लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य एवं शिल्प)-2 / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भावावेश में प्रेम करने, उस क्षणिक प्रेम को ही शाश्वत और चिरस्थायी समझने की भूल लाखों लोग करते हैं। छोटी-छोटी बातों पर विवाद होते ही प्रेम का सारा नशा दूर हो जाता है। प्रेम करने वाला उस असफल प्रेम की हर निशानी को कठोरतापूर्वक मिटा देना चाहता है। महेश शर्मा की 'निशानी' में कम्मो नौकरानी ने देखा था कि उसकी मालकिन पिंकी आईने के सामने अपनी बाँह पर गुदे नाम को निहारकर सहलाया था और बाँह उठाकर चूम लिया था। वही टैटू गायब था। कम्मो कि कलाई पर भी दाग़ था, जो प्रेम की निशानी मिटाने से हुआ था। फ़र्क यही है-पिंकी के टैटू का निशान तक नहीं बचा और कम्मो अपने प्यार की निशानी को आज भी सँजोए है। कम्मो और पिंकी के माध्यम से असफल प्रेम की व्यथा को अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया गया है। कम्मो का यह कथन कितना मार्मिक है-"काश, हमारे ज़माने में भी यह मुई लेज़र-फेज़र होती। देखो, नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया। कभी-कभी यह कमबखत बहुत टीसता है बेबी!"

वैधव्य का जीवन बहुत कंटकाकीर्ण होता है। विधवा यदि सुन्दर और नवयौवना है, तो उसका जीवन और अधिक चुनौतियों से भरा होता है। परिवार और सगे-सम्बन्धियों की कुदृष्टि भी उसे निगल जाना चाहती है। मृणाल आशुतोष की लघुकथा 'कवच' में इस तथ्य को कुशलता से चित्रित किया है। अनीता के हाथों की मेहँदी का रंग छूटा भी न था, उसके शोक का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। सास इकलौते बेटे को खोने के गम में डूबी हुई थी। इस बीच मँझले ननदोई का आना-जाना बढ़ा, आँखों तक का सीमित मज़ाक सीमा लाँघकर वासना के मार्ग में परिवर्तित होकर मर्यादा का उल्लंघन करने लगा था। ननदोई ने उसको बलपूर्वक पास बिठाना चाहा, तो वह हाथ छुड़ाकर आँगन की ओर दौड़ी, जिसे सास की अनुभवी आँखों पढ़ लिया। सास, बहू का सम्बल बनकर उसके सम्मान के लिए चट्टान की तरह खड़ी हो गई। दादा ससुर की खड़ाऊँ सास ने सँभालकर रखी थी। निम्न पंक्तियाँ सास की प्रतिक्रिया को क्रियात्मक रूप से प्रस्तुत करती हैं। बहू के सम्मान के लिए सास द्वारा लिया गया कठोर निर्णय इस लघुकथा का सौन्दर्य है-

बहू के कन्धे पर हाथ रख उसने भर्राये गले से कहा, "बेटी, मुझे तो इसकी जरूरत अब तक न पड़ी, लेकिन तुझे अब इसकी सख्त जरूरत है। पुरखों की बिरासतें यूँ जाया नहीं जातीं।" कहते हुए सास ने खड़ाऊँ को ज़ोर से ज़मीन पर पटक दिया। खड़ाऊँ छिटकी, गुलाटियाँ मारते हुए बरामदे से कमरे की ओर दौड़ी। अन्दर से चीखने की आवाज़—सी आई।

लेखक ने केवल समस्या तक ही कथ्य को सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सार्थक और अनुकरणीय निदान तक पहुँचाया, जिसकी आश्वस्ति बहू सास के कन्धे पर सिर टिकाकर अभिव्यक्त करती है।

ऐसा नहीं कि पूरा समाज अपनी मर्यादा खो चुका है। कहीं न कहीं, सदाचार और नारी के प्रति सम्मान अभी बचा है। सत्या शर्मा की लघुकथा- 'रक्षक' नारी के उसी सम्मान पर केन्द्रित है, जो विकृतियों की भीड़ में संस्कार को पोषित करती है। शिप्रा पहली बार अकेले इलाहाबाद के लिए सफ़र कर रही है। उसकी रिज़र्वेशन वाली बोगी में किसी कैम्प में जाने वाले लड़कों का झुण्ड भरा है, जो मज़ाक और चुटकुलेबाजी में मस्त हैं। भय से पीली पड़ चुकी शिप्रा को एक युवक अपनी बातों से अपनत्व जताकर भयमुक्त कर देता है कि वह भी 'नानी घर इलाहाबाद' ही जा रहा है। साकेत का यह वाक्य उसी नारी-सम्मान की निर्मिति करता है, जिसका आजकल अभाव है-

"बहन, ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें। हम में ही तो पिता और भाई भी होते हैं।"

सुरेश सौरभ की लघुकथा-'रेड लाइट' मानवीय मूल्य एवं नारी के सम्मान को प्रतिष्ठित करने वाली लघुकथा है। देरी होने, रास्ते में झोला गिरने और वापस मिल जाने के बारे में पति-पत्नी के सार्थक संवादों से घटना का विवरण मिल जाता है। संवादों के स्थान पर लेखक स्वयं ही विवरण दे देता, तो रचना कमज़ोर हो जाती। भले मानुष, रंडी, बेचारी और भैया शब्दों से व्यंजित ये संवाद परोक्ष रूप में कितना कुछ कह जाते हैं, देखिए-

"किस भले मानुष ने वापस किया।"

