ललमुनिया मक्खी / उमा शंकर चौधरी

Gadya Kosh से
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जैसा कि शीर्षक से भी स्पष्ट है, मैं एकदम शरूआत में ही बता दे रहा हूँ कि यह एक मक्खी की कहानी है। मक्खी की कहानी! सुनकर आप एकदम से चैंक गए होंगे। हिन्दी साहित्य में आपने लघु मानव और आम आदमी की बातें बहुत सुनी होंगी और सुनी क्या होंगी, हमारे प्रगतिशील लेखकों ने तो बजाप्ता इस पर पूरा का पूरा आन्दोलन ही खड़ा कर दिया है। लेकिन हिन्दी साहित्य में पहली बार किसी कहानी का नायक या नायिका एक मक्खी है। लेकिन मैं इसमें यह भी बता दूं कि इस कहानी में आदमी भी हंै। मतलब यह आदमी की भी कहानी है। लेकिन पहले यह एक मक्खी की कहानी है। या इसे ठीक-ठीक यह कह लें कि यह आदमी की ज़िन्दगी में मक्खी की कहानी है। कहानी तीन खण्डों में बंटी हुई है पहले खण्ड में मक्खी की कहानी है, दूसरे खण्ड में आदमी की कहानी है और तीसरे खण्ड में आदमी और मक्खी की कहानी है।

इस कहानी में मैं अब सीधे उस मक्खी पर आऊँ उससे पहले मैं जीवविज्ञान से मक्खी के जन्म और मृत्यु के बारे में थोड़ी-सी जानकारी यहाँ दे-दे रहा हूँ। यूं आपने सब छठी-सातवीं की किताब में इसे पढ़ा ही होगा, बस इसे पुनरावृति ही समझिए। मक्खी का जन्म नर और मादा मक्खी के बीच निषेचन से होता है। मादा मक्खी अण्डे देती है फिर उस अण्डे से लारवा फिर प्यूपा और फिर मक्खी। एक मक्खी की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा तीन से चार महीने की होती है। मादा मक्खी अपने पूरे जीवन में लगभग एक हजार अण्डे दे देती है। एक हजार अण्डे मतलब एक हजार बच्चे भी। मक्खियों में अभी तक नसबन्दी का चलन नहीं चला है। बच्चा जन्म के सात आठ घंटे बाद ही उड़ने लग जाता है। जानकारी बस इतनी ही, बाद बाकी थोड़ा-बहुत कहानी के बीच में ही आता रहेगा।

कहानी का यह पहला खण्ड

उस छोटी-सी मक्खी का नाम था ललमुनिया। नाम बड़ा प्यारा था। उसे उसकी माँ प्यार से लाली कहती थी। जैसे यह कि लाली बेटा यहाँ शोर मत मचाओ बाहर जाकर अपनी सहेलियों के साथ घूमकर आओ। लाली बेटा उड़ते वक्त पंख को ज़्यादा ऊपर-नीचे मत हिलाया करो जल्दी थक जाओगे बिल्कुल सीध में बगैर पंख को हिलाए उड़ने की प्रैक्टिस किया करो। लाली बेटा अपने छहांे टांगों के नाखुन हमेशा काटते रहा करो, नहीं तो ज़मीन पर पैर रखने में बैलेंस नहीं बनने का खतरा रहता है। लाली बेटा उधर कम ही जाया करो जिधर ज़्यादा चमक दमक हो या फिर उधर जिधर लोग ज़्यादा हंस रहे हों।

इस चमक दमक से ललमुनिया कि माँ बहुत डरा करती थी। कारण भी था।

ललमुनिया कहाँ की निवासी थी इस सवाल का जवाब तो यह है कि उत्तर प्रदेश के किसी छोटे से गाँव में ही उसका पूरा खानदान रहता था लेकिन ललमुनिया का जन्म दिल्ली में हुआ था। दिल्ली यानी देश की राजधानी में और जिसका कि ललमुनियाँ को गर्व भी था। ललमुनिया कि माँ अपनी जिद के कारण दिल्ली आई थी और यही कारण था कि ललमुनिया का जन्म दिल्ली में हुआ।

ललमुनिया कि माँ जब जवान थी तब वह काफी जोशीली थी और सुन्दर भी। उसने दिल्ली की चमक दमक के बारे में काफी सुन रखा था। उसने टेलीविजन पर देखा भी था दिल्ली की साफ चैड़ी सड़कें, दिल्ली की ऊंची-ऊंची इमारतें और उसके मन में दिल्ली को लेकर ख्वाब पलने लगे थे। फिर क्या था उसे अचानक गाँव और गाँव की सड़ांध से एकाएक ऊबन-सी हो गई था। उसे लगने लगा था जैसे यहाँ सबकुछ कैसा विकृत है। उसे अचानक लगने लगा था क्या यह वही बासी और सूखा गन्ना है जिस पर बैठकर और जिसका रस चूसकर वह पेट भर रही थी। उसने हिकारत की निगाह से कल्लू की मिठाई की दूकान की ओर देखा था, उसे लगा था जैसे उसे अभी उलटी हो जायेगी। उसने सड़क किनारे मैले-कुचैले आदमियों के शरीर को देखा था और उसने मूंह फेर लिया था। उसने खाना-पीना सब त्याग दिया और त्याग क्या दिया था उससे अब यह गंदी-गंदी चीजें खायी ही नहीं जा रही थी उसके दिमाग में तो बस दिल्ली का मल्टीपलैक्स और बड़े-बड़े रेस्टोरेन्ट दिख रहे थे। उसने सुन रखा था कि मैकडोनाल्ड और पिज्जा हट जैसी भी वहाँ दूकानें हैं जहाँ तरह-तरह की खाने की चीजें और पेय पदार्थ मिलते हंै। पेय पदार्थ के बुलबुले उसको अपनी ओर आकर्षित करन लगे थे। उसने एक बार टेलीविजन पर पिज्जा हट का विज्ञापन देख लिया था। पिज्जा के उस लिसलिसी-सी पदार्थ पर तो उसका दिल ही आ गया था। उसने अपने मन के भीतर उस लिसलिसी-सी चीज के स्वाद को महसूस किया था। आहा! आहा! उसने सोचा था जब इस स्वाद को सोचने में इतना आन्नद आ रहा है तो फिर उसका सेवन करने में कितना मजा आयेगा! उसका दिल्ली जाने का विचार एकदम पक्का हो गया था।

