लघुकथा / कविता भट्ट / कविता भट्ट

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फिर से तैयारी

अंदर से ठहाकों की गूँज के साथ चाय-पकोड़े की खुशबू भी आ रही थी; जब एक शालीन, मेहनती और लगभग अधेड़ उम्र की महिला लम्बा इंटरव्यू देकर वातानुकूलित कक्ष से बाहर निकली।

वहीं बाहर बैठी एक युवती ने पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?"

डिग्रियों और पुस्तकों का भारी बैग सँभालते हुए बाहर निकलने वाली महिला बोली, 'शिक्षा।'

बाहर बैठी बनी-ठनी-सी युवती बोली, 'मैं व्यवस्था हूँ; यहीं नौकरी पाना चाहती हूँ। तुम्हारे पास तो इतना कुछ है। मेरे पास तो बस एक फोल्डर में दो-चार कागज ही हैं। देखती हूँ इस इंटरव्यू को दे आती हूँ।'

पूरे आत्मविश्वास और आँखों में चमक लेकर वह भीतर गई।

वह चंद मिनटों में ही बाहर आ गई।

दोनों घर को निकलने लगी, तो व्यवस्था बोली, “सुनो मैं बाज़ार में ही रहती हूँ और तुम? " शिक्षा बोली, 'मंदिर के पास।'

व्यवस्था अपनी महँगी कार में बैठने लगी, तो शिक्षा ने तरसी निगाहों से देखा। आँखें नचाते हुए व्यवस्था बोली, “आओ तुम्हें भी तुम्हारे घर छोड़ते हुए निकल जाऊँगी।”

शिक्षा बोली, “सॉरी बहिन, आदत नहीं महँगी कार की। पैदल ही चली जाऊँगी।”

व्यवस्था सर्र से कार से निकल गई। शिक्षा को बहुत देर बाद ऑटो मिला। हिचकोले खाते हुए घर पहुँची।

रात को शिक्षा ने मोबाइल खोला; पदों पर भर्ती की लिस्ट शिक्षण संस्थान की वेबसाइट पर डाल दी गई थी। व्यवस्था का नाम सबसे पहले था।

शिक्षा ने दो तीन बार चेक किया। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था; क्योंकि पूरा जीवन पढ़ते-लिखते हुए खपा दिया था उसने, मगर नौकरी की लिस्ट में उसका नाम कहीं नहीं था। वह चुपचाप पुरानी खाट पर बैठ गई। थोड़ी देर औंधे मुँह लेटकर वह फूट-फूटकर रोती रही।

शिक्षा भीतर से टूट चुकी थी; लेकिन थोड़ी देर बाद उसने उठकर ठंडे पानी से मुँह धोया और कॉपी-पेन लेकर फिर से तैयारी करने लगी। -0-

दुबरा तैयारी

भितर बिटि जोर-जोर करि हैंसणै आवाजै गुंजणि छै, हैंसण कि दगड़ चाय-पकौडौं क खुसबू बि औणि छै; जब एक घैक, मीनती अर करीब अधेड़ उमरै कि जननि लम्बू इंटरव्यू दीक ए-सी वळा कमरा बिटिक भैर निकळी।

उखिम भैर बैठिं एक ज्वान नौनी न पूछि, ' क्य नौं च त्यारू?'

डिग्रि अर किताबियों कु गरू बैग सँभाळदु भैर निकलण वाळि जननी न बोली, 'सिक्षा।'

भैर बैठिं बणी-ठणी-सी ज्वान नौनी न बोली, 'मि व्यवस्था छौं; इक्खि नौकरी पाण चाणू छौं। त्वी मु त इतगा कुछ च। मी मु त बस एक फोल्डर म द्वी-चार कागज इ छन। देखदु छौं ये इंटरव्यू तैं दि आन्दु।'

पूरा आत्मविस्वास अर आँखियों म चमक ल्हेक वह भीतर ग्याई।

वा द्वी चार मिनट माँ ई भैर ऐ ग्याई।

द्वी घौरौ थैं निकलण लगी गेन, त व्यवस्था न बोली, ' सूंण मि बज़ार म इ रैंदु अर तु? " सिक्षा बोली, 'मंदिर क नजीक।'

व्यवस्था अपड़ी मैंगी कार म बैठण लगी, त सिक्षा न तरसी आंख्यों न देखि। आँखौं नचैक व्यवस्था न बोली, 'औ त्वै थैं बि तेरा घौर छोडिक निकली जौलु।'

सिक्षा न बोली, 'सॉरी भुली, आदत नी च मैंगी कारै की। पैदल इ चली जौलु।' व्यवस्था सर्र करिक कार माँ निकळि गे। सिक्षा थैं भौत देर बाद ऑटो मिली। भौत हिली डुली क वा घौर पौंछि।

रातू थैं सिक्षा न मुबैल खोलि; पदु पर भर्ती की लिस्ट शिक्षण संस्थानै कि वेबसाइट पर डलै गे छै। व्यवस्था कु नौं सबसे पैलि छौ।

सिक्षा न द्वी तीन बार चेक करी। वीं थैं अपड़ी आँखों पर विश्वास नी होणु छौ; किलैकि पूरू जीवन पढ़दु-लिखदु खपै यालि छौ वीं न, मगर नौकरी की लिस्ट म वीं कु नौं कखि नि छौ। वा चुपचाप पुराणी खाट पर बैठ गे। थोड़ी देर उल्टा पोड़ी गे अर जोर-जोर करिक रूणी रै।

सिक्षा भितर बिटि टूटी गे छै; लेकिन थोड़ी देर म वीं न उठिक ठंडा पाणी न मुक ध्वे अर कॉफी-पेन लीक दुबरा तैयारी कन्न लगी गे।

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