुला देती है। वात्सल्य की इस साझा नदी में स्नान कर कराके दोनों माँएँ भी गहरी नींद सो जाती हैं।

वात्सल्य, वस्तुतः, उपयुक्त स्थिति और निश्छल पात्र पाकर कहीं भी, कभी भी उमड़ सकता है। चीनी कथाकार छङफङ की लघुकथा 'नींद' में रेल-ड्राइवर पति रात की ड्यूटी करने के बाद घर के बाहर खड़ा रहता है और पत्नी के सुबह उठने के समय ही बैल करता है। पत्नी को 'ड्राइवर रोस्टर' से इस सच का पता चल जाता है। "लेकिन जब उसने पति को मीठी नींद सोए देखा तो उसे उस पर दया आ गई। पत्नी दबे पांव पलंग के पास गई, उसने एक फूलदार कंबल उठाकर बहुत हल्के से उस पर ओढ़ा दिया। इस समय पत्नी को ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे वह एक तगड़े मर्द के बजाए, एक साल से भी कम के शिशु की देखरेख कर रही हो।" स्निग्धता, उदात्तता, आध्यात्मिकता जैसे शब्द इस स्थिति के लिए अपर्याप्त लगते हैं।

यहाँ तीन लघुकथाओं का अलग से उल्लेख करना आवश्यक है। चित्रा मुद्गल की 'बयान' लघुकथा पुलिस द्वारा लोगों के मुँह में बयान डालने की संवेदनहीन प्रक्रिया को उभारती है। लेकिन अपनी खोई बेटी को ढूँढने में नाकाम वह औरत नई तरकीब खोजती है। दारोगा के कथन कि उसे हम कहाँ ढूँढें, के जवाब में वह मानो ब्रह्मास्त्र फेंकती है। कहती है कि आपकी बेटी मेरी बेटी है, "मेरी बेटी की चलती-फिरती लाश! घर जाइए दरोगा साहब और उस बच्ची को ग़ौर से देखिए। मेरी बेटी बरामद हो जाएगी।" इस तरह वह औरत दरोगा के वात्सल्य-भाव को जगाने का भी उपक्रम करती है-यह कलात्मक युक्ति इस लघुकाय को विशिष्ट कोटि की रचना बना देती है।

भगीरथ की लघुकथा 'सपने में माँ' में माँ दो बार सपने में आकर कथावाचक को अपराध-बोध से मुक्त करती है। मरने से पहले आई तो बोली-"अपने चैतन्य में तूने मुझे बिठा रखा है, इसलिए आना पड़ा कि चलते-चलते सभी रिश्तों को विराम दे दूँ। वह मेरे पास आई और मेरे माथे को अपने हाथों में लेकर चूमा और विलीन हो गई।" कथानायक उसकी न ठीक से सेवा कर सका, न विदा कर पाया। वह क्षमा-प्रार्थना करता है। लेकिन माँ सपने में फिर आती है-व्यर्थ ही बोझ उठाए घूम रहा है। माँ से कैसी क्षमा-याचना? माँ का प्रेम कोई सशर्त है? माँ का प्रेम कोई प्रतिदान चाहता है? पश्चात्ताप से मुक्त हो और बिंदास जी। " मृत्यु के बाद भी माँ इस प्रकार वात्सल्य का निर्वाह करते हुए बेटे को अपराध-बोध से मुक्त करती है।

कुछ रचनाएँ पाठक के मन को सहसा एक ऊँचाई का एहसास कराती हैं। उदात्तता से साक्षात्कार कराने वाली ऐसी रचनाओं में कान्ड्रेगुल श्रीनिवास राव तेलुगु की लघुकथा 'स्पर्श' को भी रखना होगा। लॉरी में सफ़र करता शेषगिरि सामने बैठी युवती को देखकर कामेच्छा से ग्रस्त हो जाता है। वाहन की भयंकर टक्कर होती है तो शेषगिरि के माथे से धारा-प्रवाह खून बहने के चलते वह अचेतावस्था में जाने को था। उसी युवती ने अपनी चोटों की परवाह न कर "उसके माथे से बहते खून को अपने आँचल से पोंछकर उसने घाव को हथेली से दबा दिया। धीरज और सान्त्वना देते हुए उसने उसके सिर को अपनी छाती में दबा लिया। उसके कोमल स्पर्श को पाकर शेषगिरि ने बलपूर्वक अपनी आँखें खोलीं। माँ की छाती पर सिर रखकर थकान मिटाने-जैसा सुख उसने महसूस किया और बालकों जैसी दृष्टि से आभारपूर्वक उसे निहारते हुए सहसा अचेत हो गया।" क्या स्त्री की इस कोमलता और ममत्व का समुचित महत्त्व हमारा समाज कभी समझ पाएगा?