ललमुनिया कि माँ ने अपने घरवालों को अपना विचार सुनाया तो घर वाले एकदम से भौचक रह गये थे। इतनी दूर परदेश में वह भी अकेली। घरवालों ने बहुत समझाया, सहेलियों ने बहुत समझाया लेकिन वह कहाँ मानने वाली थी। घर वालों ने विरोध किया तो उसने खाना-पीना छोड़ दिया। उसे वैसे भी वे सारी चीजें बेकार लगने लगीं थीं जो अब तक वह खाती रही थी। उसने किसी भी दूकान, किसी भी भोज-भात से अपने को काट लिया था। वह बता नहीं रही थी लेकिन उसे तो अपनी सहेलियों से भी परहेज हो गया था उसे वे सारी सहेलियाँ बिल्कुल लो स्टेंडर्ड लगने लगी थीं, बिल्कुल गंवार। उसके घरवालों ने उसे बहुत समझाया था कि तुम शहर के चक्कर में फंस रही हो तुमको मालूम नहीं, वहाँ जो दिखता है वही असलियत नहीं है यह सब तो उसका नकली चेहरा है। लेकिन उसने सारे घरवालों को गंवार और दकियानुसी कहकर उसकी बातों को सिरे से काट दिया था।

खैर, उसके घरवालों को उसकी जिद के सामने झुकना पड़ा था और फिर एक दिन अपने पंखों को सीधी करके उसने बिल्कुल सीध में दिल्ली की ओर उड़ान भर दी थी। दो-तीन दिन लगे लेकिन वह दिल्ली पहुँच गयी थी।

दिल्ली पहुँचकर पहले तो उसने खुब यहां-वहाँ के चक्कर काटे। यहाँ की साफ चैड़ी सड़कों को देखा, बड़ी-बड़ी इमारतों को देखा, बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स, बड़-बड़े रेस्टोरेन्ट देखे। वह बहुत खुश हुई थी। उसके चेहरे पर निखार आ गया था। मुस्कराहट उसके चेहरे पर बिल्कुल चिपकी हुई थी। उसने यहाँ के चकाचैंध से गाँव की तुलना करके देखा तो उसे लगा वह अभी तक कहाँ फंसी हुई थी। उसने दिल्ली आने के अपने निर्णय पर संतोष महसूस किया। उसके मन में अपने उस गाँव वालों के प्रति एक तरह की हिकारत का भाव आ गया। उसने अपने दूरदृष्टि और अपने तीक्ष्ण मस्तिष्क को बहुत धन्यवाद दिया।

वह घुमते हुए इतना खुश थी कि उसे दो दिनों तक तो भूख भी नहीं लगी। जबकि पिछले कुछ दिनों से वह बढ़िया और पूरी तरह से खा भी नहीं पायी थी। उसे अब गाँव का कोई भी चीजें पसंद जो नहीं आ रही थी।

दो दिनों के बाद काफी घूम लेने के बाद जब वह काफी थक गयी थी तब उसे भूख महसूस हुई और इस भूख के साथ ही उसे उस लिसलिसी चीज का स्वाद भी याद आया। उसके मुंह में एकदम से पानी भर आया। उससे भूख एकदम से भड़क गयी थी। चूंकि उसने इन दो दिनों में दिल्ली का चप्पा-चप्पा छान मारा था इसलिए उसे पिज्जा हट ढूढने में मुश्किल नहीं हुई। पिज्जा हट के दरवाजे पर वह आकर काफी खुश हुई। उसको लगा जैसे उसकी मंजिल उसे मिल गयी। उस पिज्जा हट के सामने के दिवारों पर तरह-तरह के खाने की चीजों की तस्वीरें लगी हुईं थीं। उसने बाहर ही पिज्जा का फोटो देखा, साथ ही वह पेय पदार्थ जिसमेें से पिक्चर में ही बुलबुले निकलते दिखाया गया था। उसे अचानक याद आया टेलीविजन पर चलने वाला वह विज्ञानपन 'बुलबुले जब भी गुनगुनायेंगे लोग पास आयेंगे'। उसे लगा वह भी तो इसी बुलबुले के चक्कर में ही तो सैकड़ों किलोमीटर से दौड़ कर आयी है। उसने सोचा इस बुलबुले में है ही कुछ बात जो वह इस तरह खींची चली आयी है। वह अब पिज्जा हट के अंदर जाना चाह रही थी। उसने दरवाजे के भीतर कदम रखा और उसे अचानक से बहुत ठंड-सी महसूस हुई, एकदम जन्नत। उसने सोचा कितना फर्क है यहाँ और उस छोटे से गाँव में। उसे लगा था कि काश ऐसा होता कि उसे यहाँ आराम करने की छूट दे दी जाती। लेकिन वह अभी थोड़ी देर को रिलैक्स हुई ही थी और वह अपने भोज्य पदार्थ का निशाना लगाने ही वाली थी कि उसे महसूस हुआ कि वह अचानक से एक तरफ को खिंची हुई जा रही है। पहले तो लगा कि यह उसी विज्ञापन का ही असर है कि जहाँ बुलबुले गुनगुनाएंगे वहाँ लोग पास आयेंगे लेकिन अचानक उसकी निगाह के सामने तेज जलने वाली लाइट दिखी। उसने इस तरह की लाइट को पहले नहीं देखा था इसलिए वह समझ तो नहीं पायी लेकिन उसकी नज़र अचानक उसमें पड़ी हुई तमाम मक्खियों की लाशों पर पड़ी और उसने देखा कि उसके सामने ही कई मक्खियाँ चर-चर कर उसमें जल रही थीं। उसका उस मशीन की ओर खिंचाव बहुत तेज था लेकिन उसने अपने को संभाल लिया था। उसने उसी रफ्तार से अपने शरीर को दरवाजे की तरफ को खींचा था। उसकी किस्मत अच्छी थी और वह दरवाजे से बाहर हो गई। उसकी जान बच गई। उसने अपनी जवानी और अपने जोश को मन से धन्यवाद दिया था। उसने बाहर निकल कर राहत की सांस ली थी।