"एक रंडी ने, रेड लाइट एरिया के पास वहीं खड़ी एक रंडी के हाथ लग गया। वापस आया, तो वह बेचारी झोला लिये खड़ी थी, बोली," भैया, मैंने गिरते देख लिया था, पर तुम इतनी स्पीड में थे कि निकल ही गए।"

पत्नी मुँह बिसूरते हुए तैश में बोली-"एक भला इंसान भी कह सकते हो, पढ़े लिखे हो, बिलकुल असभ्यों की तरह ।"

पत्नी को पति के बोलने का तरीका रास न आया। यह एक नारी का दूसरी नारी के प्रति पुरुष को सचेत करके उसकी सोच का प्रतिरोध कराना मात्र नहीं, बल्कि समाज द्वारा उपेक्षित और शोषित नारी के सम्मान की स्थापना भी है। यही कारण है कि अब पति को वह 'रंडी' शब्द उसके मनोमस्तिष्क में सैकड़ों सुइयों की तरह चुभ रहा था। पीड़ा का पहाड़ सिर पर बढ़ता जा रहा था'।

दाम्पत्य एवं पारिवारिक संघर्ष नारी को कहीं दूर पीछे धकेल देता है। यह सोच किसी अनपढ़ या गँवार की नहीं; बल्कि पढ़े-लिखे समाज की संकीर्णता है, जिसमें नारी को अक्षम और मन्द बुद्धि समझ लिया जाता है। डॉ. जेन्नी शबनम की लघुकथा 'पहचान' उसी की सार्थक अभिव्यक्ति है। पति कहता है कि वह लेख लिख देगा, पत्नी उसको अपने नाम से भेज दे। पत्नी ऐसा न करके स्वयं लेख लिखती है, जो एक पत्रिका में छप जाता है। वह पत्रिका को अपनी अलमारी में न रखकर टेबल पर ही रख देती है, ताकि-'जब वह इसे देखेगा तो? ... सोचते ही मेरा आत्मविश्वास और भी बढ़ गया'। अभिप्राय यह है कि पति भले ही स्वीकार न करे; लेकिन पत्रिका में छपे उसके लेख को देखे और उसकी क्षमता को समझे। पहचान की पत्नी स्वय को दुर्बल नहीं मानती।

ठीक इसके विपरीत कमल चोपड़ा की 'दंभ' लघुकथा में दाम्पत्य भाव और असमानता का स्वर अलग तरह से मुखरित है। पति-पत्नी का सम्बन्ध किसी प्रतिस्पर्द्धा का हिस्सा न होकर, आपसी समझ और सद्भाव का सुदृढ़ आधार है। इसमें कोई छोटा-बड़ा या हीन नहीं है। इस लघुकथा में पत्नी रश्मिका अपनी व्यथा पति करण को बताती है-

"दो-तीन बार पहले भी बता चुकी हूँ कि मुझे ऑफिस में साथ काम करने वाले पुरुषों की गंदी नजरें और बॉस की गंदी नियत का शिकार बनना पड़ रहा है। मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूँ?"

पत्नी की इस व्यथा से पति कोई सहानुभूति नहीं। लगता है, धनार्जन के लिए उसका ज़मीर ही मर गया है। उसका क्रोध भरा यह कथन देखिए-

"घर की हालत तुम्हें पता है। इन दिनों में नौकरी कर नहीं रहा हूँ। बच्चे की फीस, काम वाली बाई के पैसे, कार, फ़्रिज, एसी, फ्लैट की किश्तें? किश्तें टाइम पर न दी गई, तो रिकवरी वाले गुंडे आकर परेशान करेंगे? आस-पड़ोस रिश्तेदारी में क्या इज्जत रह जाएगी?"

पत्नी की पीड़ा है-"...पत्नी की इज्जत खतरे में है और तुम्हें पैसे की पड़ी है?" पति का पत्नी को डाँटना, फटकारना, थप्पड़ मारना, उसका मोबाइल चैक करना-लगता उसके दम्भ को सन्तुष्ट करता है। कारण, इस समय पत्नी का पैकेज़ उसके पैकेज़ से अधिक है। घर और ऑफ़िस दोनों ओर की प्रताड़ना से आहत पत्नी आत्महत्या तक का निश्चय कर चुकी थी, यह जानकर करण उसे रिज़ाइन करने के लिए कहता है। गैरबराबरी की यह कुण्ठित धारणा, दाम्पत्य सम्बन्धों से समवेदना तथा सम्मान को सदा-सदा के लिए निष्कासित और निर्वासित कर देती है।

भावना सक्सैना की लघुकथा 'परिवर्तन' पत्नी में आए परिवर्तन का कारण प्रस्तुत करती है। परिवारीय संवेदना के क्षीण होने पर निराश न होकर पत्नी हर पल को जीभर जीना चाहती है। बीस वर्ष शादी को हो चुके, फिर भी बन-सँवरकर रहना, उस प्रत्येक कार्य को करने के लिए तत्पर रहना, जिससे सबको अच्छा लगे और खुशी मिले। पति जब इस परिवर्तन पर ध्यान देते हैं, तो पुत्र बताता है-"पापा! माँ अब फेसबुक पर है!"