माँ का वत्सल-भाव अर्थात प्रकृति का मनुष्य को दुर्लभ वरदान कभी भुलाने योग्य नहीं होता। इस स्निग्धता को अनुभव करने वाला हृदय होना चाहिए, तब 'माँ के आँसू' (हरि मृदुल) लिए हुए रूमाल आपको सदा गीला ही महसूस होगा।

आहत मातृ-वात्सल्य-

इस संवेदनहीन समय में संयुक्त परिवार विभिन्न कारणों से बिखरते जा रहे हैं। आर्थिक दबावों, स्वार्थों, महत्त्वाकांक्षाओं, अधिक अपेक्षाओं के चलते तनाव, टूटन, उपेक्षा और दूरियाँ बढ़ती गई हैं। ऐसे में वात्सल्य-भाव की तरलता और स्निग्धता कहीं सिसकियाँ भरने को विवश हो गई है। हम ऐसी कुछ कहानियों का उल्लेख पहले कर चुके हैं। यहाँ हम समकालीन कहानीकार अरुणा सीतेश की, विचलित कर देने वाली कहानी, 'तीसरी धरती' का उल्लेख करते हैं। समीर के पिता सारा पी.एफ. लगाकर मकान खरीदते हैं और चल बसते हैं। समीर अपने बेटे गुड्डू की पढ़ाई के लिए विधवा माँ की चारपाई कमरे से हटाकर बरामदे में लगा देता है, जो मेडिकल में दाखिले और दूसरे पुत्र सौरभ के बंबई जाने के बाद भी बरामदे में ही लगी रही। माँ कहती है-"खुली हवा तो यहाँ मिली, पर खुले मन नहीं। खुले दरवाजे भी नहीं।" फिर एक दिन समीर उसे वृद्धाश्रम छोड़ गया, यह कहकर कि ' जब घर की याद आए तो एक पोस्टकार्ड डाल देना-मैं अगले ही दिन आकर ले जाऊँगा। " लेकिन दो पोस्टकार्ड डाले, कोई जवाब न आया। वृद्धाश्रम के सब सदस्यों की आँखें अपने-अपने सौरभ और अपने-अपने समीर को ढूँढ रही थीं। कथानायिका की यह व्यथा वृद्ध स्त्री और पुरुष दोनों के हिस्से की है। अंतिम पंक्तियाँ हैं-

"विवाह के समय माँ ने बताया था कि कन्या धान की तरह होती है जिसे जब तक एक धरती से उठाकर दूसरी धरती में न रोपा जाए, तब तक वह फूलती नहीं। लेकिन ये तीसरी धरती। इसकी तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। शायद किसी ने भी न की हो। ये तीसरी धरती जहाँ फूलने-फलने के बाद कन्या को सूखने के लिए डाल दिया जाता है। सूखते रहने के लिए।"

आइए, आहत मातृ वात्सल्य से जुड़ी विविधवर्णी लघुकथाओं की चर्चा करें। ललित नारायण उपाध्याय की लघुकथा 'उपवास' सिर्फ चार पंक्तियों में वात्सल्य को आहत करने वाले पुत्रों का काला चिट्ठा खोल कर रख देती है-

" एक माँ थी। उसके दो बेटे थे। महीने के पहले पन्द्रह दिन माँ अपने बड़े बेटे के घर रहकर खाती थी।

महीने के दूसरे पखवाड़े में छोटे बेटे के पास रहकर खाती-पीती थी।

जिस माह में इकतीसवाँ दिन होता था, उस दिन माँ उपवास करती थी। "

इससे भी दो कदम आगे 'श्रवण कुमार की माँ' (माधव नागदा) का आहत वात्सल्य है। सौ वर्ष की बूढ़ी माँ को उसके सात बेटे बारी-बारी अपने पास रखते हैं। सबसे छोटे बेटे से पूछने पर कि कहाँ ले जा रहे हो, वह कहता है-"बड़के के यहाँ पटकने। तीन दिन हो गए उसका नंबर आए, अभी तक सुध नहीं ली।"