इसके बाद फिर वह कुछ दिनों तक अच्छे खाने की तलाश में यहाँ वहाँ भटकती रही, लेकिन वह हार गयी। हर जगह या तो यह मशीन होती या फिर दरवाजे शीशे से पैक होते और खाने के सारे समान शीशे से बंद होते। उसने यह भी महसूस किया था कि यहाँ की दुकानों में सफाई भी बहुत रहती है और वह भी कुछ ऐसी दवाईयों से कि वहाँ जाते ही बिल्कुल ही दम घुटने लगे। उसे फिर बहुत याद आयीं वह कल्लू की दूकान की मिठाईयाँ। वे गन्ने, वे मैले कुचैले लोग। तब उसने सोचा उसके घरवाले कितना ठीक कहते थे। यहाँ तो सब दिखावटी भर है। सब नकली। अंततः जब उसे भूखमरी की नौबत आ गई तब उसे यहाँ से झोपड़पट्टी की तरफ भागना पड़ा। मरता क्या न करता! उसने गंदी नालियों पर बैठना शुरू किया और फिर वे मैल-कुचैले लोग ही यहाँ भी उसका सहारा बने। लेकिन उसने एक चीज महसूस ज़रूर किया कि गाँव की तुलना में यहाँ मैले-कुचैले लोगों के पास मक्खियों के लिए ज़्यादा अवसर हैं। उसने महसूस किया था कि इस चमक दमक से बिल्कुल ही अलग यह दुनिया है जिसको तो कभी टीवी पर दिखाया ही नहीं जाता।

इन्हीं सब घटनाओं के बाद जब वह अपने जीवन को फिर उन्हीं सब दोयम दर्जे के भोजन पर आश्रित कर लिया था तब कुछ दिनों के बाद ललमुनिया का जन्म हुआ था।

ललमुनिया के पिता कौन थे ललमुनिया नहीं जानती थी। ललमुनियाँ अपनी माँ से बहुत पूछती थी कि आखिर उसके पिता कौन हैं लेकिन उसकी माँ चुप्पी लगा जाती थी। ललमुनिया कि माँ जानती थी कि वह इस महानगर का कोई दगाबाज मक्खा था जिसने उसके रूप-सौंदर्य पर फिसलकर उसके साथ सहवास किया था। उसके साथ उसने प्रेम का नाटक किया। वह भी इस शहर की तरह एकदम नकली निकला। वह एक दुष्ट, धोखेबाज और बेवफा प्रेमी था।

ललमुनिया कि माँ ने इस शहर में आकर सबकुछ खो ही दिया था। इज्ज़त, आबरू अपने घरवाले, अपनी संस्कृति-सब।

ललमुनिया कि माँ ने अपने जीवन में जो भी हजार अण्डे दिये होंगे वह कई नर मक्खियों के सहयोग से थे। लेकिन सच यह है कि उसने प्रेम सिर्फ़ ललमुनिया के पिता से ही किया था। वही उसका पहला और सच्चा प्रेम था। यही कारण था कि ललमुनिया कि माँ अपने सारे बच्चों में से सबसे अधिक ललमुनिया को ही प्यार करती थी। उसे अपने बहुत सारे बच्चों के तो नाम भी नहीं मालूम थे। उसे इस बात की चिंता रहती थी कि कहीं ललमुनिया भी इस चकाचैंध भरी दुनिया में धोखा खाकर अपनी ज़िन्दगी तबाह न कर ले। लेकिन ललमुनियाँ एक संस्कारी और आज्ञाकारी बेटी थी।

जब ललमुनिया जवान हुई तब उसकी माँ बूढ़ी होने लगी थी। उसकी माँ के चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगीं थीं और उसे खांसी ने कसकर जकड़ लिया था।

चूंकि ललमुनिया का जन्म और पालन-पोषण ही दिल्ली में हुआ था इसलिए वह काफी स्मार्ट और चंचल थी। ललमुनिया देखने में बहुत सुन्दर तो नहीं थी, लेकिन उसके चेहरे पर नमक था और पानी भी। उसके पंख भूरे थे। उसके पैर पतले और नाखून नुकीले थे। सभी मांओं की तरह ललमुनिया कि माँ को भी अपना बच्चा इस बड़े शहर के लिए काफी भोला और मासूम लगता था। ललमुनिया कि माँ उसे अक्सर इस चमक दमक और इस हंसी भरे माहौल से सचेत करती थी। चूंकि उसकी माँ ने शहर में बहुत धोखा खाया था इसलिए वह अपने बच्चों को लेकर ज़्यादा सतर्क और चैकन्नी थी।

लेकिन ललमुनिया इस चमक दमक में एक दिन आखिर फंस ही गयी।

वह एक खास दिन था जब ललमुनिया अपने लम्बी उड़ान के बाद अपने घर लौटी। वह आज अपने निश्चित समय से थोड़ा पहले थी और काफी खुश और उत्साहित भी। उसने अपनी माँ को बताया था कि उसने आज पीने की एक बहुत ही स्वादिष्ट चीज का पता लगाया है। उसने बताया कि वह आज जहाँ गयी थी वह एक फैक्ट्री जैसी है और जहाँ बोतल में कोई पेय पदार्थ तैयार होता है और शीशे की बोतल में पैक किया जाता है। उसने उसके लाजवाब स्वाद के बारे में बताया और यह भी कि उसे ही शायद बाहर लोग कोल्ड डिंªक कहते हैं। उसने माँ को बताया था कि इन्हीं पेय पदार्थों के ही विज्ञापन में कई सितारे दिखते हैं। उन विज्ञापनों में वे खुद भी इसे पीते हैं और लोगों से भी इसे पीने के लिए अपील करते हैं। अब इतने बड़े सितारे क्या झूठ बोलते होंगे! वे सितारे तो यहाँ तक कहते हैं कि इसके घूंट लो तब पता चलेगा कि मैं इसके इतर और कुछ क्यों नहीं पीता हूँ।