भावना सक्सैना ने जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए जो सकारात्मक चिन्तन और क्रियाशीलता का मार्ग सुझाया है, वह बहुत से क्लेशों का निवारण कर सकता है। नारी को स्वयं भी एकरसता से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए।

लड़कियों के बारे में कुछ लोगों की सोच बहुत पुरानी हो सकती है। प्रेम गुप्ता मानी की लघुकथा 'लड़की' के बारे में समाज की यही रुग्ण सोच सामने आती है। ताँक-झाँक के अभ्यस्त पड़ोसी पण्डित राघोराम की जवान लड़की गीता के बारे में दुष्प्रचार शुरू कर देते हैं-पूरे मोहल्ले में यह ख़बर आग की तरह फैल गई कि पण्डित राघोराम की जवान लड़की गीता को पुलिस पकड़कर ले गई। लेडी पुलिस जीप लेकर आई थी। अन्नो ताई का कहना था कि सब कुछ उन्होंने अपनी आँखों से देखा है।

पण्डित राघोराम को कुछ खबर नहीं कि आसपास के लोग उनके बारे में क्या सोच रहे हैं। पाँच दिन बाद सबकी सोच को झटका लगा। लघुकथा का समापन लेखिका ने इस प्रकार किया कि सब अफ़वाहों पर विराम लग गया।

'थोड़ी देर बाद एक जीप पण्डित राघोराम के दरवाज़े पर आकर रुकी। उस पर से हँसती हुई गीता उतरी, तो सबके चेहरे लटक गए। जीप में एन.सी.सी की वर्दियाँ पहने लड़कियाँ बैठी थीं, जो चार दिनों का कैम्प लगाने के बाद लौटी थीं। उनकी वर्दी के कारण ही अन्नो ताई ने उन्हें पुलिस समझ लिया था।'

लड़कियों के लिए भविष्य-निर्माण करने के मार्ग में घर-परिवार भी अड़चन बनते हैं। घर में पुराने विचारों के लोग हों तो और अधिक बाधाएँ हैं। कृष्णा वर्मा ने 'गैप' लघुकथा में इस-सामाजिक सोच और असमानता के अन्तर्द्वन्द्व को घर के प्रगतिशील और संकीर्ण विचारों के टकराव को बहुत खूबसूरती के साथ चित्रित किया है। नेहा के प्रति दादी का यह प्रतिरोध बाधक बनता है-

"औरत की ज़ात तो दबी-ढकी ही अच्छी लगती है। वह अपनी पलकें और कंधे ज़रा झुकाकर चले, तो जीवन भर रिश्ते-नाते और घर-गृहस्थी सुर में रहती है, समझी।"

नेहा, नौकरी और घर-गृहस्थी के बोझ से ऐसी दबी कि झुककर चलने की सीख के कारण उसकी कमर जवाब देने लगी। डॉक्टर ने सुझाव दिया, "आपकी रीढ़ की हड्डी में कुछ गैप आ गया है और दो-एक हड्डियाँ अपने स्थान से थोड़ी-सी खिसक भी गई हैं। पीड़ा से जल्दी छुटकारा पाने के लिए आप सुबह-शाम व्यायाम करो और ज़रा तनकर चला करो। झुककर चलना रीढ़ के लिए घातक होता है।"

सीधे तनकर न चलने से ही गैप आया। इससे बचने का उपाय है, तनकर चलना। लेखिका की यह सीख रीढ़ को सीधा रखने के लिए ज़रूरी है। 'गैप' शीर्षक लघुकथा की संवेदना और कथ्य के लिए चाबी का काम करता है, जिससे वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व के सारे द्वार खुलते हैं। इस लघुकथा में तीन पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है।

सौन्दर्य क्या है, इसके उत्तर में प्रसाद की कामायनी में श्रद्धा का यह सौन्दर्य सामने आता है। मातृत्व धारण करने पर वह सौन्दर्य और अधिक स्पृहणीय बन जाता है-

केतकी गर्भ-सा पीला मुँह, आँखों में आलस-भरा स्नेह;

कुछ कृशता नई लजीली थी, कंपित लतिका-सी लिए देह!

डॉ. उपमा शर्मा की लघुकथा 'खूबसूरती' में सौन्दर्य को लेकर एक मॉडल काजल का अन्तर्द्वन्द्व कलात्मक रूप से उभारा है। ऑपरेशन थियेटर में चिकित्सक उसके पेट पर टाँके लगा रही थी। साथ ही परिचारिका को कुछ हिदायत देती जा रही थी। वह तय नहीं कर पा रही थी कि पेट पर लगे कट का दर्द अधिक था या अपनी खूबसूरती खत्म होने का। सहेलियों की ये बातें उसे उद्वेलित कर रही थीं-

"अब तेरे पेट पर बर्थ मार्क बन जाएँगे।"

"तू अब सुंदर नहीं रही।"

"देख तो मोटापे से सारी खूबसूरती का सत्यानाश कर लिया।"

"देखना, सुंदर मॉडल देखकर एक दिन राज भी तुझे भूल जाएगा।"

ये कथन उसे विचलित कर रहे थे, तो उसने डॉक्टर से उसने अपनी मनोव्यथा प्रकट की।

"डॉक्टर! क्या मैं अब सुंदर नहीं रही।" काजल के आँसू रुक ही नहीं रहे थे।

"किसने कहा?"