माँ के साथ कुछ ऐसा व्यवहार आज का चलन होने लगा है। बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'दुःख के दिन' में तीनों में बड़ा बेटा सुझाता है कि 'चार-चार महीना वह (माँ) बारी-बारी से सबके साथ रह लेगी।' और छोटे की शिष्टता का धरातल भी देख लें-'बँटवारे जैसे छोटे काम के लिए माँ की मौत का इंतजार करना भी तो शिष्टता की सीमा से बाहर की बात है।' इधर बँटवारा हो रहा है, उधर माँ नहर किनारे बैठी आँसू बहाती है। बड़का माँ को झूठी दिलासा देता है-हर बार की तरह, इसके बावजूद माँ हर बार की तरह तीनों को अपने अंक में भर लेती है।

और इस पंक्ति में बेटियाँ भी आने लगी हैं। विकेश निझावन की 'आचार संहिता' लघुकथा, वास्तव में, बेटी द्वारा निहित स्वार्थों के लिए रचा गया एक पूरा उपन्यास है। अपने जन्म की गाथा से शुरू कर, पढ़ाई, विदेश जाने, शादी करने, बच्चे को स्कूल भेजने, माँ को विदेश बुलाने, घर रहने के तरीके बताने, काम निकल जाने पर वापिस भेजने-हर पड़ाव पर बेटी के तर्क माँ को लाजवाब करते हुए बेटी की हर बात मानने पर विवश करते जाते हैं। आहत वात्सल्य की यह हतप्रभ करने वाली विरल श्रेणी की रचना है।

सास के आने पर बहू कामवाली को हटा दे, तो भी सास किसी से कह नहीं पाती, क्योंकि उसे अपने 'बचे-खुचे दिन' (सुरेन्द्र गुप्त) तो काटने ही हैं, नौकरानी बनकर ही सही। पर 'माँ' (रामयतन यादव) का यह वात्सल्य-भाव ही है, जो पति से मार खाकर भी उसे शराब के पैसे न देकर बेटे को किताब के लिए चुपके से रुपए थमा देता है।

पितृ-वात्सल्य

मधुसूदन आनन्द की कहानी 'मिन्नी' से शब्द उधार लेकर कहूँ, तो "कोई भी पिता दरअसल एक पारदर्शी पत्थर है जिसके बीच एक लौ निष्कम्प जलती है-वात्सल्य, प्रेम, कर्तव्य और ज़िम्मेदारी की भूरि-भूरि रोशनी बिखेरती हुई।" और यह भी कि "पिता को चूँकि घर चलाने के लिए डिक्टेटर होना पड़ता है, इसलिए उसका वात्सल्य इतना प्रत्यक्ष नहीं होता।" वात्सल्य को माँ और पिता के धरातल पर हम बेशक अध्ययन की सुविधा के लिए बाँट लें, लेकिन बुद्धि और हृदय को, सन्तान की बेहतरी के सपनों को, दुआओं को बाँटा नहीं जा सकता। माँ में वात्सल्य की तरलता अधिक हो सकती है और पिता में बुद्धि का प्रयोग, लेकिन न तो माँ में बुद्धि की कोई कमी होती है, न ही पिता के वात्सल्य में स्निग्धता की ही कमी रहती है। सख़्त मिज़ाज माँएँ भी होती हैं, तो अत्यन्त भावुक पिता भी मिल जाएँगे। बहरहाल, यहाँ रचनाओं में पितृ वात्सल्य की खोज के लिए निकलते हैं।

'मिन्नी' कहानी में दो-ढाई साल की मिन्नी अपने पिता संग पाँच घंटे की बस-यात्रा करती है, जो किसी भी पुरुष के (स्त्री के भी) वात्सल्य-भाव को नई ऊँचाई दे सकती है। उसकी बातें, तर्क, हाव-भाव, खाने की माँग आदि में एक मोहक वात्सल्य छिपा है। इसीलिए कथानायक लिखता है-"मैं बहुत देर तक उसे सीने से लगाए रहा। एक शान्ति मुझे मिली, जो कभी इतनी पूरी नहीं थी। उसने एक-दो बार सिर उठाने की कोशिश की। मैं उसके सिर को सहलाता रहा। उसके सैंडिल मैंने खोल दिए। मोज़े उतार दिए। उसके नन्हें पैरों को मैंने हथेलियों में भर लिया। उसे आराम मिला और सोनीपत आने से पहले ही वह सो गई।"