उसकी माँ एकदम घबरा गई थी। उसे लगा, वह जिन चीजों से अपने बच्चों को बचाना चाह रही थी, ललमुनिया तो उसी में फंसती जा रही है। उसने ललमुनिया को बहुत समझाया कि बेटा ऐसी जगह पर नहीं जाया करते। ऐसी जगह हमारे जैैसे छोटे से जीव के लिए ठीक नहीं है। वहाँ हमें फंसाने के लिए हमेशा कोई न कोई षडयंत्र होता है। लेकिन ललमुनिया कहाँ मानने वाली थी! उसे तो बस उस कोल्ड डिंªक का स्वाद ही याद था। उसने माँ को समझाना चाहा कि वहाँ फंसने जैसा कुछ भी नहीं है। वहाँ न तो इतनी सफाई है और न ही मक्खियों के लिए कोई रोकथाम। उसने अपनी माँ को बताया कि उसकी जैसी कई मक्खियाँ उसके रसास्वादन के लिए वहाँ आती हंै और हम सारी मक्खियाँ वहाँ काफी देर तक जूं-जूं करके आवाज़ भी निकालती हैं और सभी बोतलों के मुंह पर बैठकर उसके रस को धीरे-धीरे खींचती भी रहती हैं।

ललमुनिया कि माँ ने उसे समझाया था कि बेटा ज़्यादा लोभ में नहीं पड़ते, यह लोभ एक दिन ज़िन्दगी बर्बाद कर देता है। उसने ललमुनिया को बहुत समझाया था और बहुत डांटा भी कि उधर मत जाया करो। तुम जानती नहीं कि इस लोभ में ही फंसकर तो मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हुई है। पर ललमुनिया ने एक नहीं सुनी थी। ललमुनियाँ की माँ ने उसे बताया कि तुम लोग तो इस महानगर की पैदाइश हो इसलिए साहित्य वाहित्य तो पढ़ी नहीं हो। बहुत पहले भारतेन्दु जैसे एक बड़े साहित्यकार हुए थे, जिन्होंने अंधेर नगरी जैसी किताब लिखी थी। उसमें भी एक चेला था जो इस लोभ के चक्कर में फंस जाता है और उसका गुरु उसे बहुत समझाता है। चेला नहीं मानता है और एक दिन बड़ी मुसीबत में फंस जाता है। अब तुम्हारा तो ईश्वर ही मालिक है।

और फिर एक दिन ललमुनिया कि माँ को पता भी नहीं चल पाया, लेकिन उसका अंदेशा सच निकल गया। ललमुनिया एक दिन अचानक गायब हो गई। वह कहाँ गई, उसका क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं चल पाया।

सच यह है कि एक दिन उसी रसास्वादन के चक्कर में ललमुनिया कि मौत हो गयी।

वह उस फैक्ट्रªी का लंच का समय था। सारे मजदूर अपने घर से लाये खाने में व्यस्त थे। पूरी फैक्ट्रªी में खाने की सौंधी खूशबू थी लेकिन ललमुनिया के मस्तिष्क में बस उस पेय पदार्थ का स्वाद था। ललमुनिया ने अच्छा मौका देखा था और उसका फायदा उठाना चाहा। वह शांति से उस बोतल पर बैठकर उस स्वादिष्ट पेय का आनन्द लेती रही। उसका लोभ बढ़ता रहा था और वह बोतल के अंदर घुसती जा रही थी। उसने बहुत सारा कोल्ड ड्रिंक उस दिन पी लिया। वह मस्त हो गई थी। लंच टाइम कब ओवर हो गया उसे पता ही नहीं चला। कि तभी मशीन के चलने की आवाज़ आयी। उसने आवाज़ के कारण उड़ना तो चाहा, लेकिन अधिक कोल्ड ड्रिंक पीने के कारण वह एक अलसायी हुई मक्खी बन गई थी। उसने ज्यांे ही उस बोतल से निकलना चाहा कि उसका पांव फिसल गया और फिर धड़ाक से बोतल सील बंद हो गई।

ललमुनिया कि मौत इस बोतल के सीलबंद होने के एक घंटे के बाद हुई थी और वह इस बीच सिर्फ़ छटपटाती रही थी। वह अब कोल्ड ड्रिंक पीने की स्थिति में नहीं थी। उसे बार-बार अपनी माँ की नसीहतें याद आ रही थी। ललमुनिया का जिस दिन निधन हुआ था उस दिन वह मात्र एक महीने बाइस दिन की थी। ललमुनिया कि माँ अपनी बची हुई ज़िन्दगी में उसका बस इंतजार ही करती रह गई थी। ललमुनिया कि माँ यह जान नहीं पायी थी कि अगर ललमुनिया कि मौत भी हो गई, तो हुई कैसे? ललमुनिया कि मौत दम घुटने से हुई थी।

कहानी का यह दूसरा खण्ड

अब यहाँ कहानी में आदमी के रूप में देवाशीष मुकर्जी का प्रवेश होता है। देवाशीष सत्ताइस-अठ्ठाइस साल का एक स्मार्ट युवक। बदन बिल्कुल छरहरा, चेहरा गोरा। चेहरे पर कभी दाढ़ी या मूंछ का कोई खूंट तक भी नहीं दिखने देने वाला। आप उसे देव कह देते वह बुरा नहीं मानता आप उसे देवेश कह देेते वह बुरा नहीं मानता लेकिन अगर आप उसे देवाशीष मुकर्जी के बदले देवाशीष मुखर्जी कह देते तो वह रुष्ट हो जाता। जैसा नाम से स्पष्ट है देवाशीष बंगाली था और बंगाल की ही पैदाइश भी। बंगाल में उसका घर कलकत्ता के आसपास ही कहीं था। कलकत्ता के आसपास, लेकिन किसी गाँव में। वह गाँव में पला-बढ़ा था, कलकत्ता में वह पढ़ा-लिखा था। किन्तु अब वह पिछले सात-आठ वर्षों से दिल्ली में रह रहा था। इन्हीं सात आठ वर्षों में उसने दिल्ली में बहुत कुछ पाया था एक अदद नौकरी भी और एक घर भी।