डॉक्टर के संकेत करने पर नर्स ने रोते हुए बच्चे को जैसे ही काजल के सीने पर लिटाया-'बच्चा पहचानी हुई धड़कनों को सुन चुप हो गया। अपने बच्चे को अपने सीने से लगाए वह ख़ुद को दुनिया की अब सबसे खूबसूरत औरत लगी।'

वास्तविकता है कि जीवन का सौन्दर्य मातृत्व ही है। कोई मॉडल हो या विश्व सुन्दरी, सभी की जन्मदायिनी, माँ ही होती है। यह सौन्दर्य माँ, बहिन, बेटी, प्रिया किसी भी रूप में हो सकता है। उदात्त भाव इसके मूल में है। विशृंखल होकर सौन्दर्य पदच्युत हो जाता है। उदात्तता के लिए संस्कार का संस्पर्श आवश्यक है। यह संस्कार घर-परिवार के सही आचरण से ही मिल सकता है। इस सन्दर्भ में मेरी लघुकथा 'खूबसूरत' भी देखी जा सकती है।

मातृत्व का आत्मीय संस्पर्श माता और सन्तान दोनों के लिए अव्यक्त और आत्मीय शक्ति है। संसाधनों की शक्ति और सहायता से इसकी पूर्त्ति नहीं की जा सकती। निर्देश निधि की 'बेचारा' लघुकथा 'खूबसूरती' के विपरीत दूसरे ध्रुव की व्याख्या है। कामकाजी महिला के लिए घर और ऑफ़िस की बहुत-सी चुनौतियाँ होती हैं। वहाँ परिवारीय संवेदनहीनता का प्रभाव पड़ता है। छोटी बहू ने घर और बच्चों की देखभाल को प्राथमिकता देते हुए सरकारी नौकरी छोड़ दी। दूसरी ओर बड़ी बहू नौकरी के कारण बच्चे को पूरा समय नहीं दे पाती, जिससे बच्चा उदास और अनमना रहता है। घर आने पर छोटी के बच्चे बड़ी के बच्चे को खेलने का आग्रह कर रहे थे।

"कैसा उदास लग रहा है बेचारा बच्चा..."-छोटी के यह कहने पर बड़ी ने बीच में ही टोक दिया, तो उसने अपने बच्चे को दी जा रही सुविधाओं की सूची गिनवा दी। ढेर सारे खिलौनों की, देखभाल के लिए आया की, आया की निगरानी के लिए घर के हर कोने में लगवाए-सी सी टी वी कैमरों की गिनती करा दी। निर्देश निधि ने एक वाक्य-'अब तो छोटी को यकीन हो गया था कि वह नन्‍हा बच्चा वाकई बहुत बेचारा था।' में कथा का समापन किया है। यह कथन इस लघुकथा की रीढ़ है। छोटे बच्चे के लिए खिलौने, आया आदि का अम्बार उसके कोमल हृदय की भूख नहीं मिटा सकते। आत्मीय संस्पर्श वात्सल्य की सबसे बड़ी शक्ति और सुविधा है। ममत्व का संस्पर्श यदि तिरोहित हो जाए, तो शिशु का मानसिक विकास प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। बच्चे की उदासी का यही मूल कारण है।

अनायास पलते कुसंस्कार और दोगलापन घर से लेकर बाहर समाज तक की सारी सुन्दरता को निगल जाते हैं। इन्हें डॉ. सुषमा गुप्ता की वर्तमान का दंश और सूर्यकान्त नागर की 'प्रदूषण' में देख सकते हैं।

'वर्तमान का दंश' में मुम्बई से दिल्ली आए रमानाथ जी, अपने सत्रह साल के भतीजे से घुमा-फिराकर पूछते हैं-

"अरे पढ़ाई वढ़ाई तो चलती रहती है। तू तो ये बता तेरी गर्लफ्रैंड्स कितनी है?"

"अरे क्या ताऊजी, आप भी न, मैं नहीं पड़ता इन चक्करों में।"

"हट! जिंदगी खराब है तेरी फिर। अबे जवानी में ये सब नहीं करेगा, तो बुढ़ापे में करेगा क्या। पूछ अपने बाप से, स्कूल-कॉलेज में कैसे लड़कियों की लाइन लगती थी मेरे पीछे।"

"मुझे है न ख्याल घर की इज्जत का ताऊजी।" बाहर से आती मिताली बोली।

"क्या मतलब?" ...

"मतलब ये, मेरे हैं न खूब सारे बॉय फ्रैंड्स। आप चिंता मत करो। मैं हूँ न खानदान की परम्परा निभाने को।" मिताली दाँत दिखाती हुई चहकी।

रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।

यह है रुग्ण मानसिकता कि लड़का किसी लड़की नैन मटक्का करे, तो यह बहादुरी की तरह स्वीकार्य है। अपने घर की लड़की यही करे, तो स्थित उलट जाती है, जिसे लेखिका ने 'रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।' इस कथन द्वारा दोहरी मानसिकता को अनावृत्त किया है। संस्कार और कुसंस्कार घर-परिवार देता है। यदि घर-परिवार बच्चों को लड़कियों के साथ गरिमामय व्यवहार के ये संस्कार दें, तो छेड़खानी और नारी शोषण की अधिकतम घटनाएँ निर्मूल हो जाएँ।

घर के परिवार के अतिरिक्त कुछ अनुचित व्यवहार हमारा वह परिवेश भी सिखाता है, जिसके बीच में हम रहते हैं। सूर्यकान्त नागर की लघुकथा 'प्रदूषण' उन्हीं अनायास पलते कुसंस्कारों की ओर ध्यान दिलाती है।

लेखक को विद्यालय जाती तेरह से सोलह वर्ष की लड़कियाँ के संवाद चौंका देते हैं, जिसमें 'ए सर्टिफिकेट वाली' फ़िल्म देखने की ललक भी छुपी हुई है। छींट का नया बुशर्ट पहनकर इतराने वाले शिन्दे सर के सन्दर्भ में जब बात होती है, तो जानी-पहचानी आवाज़ में अन्तिम समूह की लड़की का यह संवाद लेखक को विचलित कर देता है-"मुझे तो बहुत प्यारा लगता है, बिल्कुल अमोल पालेकर जैसा।"

