लड़ मत लड़की / गार्गी

Gadya Kosh से
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दिन भर धमाचौकड़ी मची रहती है इस घर में। सोचेंगे आप कि ज़रूर बच्चों वाला घर होगा तभी हल्ला-गुल्ला रहता होगा हरवक्त। नहीं जी! बच्चे कहाँ हैं यहाँ? तीन जनों के परीवार में एक बाबा-दादी की जोड़ी है। रब्ब भला करे, बुढ़ापे में भी दोनों अपनी गुटरगूं में मस्त रहते हैं। हल्ले-गुल्ले की वजह है टिन्नी।

-अभी प्लस टू पास किया है, डिस्टिंक्शन मिला है कुड़ी को- बीजी यानी दादी हंस-हंस के बताती है आने-जाने वालों को। बाहर वालों के सामने टिन्नी की बात करके जितनी फूल कर कुप्पा होती हैं बीजी उतना ही एकान्त पाते ही उसे फटकारने लगती हैं।

-टिन्नी चुप कर, क्या पटर-पटर बोलती है सारा दिन! दूसरे घर जाना है।

-टिन्नी धीरे चल, क्या ऊंटनी की तरह भागती है सारा दिन! दूसरे घर जाना है।

-टिन्नी, धीरे हंस!

-टिन्नी, ढंग से उठ!

-टिन्नी, ढंग से बैठ!

इसके साथ एक जुमला हमेशा जोड़ती हैं बीजी- सास कहेगी कुछ नहीं सिखाया मां ने।

दादी सेर है तो पोती टिन्नी पूरी सवा सेर है तोल में। जितनी बार दादी टोकती है उतनी ही बार पोती मुँहजोरी करके दादी को खिजाती है। बीजी की बात बीच में ही पकड़ के मुँहजोर टिन्नी उनकी आवाज़ की हूबहू नकल करके कहती है- सास कहेगी कुछ नहीं सिखाया दादी ने।

दादी-पोती की हँसी-ठठ्ठे के बीच चलती नोंक-झोंक कभी गर्माने भी लगती है। क्योंकि कई बार गुस्सा खा जाती हैं बीजी। हाई-ब्लड प्रैशर रहता है न बीजी को इसलिये। ऐसे में मौके की नज़ाकत भांप कर टिन्नी बीजी के उफनते गुस्से को अपनी दुधमँही हँसी का छींटा दे देती है। बीजी की गोदी में मुँह छिपा कर कह देती है- मुझे कहीं नहीं जाना है बीजी! यहीं रहना है आपके पास।

दादी-पोती की नोंक-झोंक पर कभी खिलखिला उठते हैं दादाजी तो कभी कलेजा थाम भी लेते हैं। खटाखट उम्र की सीढियां चढती युवा पोती एक दिन उन्हें अकेला छोड़ दूर चली जायेगी, यह अहसास ही उन्हें रूआंसा कर देता है। इसीलिये वे दादी-पोती के वार्तालाप को ‘किच-किच’ कह कर यथासम्भव तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं। एक कान से सुनते हैं, दूसरे कान से निकाल देते हैं।

पर एक दिन जब दादी-पोती की मुँह फुटौवल हद से गुज़र गई तो तंग आकर दादाजी अपनी पोपले मुँह वाली परम-प्रिय पत्नी की ‘हां में हां’ मिला कर बोले- टिन्नी, दादी ठीक कहती है पुत्तर! तू कुड़ी है। कुड़ियों को अपने मां-बाप का घर छोड़ना ही पड़ता है। दुनिया की रीत है पुत्तर! कुड़ियां पराये घर बसती हैं।

टिन्नी को दादाजी की दखलअंदाजी नहीं भायी। कुछ-कुछ मुँह फुला कर, कुछ-कुछ अकड़ कर बोली- मैं पराये घर नहीं जाऊंगी दादाजी! मैं अपना घर खुद बनाऊंगी- सुंदर सा, प्यारा सा। मैं खूब पैसा कमाऊंगी।