पिता अध्यापक थे और माँ घर में खाना पकाती थी। पिता कई बार अपने काॅमरेड दोस्तों को अपने घर बुलाते और माँ उनके लिए खाना बनाती थी। देवाशीष की माँ माछ भात बनाती और माछ में गोट अवश्य डालती थी। देवाशीष के पिता के दोस्त माछ भात खाते और दुनिया को बदलने के लिए निकल पड़ते थे। देवाशीष के पिता इस रूप में अपनी पत्नी को भी अपनी क्रांति में हिस्सेदार समझते थे। उसके हाथ का ही यह जादू था कि माछ भात खाकर क्रांतिकारियों को समाज ज़्यादा असंतुलित दिखने लगता था।

देवाशीष के पिता रुद्राशीष मुकर्जी ने अजीविका के लिए भले ही नौकरी की हो लेकिन उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य इस समाज को बदलना, इस समाज में बराबरी लाने का था। वे कहते इस समाज को समुद्र के पानी की तरह होना चाहिए एकदम समतल। अगर उसका पानी हिलोर लेता भी है तो थोड़ी देर में शांत हो जाता है फिर सब बराबर। वे पक्के माक्र्सवादी थे और उन्हें लाल रंग से गहरा प्रेम था। वे अक्सर रैलियों में जाते थे, नारे लगाते थे। कई बार वे क्रांति का बिगुल बजाने के लिए पोस्टर भी चिपकाते थे। वे पूंजीपतियों को अपना और समाज का सबसे बड़ा शत्रु समझते थे। वे कहते थे इनकी नसों पर प्रहार करना पड़ेगा और फिर देखना दुनिया बदल जायेगी। दुनिया एकदम हसीन हो जायेगी। वे कहते अब इस दुनिया कि व्याख्या करने का वक्त नहीं रहा बल्कि उसे बदलने का वक्त आ गया है। उन्होंने अपने जीवन में भी इन सिद्धांतों का पालन किया था और पूंजी को अपने जीवन में नहीं के बराबर आने दिया था। अपने वेतन के भी बहुत सारे पैसे उन्होेंने क्रांति के लिए खर्च कर दिये थे। आज उनके पास सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ़ उनका यह छोटा-सा मकान था और उनकी पैंशन थी।

देवाशीष ने अपने जीवन में चूंकि लाल रंग को बहुत देखा था इसलिए उसे लाल रंग से नफरत-सी हो गयी थी। वह लाल किताब कभी नहीं पढ़ता था और सब्जी के साथ लाल गाजर कभी नहीं लाता था। लाल टमाटर वह खाता था लेकिन उसे वह पीला टमाटर कहता था। वह अक्सर सोचता था कि क्या जीवन में किसी एक रंग को इतना महत्त्व देना ठीक है। वह सोचता था कि खून का रंग मनुष्य के साथ-साथ सभी जीव जन्तुओं तक का लाल ही होता है लेकिन एक मनुष्य ही है जो इस खूनी क्रांति और लाल रंग की बात करता है। वह अक्सर सोचता था कि क्या मच्छरों ने अपने लाल खून के साथ समाज में क्रांति के बारे में विचारा होगा।

देवाशीष की शुरुआती पढ़ाई कलकत्ता में हुई। पिता कि ख्वाहिश थी कि बेटा पढ़ लिखकर सामाजिक कार्यों में लग जाए। वे कहते जीवन में रुपयों की बस उतनी ही ज़रूरत है जिससे हम जिन्दा रह सकें। पिता ने घर में माक्र्स से लेकर लेनिन और न जाने किन-किन विचारकों के पोस्टर लगा रखे थे। लेकिन देवाशीष की रुचि उसमें जग नहीं पायी। वह उन तस्वीरों की ओर देखता और सोचता क्या वाकई ये इस समय में अपने को संयमित रख पाते। जब सामने रुपयों का अंबार और एक विलासी जीवन दिखता तो क्या वे अपने को इन सिद्धांतों पर टिकाये रख पाते। वह उन विचारकों को विचारक इसलिए मानता था क्योंकि उनके सामने कोई चकाचैंध भरी दुनिया नहीं थी। चमचमाती दुनिया का तिलिस्म नहीं था।

जब वह कलकत्ता में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर चुका था तब पिता कि इच्छा उसके स्वर्णिम भविष्य के सामने बाधा बनकर खड़ी हो गयी। देवाशीष के सामने यहाँ से एक ऐसी दुनिया के दरवाजे खुल रहे थे जहाँ सब प्रकार का ऐशो आराम था। गाड़ी, बंगला, चमक दमक, पैसे, मल्टीप्लैक्स और बड़े-बड़े रेस्टोरेन्ट। उसके सामने बदली हुई दुनिया का विराट संसार था और उसके पिता उसको छोटी-सी दुनिया में समेटकर उसकी ज़िन्दगी को संकुचित करना चाह रहे थे।

देवाशीष ने जब दिल्ली जाकर वहाँ आवारा पूंजी की दुनिया में अपना हस्पक्षेप चाहा तो पिता एकदम से भड़क उठे। वे बहुत हताश हुए और कहा कि आखिर क्या कमी रह गई थी हमारी परवरिश में जो तुम पूंजीपतियों की दुनिया में शामिल होना चाहते हो। पिता का आदर्श और पुत्र की चाहत आपस में जब टकराये तो पिता ने फरमान जारी किया-फिर समझो इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बन्द हो गये। पिता ने सोचा जो पुत्र आवारा पूंजी का साथ देकर गरीब और लाचार लोगों की बेबसी को सुनना नहीं चाहता, उस पुत्र के होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है। पिता को एक पल को यह उम्मीद थी कि देवाशीष इस बड़े निर्णय के सामने सर झुका देगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देवाशीष का मानना था कि यह मरियल-सी ज़िन्दगी भी तो मृत्यु के सामान ही है। उसने अपना झोला-टंटा उठाया और पहुँच गया दिल्ली।