अन्तिम समूह का वह अन्तिम वाक्य उनकी बेटी का ही था। इस तरह का सामाजिक प्रदूषण भविष्य के लिए संकट पैदा करने वाला है। यह संकेत भर है। यदि समाज जागरूक नहीं होता है, तो आसन्न संकट और वैचारिक प्रदूषण सारी सीमाएँ छिन्न-भिन्न करने वाला है।

भीड़-तन्त्र और नारेबाजी किसी समस्या का समाधान नहीं। हर भीड़ के अपने निजी सरोकार और विचारगत एजेण्डा होते हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ के लिए रबर की नाक की तरह मोड़ लिया जाता है। अपने लाभ और वर्चस्व के लिए अपनी सुविधानुसार इन नारों को जाग्रत कर लिया जाता है। इस तरह के प्रपंच, समस्या के समाधान के लिए नहीं, किसी राजनीतिक लाभ के लिए किए जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि जो पीड़ित एवं प्रताड़ित है, हम उसके साथ खड़े हों, वह चाहे किसी भी विचारधारा का पोषक हो। योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'चौथी आवाज़' इस तरह की नारेबाजी की कुरूपता की व्याख्या है। एक-एक करके कई आवाजें आती हैं-

पहली आवाज़..."1984 के दिल्ली दंगों में मारे गए सिखों के हत्यारों को फाँसी दो।"

दूसरी आवाज़—"दंगों में मारे गए मुसलमानों के क़ातिलों को-को फाँसी दो!"

एक सामूहिक नारा गूँजा, "फाँसी दो, फाँसी दो!"

तीसरी आवाज़..."हमारे पादरी और उसके बच्चों को ज़िंदा जलाने वाले को फाँसी दो!"

एक सामूहिक नारा गूँजा, "फाँसी दो, फाँसी दो!"

मन्त्री जी जल्दी में हैं, लेकिन चौथी आवाज़ ने पूरी न्याय प्रणाली पर ही सवाल उठा दिए।

"उन्नीस सौ अस्सी और नब्बे के दशक में पंजाब में हज़ारों निर्दोष हिंदुओं की हत्याएँ हुईं, काश्मीर में आतंकवादियों ने सैकड़ों हिंदुओं की जान ली और लाखों हिंदुओं को घरबार छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर किया गया। देश के विभिन्न हिस्सों से जबरन धर्म-परिवर्तन की ख़बरें आ रही हैं। इसके बारे में आज तक सरकार ने कुछ नहीं किया, ऐसा क्यों?"

इस बार मंत्री जी कुछ नहीं बोले।

न्याय-प्रणाणी पर विश्वास न करके, एक वर्ग सदा स्वयं के शोषित होने का प्रचार करके 'विक्टिम कार्ड' खेलता है। बहुसंख्यक अगर शोषित है, तब भी उसी को निशाना बनाया जाता है, यह घातक है, अन्याय है। देश की एक बड़ी आबादी इस प्रपंच को समझ चुकी है।

साम्प्रदायिक संकीर्णता राष्ट्र को निरन्तर जर्जर कर रही है। हमारे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए। किसी भी वर्ग को अल्पसंख्यक / बहुसंख्यक होने के नाते विशेष सुविधा क्यों मिले। न्याय के द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हों। यह बात मेरी समझ से परे है कि हज़ारों दूर मील दूर बैठे क्रूर देशों के कुकृत्य के समर्थन में तो प्रस्ताव पास किए जा सकते हैं; लेकिन अपने ही देश में दंगे, बम धमाके, कश्मीर में क्रूरता और सामूहिक पलायन जैसी त्रासदी पर कोई प्रश्न नहीं उठता, कोई संज्ञान नहीं लेता। असह्य रक्तपात और क्रूरता पर राजनीतिक दलों की वाणी को लकवा क्यों मार जाता है। वे मौन साध लेते हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वोट पाने की लालसा में तुष्टीकरण के लिए जातियों और वर्गों में बाँटकर घृणा करने की राजनीति का बहिष्कार होना चाहिए।

सामाजिक सौहार्द को ध्वस्त करने वाले अराजक तत्त्व कई रूप में पाए जाते हैं। ज़रूरी नहीं कि उनके हाथ में हथियार हों। उनके हाथ में आग से भरी बाल्टी हो सकती है। वे खाली हाथ भी हो सकते हैं। उनकी वाणी की आग सब कुछ भस्म कर सकती है। कुछ लोग इस वाणी की आग से भारत को शक्तिहीन और अस्थिर करने का षड्यन्त्र अहर्निश रच रहे हैं। 'आग' लघुकथा में हरभगवान चावला, जिस आग का संकेत करते हैं, वही आग आज जगह-जगह लगी हुई है। निर्लज्ज अवसरवादी, संकीर्ण विचारधारा के बहुत से तथाकथित बुद्धिजीवी, आन्दोलनजीवी, नेता, पत्रकार इस आग को भड़का रहे हैं। इन पंक्तियों को देखिए-

उन दोनों को बस्तियों में आग लगाने का काम सौंपा गया था। पहले के हाथ में आग से भरी बाल्टी थी, दूसरे के हाथ ख़ाली थे। पहले ने दूसरे से पूछा, "तुम्हारी आग कहाँ है, आग के बिना बस्ती कैसे जलाओगे?"