दादाजी की पेशानी पर बल पड़ गये कुड़ी की ‘मैं’ देख कर। गले को थोड़ा सख्ती देकर बोले- कुड़ियों को इतना गरूर शोभा नहीं देता, दूसरे घर जाना है।

-किस बात का गरूर किया है मैंने? दादाजी टिन्नी तपाक से बोली।

दादा-पोती में ठनती देख बीजी घबरा गईं। पहले भी कई बार दादा-पोती में ऐसे झड़प हो जाती है। पर वे मसले छोटे होते हैं। जैसे पोती की नयी डैस की मांग, कभी सहेलियों के साथ पिक्चर देखने की बात या फिर ज्यादा पाकेटमनी मांगने पर उठी बात। पर ऐसे नाज़ुक मसले पर बहस पहली बार ही हुई थी। इसीलिये बीच-बचाव करती हुई बोली- तू भी टिन्नी कमाल करती है बच्ची! औरत का कौन सा घर है? बता तो जरा! किसी घर के सामने औरत के अपने नाम की टंगी तख्ती कभी देखी है तूने? मायका बाप-भाई का होता है और ससुराल पति का। दोनों ठिकाने हैं औरत के। घर तो मर्द का होता है। मर्द के घर को संभालती है औरत मायके में बहन-बेटी बन कर और ससुराल में पत्नी और मां बन कर। दुनियादारी की कैमिस्टी की नयी किताब खुल रही थी टिन्नी के सामने। दादी पढ़ा रही थी पन्नें पलट-पलट के।

-टिन्नी पुत्तर! औरत को मायके और ससुराल दोनों जगह कायदे से रहना पड़ता है। दोनों जगह की पाबंदियां निभानी पड़ती हैं उसे। उस पर निगहबानी दोनों जगह रहती हैं- मायके में बाप-भाई की और ससुराल में पति की।

टिन्नी सोच में डूबी गुमसुम सी खड़ी थी। बीजी ने सोचा कि बात को समझ रही है लड़की। इसीलिये बात को आगे बढ़ाते हुये बोली- जरा सी गुमराह हुई तो ठिकाना छिन जाता है औरत का। बहन-बेटी गुमराह हुई तो बाप के घर का दरवाजा बंद हो जाता है और पत्नी गुमराह हुई तो पति घर से निकाल देता है।

-गुमराह होने का मतलब बीजी? गुमसुम सी टिन्नी ने पूछा।

-कायदा तोड़ना, पाबंदी न मानना गुमराह होना कहलाता है मेरी बच्ची! पोती का भोलापन देख दादी का जी भर आया। उन्होंने जवानी की दहलीज के करीब खड़ी पोती को जैसे जमाने भर की तपिश से बचाते हुये कलेजे से लगा लिया। पर पोती को दादी का ममत्व से भीगा स्पर्श भिगो नहीं पाया। औरत के घर को, औरत के अस्तित्व को नकारती दुनिया की रीत उसे नहीं भायी। तमक के बोली- कायदे और पाबंदी में फर्क होता है बीजी! कायदा निभाना सभ्यता है और पाबंदी निभाना मजबूरी! मजबूरी को मजबूर निभाता है। मैं नहीं मानती किसी मजबूरी को। मैं जिस घर में रहूँगी उस का कायदा शौक से निभाऊंगी, लेकिन पाबंदी नहीं सहूँगी।

दादाजी को पोती के तेवर चुभ गये। लड़की की जात का यूँ बोलना, बोलना क्या अधिकार भाव से अपनी सीमा खुद तय करना उन्हें अखर गया। औरत के लिये सदियों पहले पुरखों ने लक्ष्मण-रेखा तय की थी। तब से लेकर आज तक हमेशा उस रेखा का मान रखा है उनकी मां ने, बहनों ने, दादी ने, नानी ने, पड़दादी-पड़नानी सभी ने। किसी ने हिम्मत नहीं की कभी उस रेखा पर कोई सवाल उठाने की और ये कल की छोकरी उसे नकारने पर आमादा हो गई। इसकी इतनी ज़ुरर्त!

