लता का गीत जो लता ने नहीं गाया / जयप्रकाश चौकसे

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लता का गीत जो लता ने नहीं गाया
प्रकाशन तिथि : 19 फरवरी 2014


आज जावेद अख्तर सलीम साहब के घर आये थे और फिल्म संगीत में नए कॉपीराइट एक्ट के कारण आए परिवर्तन की बातचीत हो रही थी। एक संगीत कम्पनी अब अपनी शर्तों पर ही फिल्म संगीत खरीदती है और नए कानून द्वारा गायक, गीतकार व संगीतकार को दिए अधिकारों से बचने की गली का प्रयोग करती है। हमारे यहां कितने भी सख्त कानून बने, जाने कैसे विद्वान विशेषज्ञ पतली गलियां खोज लेते हैं। गौरतलब है कि जब सलीम-जावेद की 'जंजीर' का दूसरा संस्करण बन रहा था, तब अपने अधिकार के लिए दोनों ने एक होकर कानूनी लड़ाई लड़ी और तीस वर्ष पूर्व हुए अलगाव की दीवार पारकर वे एक दूसरे से अनेक बार मिले, अदालत में और अदालत के बाहर भी। दोनों को ही अपने मन की अदालत में भी जाना चाहिए। अब संगीत अधिकार का संकट भी उनके बीच मुलाकातों का दौर जारी कर रहा है और यह सब उस समय हो रहा है जब उनकी शैली में बनी 'गुंडे' सफलता से दिखाई जा रही है परंतु इन बातों का यह अर्थ नहीं कि सलीम और जावेद पुन: एक साथ मिलकर पटकथाएं लिखेंगे। कुछ टूटना ऐसा होता है जिसे कोई फेविकोल नहीं जोड़ सकता परंतु दो शिक्षित और संस्कारवान बिना पहले की तरह मित्र हुए भी सामान्य सद्व्यवहार कर सकते हैं और किसी एक समान आदर्श के लिए कंधे से कंधा मिलाकर लड़ सकते है तथा शत्रु का शत्रु हमारा मित्र है इस जहालत से बच सकते हैं।

सलमान खान ने सुझाव दिया कि सारे प्रमुख सितारे मिलकर एक नई कम्पनी को संगीत अधिकार दें जिसमें वे भागीदार भी बनें तो निर्भय एकाधिकार से लड़ सकते हैं। दरअसल आजकल हर क्षेत्र में माथा देखकर तिलक लगाया जाता है।

इन बातों के सिलसिले में यह बात सामने आई कि ध्वनि अंकन की टेक्नोलॉजी अब इतना विकास कर चुकी है कि आज किसी आवाज में रिकॉर्ड किए गए गीत को किशोर कुमार या मोहम्मद रफी का गाया हुआ भी बनाया जा सकता है। स्वर्गवासी गायकों के गीतों से कुछ अक्षरों और सुरों को चुनकर नए गीत की जगह रखा जा सकता है परंतु इस प्रक्रिया में लंबा समय लगता है। साजिद नाडियादवाला अपनी सलमान खान अभिनीत 'किक' में ऐसा ही प्रयास कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि 'मुगले आजम' को रंगीन बनाने में जितना धन और समय लगा उससे कम समय और कम धन में 'नया दौर' और 'हमदोनों' के रंगीन संस्करण बन गए थे। टेक्नोलॉजी का हर आविष्कार प्रारंभ में महंगा होता है और समय गुजरने पर सस्ता होता जाता है।

गौरतलब यह है कि टेक्नोलॉजी द्वारा ध्वनि के इस जगह बदलने पर क्या उस गायक के हिस्से की रॉयल्टी उसे मिलेगी। मसलन लता मंगेशकर के गाए गीतों के अंशों को चुनकर एक ऐसा नया गाना बनाया जा सकता है जिसे लता जी ने कभी गाया ही नहीं तब भी उन्हें रॉयल्टी से वंचित नहीं किया जा सकता। वे अपने मानदेय की अधिकारिणी है। टेक्नोलॉजी बहुत कुछ कर सकती है वह सीमातीत है परंतु मौलिकता का सृजन तो नहीं कर सकती। सच तो यह है कि सृजन केवल मनुष्य का अधिकार है। वैज्ञानिकों द्वारा गढ़ा गया एक रोबो सब कुछ कर सकता है परंतु प्रेम नहीं कर सकता, मनुष्य की तरह कविता नहीं कर सकता। मानवीय करुणा एवं संवेदना किसी प्रयोगशाला में नहीं रची जा सकती परंतु बाजार और विज्ञापन से संचालित संसार में संवेदनाविहीन, भावनाशून्य मनुष्य हो सकते हैं और इसी भयावह समय का अनुमान अलबर्ट कामों ने करके 'आउटसाइडर' के नायक की रचना की थी जिससे प्रेरित समरेश बसु ने 'विविर' की रचना की थी।

भारत में ध्वनि को दिव्य मानते हैं और ध्वनि का अनिश्वर होना जर्मन वैज्ञानिकों ने कुरुक्षेत्रों में हजारों वर्ष पूर्व लड़े युद्ध की ध्वनि को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया। दरअसल यह लोकप्रिय भ्रम है कि विज्ञान और धर्म में द्वन्द है। दोनों ही सत्य खोज रहे हैं, एक प्रयोगशाला में दूसरा आस्था में। जिस दिन विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी जीवन-मृत्यु के सारे रहस्य उजागर कर देगा, वह नया धर्म बन जाएगा। कूपमंडूक लोगों ने कभी तर्कसम्मत, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आख्यानों की व्याख्या नहीं करने दी और विचार क्षेत्र में धुंध को छाने दिया। विज्ञान परत दर परत सारे परदे हटा रहा है गोयाकि कबीर के पद की व्याख्या कर रहा है 'घूंघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे, झूठ मत बोल तोहे पिया मिलेंगे'। ईश्वर सत्य है, से परदे की आवश्यकता नहीं परंतु हम तो परदों को ही पूजते रहते हैं।