"मेरी आग मेरे मुँह में है। ज़रूरत पड़ने पर निकाल लूँगा।"

XX

शाम को दोनों आक़ा के दरबार में मौजूद थे। पहले ने चार बस्तियाँ जलाई थीं, दूसरे ने आक़ा की नज़र में बढ़ गया होगा। मायूस पहले ने आक़ा से कहा, "मैंने पूरी मेहनत की पर कामयाबी बहुत कम मिली। भविष्य में मैं भी मुँह की आग से काम लूँगा।"

समाज को विभाजित नष्ट करने के लिए दोनों आग में ऐक्य होना चाहिए -मुँह की आग और हाथ की आग एक दूसरे की पूरक हैं। जब तक इन दोनों में गठबंधन है, तभी तक खेल है।

एक मुँह से आग उगलता है, दूसरा उसके लिए हथियार बनकर जलाने का काम करता है। हरभगवान चावला की यह लघुकथा अपनी मारक क्षमता से सदैव याद रखी जाएगी। वोट की कलुषित राजनीति ने वर्ग विशेष के प्रति घृणा फैलाने के लिए 'मुँह की आग' का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया। आए दिन भारतीय संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने के लिए बयान बहादुर आग उगलते रहते हैं। देश के समभाव को नष्ट करके अस्मिता को लक्ष्य बनाया जा रहा है।

अन्ततः इस भेद-नीति और साम्प्रदायिक विद्वेष को कैसे दूर किया जा सकता है! इसका एकमात्र उपाय है-मत-मतान्तर से निरपेक्ष रहकर, मानवीय मूल्यों की स्थापना और सबके द्वारा उनका अनुपालन। इतना ही पर्याप्त नहीं, विद्वेष का विस्तार करने वाले संकीर्ण विचारधारा वाले तत्त्वों का प्रतिरोध भी आवश्यक है। न्याय-प्रणाली तक जन सामान्य की पहुँच होनी चाहिए। ऐसा न हो कि धनपशु और बाहुबलि अपनी विध्वंसकारी गतिविधियों और तिकड़मों से न्याय-व्यवस्था को पंगु बना दें।

मानवीय मूल्य ही वास्तविक धर्म है, इसे सुकेश साहनी ने अपनी प्रतीकात्मक लघुकथा 'मेढकों के बीच' में कुशलता से प्रतिपादित किया है। साहनी जी के ही शब्दों में-'अपनी सृजित लघुकथाओं में से किसी एक को रेखांकित करना बहुत मुश्किल है। यहाँ मैं अपनी प्रिय लघुकथा के रूप में' मेढकों के बीच'का चयन करना चाहूँगा। इसको अपनी पसंद की दूसरी लघुकथाओं की तुलना में आगे रखने के भी कई कारण हैं। इसके सर्जन के बाद मुझे बहुत संतुष्टि मिली थी, सृजनात्मक तृप्ति की अनुभूति हुई थी। इस रचना के समापन पर बहुत सोचना पड़ा था, लेकिन अंततः जो कहना चाह रहा था, वह सभी तरह के पाठकों तक पहुँच रहा था। यह लघुकथा सितम्बर 98 में कथादेश में प्रकाशित हुई थी यानी लगभग 23 वर्ष पहले। यह रचना कैसे लिखी गई, किस्सागोई का फॉर्मेट क्यों चुना, आदमी से मेढ़क से तब्दील होने का विचार क्योंकर आया; इसके पीछे की अलग कहानी है। इसको अपनी प्रिय लघुकथा के रूप में यहाँ उद्धृत करने पीछे यही भावना है कि आज इतने वर्षों के बाद इस रचना का महत्त्व और भी बढ़ गया है। आज देश में जगह-जगह जिस तरह की घटनाएँ घट रही हैं, उनके विरोध में पूरी तीव्रता के साथ हस्तक्षेप करती है ये लघुकथा।'

नाले में गिरी गाय को एक व्यक्ति ने बाहर निकाला। कुत्ता-बिल्ली गिर जाते, तो उन्हें भी निकाला जाता। जीव-दया ही इसके मूल में है।

"अब वे (मेढक) इस बहस में उलझे हुए थे कि गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।"

"फिर..."

"फिर क्या? उनका टरटराना आज भी जारी है।"

ये पंक्तियाँ साथ में यह सन्देश भी देती हैं कि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हाय-तौबा मचाते रहते हैं। इन्हें हतोत्साहित करने के लिए सकात्मक चिन्तन करने वालों को सकारात्मक कार्य करने के लिए आगे आना होगा।

गाँव अच्छे हैं या शहर अच्छे हैं, इस पर सबका अपना-अपना मत हो सकता है, अन्तर केवल सामंजस्य का है। दोनों की सुविधा-असुविधा हो सकती है। अब तो गाँव शहर की ओर भाग रहे हैं और शहर सोसायटी के फ़्लैट की संस्कृति के कारण गाँव तक विस्तार पाता जा रहा है। पारिवारिक प्रेम और संवेदना-नए सन्दर्भ में नया आकार लेते जा रहे हैं। आज गाँव में भी पहले जैसी चहल-पहल न होकर सन्नाटा है। जिनका परिवार जीविका और नौकरी के कारण शहर में चला गया, उनके गाँव के दरवाज़ों पर ताले लटके नज़र आएँगे। पहले जैसी आत्मीयता हवा हो चुकी है। लघुकथाओं में भी इन परिवर्तित परिस्थितियों को लघुकथाकारों ने अपने ढंग से सम्प्रेषित किया है।

ज्ञानदेव मुकेश की लघुकथा 'हाइटेक प्रेम' में अविवाहित बेटे के पास आए और सुबह-सुबह उठकर चाय पीने के आदी दयाल जी की मनःस्थिति का चित्रण किया है। उन्होंने ड्राइंग रूम में सोफे पर अलसाए बेटे से पूछा, "बेटा, रसोईघर में चाय-वाय का कोई इंतजाम है या नहीं?"

