लघुकथा की विकास-यात्रा में रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का अप्रतिम योगदान / सुकेश साहनी

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हिंदी साहित्य के मौन साधक और मेरे अभिन्न मित्र 'हिमांशु' जी के लघुकथा विधा में योगदान पर टिप्पणी लिखना मेरे लिए खासा जोखिम भरा काम है। यहाँ एकाएक भाई योगराज प्रभाकर की एक बात याद आ रही है, एक बार दूरभाष पर बात- बात में उन्होंने कहा था कि मेरे लिए सुकेश साहनी और रामेश्वर काम्बोज तो 'एक' ही हैं, उनकी इस बात को गंभीरता से लूँ, तो मुझे लगता है इसी वजह से कुछ लोग मेरी इस टिप्पणी का वास्तविक मूल्य कम आँकेंगे, जबकि इसी कारण यह कार्य मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण भी है। काम्बोज जी से वर्षों की जुगलबंदी और मित्रता का नमक, जो मेरी रगों में दौड़ रहा है,उसके प्रभाव से पूर्णतया मुक्त होकर अपनी बात कह सकूँगा, ऐसा मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ।

शासकीय सेवा में मेरी पहली पदस्थापना आगरा में हुई थी, एक अंतराल के बाद पुनः लेखन में सक्रिय हो गया था, बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ घर पर आने लगी थीं। इन पत्रिकाओं में छपी काम्बोज जी की रचनाओं ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा था। 'काम्बोज' उपनाम से विशेष जुड़ाव के कारण भी मैं पहले-पहल उनकी रचनाएँ पढ़ता था। तेरह -चौदह वर्ष की आयु में मैं जासूसी उपन्यास लिखने लगा था, विजय सीरीज़ के रचयिता प्रसिद्ध उपन्यासकार वेद प्रकाश काम्बोज मेरे आदर्श थे, मेरा उनसे मिलना-जुलना भी था, उन्होंने ही मेरा ध्यान लघुकथा लेखन की ओर आकृष्ट किया था।

'तारिका' में प्रकाशित रामेश्वर काम्बोज जी की लघुकथाएँ पढ़कर उनके लेखन से बहुत प्रभावित हुआ था, तब यह भी भ्रम था कि वे वेद प्रकाश काम्बोज जी के परिवार से होंगे। इस तरह काम्बोज जी के रचनाकर्म से परिचय 1977 के आस-पास का है। काम्बोज जी से पहली मुलाकात कराने का श्रेय, स्वर्गीय सतीशराज पुष्करणा जी को जाता है, पुष्करणा जी बरेली आए हुए थे, उन्होंने काम्बोज जी का जिक्र किया, तो हम दोनों तुरंत ही हिमांशु जी के सदर स्थित निवास की ओर चल दिए थे। उनसे पहली भेंट आज भी ताज़ा है। आज पुष्करणा जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन काम्बोज जी से मिलवाने के लिए मैं जीवन पर्यन्त उनका आभार मानता रहूँगा। प्रायः कहा जाता जाता है कि बहुत कम साहित्यकार अपनी कथनी और करनी में एक होते हैं। काम्बोज जी अपने जीवन में भी अपने लेखन की तरह अनुशासित और खरे हैं। पहली मुलाकात के बाद हमारे मिलने-जुलने का सिलसिला चल निकला,जो समय के साथ और प्रगाढ़ होता गया। लघुकथा विषयक लेखन,संपादन और विभिन्न गतिविधियों में हमारी जुगलबंदी जारी है।

हिमांशु जी साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनरत हैं , लेकिन लघुकथा के प्रति उनका विशेष लगाव रहा है। लघुकथा में उनके योगदान पर लिखा जाए, तो टिप्पणी बहुत विस्तार ले लेगी, यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख समीचीन होगा -

1- 'असभ्य नगर' काम्बोज जी का एकमात्र लघुकथा-संग्रह है। गुणवत्ता की दृष्टि से यह संग्रह लघुकथा-जगत् के उन गिने-चुने संग्रहों में शामिल है, जिनमें बहुतायत में उत्कृष्ट लघुकथाएँ संकलित हैं। उत्कृष्ट लघुकथाओं के एकल संग्रहों की छोटी से छोटी सूची भी तैयार की जाए, तो उसमें 'असभ्य नगर' अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराएगा। हिमांशु जी की लघुकथाएँ सर्जन के तप से जन्मी हैं, इसलिए इनकी संख्या एक संग्रह तक सीमित है। लघुकथा-जगत् में उदाहरण के रूप में रमेश बतरा जैसे अतुलनीय हस्ताक्षर हैं, जो अपनी चंद लघुकथाओं के दम पर अमर हैं। वहीँ उसी दौर के ऐसे रचनाकार भी हैं, जिनके कई लघुकथा- संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं; लेकिन उनमें कुल पाँच-दस उत्कृष्ट रचनाएँ भी ढूँढे नहीं मिलती। सृजन-यात्रा में काम्बोज जी निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से काम्बोज जी की लघुकथाएँ अपने समकालीन बहुत से प्रसिद्ध लेखकों से बहुत बेहतर हैं। धर्म निरपेक्ष,गंगा-स्नान, दूसरा सरोवर, संस्कार,चक्र,मुखौटा, काग-भगौड़ा,खुशबू, छोटे-बड़े सपने, चिरसंगिनी, एजेंडा, खूबसूरत, कटे हुए पंख, प्रवेश-निषेध,कालचिड़ी, असभ्य नगर, धन्यवाद्, परख,शिक्षाकाल,उड़ान,टुकड़खोर,आत्महंता ,खलनायक, जैसी लघुकथाओं का रचयिता 'ऊँचाई' जैसी कालजयी लघुकथा का सृजन करता है। हिमांशु जी की 'नवजन्मा' जैसी लघुकथा उनके निरंतर विकासपथ पर अग्रसर होने का प्रमाण है।

