लड़खड़ाते देश का एक और हाइवे / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
लड़खड़ाते देश का एक और हाइवे
प्रकाशन तिथि :19 सितम्बर 2015


उमेश विनायक कुलकर्णी महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सक्रिय सामंतवादी शक्तियों के अत्याचार पर मराठी भाषा में फिल्में बनाते हुए, अब पुणे-मुंबई हाइवे पर फिल्म प्रदर्शित कर चुके हैं। इस फिल्मकार की छवियों का निर्माण ही भाषा के परे जाकर बहुत कुछ कहता है। मसलन, इस फिल्म में उनका एक पात्र झोपड़पट्‌टी से निकलकर बाहर सड़क पर आता है और झोपड़पटि्टयों की अनगिनत कतारों की पृष्ठभूमि में गगनचुंबी बहुमंजिला इमारत खड़ी है मानो धरती से हजार आंखों वाला दैत्य खड़ा है।

भारत में अमीर और गरीब के बीच की गहरी खाई के कारण ही यह विसंगतियों और विरोधाभासों का देश बन गया है। गरीबों के आंगन में उगे गगनचुंबी भवन या इन भवनों की नींव ने शोषित लोगों के खून से सने पत्थरों की जबानी सभ्यता के इस व्यंग्य को साहित्य, सिनेमा और सारे कला माध्यम में खूब अभिव्यक्त किया जा रहा है परंतु सत्तासीन लोगों को पता ही नहीं है कि वे स्वयं के रचे ज्वालामुखी पर बैठे हैं मानो बारूद के कारखानों की पहरेदार माचिस है।

पेटलावद शहर के मध्य के धमाकों की जांच का स्वांग जारी है। नटसम्राट दूर बैठा सारा तमाशा देख रहा है और नए तमाशे के आकल्पन में व्यस्त है। कोई आश्चर्य नहीं िक हिंदुस्तानी भाषा में इम्तियाज अली की आलिया भट्‌ट अभिनीत हाइवे भी राष्ट्रीय मुख्यमार्ग के एक सिरे पर दिल्ली के नवधनाढ्य परिवार की बचपन से उस रिश्तेदार द्वारा यौन शोषित कन्या, जिसके राजनीतिक प्रभाव पर परिवार की समृद्धि का भवन खड़ा है, खड़ी है तो दूसरे सिरे पर ग्रामीण शोषण से विद्रोह करने वाला अपहर्ता खड़ा है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि फिल्मकार उमेश विनायक कुलकर्णी और इम्तियाज अली के सामाजिक दुख समान है और अपनी-अपनी भाषाओं में भारत ही प्रस्तुत कर रहे हैं। इन फिल्मकारों की तरह इनसे बहुत पहले कुमार अंबुज, जोशी, ज्ञानरंजन और विष्णु खरे की चिंताएं भी समान-सी हैं परंतु गौरतलब और अत्यंत चिंतनीय तथ्य यह है कि इन सबकी रचनाओं से सत्ता में बैठे लोग डरते नहीं हैं और वे केवल अपने सरकारी तमाशानुमा उत्सवों से इन्हें दूर रखकर खुश हैं, जबकि तमाशे में नहीं शामिल इन लोगों की इस भीतरी खुशी का उन्हें अंदाजा नहीं है कि वे बचे हुए हैं।

यह बात अलग है कि कौन, कैसे, कब तक बचा रहेगा। ध्वस्त की जा रही महान संस्थाओं और इतिहास को फिर से लिखे जाने के इस कालखंड में किसी मनुष्य के बचे रहने का भी कोई अर्थ नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार को खत्म करने की चेष्टा पहली या आखिरी बार नहीं हो रही है। यह शाश्वत युद्ध है। जिस अदालती जूरी बैंच पर बैठे महान न्यायविदों ने सुकरात की मृत्यु का आदेश देकर अपनी कॉर्पोरेट कीमती पेनों की नीबें तोड़ दी थीं, वे सब विस्मृत हो गए परंतु सुकरात आज भी पढ़े व पढ़ाए जा रहे हैं। क्या नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया को कोई खारिज कर पाएगा। आप महज उसकी तस्वीर हटा सकते हैं और खाली फ्रेम का दर्द, शब्दों के बीच छुपे अर्थ अनअभिव्यक्त विचार और असहाय लोगों के गले में ही दफ्न आहों को अनदेखा करने वाले स्वयं निर्मित स्वर्ग में सुख भोग रहे हैं।

अनेक दशक पूर्व अमेरिका में एक विज्ञापन फिल्म में चतुराई से हर पांचवीं फ्रेम में मौजूद नग्न छवि कभी सिनेमा के परदे पर नहीं उभरती थी परंतु वह दर्शक के अवचेतन तक पहुंच जाती थी। उस विज्ञापन को अपने प्रभाव के कारण प्रतिबंधित किया गया था। ""यह 'पांचवीं फ्रेम' आज भी अभिव्यक्ति के हर माध्यम में मौजूद है और अवाम के अवचेतन में दर्ज होती है। अत: किसी सृजनधर्मी को दुष्यंत कुमार के दुख से जूझने की आवश्यकता नहीं। 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए।' वह असर पांचवीं फ्रेम है""