ललित कार्तिकेय / परिचय

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एक अशांत अदीब की खामोश मौत : सुधीर सुमन
युवा आलोचक ललित कार्तिकेय की स्मृति में नई दि‍ल्ली में आयोजि‍त कार्यक्रम की रि‍पोर्ट-

ललित कार्तिकेय से मेरी कोई प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई थी, लेकिन जिन दिनों साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ाव शुरू हुआ था, उन दिनों ‘हँस’ में छपने वाली उनकी कहानियों से उनको जाना था। ‘हिलियम’ और ‘तलछट का कोरस’, ये दो कहानियाँ याद आती हैं। हाँ, तब दाढ़ी में जो उनकी युवावस्था वाली तस्वीर छपती थी, वह बड़ी आकर्षक थी। बाद में उनकी छिटपुट वैचारिक टिप्पणियाँ और उनकी आलोचना भी पढ़ने को मिली। ‘पहल’ में भी उन्हें पढ़ा। बी.ए., एम.ए, में जो मेरे साथी थे, उन्हें और मुझे भी कई बार उनकी आलोचना और समीक्षाएं बोझिल भी लगती थीं। हालाँकि उनकी बौद्धिकता हमें खींचती भी थी और कई बार आम समझ से सर्वथा अलग तरीके से चीजों को देखने का उनका साहस भी प्रभावित करता था। ऐसी प्रवृत्ति अरुण प्रकाश के भीतर भी थी। दोनों ने अपनी जिंदगी का बहुत सारा वक्त अनुवाद को दिया। यह ललित कार्तिकेय ही थे, जिन्होंने ‘अल्मा कबूतरी’ को एक प्रकृतवादी रचना कहा था, जबकि हाशिए के समुदाय के जीवन-प्रसंगों और स्त्री विमर्श के लिहाज से उसकी काफी तारीफ हो रही थी। उन्होंने वही लिखा जो उन्हें लगा। वैसे अपने समय-समाज और देश-दुनिया पर उनकी जो वैचारिक टिप्पणियाँ होती थीं, वे हमें अपेक्षाकृत ज्यादा सहज और धारदार लगती थीं। जुलाई में एक दिन मुझे फेसबुक से उनके आकस्मिक निधन की सूचना मिली। मुझे अपने कॉलेज के दिनों में पत्रिकाओं में छपने वाली उनकी उसी पुरानी तस्वीर की याद हो आई, युवा ऊर्जा से भरपूर, पैनी चमकती निगाह वाली। नेट पर सर्च किया तो जो उनकी एकमात्र तस्वीर मिली, वह बदले हुए वक्त की तस्वीर थी, फ्रेंचकट दाढ़ी थी, पर सफेद थी, बालों में भी सफेदी थी, चेहरे पर जुझारूपन था, पर थकान सी भी झाँक रही थी। यह भी पता चला कि एक तरह से उन्होंने खुद को अकेला कर लिया था। यह सवाल हमेशा मुझे परेशान करता रहता है कि क्यों कोई एक्टिविस्ट या बौद्धिक समाज से खुद को काट लेता है, कोई खुद को आत्मनिर्वासन में क्यों डालता है? एक ओर सूचना क्रांति के दावे हैं और दूसरी ओर किसी ईमानदार परिवर्तनकामी व्यक्ति के अकेलेपन की तल्ख सच्चाइयाँ या परिस्थितियाँ, जिसकी चपेट में सिर्फ वामपंथी ही आ रहे हों, ऐसा नहीं है।

पिछले दिनों साथी प्रणय कृष्ण के साथ वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल जी के दफ्तर में ललित कार्तिकेय के बारे में बातचीत हो रही थी, देरिदा और सलमान रश्दी की किताबों की उनके द्वारा किये गये अनुवाद की भी चर्चा हुई। मुझे लगता है कि पिछले दो दशक में आक्रामक बाजारवाद और अमेरिकन साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रसार से ललित वैचारिक तौर पर बहुत चिंतित थे। वह व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में आने वाले अवांछित बदलावों, मूल्यहीनता और भीषण स्वार्थपरता को लेकर बहस करते रहे और सुविधाओं के जुनून में लगे मध्यवर्ग से लगातार टकराते रहे। मंगलेश जी ने पब्लिक एजेंडा में ललित कार्तिकेय की एक टिप्पणी ‘मात्र निर्वासन काफी नहीं’ प्रकाशित की है, जो बहुत हद तक ललित कार्तिकेय की फिक्र को समझाने में मददगार है।