दादाजी का खून खौलने लगा। आपा खो उन्होंने पोती पर हाथ उठा दिया। जीवन में पहली बार पड़े दादाजी के तमाचे ने टिन्नी को अवसन्न कर दिया था। वह सचेत होकर कुछ कहती और बात खतरनाक मोड़ लेती इससे पहले ही दादी ने पूरी समझदारी से पति के सामने हाथ जोड़ कर शांत होने की गुहार की और तमतमाये, लाल-सुर्ख चेहरे वाली नादान टिन्नी को खींच कर कमरे में बंद कर दिया।

वह दिन कट गया पर न तो टिन्नी झुकी, न दादाजी। दोनों के बीच पसरा तनाव भी नहीं हटा। उन दोनों के बीच बातचीत बिलकुल बंद थी। बस अकेली बीजी ही थीं जो दोनों के बीच पुल बन कर दोनों के शब्दों के पहियों को यथाशक्ति धकेल आर-पार पहुँचा रही थीं। बीजी ने गुमराह हुई पोती को समझा कर सीधी राह पर लाने की पूरी ज़िम्मेदारी ली तभी पूरे दो दिन बाद थाली छुई थी दादाजी ने।

बीजी पहल करके बात शुरू करती। कभी पुचकार के तो कभी फटकार के टिन्नी को समझाती। पर जब भी वे किसी कहानी, किसी आसपड़ोस की घटना या फिर अखबार की किसी हैडलाइन के माध्यम से टिन्नी को सती-साध्वी, सुशीला स्त्री के सदगुणों से परिचित करवाने की कोशिश करतीं तभी टिन्नी अपने धारदार तर्क से उन्हें काट के रख देती। ऐसे में हताश बीजी ज़माने की हवा को कोसती थीं। कहतीं- हाय रब्बा! अज दी कुड़ियां (आजकल की लड़कियां) या फिर- हाय रब्बा! अग लग्गे नये जमाने नूँ! (आग लगे नये जमाने को) ऐसा ही एक प्रसंग चल रहा था जब टिन्नी ने पूछा- पहले के जमाने को क्या सुर्खाब के पर लगे थे बीजी?

-हाँ लगे थे पुत्तर! बीजी ने पल्लू को शालीनता से ओढ़ते हुये कहा- जमाना था वो पुत्तर, बड़ों के अदब का, छोटों के लिहाज का। बहुओं के ढके सिरों और झुकी आँखों से बहू-बेटी के फर्क का पता राह चलते भी लग जाता था। अब मुआ रह क्या गया? न कुड़ी का पता चले न मुंडे(लड़के)का। सड़क पे चलती कई बार मैं तो हैरान हो जाती हूँ देख के।

टिन्नी हँसते-हँसते लोटपोट हो गई। बीजी की भावभंगिमाओं को दोहरा कर और हँसती कि बीजी ने टोक दिया- बस कर कुड़िये! भले घर की बहू-बेटियां यूँ नहीं हँसती मुँह खोल के।

हँसती-खिलखिलाती टिन्नी कलफ लगी चुन्नी सी अकड़ गई- तो क्या करती हैं भले घर की बहू-बेटियां? दिन-भर कोसती हैं अपने-आप को? आप की तरह! बुआ की तरह! हाय जनानी की जून रब्ब बैरी को न दे।

बुआ की बात करके दादी की दुखती रग छू दी थी टिन्नी ने। दादी की लाडली, इकलौती बेटी कच्ची उम्र में ब्याही गयी थी। होश आते तीन बच्चियों की मां बन चुकी थी। चौबीस की थी कि विधवा हो गयी। बात पुरानी है पर टिन्नी को याद है यूँ की यूँ। ससुराल के भरे-पूरे परिवार की तीमारदारी करने के बाद भी अपने विधवापन और सिर्फ लड़कियां पैदा करने के कारण दुत्कार का बोझ ढ़ोती, तन-मन से बीमार बुआ दिन-रात खुद को कोसती थी।