पिछली सीट पर बीमार औरत की बच्ची के साथ खेलने के लिए मिन्नी, कथानायक की जाँघों पर लगातार थिरकने लगी। डाँट पड़ने उसका रोना और प्रतिरोध देख कथानायक सोचता है-तेरा शरीर कितनी तड़कती बिजलियों से भरा है? तेरे तालु के भूरे, गोल विस्तार में मुझे शताब्दियों पुराने धनुषों की टंकार सुनाई दे रही है। नीचे पृथ्वी पर सैकड़ों शंख समवेत बज रहे हैं। मेरे कानों में लावा बह रहा है। स्थिति, उत्पत्ति और विनाश की अरी साक्षात् ऊर्जा, मैं त्राहिमाम् कहता हूँ। तेरी क्रीड़ाओं में हस्तक्षेप करने वाला मैं कौन? "

पितृ-वात्सल्य का विस्तार अनेक कहानियों में आंशिक रूप में मिल जाएगा। अखिलेश की बहुचर्चित लम्बी कहानी 'शृंखला' यों तो इस हिंसक और आक्रामक समय के भयावह यथार्थ की कहानी है। सत्ता के पेंच और पैंतरों के बीच अकेले पड़ते जाते एक विवेकशील और पढ़े-लिखे शख्स की महागाथा के बीच वात्सल्य के स्निग्ध पल भी मौजूद हैं। बेटे-बहू की मौत के बाद बाबा लाचार हो जाते हैं। वे पोते रतन का मन हाथ से बनाए खिलौनों (मिट्टी और दफ़्ती की अनेक मोटरों, जानवर, वस्तुओं) से बहलाते हैं। पोते को खाना बनाकर खिलाना, ज़ायका बदलने के लिए मौसमी फल तोड़-बीनकर लाना, इतना ही नहीं उसके लिए फटे कपडों की सिलाई करना और उन पर पैबन्द लगाना भी सीखते हैं बाबा।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की 'ऊँचाई' लघुकथा में पितृत्व-भाव की ऊँचाई और गहराई-दोनों की झलक मिलती है। आर्थिक तंगी से गुज़र रहे कथानायक को पिता के आने की खबर अन्तर्द्वन्द्व में डालकर विचलित कर देती है। रुपये माँगने आए होंगे। पर पिता को उसकी स्थिति का एहसास है-"तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।" यह वात्सल्य-भाव की गहराई है। फिर पिता द्वारा बेटे-बहू की चिन्ता के साथ रुपये आगे बढ़ाना, बेटे की 'काटो तो खून नहीं' की स्थिति में पिता की प्यार-भरी डाँट-" ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या? ' यह वात्सल्य की निर्मल ऊँचाई है।

पिता की सख्ती और तरलता-दोनों एक साथ दो लघुकथाओं में देख सकते हैं। कृष्ण मनु की 'बाप' लघुकथा में पिता थाने में बेटों के खिलाफ शिकायत करता है। लेकिन दोनों बेटों की पिटाई होते देख वह शिकायत वापिस ले लेता है। तब इंस्पेक्टर कहता है-"देख रे बेईमानों, बाप का दिल कैसा होता है?"

वीरेन्दर भाटिया की 'माँ की चारपाई' लघुकथा का पिता अपने पिता के जाने के बाद टूटा-टूटा रहता है। बेटे द्वारा खाने को माँगने पर वह टाल देता है। पर माँ की चारपाई पर लेटते ही याद करता है कि "वह इसी चारपाई पर बीमार लेटी होती थी और हमारी एक आवाज सुनकर उठकर रसोई में दौड़ी जाती थी।"

वह माँ को याद कर बेटे को मैगी बना देता है। बेटा पूछता है कि "आपको कैसे पता चला मेरा मैगी खाने का मन था?" पिता के भीतर की स्त्री जाग चुकी है, वह बेटे के सिर पर हाथ फिराता है और कहना चाहता है-"माँ होने से पता चल जाता है बेटा कि बच्चे का मन क्या है।" प्रेमचंद ने कहीं इसी सन्दर्भ में तो 'गोदान' में नहीं लिखा कि "पुरुष में स्त्री के गुण आ जाएँ, तो वह महात्मा हो जाता है।"

इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हैं। अन्तरा करवड़े की लघुकथा 'नद' में एक विधुर पिता का मातृवत समर्पण-भाव दिखाकर पूरे वेग से बहते ब्रह्मपुत्र नद का वात्सल्यपूर्ण स्वरूप उजागर कर दिया गया है। पुत्र के विवाह से पूर्व और विवाह के समय के सभी दायित्वों को पिता द्वारा मातृवत निभाया जाना समाज को नई राह दिखाता है। होने वाली पुत्रवधू सोना के लिए उसकी पसंद का मिश्री वाला कुल्हड़ का दही लाना, विवाह के पश्चात् पत्नी की तस्वीर लेकर दूल्हा-दुल्हन तक पहुँचना इसमें ऐसे ही प्रसंग हैं। 'नद' नाम की ही वसुधा गाडगिल की लघुकथा में निःशक्त बालकों के गुरु एक बच्चे को बोलना सिखाते हैं। बार-बार हकलाने पर भी गुरु उत्साहित करते हैं, तो वह बोल उठता है-"पापा...पापा... नन्हा मुन्ना राही हूँ।" ऐसी रचनाएँ बेहतर समाज के लिए नई दिशाएँ खोलती हैं।

चित्रा राणा की लघुकथा 'नया सपना' में बड़े सपने लेकर घर से निकली रति को उसके गानों के वीडियोज़ तेज़ी से लोकप्रिय बनाने लगते हैं। पिता हर बार बधाई के साथ उसे सावधान भी करते हैं-'खुद को हर हार के लिए तैयार रखना।' पर रति पिता की सोच और अधिकार पर सवाल उठाने लगती है। फालोवर लाखों से करोड़ों होने के बाद फिर लाखों पर गिर जाते हैं, तो वह निराशा में पिता को याद कर घर लौटने का इरादा ज़ाहिर करती है। दायित्व और वात्सल्य से पगे पिता न पहले बहे, न अब। वे बोले-"तुम्हारे लिए मेरे पास जगह की कमी तब भी नहीं थी। सपनों को जगह देने ही तो वहाँ गई थी तुम, तुम तो हमेशा मेरे पास हो। परिवार, दोस्त, रिश्ते, काम से, प्रसिद्धि से नहीं बनते पर वह सपनों को न सही जीवन को ज़रूर पूरा करते हैं। आ जाओ जीने, फिर जब चैन की नींद आने लगे तो कोई नया सपना सजा लेना।"

सन्ध्या तिवारी की लघुकथा 'क्योंकि सबके सच एक-से नहीं होते' एल्जा़इमर रोग से पीड़ित पिता के स्नेह पर संदेह के हल्के बादलों के पल-भर आने और छँटने की प्रक्रिया से गुज़रती है। पापा का "अक्षर अक्षर जोड़ कर मेरा नाम लेना, मुझे बेटा कहकर मेरा सिर सहलाना, पुलक से भर गया।" अलौकिक स्नेह पर पल-भर संदेह हुआ तो "अचानक पापा ने हाथ बढ़ाकर मेरा चेहरा और सिर सहला कर माथा चूमा। ...अपने वात्सल्य रस-पगे स्पर्श से सारे का सारा संदेह खुरच डाला।"

वात्सल्य है, तो उसे व्यक्त होने का आधार भी चाहिए। रवि प्रभाकर की लघुकथा 'पापा' में बेटी विजातीय से विवाह कर लेती है। अब माँ-बाप का सामना कैसे करे? तीन साल बाद सहसा सामना हो जाता है। माँ जोड़ने को उत्सुक है-"अजी देखिए... दामाद है...पहली बार मिल रहा है।" पिता का वात्सल्य व्यक्त होता है-"दामाद है तो फिर पैर क्यों नहीं छूता?" पिताओं की इस भर्रायी आवाज़ में छिपी स्निग्धता और अपनत्व-भाव को पहचानने और रेखांकित करने की ज़रूरत है।

वात्सल्य भाव का सुपात्र यदि छोटा बच्चा हो तो तमाम दिमागी 'तापमान' (योगराज प्रभाकर) तुरन्त नीचे आने लगता है। संवेदनहीन और नीरस नौकरी से चाहे पिता का पारा सातवें आसमान पर हो, पर घर में नन्हीं-नन्हीं पायलों की छनछन में उदासी का सन्नाटा दूर करने का जादुई असर दिख सकता है। यही होता है। पोती के सामने पड़ते ही-"अले...ले...ले...ले। मेली गुगली-मुगली। मेरी म्याऊँ बिल्ली। कहाँ चली गई थी तू। दादू जी कबछे तुझे ढूँढ लए थे।" नन्हीं पोती को उठाते हुए वे पंछी की तरह चहक उठे थे। पोती ने अपना सिर उनके कंधे पर रख दिया। अब उनके चेहरे के पीलेपन पर पोती की फ्रॉक का गुलाबी रंग चढ़ना शुरू हो चुका था। "