दिल्ली में देवाशीष ने अपने पैर जमाने के लिए खूब मेहनत की। वह इस विराट दुनिया में पूरी मजबूती के साथ प्रवेश करना चाह रहा था। उसने अपनी छोटी मोटी नौकरी के साथ कंप्यूटर में मास्टरी हासिल की। कंप्यूटर की बड़ी डिग्री ने उसे इस चमकीली दुनिया में मजबूत प्रवेश दिलाया।

देवाशीष के दिल्ली जाने के कुछ दिनों बात तक तो उसके पिता को यह उम्मीद बची हुई थी कि शायद उसके खून में बहने वाला आदर्श पुत्र केे भीतर से कुलांचे मारने लगे और लौट आये। लेकिन पुत्र पर पिता के आदर्श से ज़्यादा इस बाज़ार का असर रहा। वह धीरे-धीरे एक ऐसी दुनिया में प्रवेश कर रहा था जो रंगीन थी।

देवाशीष को कुछ वर्ष तो अवश्य लगे इस रंगीन दुनिया में अपने पैर जमाने में लेकिन वह इसमें पूर्णतया सफल रहा। उसका वेतन पैकेज में शुरू हुआ। वह नौकरियाँ बदलता रहा और पैकेज बढ़ता रहा। वह बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स में घुसता, माॅल्स में घुसता और वहाँ की तेज रोशनी को देखकर सोचता क्या वाकई इस तेज रोशनी के चमत्कार से बचना संभव है। उसे पिता जो बनाना चाह रहे थे उसके बारे में वह सोचता और वह अंदर से सिहर जाता।

उसने ढेर पैसे कमाये और इनकमटैक्स से बचने के ढेरों उपाय ढ़ूंढ़े। उसने एक मकान खरीदा। अपने पास जितने पैसे थे उसके साथ उसने एक बड़े निजी बैंक से पैसे उधार लिये। वह अपने घर के लिए-लिए इस उधार को अंग्रेज़ी में होम लोन कहता था और इसके सहारे वह बड़ी मात्रा में इनकम टैक्स बचा पा रहा था। उसने अपनी ज़िन्दगी से अपने पिता को निकाल बाहर कर दिया था और अपने इस बड़े मकान में इसी चमकदार दुनिया से एक पत्नी ले आया था। उसका जीवन सुकून से कट रहा था। उसने सोचा क्रांतियों से अगर दुनिया बदलती तो दुनिया आज इतनी रंगीन नहीं हो पाती। उसने अपने मन में पिता कि बैठक में लगे सारे पोस्टरों के बारे में सोचा और एक हेय दृष्टि उन पर डाली।

देवाशीष अपने उस बड़े से घर में अपने दोनों डैनों को फैलाकर रात में उड़ा करता था। वह अपनी गाड़ी से उसकी ठंडी हवा में आॅफिस से आता और एलसीडी टीवी पर फ़िल्में देखकर, खाकर रात में सो जाता था। वह अपनी पत्नी और अपने बच्चों के साथ खाना खाने उन बड़े-बड़े रेस्टोरेन्ट में जाता था जहाँ मक्खियों को फंसाने और मारने के लिए एक विचित्र किस्म की लाइट लगी होती थी। वह अपने जीवन को भरपूर जी रहा था और मन के भीतरी कोने से दुनिया के उस बड़े से देश को धन्यवाद देता था जिसने वर्षों चले किसी ठंडे युद्ध को सिरे से गायब कर दिया था। उसके मन में होता इस विश्व के कुछ लोेग कैसे जाहिल हैं, युद्ध को शांत करने वाले को ही गालियाँ दे रहे हैं। वह सोचता था भला हुआ जो एक नई सोच की विजय हुई नहीं तो इन क्रांतिकारियों ने तो इस विश्व को डुबो ही दिया था। उसकी आसक्ति उस विजयी देश के साथ थी। उस देश ने जहाँ भी बम गिराये वह उसके साथ था। उस देश ने जिसको भी पकड़कर उसे सशंकित किया वह उसके साथ था। वह मानता था इस धरती पर जीने का अधिकार तो सिर्फ़ उसे ही मिलना चाहिए जो सबल है। वह मानता था क्रांतियाँ तो कमजोर करती हैं, ताकतवर तो सत्ता में होते हंै। वह उस विजयी देश को सभी देशों का बाप कहता था।

लेकिन उस विजयी देश ने ज़्यादा बम गिराये और एक दिन पूरे विश्व से पैसे गायब हो गये। ऐसा लगा जैसे उसने बम बनाने में सारे विश्व के पैसों को बिना पूछे ही चुपके से निवेश कर दिया था। देश में मंदी आयी। देश की सारी कम्पनियाँ भौचक रह गयीं। सारी कम्पनियों ने अपने गल्ले को देखा आखिर वह कौन-सी तरकीब थी जिससे बिना उसकी जानकारी के ही उसके गल्ले से उसके पैसे चुरा लिए गए। सारी कम्पनियों ने जार-जार आसूं बहाये। फिर शुरू हुई छंटनी और देवाशीष को अपने पिता कि हाय लग गयी। यह एक आदर्श माक्र्सवादी की हाय थी। थोड़ी देर से लगी लेकिन इतनी आसानी से तंदुरुस्त होने वाली नहीं थी। उनकी इस हाय में सारे माक्र्सवादी चिंतकों की शुभकामनायें थीं। देवाशीष छंटनी का शिकार हुआ।