उन दिनों बीजी अपनी बेबसी पर दिन-रात रोया करती थीं। बेटी का सहारा नहीं बन सकती थीं औरत थीं न। खुद ही मोहताज! इसीलिये जब बुआ के मरने की खबर आई तो दादी ने रोते हुये भी शुक्र करते हुये कहा था- रब्ब जनानी की जून बैरी को भी न दे (भगवान दुश्मन को भी औरत न बनाये)

दादी को गुमसुम देख टिन्नी पिघल गई। माहौल बदलने के लिये उसने टी.वी. चला दिया। टी.वी. पर सेनीटरी नैपकिन का एड चल रहा था। इस एड से चिढ़ती हैं बीजी। इसे बेशर्मी कह कर शर्म से मुँह छिपा लेती हैं। दादा जी भी बहाने से उठ कर इधर-उधर हो जाते हैं।

पर टिन्नी को बहुत पसंद है यह एड। कितना ‘काँफीडैंस’ है लड़की के चेहरे पर। अपने ‘वुमैनहुड’ पर नाज़ है उसे। वह आज के ज़माने की लड़की है। प्रकृति ने कोमलता दी है स्त्री को। प्रकृति ने कुछ शारीरिक दुर्बलतायें भी दी हैं जिन्हें हंस कर स्वीकारा है उसने। उन दुर्बलताओं को अपनी कमियां मान कर अपने-आप को दुत्कारती नहीं है आज की एड वाली लड़की। शान से कहती है- आई एम प्राउड आफ माइसैल्फ! आई एम ए वुमैन! मैं आधार हूँ सृष्टि का! मुझे अपने पर नाज़ है! आई लव माइसैल्फ!

टिन्नी ने बीजी को चिढ़ाने के लिये टी.वी. की आवाज़ तेज़ कर दी और ‘एड’ वाली लड़की की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिला कर कहने लगी- आई एम ऐ वुमैन! आई लव माईसैल्फ!

बीजी को चिढ़ाती टिन्नी ने बड़े फख्र से आँखें मटकाते हुये दोहराया- मैं औरत हूँ! मुझे अपने पर नाज़ है! मैं आधार हूँ सृष्टि का! मुझे अपने से प्यार है-प्यार है!

टिन्नी की हिमाकत पर दादाजी सुलग गये। लाहौर में होते तो चार टुकड़े करके फेंक देते बेशर्म के। लेकिन यहां हिंदुस्तान में हैं न इसलिये हाथ बेबस हो गये कानून के डर से। बेबसी से होंठ काट दादाजी ने बेशर्म, बेगैरत, गुमराह हुई लड़की को काटने को तैयार गंडासा जुबान को थमा दिया। हिकारत से गरजे- ठीक कह गये पुरखे! औरतज़ात को पैर के नीचे रखो तो ही ठीक रहती है। ज़रा ढील दे दो तो सिर पे चढती है नामुराद जनानी! गंद है निरा गंद! गूँ की ढेरी!

-कौन गंद है दादाजी? औरत! टिन्नी शेरनी सी दहाड़ी।

-मल-मूत्र की गंदगी तो औरत-मर्द दोनों में है। अगर आपका इशारा किसी तीसरी गंदगी की तरफ है तो मैं आज बता दूँ आपको! औरत के शरीर की गंदगी इकट्ठी होती है नौ महीने तक तो शरीर बनता है बच्चे का। यदि औरत गंदगी है तो बच्चा गंदगी का ढेर है। आप भी बच्चा बन कर ही मां के पेट से पैदा हुये हैं। तो आप क्या हुये? गंदगी के ढेर! यू आर मेड आँफ दैट गंदगी दादाजी!

टिन्नी की कड़कती आवाज़ बिजली बन कर दादाजी के शरीर में सिर से पैर तक कई बार घूम गई। करंट खाये दादाजी सनाका खा गये। उस दिन से चुपचाप हैं बिल्कुल। शायद मन ही मन अपनी जात की जड़ के अन्वेषण में लगे हों। बीजी हैरान हैं टिन्नी की साफगोई पर। अलमस्त टिन्नी सतर्क है, एकदम सावधान। देखें कौन उसकी जात को धिक्कारने की हिम्मत करता है अब!

आप क्या सोच रहें हैं?

पंगा लेंगे क्या?