योगराज प्रभाकर की ही 'कैलेंडर' लघुकथा में एक विधवा की धुँधली आँखों के आगे वर्ष-भर का पीड़ादायक लेखा-जोखा गुजरता है, जिसमें दोनों बेटों-बहुओं का दुर्व्यवहार है। तभी पोता सांता क्लाज़ बनकर आता है तो दादी उसे गोद में उठा लेती है। गिफ़्ट के रूप में पोता दादी माँ के मुँह में टॉफी डालकर खिलखिला देता है। तब दादी को लगता है कि यह साल अच्छा बीत गया। इनकी ही लघुकथा 'अपनी अपनी भूख' में वात्सल्य नेपथ्य में है।

सतीश दुबे की 'बर्थडे गिफ़्ट' में भी टॉफी का संदर्भ है, पर प्रसंग भिन्न है। केवल पोती को दादा का जन्मदिन याद है। दादाजी द्वारा एक दिन पहले दिलाई गई दो टॉफियों में से एक वह छुपाकर रख लेती है और दादाजी के आने पर-

"इधर देखिए" उसने सेण्ट्रल टेबल पर रखी टॉफी की ओर इशारा किया और ताली बजाकर गाने लगी, "हैप्पी बर्थडे टू यू दादाजी।" ...उसने रैपर खोलकर हँसते हुए टॉफी उनके मुँह में डाल दी। उन्होंने दोनों हाथों से उसे सीने से भींच लिया। जीवन में पहली बार इतने आत्मविभोर वातावरण में उनका जन्मदिन मनाया गया था। नम आँखों से उन्होंने पोती को चूम लिया। "

इन रचनाओं के विपरीत अनवर शमीम की लघुकथा 'और हाथी रो रहा था' त्रासद स्थिति को चित्रित करती है। दिहाड़ी मजदूर रमजाना आज बंद के कारण झोंपड़ी में लेटा है। हाथी वाला आता है तो कालोनी के साफ-सुथरे बच्चों की तरह अपने मुन्नू को वह हाथी पर नहीं बिठा पाता। बार-बार के आग्रह पर-"हाथी देख ले ई जनम में, ऊ जनम में बैठ लेना...समझाऽ। खाने को ठिकाने नहीं और हथिए पर चढ़ेगा साला।" बाद में मुन्नू को कच्चे फर्श पर बेमतलब आड़ी-तिरछी लकीरें खींचते देखा तो-"अपने बेटे को इस तरह इतना उदास बैठा देखकर उसे गहरी चोट लगी। वह तिलमिला गया। किसी तरह वह अपनी जगह से उठा और हाथी बनकर झूमता-झामता अचानक मुन्नू के एकदम सामने आ गया। उदास मुन्नू उसे हाथी बना देखकर खिल उठा और चिड़िया की तरह फुदकता हुआ उसकी पीठ पर बैठकर चहकने लगा," चलो मेरे हाथी पटना चल, चल मेरे हाथी दिल्ली चल, जल्दी चल, जल्दी चल...मेरे हाऽथी। "

हाथी मुन्नू को पीठ पर बिठाए झोपड़ी के अन्दर चक्कर काट रहा था। मुन्नू के होंठों पर हँसी थी और हाथी रो रहा था। "

पितृ-वात्सल्य की अन्य दिशाएँ

वात्सल्य की तरलता विवेक से संचालित होकर परिवार के सदस्यों से होते हुए, पड़ोसियों, समाज, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों तक को भिगो सकने की सामर्थ्य लिए हुए है। कुछ ऐसी लघुकथाओं की चर्चा करते हैं।

संवेदना के स्निग्ध धागों से बुनी गई सुकेश साहनी की लघुकथा 'ठंडी रजाई' में स्नेहिल सम्बंधों की गर्माहट ठिठुरती सर्दी में भी महसूस की जा सकती है। फालतू होने पर भी पड़ोसन को रजाई देने की मनाही, फिर सुलगती अँगीठी के बावजूद बर्फ-सी रजाई, हाथ-पैर सुन्न होने आदि से जुड़े संवादों के बाद पड़ोसियों को रजाई देने का मानवीय निर्णय शीघ्र ही ले लिया जाता है। और-

"वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।"

स्नेह की 'कलकल' (अन्तरा करवड़े) सास के भीतर भी क्यों नहीं हो सकती! सास जब अन्य प्राणियों की ही भांति बहू की भी सेवा करती है, तो पति वितर्क पर उतर आता है। जवाब है-"जो स्नेह मुझे भला कभी नहीं मिला हो, लेकिन उसे मैं किसी को देना चाहूँ तो मुझे कोई रोक नहीं सकता।"

ससुर भी इसी 'स्नेह-पथ' (मधु जैन) का पथिक है। बेटे के पास रहने आए माता-पिता बेटे-बहू की व्यस्तता को देखते हैं। ससुर खाना बनाता है, तो खाकर बहू की आँखों से आँसू बह उठते हैं। मिर्च बारे पूछने पर वह कहती है-"मिर्च ज़्यादा नहीं, आपने प्यार ज्यादा डाल दिया है।"

स्नेह बाँटने में ताऊ भी पीछे क्यों रहे? रामयतन यादव की लघुकथा 'चोरी' में जायदाद बँटने, दीवारें उठने के बावजूद ताऊ, सांझे दालान में खेल रहे, अपने भतीजे के मोहपाश से अन्ततः बँध ही जाता है। उसकी खिलखिलाहट ताऊ को खींच लेती है और-

"जब उसे पूरी तरह से इत्मीनान हो गया कि बच्चे और उसके सिवा यहाँ कोई और नहीं है, तब उसने आव देखा न ताव, एक झटके से बच्चे को उठाया और सीने से लगाकर बेतहाशा उसके गालों को चूमने-दुलारने लगा।"

वात्सल्य का सामाजिक विस्तार भी देख लें। इसी आशय की संदीप तोमर की लघुकथा है 'माटी की कीमत'। भूख से बेहाल बच्ची के लिए होटलवाले से एक गिलास दूध मिलता है डेढ़ सौ रुपये में। थोड़ी देर बाद फुटपाथ पर चाय पीते हुए एक गिलास दूध लिया, तो जवाब मिला-"हम बच्ची के दूध का पैसा कैसे काट सकते हैं, जैसी आपकी बच्ची, वैसी हमारी।" यह वर्ग-भेद की भी रचना है।

प्रद्युम्न भल्ला की लघुकथा 'बेटियाँ' में रिक्शावाले को बेटी की शादी के लिए पाँच हजार रुपये देने के बाद पति को पत्नी से उलाहना मिलता है। वे पैसे अगले हफ़्ते आ रही बेटी के लिए रखे थे। इस पर पति का उत्तर पितृ-वात्सल्य को बृहद् आयाम दे देता है-"मैंने भी तो यह पैसे बिटिया को ही दिए हैं...बेटी चाहे गरीब की हो या अमीर की।"

वत्सल-भाव सामने या मन में उपस्थित पात्र को देखता है, स्वयं को नहीं। इस दृष्टि से सुदर्शन रत्नाकर की सूक्ष्म वात्सल्य की लघुकथा 'साँझा दर्द' पढ़नी चाहिए। एक झोंपड़ी के बाहर जंग लगी स्टील की चारपाई देखकर चारपाई ठीक करने वाला रुक जाता है। भीतर से मजदूर आकर बताता है कि उसके पास चारपाई ठीक कराने के पैसे नहीं है। दोनों ही भूख और ठंड से त्रस्त हैं। मजदूर बताता भी है कि "सीलन-भरी ज़मीन पर सोने से सर्दी हड्डियों तक घुस जाती है।" पर कंबल ओढ़कर लेटता है, तो वह चारपाई ठीक करके अन्दर रख देता है। "भूख के मारे उसके पेट में कुलबुलाहट हो रही थी, पर चेहरे पर गहरा सन्तोष था।"

विभा रश्मि की लघुकथा 'छाँव' अपना अलग ही नैरेटिव रचती है। माँ के जाने का दुःख सहन करने की शक्ति के लिए सर्दियों में स्वर्ण मंदिर की परिक्रमा करने गया कथानायक एक बूढ़े की आवाज़ सुनता है-'ठंड नाल मैं ठुरठुर कर रयाँ।' इसे सुनकर कथानायक की प्रतिक्रिया को आय वात्सल्य-भाव के किसी भी वर्ग में रख दें, किन्तु इस भाव की स्निग्धता और गर्माहट को पाठक अनुभव अवश्य करता है-