2- लघुकथा आलोचना के क्षेत्र में काम्बोज जी प्रारम्भ से ही सक्रिय रहे हैं, नए-पुराने सभी लघुकथा लेखकों के संग्रहों पर उन्होंने लिखा है,इसके अलावा लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष पर उनके स्वतंत्र लेख हैं,जो लघुकथा सम्मेलनों अथवा पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे गए हैं। आलोचना से सम्बंधित सभी लेख 'लघुकथा का वर्त्तमान परिदृश्य' नामक पुस्तक में संकलित हैं।उनके समीक्षा कर्म से विधा समृद्ध हुई है और नए लघुकथा लेखकों को मार्गदर्शन मिला है।

3- शिक्षा- जगत् से जुड़े होने के कारण लघुकथा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की पहल काम्बोज जी द्वारा की गई,स्वर- संगम (कक्षा एक से आठ की पाठ्य-पुस्तक ) में अनेक लघुकथाओं का समावेश उनके द्वारा किया गया, जिसके अब तक अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

4-वर्ष 2000 में लघुकथा डॉट कॉम की योजना बनी थी। प्राचार्य पद के दायित्वों के प्रति समर्पण और दूरस्थ क्षेत्रों में पोस्टिंग के चलते काम्बोज जी इसमें समय नहीं दे सकते थे, तब उनके पुत्र निशांत काम्बोज के सहयोग से वेब साइट की शुरुआत हुई। 2007 में काम्बोज जी का साथ मिलते ही इसे मासिक कर पाना संभव हुआ । तब से अब तक प्रत्येक माह का अंक समय से प्रकाशित होता आ रहा है। आज लघुकथा डॉट कॉम जिस मुकाम पर है,उसके पीछे काम्बोज जी का समर्पण और श्रम प्रमुख है।

5-लघुकथा के क्षेत्र में कदम रखने वाले नए लेखकों को प्रोत्साहित करने में हिमांशु जी अग्रणी हैं और इस बारे में कभी किसी से चर्चा तक नहीं करते। लघुकथा में नई पौध को विकसित करने में उनका अमिट योगदान है।

6- लघुकथा विषयक अनेक पुस्तकों का संपादन उनके द्वारा किया गया है, लघुकथा डॉट कॉम से बाल मनोविज्ञान विषयक लघुकथाएँ,मेरी पसंद (तीन भाग ) का संपादन हमारी जुगलबंदी में हुआ। हिंदी चेतना,उदंती,पुष्पांजलि के संपादन से जुड़े होने के कारण लघुकथा को प्रमुखता से मंच देने के लिए उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।अभिनव इमरोज़,हिंदी चेतना जैसी अनेक पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक का संपादन उन्होंने किया,जो आज लघुकथा विधा की धरोहर कहे जाते हैं।

7-बरेली में 11 एवं 12 फरवरी 1989 को आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन को देश में वार्षिक लघुकथा सम्मेलनों के आयोजन का प्रस्थान बिंदु कहा जाना उचित होगा। इस आयोजन में पढ़ी गई रचनाओं और उस पर हुए विमर्श को रिकार्ड कर जस का तस 'आयोजन' नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण हाल ही में अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह कार्य भी हिमांशु जी के संपादन में पूर्ण हुआ। कहना न होगा कि बरेली सम्मेलन देश में विभिन्न स्थलों पर प्रति वर्ष लघुकथा सम्मेलनों के आयोजनों का कारण बना। एक दूसरे का साथ मिलने का प्रतिफल रहा कि हम बिहार और पंजाब में आयोजित लगभग प्रत्येक सम्मेलन में प्रतिभाग करते रहे। लघुकथा विमर्श में काम्बोज जी कि बेबाक टिप्पणियाँ प्रतिभागियों द्वारा सदैव सराही गईं। भाषा को लेकर उनकी सारगर्भित टिप्पणियाँ नए-पुराने लेखकों को उनके लेखन में और सचेत रहने के लिए प्रेरित करती रहीं। कहना न होगा कि अपने लघुकथा लेखन से इतर विभिन्न गतिविधियों में प्रतिभाग से उन्होंने विधा के विकास में आहुति दी है।

नए-पुराने लेखकों की लघुकथाओं का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद, लघुकथाओं के ऑडियो,शार्ट फिल्म्स जैसी अनेकानेक गतिविधियाँ हैं,जिनमें उनके योगदान को रेखांकित किया जा सकता है। अंत में यही कहना चाहूँगा कि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' साहित्य -जगत् का ऐसा हस्ताक्षर है,जिसका सत्संग हमे समृद्ध करता है। मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे उनका संग-साथ मिला,जिससे मैं निरंतर लाभान्वित होता रहा हूँ। हमारी जुगलबंदी बनी रहे ,साहित्य की दूसरी विधाओं के साथ-साथ लघुकथा में भी उनकी लेखनी चलती रहे,इसी कामना के साथ।