बेटे ने मुरझाए हुए स्वर में कहा, "पापा, मैं चाय कहाँ लेता हूँ?"

दयालजी बीते दिनों में खो गए कि वे किस प्रकार अपने पिता का ख्याल रखते। आजकल के बच्चों की अपनी ही अलग तरह की भटकाव-भरी दुनिया हैं। बेटे की उँगलियाँ मोबाइल के स्क्रीन पर व्यस्त थीं। कॉल बेल बजी, तो दयालजी ने दरवाजा खोला। लड़के ने हाथ का पैकेट दयाल जी की तरफ बढ़ा दिया। पैकिंग पर कुछ लिखा था, चायोज डॉट कॉम। दयालजी ने पूछा, "बेटा, यह क्या है?"

बेटे ने बताया कि यह चाय है। इसे ऑनलाइन बुक किया था। दयाल जी ने पैकिंग खोल उसमें कई पेपर कप भी। चाय से उनका मन प्रफुल्लित हो गया। दयाल जी के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव थे। उनके कुछ देर पहले के चिन्तन पर ब्रेक लगा कि उन्होंने जो सोचा, वह सही नहीं था। बेटे ने ही टिकट बुक कर उन्हें व्हाट्सएप किया था। कल रात बेटे ने ही घर बैठे उनके लिए एयरपोर्ट पर कैब भिजवाई। उन्होंने स्वीकार किया कि आज के बच्चे भी पूरा ख़्याल रखते हैं। बस, तरीका बदल गया है।

सीमा वर्मा की 'शहर अच्छे हैं' लघुकथा अपनेपन का एहसास दिलाती है। कॉलेज से लौटती लवीना एक परेशान बुजुर्ग को देखती है, भयंकर शीत लहर में भी, जिसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा रहा है। स्कूटी रोककर वह उनकी परेशानी पूछती है।

वे कुछ बोल नहीं पाए, तो दोबारा पूछती है, "दादू ...आप कहाँ रहते हैं और कहाँ जाना है आपको?"

पास की बेंच पर बिठा और बोतल से पानी पिलाकर पूछने पर पता चलता है कि दादू बेटे से मिलने शहर आए हैं और रास्ता भूल गए हैं? उसकी सहानुभूति-भरी आवाज सुन कुर्ते की जेब से परिचय पत्र निकालकर लवीना को देते हैं। उनका

बटुआ भी किसी ने मार लिया है। लवीना उन्हें खाना खिलाती है और आश्वस्त कर देती है कि इस शहर में वे असहाय या अकेले नहीं हैं।

अपनेपन के एहसास को रेखांकित करती सुभाष नीरव की लघुकथा 'शहर से दोस्ती' इससे अलग है। पिताजी को गाँव से दिल्ली आए महीनाभर होने को है। उन्होंने पोते रिंकू को सुबह स्कूल बस पर चढ़ाने और दोपहर को बस स्टैंड से लाने का काम, बाज़ार का काम स्वयं ही सँभाल लिया है। चाहे हज्जाम हो या गली के नुक्कड़ पर कपड़ों पर प्रेस करने वाली अधेड़ औरत या सब्जी बेचने वाली कमला, सर्दियों की गुनगुनी धूप सेंक रहे बूढ़े सबके परिचित और आत्मीय बन गए। यह कैसे हुआ, इसके लिए मोहन शाह का यह संवाद समझना पड़ेगा-"हाँ बेटा, अगर किसी शहर-कस्बे को अपना बनाना हो, तो पहले उससे दोस्ती गाँठनी पड़ती है, वहाँ के लोगों से दुआ-सलाम करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर वह अपनेपन का अहसास करवाता है।"

आत्मकेन्द्रित व्यक्ति हर जगह अकेला होता है, चाहे गाँव हो या शहर। अपनेपन के अहसास के लिए खुद भी दूसरों जुड़ना पड़ता है। समरसता का पथ अपनाना पड़ता है।

इसी सामाजिक समरसता के दर्शन हमें कमलेश भारतीय की लघुकथा मेरे अपने' में होते हैं। सामंजस्य और अपनत्व का अनुपालन करने वाला पराए शहर में भी अपनत्व का परिवेश सृजित कर देता है। बिटिया की शादी के शगुन के अवसर पर सगे सम्बन्धियों की प्रतीक्षा में आँखें द्वार पर लगी हैं। जल्दी न आने की सबकी अपनी-अपनी विवशताएँ उदासी बढ़ा रही हैं। कथा का यह अंश देखिए-

मैं उदास खड़ा था। इतने में ढोलक वाला आ गया। उसने ढोलक पर थाप दी। सारे पडोसी भागे चले आए और पण्डित जी को कहने लगे–और कितनी देर है? शुरू करो न शगुन!

पण्डित जी ने मेरी ओर देखा। मानो पूछ रहे हों कि क्या अपने लोग आ गए? मेरी आँखे खुशी से नम हो गईं। परदेस में यही तो मेरे अपने हैं। मैंने पण्डित जी से कहा-शुरू करो शगुन, मेरे अपने सब आ गए!