"वह पलटा। आँखें चार हुईं तो कुछ क्षण ठिठका-सा खड़ा रह गया। बीजी का हाथ सिर पर होने का अहसास। उनके मीठे आशीर्वचन कानों में गूँज उठे:" जिंदा रै पुत्तर। " उसे लगा, फकीर के बूढ़े चेहरे पर बीजी का चेहरा चस्पा हो गया था।

बीजी की आखिरी निशानी उनका शॉल, उसने उतार कर ठंड से काँपते फकीर को स्पर्श करते हुए लपेट दिया।

वात्सल्य की धार किधर से भी बह सकती है, बस उसे देखने, अनुभव करने और रेखांकित करने की आवश्यकता है। हेमन्त उपाध्याय की 'नन्दा दीपक' लघुकथा में 98 वर्षीय माँ बीमार होने से पहले तक रोज़ नन्दा दीपक (अखंड ज्योत) जलाती रही। अब फिर ठीक हुई तो दीपक बारे पूछा। बेटे ने पाँच वाट का बल्ब और मच्छर भगाने की मशीन 24 घंटे चालू कर दी। वह कहता है-माँ, भगवान के मंदिर में नन्दा दीपक व अगरबत्ती जलाने से ज़्यादा सुख मुझे तेरे कमरे में 24 घंटे उजाला करने व मच्छर भगाने से मिलता है। "

बढ़ती संवेदनहीनता के इस समय में श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा 'माँ का कमरा' भी इसी तर्ज़ की, मरहम लगाती रचना है। डबल बेडवाला सुसज्जित कमरा देख माँ हैरान होती है। बेटा कहता है-"जब दीदी आती है, तो तेरे पास सोना ही पसन्द करती है और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।" उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसन्ती की आँखों में आँसू आ गए। "

इनके अतिरिक्त 'भूख का बोझ' (नरेन्द्र कौर छाबड़ा) , 'माँ' (पूरन सिंह) , 'यह पारी ही तो है' (पवन शर्मा) , 'माँ ने कहा था' (श्रीराम दवे) , 'कम्बल' (कर्मजीत सिंह नडाला) , 'अमीरी' (प्रदीप कौड़ा) , 'रजाई' (पुष्पा जमुआर) , योद्धा'(देविंदर पटियालवी) ,' आरती'(पुरुषोत्तम दुबे) ,' खून का रिश्ता'(राधेश्याम भारतीय) ,' छाँव'(विभा रश्मि) ,' अनजान रिश्ते'(स्नेह गोस्वामी) ,' ताला-चाबी'(उषा लाल) ,' विमाता'(मनोरमा पंत) ,' पिताजी' (त्रिलोक सिंह ठकुरेला) आदि लघुकथाओं का भी इस सन्दर्भ में अवलोकन किया जा सकता है।

(सभी सन्दर्भ 'माँ के आसपास' (सं. प्रताप सिंह सोढ़ी) , 'संरचना' (वार्षिकी, सं. कमल चोपड़ा) के विविध अंक, 'मास्टर स्ट्रोक' (सं. सुकेश साहनी) , 'मैदान से वितान की ओर' (सं. भगीरथ) , 'लघुकथाएँ जीवन-मूल्यों की' (सं. सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) 'दृष्टि' (सं. अशोक जैन) का 'मेरी प्रिय लघुकथा' अंक, 'लघुकथा कलश' (सं. योगराज प्रभाकर) के 'पुरुष लघुकथाकार विशेषांक' के अलावा 'निर्वाचित लघुकथाएँ' , 'कथा समय' , 'देश-विदेश से कथाएँ' और 'हरियाणा से लघुकथाएँ' (चारों सं. अशोक भाटिया) , 'कथादेश' (प्र. सं. संतोष चौबे, सं. मुकेश वर्मा, खंड 4, 8, 11) , 'स्वातंन्न्योत्तर हिन्दी कहानी कोश' (सं. महेश दर्पण, पहला भाग) , 'पहल' (सं. ज्ञानरंजन, कहानी विशेषांक 1985) , '1976 की श्रेष्ठ कहानियाँ' (सं. महीप सिंह) , 'निर्वाचित कविताएँ' (भगवत रावत) आदि से।)

17 दिसम्बर 2022 को मारकंडा नेशनल कॉलेज, शाहबाद (कुरुक्षेत्र) की राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत षोध-आलेख का संशोधित रूप