जिस विशाल पैकेज से वह बाहर हुआ था उसके हाथ पांव फूल गये। उसे अचानक यह सांप सीढ़ी का खेल लगा यह था निनानवे पर जाकर सीधे तीन पर आना। देवाशीष ने सोचा साला यह तो तीन पर भी नहीं रहा। उसकी पत्नी ने जिस वैश्विक अर्थव्यवस्था के बल पर उससे शादी की थी वह चरमराती हुई दिखी। उसकी पत्नी ने सोचा क्या इस देश में किसी भी चीज पर भरोसा करना मुश्किल है। देवाशीष ने अपने घर में अपने डैनों को फैला कर उड़ना बन्द कर दिया। वह अपने उस बड़े घर में मुरझाया हुआ बैठा रहता था। रोज सुबह पूजा करते समय उसकी पत्नी उस विजयी देश के राजा को बददुआएँ देती थी और चमक-दमक की दुनिया से दूर अपनी भदेस भाषा में उसे कलमुंहा कहती थी। देवाशीष की गाड़ी अब दरवाजे पर खड़ी थी और धीरे-धीरे उसके चक्कों की हवा पास हो गई थी।

कहानी का यह तीसरा खण्ड

कहानी के इस तीसरे खण्ड में अपने वायदे के मुताबिक मैं आदमी और मक्खी दोनों को लाउंगा।

देवाशीष उस दिन उदास था, अंत समय आ गया पास था। देवाशीष ने सोचा कहीं सारे क्रांतिकारी सही तो नहीं कह रहे थे। कहीं इस विजयी देश ने वाकई सारे विश्व के पैसों को अपनी अय्याशी में उड़ा तो नहीं दिया। कहीं वह शिकारी तो नहीं।

देवाशीष के सामने जितनी चिंता इस बात की थी कि वह अपना और अपने परिवार का पेट कैसे भरेगा उससे ज़्यादा चिंता इस बात की थी कि वह अपने उस बड़े से घर का, जिसमें वह अपने डैनों को फैलाकर उड़ा करता था उसकी किस्त कैसे भरेगा। उसे अब अपनी बीबी और बच्चों के पेट भरने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। लेकिन वह इस संघर्ष से इस बड़े से ऋण को हिला भी नहीं सकता। वह उदास रहता था और उसकी दाढ़ी के खूंटे बढ़ गये थे। उसने नौकरी ढूँढने की कोशिश की लेकिन यह तो छंटनी का दौर था, नई नौकरियाँ कहाँ! कहीं नौकरी मिल भी जाय तो उससे उसके घर का केवल खर्च चल सकता था। लेकिन इस घर की किस्त! उस निजी बैंक ने, जिसका मालिक भी उसी विजयी देश में बैठा था, ने चिट्ठी पर चिट्ठी भेजनी शुरू कर दी। आखिर पैसे लेकर जाओगे कहाँ बच्चू! देवाशीष पर हर चिट्ठी एक प्रहार की तरह थी।

देवाशीष मुकर्जी को यह विश्वास नहीं हो पाता था कि मंदी इतनी लंबी हो जायेगी। आखिर कितने बम फोड़ दिए भाई।

देवाशीष को नौकरी नहीं मिली। जमा पूंजी से घर का खर्च चला लेकिन कब तक। उसका दुख बढ़ता रहा और चिट्ठी के बाद गुण्डों ने आना शुरू कर दिया। यह नए बैंक की नई संस्कृति थी। देवाशीष जानता था। वह था तो इसी संस्कृति का। वह इन गुण्डों के बाद के सच को भी जानता था। गुण्डे आते और देवाशीष अपने घर के भीतर कहीं छुप जाता। बाहर उसकी पत्नी उसी अर्थव्यवस्था के साइड इफैक्ट को झेल रही होती।

देवाशीष के सामने इस घनघोर मंदी में जो दो तीन उपाय दिख रहे थे उसमें सबसे अंतिम था भागकर अपने बाप की क्रांति में हिस्सा ले लिया जाए। लेकिन जिस बाप को उसने अपनी ज़िन्दगी से निकाल बाहर कर दिया था उसके पास वह किस मुंह से जाए! अगर वह अपने डैनों को समेटकर वहाँ चला जाता तो भी उसकी पत्नी इसके लिए तैयार नहीं थी। वह साफ कहती थी इस अर्थव्यवस्था का मामला इसी अर्थव्यवस्था में निपटेगा।

देवाशीष के सामने घर बेच देने का एक विकल्प था लेकिन फिर वह रहेगा कहाँ। देवाशीष की उस दिन बड़ी बेइज्ज्ती हुई जिस दिन उन गुण्डों ने भरे मुहल्ले में उसका काॅलर पकड़ लिया। जब काॅलर पकड़ ही लिया तो बचा ही क्या। देवाशीष को दिन में तारे दिख गये और आंखों के सामने बाप के द्वारा लगाये गये सारे पोस्टर एकबारगी नाच गए।

अब वह निजी बैंक वाला उसके सामान को सड़क पर फेंक देता, उसकी पत्नी उसे छोड़कर नये विकल्प पर विचार करती, उसकी गाड़ी को कबाड़ी वाला पुर्जा-पुर्जा खोलकर ले जाता उससे पहले ही देवाशीष की ज़िन्दगी में मक्खी का प्रवेश हुआ।

उस दिन देवाशीष उदास था, अंत समय आ गया पास था। वह अपने काॅलर को संभालता पागल की तरह सड़क पर चलता चला जा रहा था। एकदम सनकी की तरह। आवारा पूंजी का आवारा। उसने अब यह जान लिया था कि इस पूजीं को आवारा क्यों कहते हैं। धूप बहुत तेज थी और देवाशीष पसीने से तर ब तर था। धूप तेज नहीं भी होती तब भी वह पसीने से तर ब तर ही होता। वह कहाँ जा रहा था उसे नहीं मालूम था। वह क्यों जा रहा था, नहीं मालूम था। वह चार कदम चलता था और फिर रुक कर सोचता था क्या वाकई वह आगे बढ़ रहा है। वह बहुत देर तक ऐसा करता रहा होगा। सड़क पर अगल बगल से गुजरने वाले लोग उसे देखते थे और समझ जाते थे। क्योंकि यह वह समय था जब इस तरह के सनकी बहुताय मात्रा में सड़कों पर मिलने लगे थे। तेज धूप थी या उसकी सनक, देवाशीष को लगा उसके गले में कांटे उग आये हैं। उसे लगा क्या उस विजयी देश ने कोई विषैला कीटाणु तो नहीं छोड़ दिया है। उसने अपने गले को कसकर पकड़ लिया। वह अभी मरना नहीं चाहता है। वह अपने गले को पकड़ कर वहीं बैठ गया। वह रास्ता काफी व्यस्त था और लोग बिल्कुल उसके पास से गुजर रहे थे लेकिन लोग उस पर ध्यान नहीं दे रहे थे। उसे अचानक सड़क के उस पार एक दुकान दिखी और उस पर बुलबुले निकलते कोल्ड ड्रिंक का विज्ञापन। उसे अचानक लगा क्या पता इसमें ही गले में उग आये इस कांटे का उपाय हो। क्या पता उस विजयी देश के कीटाणु का इलाज उसके अपनेे इस प्रोडक्ट के बिकने से सम्बंधित हो। उसे उस वक्त कोल्ड ड्रिंक का सहारा लेना सबसे उचित महसूस हुआ और इसी कोल्ड ड्रिंक के सहारे उसकी ज़िन्दगी में मक्खी का प्रवेश हुआ। यह वही कोल्ड ड्रिंक की बोतल थी जिसमें ललमुनिया कि जान गयी थी। ललमुनिया कि जान दम घुटने से हुई थी। ललमुनिया कि लाश अब उस बोतल में बन्द थी।

हताश देवाशीष ने अभी कोल्ड ड्रिंक को अपने हाथ में पकड़ा ही था और उसके ठंडेपन को जांच ही रहा था कि उसे ललमुनिया कि लाश दिख गई। पहले उसे लगा कि यह उसकी आंखों के धोखे के सिवाय कुछ नहीं है। उसने उस बोतल के बनिस्पत साफ वाले हिस्से से उसके भीतर झांकने की कोशिश की और एकबारगी उसकी हताशा गायब हो गयी। उसका पागलपन दूर हो गया, उसकी बांछें खिल र्गइं। उसके उदास मन ने सोचने में कोई वक्त नहीं लिया। उसने अपने मन में सोचा, साले जख्म तुमने दिया है तो इलाज भी तुम ही करोगे। उसने कोल्ड ड्रिंक की उस कांच की बोतल को पैसे देकर खरीद लिया और फिर उसने उपभोक्ता कोर्ट में केस कर दिया।

यह एक बड़ी वैश्विक कम्पनी की साख का सवाल था। कोर्ट में उसने लाखों रुपये के हरजाने की अपील की। यह लाखों रुपये इतने थे जितने उसने उस निजी बैंक से उधार ले रखे थे और जिसे वह अंग्रेज़ी में होम लोन कहता था। उसने कोर्ट में ललमुनिया कि लाश को पेश किया और वह जीत गया। उस विशाल वैश्विक कम्पनी के लिए अपनी साख पर धक्का लगने और यहाँ वहाँ उसकी बदनामी फैलने से जितना घाटा होने वाला था उसके सामने यह घाटा कुछ भी नहीं था।

निश्चिरूपेण इस प्रकरण में दो तीन महीने लगे और तब तक वह अपनी गाड़ी, अपना एलसीडी टेलीविजन आदि-आदि बेचकर उस बैंक की किस्त को जमा करता रहा। बैंक के पेट में दाने गये और उसने गुण्डों को वापस बुला लिया। उसके बाद गुण्डे उस बैंक के अखाड़े में दण्ड पेलते रहे।

इसे महज संयोग कहें कि जिस कोल्ड ड्रिंक ने देवाशीष की जान बचायी वह भी उसी विजयी देश की ही थी।

ललमुनिया कि जब उस बोतल में बन्द होकर दम घुटने से मौत हुई थी तब से मात्र पंद्रह दिन के भीतर ही वह देवाशीष के हाथ आयी थी और उसने उसकी ज़िन्दगी को बदल दिया था।

लेकिन इसे भी महज संयोग ही कहें कि जिन दिनों ललमुनिया, अपनी माँ की प्यारी बेटी किसी हारे हुए की ज़िन्दगी बदल रही थी उन्हीं दिनों उसकी माँ अपने लालच पर कंट्रोल खोकर एकबार फिर से बाज़ार के चंगुल में फंसने की सोच रही थी। ललमुनिया कि माँ बूढ़ी हो गई थी और अपनी मृत्यु के करीब थी। लेकिन उसके मुंह से उस लिसलिसी-सी चीज का स्वाद अभी भी खत्म नहीं हुआ था। इस बुढ़ापे में उसका लोभ और बढ़ गया था। उसने सोचा जिस स्वाद के लिए उसने अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली, उसे पाने की एक और कोशिश उसे करनी चाहिए। वह जानती थी कि इस बड़े से शहर ने उसका सबकुछ छिन लिया। उसकी प्यारी बेटी उससे बिछुड़ चुकी थी और उसका अनुभव यह जानता था कि इस तिलस्मी संसार में उसका मिलना अब असंभव है। उसने अपनी जान हथेली पर रखकर उस पिज्जा हट में प्रवेश किया था और फिर वही सब। इस बार जब वह उस प्रकाश की ओर खिंची जा रही थी तब उसके शरीर में इतनी ताकत नहीं बची रह पायी थी कि वह अपने को उस ताकत की तरफ खिंचने से रोक सके। उसकी बूढ़ी और कमजोर हड्डियाँ जवाब दे चुकी थीं और उसने उस तेज प्रकाश की ओर खिंचने से बचाने में अपने को असमर्थ पाया और फिर वही, उसकी भी मृत्यु अन्य मक्खियों की तरह हुई चर चर। वहाँ और कमजोर पड़ चुकी मक्खियाँ जल रहीं थीं चर चर। पिज्जा हट के बाहर दीवार पर लगे पोस्टर में कोल्ड ड्रिंक के पिक्चर से बुलबुले उठ रहे थे। बुलबुले गुनगुना भी रहे थे।