उदासी को दूर करने के लिए 'परदेस में यही तो मेरे अपने हैं।'

अर्चना राय की लघुकथा-'मेट्रो लाइफ' शहरी जीवन की ऊबाऊ, थकाऊ और पस्त करने वाली जीवन-शैली की विडम्बना को चित्रित करती है। आलीशान बहुमंजिला भवन में रहना, कार आदि की सुविधा, पति-पत्नी की अच्छी नौकरी और धनार्जन ही सब कुछ नहीं है। जीवन की ऊष्मा का दूर-दूर तक पता नहीं। पति-पत्नी के ये संवाद 'फीकी मुस्कान' और 'थकी हुई आवाज' के माध्यम से जीवन की ऊब का अनावरण कर देते हैं-

"हैलो डियर।"-एक दूसरे को देखकर फीकी मुस्कान के साथ पति ने कहा।

"हाय" -पत्नी ने भी थकी हुई आवाज में कहा।

दोनों ऑनलाइन खाना मँगाते हैं। फ्लैट में पहुँचकर थके ने पति टीवी ऑन किया। दोनों ने टीवी से नजरें हटाए बिना, जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म किया और अपनी-अपनी प्लेट्स धोकर रख दी। बिस्तर पर लेटे, मोबाइल, सोशल मीडिया की खबरे, व्हाट्सएप, इन्स्टा, फेसबुक पर प्रतिक्रिया दी। साथ ही अपने फेवरेट सिलेब्रिटी, स्पोर्ट्स प्लेयर, दोस्तों और रिश्तेदारों की जन्मदिन, पार्टी, वेकेशन आदि की आई पोस्टों पर आधी रात तक लाइक और कमेंट किए, नींद आई तो 'गुड नाइट डियर।'–कहकर दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ कर सो गए।

दोनों के पास आपस में आत्मीय बात करने के लिए न कोई समय है, न अवसर। संयुक्त परिवार का प्रत्यय बहुत पहले ध्वस्त हो गया। अब एकल परिवार भी आभासी दुनिया की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। धीरे-धीरे इस तरह के परिवारों का विघटन, सामाजिक अभिशाप बनता जा रहा है। दोनों का अपनी-अपनी प्लेट्स धोकर रखना मरती हुई संवेदना और अति आत्मकेन्द्रीयता का सूचक है। दोनों में आत्मीयता का इतना-सा सूत्र भी नहीं बचा कि एक दूसरे की प्लेट धो सकें। ' एक-दूसरे की तरफ पीठ कर सो जाना-दाम्पत्य जीवन की ऊष्मा के विलुप्त होने और सम्बन्धों के विघटन की इस त्रासदी को अर्चना राय ने कलात्मक कौशल से सजीव कर दिया है। भले ही कम लिखा जाए, सधा हुआ लेखन, रचनाकार की रचनाधर्मिता को अनुकरणीय बनाता है।

अभिव्यक्ति की औपचारिकता और संवेदना के निर्वासन से एक अलग तरह का संसार सृजित हुआ है। इस आभासी जगत् में एक नई भाषा और नए चिन्तन ने जन्म लिया और वह है, प्रदर्शनप्रियता। हृदय की नमी जब तिरोहित हो जाती है, तब एक असंवेद्य और कृत्रिम भाषा आकार लेती है। इस भाषा में वह सब आरोपित शब्दावली है, जिसका हमारी भावानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। अगर किसी आत्मीय के प्रति हृदय में समवेदना (किसी के सुख-दुःख के प्रति आत्मीय अनुभूति) है, तो उसको अभिव्यक्ति करने के लिए अनेक माध्यम हैं। अपरिचितों और अर्धपरिचितों के बीच ले जाकर अपनी असंवेद्य और कृत्रिम भाषा की हाँडी पटकना, आज का भाषायी फ़ैशन बन गया है। कल्पित छवि को गढ़ने का यह काम फ़ेसबुक पर बहुत हो रहा है। फ़ेसबुक का एक अच्छा माध्यम, जो हमारे बेहतर सर्जन और उसके आदान-प्रदान का माध्यम हो सकता था, उसे कुछ ने अपनी कुन्द प्रदर्शनप्रियता से विकृत ही किया है। इसकी क्रूर छाया डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण में देखी जा सकती है। पिताजी की बीमारी के बहाने दुआओं की ज़रूरत, बीमार पिताजी के अस्पताल में लेटे फोटो को फ़ेसबुक स्टेटस पर लगाना, अपनी सक्रियता और दयनीयता का प्रदर्शन, पिताजी के मरने पर संसार लुट जाने की शोक-संतप्त छवि, 51 पण्डितों को भोज कराने की आत्मश्लाघा की भूख कितनी दयनीय है!

दूसरी ओर पति के खाली बिस्तर को देखकर टूटती हुई, खाँस-खाँसकर दोहरी होती माँ है, जिसकी दवाइयाँ खत्म हो चुकी हैं। बेटे से गुहार लगाने पर जिसे झिड़क दिया जाता है-"बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है, अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो ला कर दूँगा।"

यही झिड़कने वाला श्रवणकुमार की विडम्बना देखिए कि वह फिर से फोन में व्यस्त हो गया। आभासी साथियों की सहानुभूति का दोहन करने के लिए नए स्टेटस पर ओढ़ी हुई भाषा में छद्म संवेदना का प्रदर्शन करने के लिए आतुर हो जाता है। स्टेटस पर लिखी यह टिप्पणी भाषा एव संवेदना के अवमूल्यन का सबसे क्रूर उदाहरण है-

'पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। मुझमें अब और खोने की शक्ति नहीं बची है।'

इसके पास माँ की दवाई लाने के लिए समय नहीं। पति की मृत्यु से बिखरी माँ के लिए केवल झिड़कियाँ ही बची हैं।

डिज़िटल क्रान्ति के इस युग में हमने बहुत कुछ पाया, लेकिन जो मानवीय संवेदना हमने खोई है, उसकी क्षति-पूर्त्ति कभी हो सकेगी, इसकी आशा करना व्यर्थ है।

क्रमश: