लघुकथा के विविध आयाम -एक ज़रूरी किताब / अंजू खरबंदा

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सहज पके सो मीठा होय जब तक कथ्य सहज रूप से परिपक्व नहीं होगा और शिल्प का अधिकतम परिमार्जन नहीं हुआ होगा, लघुकथा पाठक के हृदय पर विराजेगी कैसे? भेड़ियाधसान प्रवृत्ति से बचने की सलाह देते हुए लेखक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने अपनी बात स्पष्ट रूप से पाठकों के सामने रखी। विराम चिह्न और वर्तनी अशुद्धि पर उन्होंने कड़ाई से बताया ही नहीं; बल्कि चेताया भी।

हमें अपनी धरती माँ के प्रति सदा कृतज्ञ होना चाहिए, पर इससे मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग करते हुए हम इतने क्रूर हो जाते हैं कि कृतज्ञता व्यक्त करना तो दूर, इस बारे में सोचते भी नहीं; परंतु एक साहित्यकार इससे अछूता कैसे रह सकता है? लघुकथा के विभिन्न आयामों पर लेखक ने जीवन की सार्थकता के दो अनिवार्य सहयोगी घटकों पर बात की है-1- प्रकृति, 2- मानव। अनायास ही अंसार कंबरी की ये पंक्तियाँ आँखों के आगे तिर आईं-

धूप का जंगल नंगे पाँव एक बंजारा करता क्या

रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या!

विकास के नाम पर हम धरती माँ को कितना नुकसान पहुँचा रहे हैं, पर यह नुकसान क्या केवल धरती माँ का है, हमारा नहीं? लेखक ने धरती, वायु, समुद्र, नदी सभी के प्रति चिंता का भाव रखते हुए स्पष्ट संकेत दिया भूमिगत जल के निरंतर घटने और बढ़ते प्रदूषण का कारण एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा समाज है।

सुकेश साहनी जी की लघुकथा ‘उतार’ में गिरते हुए जलस्तर की बात की गई। यह लघुकथा डायरी शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। अमृततुल्य जल को भी जातियों और अमीर- गरीब में बाँट दिया गया है और अफसोस इस बात का है कि जल के साथ मन भी बँट गए हैं; उतार पर केवल जलस्तर ही नहीं, अपितु हृदय की संवेदनाएँ भी हैं।

लेखक ने सुकेश साहनी की दूसरी लघुकथा ‘विरासत’ के बारे में लिखा है कि 2060 की जो परिकल्पना इस लघुकथा में की गई है, वह लोमहर्षक है। दो बूँद जल को तरसते लोग मिलीलीटर में पानी की अहमियत समझेंगे और बूँद- बूँद को तरसेंगे।

लेखक ने पर्यावरण पर बात करते हुए कहा कि यह विषय भले ही हमारे पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बन गया है, पर व्यावहारिक रूप में जंगल दिन- प्रतिदिन घट रहे हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, अपितु अनेक देश जल की विभीषिका से जूझ रहे हैं। समुचित उपाय के अभाव में वर्षा ऋतु के कारण या तो बाढ़ आ जाती है या सूखा पड़ जाता है। हरभगवान चावला की लघुकथा ‘खून और पानी’ का हवाला देते हुए लेखक ने इस विषय पर गहन चिंता जताई है। अरुण अभिषेक की लघुकथा ‘आत्मघात’ पर बात करते हुए लेखक ने इसे विडंबना बताया कि जिसकी छाँव में बैठकर सुस्ताते हैं, उसी से ऊर्जा लेकर उसी पर टूट पड़ते हैं। कम शब्दों में रची गई यह लघुकथा चेताती है कि जिस तरह से हम पेड़ों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं, बिना यह सोचे कि हम आत्मघाती बन अपना ही नुकसान कर रहे हैं; अब न सँभले, तो फिर कभी नहीं सँभलेंगे। आनंद हर्षुल की लघुकथा ‘बच्चों की आँखें’ का हवाला देते हुए लेखक ने आज के बच्चों का मोबाइल फोन के प्रति मोह पर करारा तंज कसा है। बगीचे में बैठे बच्चे मोबाइल में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें पेड़- पौधे, तितलियाँ, चिड़िया कुछ दिखाई नहीं दे रहा! फूल दुखी है कि उनके लिए नहीं हैं बच्चों की आँखें! संसाधन हमारी जरूरत की आपूर्ति करने के बजाय बच्चों का बचपन ही डकार जाएँ, तो ऐसे संसाधन हमारे किस काम के?