18 जुलाई को ललित कार्तिकेय का निधन हुआ था। लगभग डेढ़ माह बाद 3 सितंबर को मंगलेश जी के प्रयास से ही दिल्ली के वीमेन्स प्रेस क्लब में ललित कार्तिकेय की स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ। मंगलेश जी ने कहा कि अपने समय की चीजों और घटनाओं पर ललित की पैनी नजर रहती थी। उन्होंने देरिदा के ‘स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स ‘ का अनुवाद किया, जो बेहद कठिन कार्य था। सलमान रश्दी और शिव के. कुमार के उपन्यासों का उन्होंने क्रमशः ‘शरम’ और ‘तीन किनारों वाली नदी’ शीर्षक से अनुवाद भी किया, जो काफी चर्चित रहे। मंगलेश जी ने यह भी बताया कि ललित कार्तिकेय ने अरुंधति राय के उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ का भी अनुवाद किया था, जो विवादों के कारण नहीं छपा। उन्होंने कहा कि उनकी टिप्पणियों में एक बड़ी रेंज दिखती है और उनसे ललित के विचारक का रूप सामने आता है।

ललित कार्तिकेय हरियाणा प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव रहे तथा ‘किधर’ और ‘अर्थ’ जैसी वैकल्पिक पत्रिकाओं का सम्पा दन किया। उनका जन्म 3 अप्रैल 1958 को हरियाणा के सारन में हुआ था। महज 54 साल की जिंदगी उन्होंने पाई। ललित कार्तिकेय को करीब से जानने वाले कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक ने ‘एक अशांत अदीब की खामोश मौत’ शीर्षक से जो बेहद मार्मिक संस्मरण सुनाया, वह उनकी जिंदगी की परतों को खोलने वाला था। ज्ञानप्रकाश विवेक ने कहा कि ललित की खामोश मौत हमारे भीतर विस्फोट छोड़ गई है। हिन्दीक साहित्य में वह किसी जुनून की तरह आया, पर बाद के वक्तों में खामोश हो गया। उसकी सारी शानदार कहानियाँ ‘हँस’ में छपीं। वह बेहद जटिल चरित्र था, पर महानगरीय बनावट और छलकपट से दूर था। ना वह दुनियादार था, न व्यावहारिक। आलोचना बेशक उसकी दुरूह होती थी, पर होती थी ताजादम। वह अपने अल्फाज की ताकत जानता था। ज्ञानप्रकाश विवेक ने कहा कि हिन्दीा साहित्य के बरअक्स उसने अपना एक प्रतिसंसार रच लिया था। वह सबसे मुख्तलिफ था।

युवा आलोचक संजीव कुमार ने बताया कि प्रलेस का कार्यभार सम्भाएलने के बाद ललित कार्तिकेय ने एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता के कार्यभार के बतौर कहानियाँ लिखना शुरू किया था। छात्र संगठन एआईएसफ में उन्होंने काफी काम किया था और उन दिनों को बहुत याद करते थे। यूनियनों के नष्ट होने और दुनिया में अमेरिका के प्रभाव को लेकर उनकी चिंता का भी संजीव कुमार ने जिक्र किया। उन्होंने अमेरिकीकरण की प्रक्रिया तथा नेरूदा की कविता से संबंधित ललित कार्तिकेय के दो लेखों के अंशों को भी पढ़कर सुनाया।

वरिष्ठ आलोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने मई दिवस पर फरीदाबाद में आयोजित एक कार्यक्रम से संबंधित यादों को सुनाया तथा अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ पूरी वैचारिक तैयारी के साथ किये गये लेखन और वक्तव्यों से विस्मित होने वाले साहित्यकारों का जिक्र किया। उन्होंने ललित कार्तिकेय को एक गहरे वैचारिक दायित्व वाले लेखक के बतौर याद किया।

वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी रेखा अवस्थी ने जलेस के कार्यक्रम में उनकी शिरकत को याद किया और उनकी रचनाओं को संकलित करके प्रकाशित करने का सुझाव दिया।

युवा आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने ललित कार्तिकेय से जुड़ी यादों को साझा किया तथा बाद के दिनों में उनके भीतर बढ़ते असुरक्षाबोध का जिक्र किया। अपनी बेटी के लिए पैसा जुटाने और उसके लिए लगातार अनुवाद किये जाने की बात भी सामने आई।

‘उद्भावना’ के सम्पाभदक अजेय कुमार ने एक वाकया सुनाया जो ‘माई डेज विथ नेरूदा’ नामक किताब के अनुवाद को लेकर हुई। उसके लिये जब पारिश्रमिक तय करने की बात हुई, तो ललित कार्तिकेय नाराज हो गये। इससे यह पता चला कि पैसे के लिये वह अनुवाद जरूर करते थे, लेकिन वामपंथी प्रतिबद्धता को वह बिकाऊ चीज नहीं समझते थे।

संचालन के क्रम में मंगलेश जी ने छात्रों, शिक्षकों और मजदूरों के मोर्चे से उनके जुड़ाव को याद करते हुए उन सामाजिक परिस्थितियों की ओर ध्यान खींचा, जो इस तरह के एक्टिविस्ट को भी अकेला बनाती हैं। उन्होंने कहा कि पूँजी की सत्ता जो स्मृतिविहीनता फैला रही है, उससे लड़ने के लिए विचारधारा को मजबूती से पकड़ना होगा और संघर्ष करना होगा।

युवा पत्रकार भाषा सिंह ने रोजमर्रा के जीवन के संघर्षों का व्यक्ति और उसके विचारों पर पड़ते दबावों का जिक्र किया तथा वामपंथी साहित्य-संस्कृति के विचलनों, कमजोरियों और वामपंथ के संकट की चर्चा करते हुए वामपंथी विचारधारा को मजबूत बनाने की जरूरत पर जोर दिया।

ललित कार्तिकेय को याद करने के क्रम में वामपंथ के क्राइसिस की बात भी आई। दरअसल जब भी ललित कार्तिकेय की तरह कोई रचनाकार या बुद्धिजीवी हमारे बीच से असामयिक और असामान्य तरीके से चला जाता है, तो हम उसके क्राइसिस की वजह वामपंथ के भीतर तलाशने लगते हैं। क्राइसिस दरअसल वामपंथ ने पैदा नहीं किया है, बल्कि क्राइसिस पूँजीवाद और उपभोक्तावाद ने पैदा किया है और जब भी हमारे इर्द-गिर्द मध्यवर्गीय घेरा कसता है, तो उस क्राइसिस का अहसास तीव्र हो उठता है। वह क्राइसिस हमसे हमारी आस्था और हमारी उम्मीद भी छिन लेता है और कई बार हमें उस तरह की जिंदगी के चुनाव के लिए विवश कर देता है, जो खुद हमारा वैचारिक मकसद नहीं होता। ललित कार्तिकेय ने अपनी नियति का जो चुनाव किया, उसके कारणों पर जरूर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए और ऐसी परिस्थितियों के बीच कोई और ललित न घिरे इसकी कोशिश भी करनी चाहिए। लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि ललित कार्तिकेय ने अपने समय को लेकर जो फिक्र जाहिर की है, जो कि उनकी किताब ‘सामने का समय’ में मौजूद हैं और उनके जो लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे हुए हैं, उन्हें सामने रखकर फिलहाल अपने समय के संकटों से संघर्ष की दिशा तय करनी चाहिए। ललित कार्तिकेय जैसे लोग इसी के जरिए जीवित रहेंगे। जरूरत उनकी फिक्र के दामन को मजबूती से पकड़ने की है। शोकसभा में कहानीकार योगेंद्र आहूजा, कवि कुमार मुकुल और दामिनी भी मौजूद थे।