यहाँ मुझे एक अद्भुत बात यह लगी कि लेखक ने 58 वर्ष पूर्व पढ़ी W H Davies की Leisure 1911 में लिखी कविता की ओर इंगित करते हुए कहा कि आज भी वही स्थिति है। हमारा स्वर्णिम समय निर्जीव साधनों ने छीन लिया है।

कमल कपूर की लघुकथा ‘सपनों के गुलमोहर’ उनके वृक्षों के प्रति प्रेम को दर्शाती लघुकथा है। इसमें लेखिका ने अपने गुलमोहर प्रेम को लघुकथा के माध्यम से जीवंत किया है। यहाँ लेखक ने बहुत सुंदर बात कही - प्रकृति का संरक्षण तभी संभव है जब मानव इसे जीवन का अनिवार्य और अपरिहार्य अंग मानकर अनुपालन करें।

धर्म पर अपने विचार रखते हुए लेखक कहते हैं- धर्म किसी मत- मतान्तर या मजहब का पर्याय नहीं है। यह सार्थक जीवन जीने की व्यावहारिक और सार्वभौम पद्धति है, जिसके मूल में हर प्राणी का हित निहित है। डॉ. कविता भट्ट की लघुकथा ‘कुलच्छन’ के बारे में लेखक ने कड़े शब्दों में पाखंड का विरोध दर्ज करते हुए कहा है कि आचार्य स्वयं तो पाखंडपूर्ण व ऐशोआराम का जीवन जीते हैं, दूसरी ओर भोली- भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं।

लेखक ने मनुस्मृति के एक श्लोक का सुंदर उदाहरण देते हुए समझाया है कि जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य का आचरण करने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से प्राणी की आत्मा तथा बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है; परंतु कुछ लोग केवल शारीरिक शुद्धि को ही स्वर्ग प्राप्ति तथा पुण्य प्राप्ति का साधन समझ बैठते हैं।

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘फटी चुन्नी’ पर बात रखनी बेहद जरूरी है। बुआ के घर आई सीमा के कौमार्य को खंडित करने वाला कोई और नहीं बल्कि फूफा ही है। बुआ के लाख पूछने पर भी वह अपनी उदासी का कारण नहीं बता पाई, ताकि बुआ का घर न टूटे। महिलाओं की शोचनीय स्थिति को यहाँ दर्शाया गया है।

भय और विवशता के जाल में उलझी स्त्री की मनोव्यथा पर लेखक ने गहन विचार समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है ‘प्यार में छल प्रपंच आज का सबसे बड़ा हथियार बन गया है। छद्म धार्मिकता का रूप धारण करके अपने निहित उद्देश्य के लिए निश्छल लड़कियों का ब्रेनवाश करके उनको प्रेम जाल में फँसाकर उनका शारीरिक व मानसिक शोषण किया जा रहा है। यहाँ महेश शर्मा की लघुकथा ‘लव जेहाद’ उल्लेखनीय है। मातृत्व का आत्मीय स्पर्श माँ और बच्चे दोनों के लिए आत्मीय शक्ति है। इस विषय पर रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘खूबसूरत’ की बात करना लाज़िमी है। स्त्री चाहे विश्व सुंदरी हो या कोई मॉडल! घर को घर बनाकर रखने वाली स्त्री ही सभी की चहेती कहलाती है। विजय की पत्नी को देख उसका दोस्त सोचता है कि वही विजय है जिस पर कॉलेज की लड़कियाँ मरती थीं। पर जब विजय से अपनी पत्नी का परिचय करवाते हुए गर्व से कहा ‘यह है मेरी पत्नी सविता’ तब विजय के दोस्त को एहसास हुआ कि यह दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला है।

यहाँ निर्देश निधि जी की लघुकथा ‘बेचारा’ पर जरूर बात करनी चाहिए। बच्चों को सुविधाओं से अधिक माँ के प्यार, कोमल एहसास की जरूरत अधिक होती है, जिसके बिना बच्चा उदास, अनमना, चिड़चिड़ा हो जाता है। लेखक ने स्पष्ट किया छोटे बच्चों के लिए खिलौनों का अंबार उसके कोमल हृदय की भूख नहीं मिटा सकता। ममता का संस्पर्श यदि तिरोहित हो जाए तो शिशु का मानसिक विकास प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। जल, नदी, पेड़- पौधे, समुद्र, पर्यावरण, आडंबर, धर्म, ममता सभी विषयों को इस पुस्तक में समेटा गया है। लेखक ने मोती चुनकर इस पुस्तक रूपी माला में पिरोए हैं जिससे यह पुस्तक अनमोल बन पड़ी है।

लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य एवं शिल्प): रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु’, पृष्ठः 165, मूल्यः 310, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशकः प्रवासी प्रेस पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड- भारत -0-