लहर- लहर मन / निर्देश निधि

Gadya Kosh से
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देर रात गए उसकी अपनी भाभी ने भी फ़ोन पर यही बात तो की थी-"सुजू तुम्हारे भैया को किसी ने बताया कि आजकल तुम्हारे साथ कोई रहता है।"

"किसने बताया भैया को?"

"ये तो ख़ैर मुझे नहीं पता, पर वे थोड़ा नाराज़-से हो रहे थे, 'जैसी बात है'।" 'जैसी बात है' , हमेशा से उनका तकिया कलाम रहा है।

"भाभी, मैंने भैया से कहा था कि मेरे किराएदार से मेरा मकान ख़ाली करवाने में ज़रा—सी मदद कर दें मेरी। उन्हें याद है क्या?"

"मैंने तो बता दिया था देखो, बाकी तो वे ही जाने, 'जैसी बात है'।"

"तो मेरे साथ कौन रहता है, ये भी उन्हें ही जानने दो ना भाभी, आप क्यों परेशान होती हो, जैसी बात है।"

सुजाता के भीतर कहाँ से हिम्मत आ गई थी, इस तरह बोलने की, वह खुद हैरान थी। वे और भी बात करना चाहती थीं पर "अभी मुझे नींद आ रही है भाभी, कल बात करती हूँ।" कहकर, उनके प्रश्नों से खीझ आई सुजाता ने फ़ोन रख दिया। उसे भाभी पर कोफ़्त हो आई थी। ऐसी भी क्या इमरजेंसी थी यह नॉनसेंस बात करने की कि दिन भर भाग-दौड़ करके थककर सोती हुई उसे, उन्होंने नींद से जगा दिया। भाभी ही क्या, रिश्ते-नातेदारों सहित बेटे-बेटियों के फ़ोन आने लगे थे। दबा-छिपा प्रश्न यही होता कि वह आपके साथ क्यों है? स्टे कहाँ कर रहा है? आपके साथ कितनी देर रहता है? वह हरिद्वार में कब तक रहेगा? वगैरह-वगैरह। इन प्रश्नों से सुजाता बुरी तरह खीझ चुकी थी। उसके द्वारा मज़बूती से बाँध दी गई परेशानियों की सब गठरियाँ, भाभी की इस संक्षिप्त वार्ता ने रेशा-रेशा उसके सामने बिखेरकर रख दीं। वह आँख बँद करके सोने का प्रयास करने लगी, पर नींद कोसों दूर थी। नींद आती भी तो कैसे, गंगा की लहरों में तूफ़ान की लय जो आ गई थी।

बड़े शौक से बनवाया था यह घर सुजाता और संदीप ने हज़ार गज़ में, ठीक उस जगह जहाँ से गंगा दिखाई दे और सुनाई दें उसकी लहरों के तीव्र, मध्यम और मंद स्वर तक भी। वरना तो गंगा के घाट पर बसे इस पौराणिक नगर में रहने का अर्थ ही क्या! सामने बड़ा—सा लॉन और पोर्च, बाकी घर के तीन तरफ खाली जगह में तमाम पेड़-पौधे हरियाली और फव्वारे। उन दोनों की आधी से ज़्यादा रिश्तेदारियाँ यों भी छोटे-मोटे घर में कहाँ पल पातीं। सुजाता सिंह बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर थी और संदीप सिंह शहर के डिग्री कॉलेज के सम्मानित प्रोफ़ेसर, शिक्षाविद और गाँव में लम्बी-चौड़ी खेती-बाड़ी, सो किसान भी। घर के कोने-कोने से संपन्नता झाँकती थी। तब सुजाता अपनी ससुराल और मायके दोनों घरों की लाड़ली थी। गाँव में ससुराल और छोटे कस्बे में मायका। चूँकि सुजाता ही बड़े शहर में थी सो सभी के शहर में होने वाले सब काम उसके घर से ही होते। कोई बीमार हो, किसी की गोदभराई हो, शादी हो, किसी का मुकदमा या परीक्षा, या फिर वहीं रहकर पढ़ाई, सब उसके घर से ही होता। उसके पति संदीप, जिन्हें वह प्यार से दीप पुकारती, वे भी तो पूरा सहयोग करते उसके इस परोपकार मिशन में। वह तो इसे परोपकार भी कहने नहीं देती थी; क्योंकि वह तो अपनों की ज़िम्मेदारी निभा रही थी। उसके अपने तीन बच्चों के साथ-साथ भतीजियाँ-भांजियाँ, भतीजे, ननद के बच्चे भी उसी के घर रहकर पढ़ रहे थे। भाभी ने जतन करके गाँव से एक मिसरानी को रसोई के काम के लिए भेज दिया था और कहा था, "सुजू देखो तुम्हें रसोई के काम से तो आज़ादी मिली कम से कम, 'जैसी बात है'।" उन दिनों गंगा की लहरें सतह पर इतराती-इठलाती विचरतीं।

उसके अपने तीनों बच्चे पढ़-लिखकर घर-परिवार के हो गए, धीरे-धीरे बाक़ी सबके काम निकलते चले गए, तो सबका आना-जाना भी कम होता गया। कम भी इतना कि जब संदीप बीमार हुए, तो भी चंद लोग ही आ पाए, वह भी बस थोड़ी बहुत देर के लिए ही। सुजाता अकेली ही जूझती रही थी संदीप के साथ दिन-रात। यहाँ तक कि जिस दिन संदीप ने अंतिम साँस ली, उस दिन भी वह बिलकुल अकेली थी। संदीप के संसार से विदा लेने के घंटों बाद ही आ सके थे बच्चे और रिश्तेदार। कुछ बैंक के साथियों और उसकी अंतरंग मित्र राधिका ने ही सँभाला था सब काम। ठीक तेरह दिनों के बाद सब बच्चे और रिश्तेदार अपने-अपने घरों को लौट गए। सुजाता के सामने अब था जीवन का चिर एकांत, जहाँ दूर तक साँय-साँय करता शून्य था बस और था गंगा की लहरों पर कभी तेज, कभी हौले से हिचकोले खाता मन। कितनी अस्थिर, अधीर रहती थीं उन दिनों गंगा जल पर तैरती लहरें।

मिसरानी संदीप की बीमारी के दौरान ही अपनी बीमारी की वजह से गाँव जा चुकी थी। पूरी तरह सुनसान और निर्जन हुआ उसका यह अपना ही घर, अब उसकी पहचान में नहीं आता। कभी तिल भर की जगह भी नहीं बचती थी इसमें, शोर-शराबे के कारण एक दूसरे की बात भी सुनाई नहीं पड़ती थी। यह वही घर है जिसमें सुजाता अपनी साँसों की आवाज़ तक, एक दीवार से दूसरी दीवार तक टकराती हुई सुन सकती थी। कभी शोर करती गंगा की जो उर्मियाँ उसे बेपरवाह, मनमौजी और अल्हड़ लगती थीं, अब उसे वे अपने मन की तरह अशांत और बेचैन होकर एक-दूसरे से सिर धुनती हुई लगतीं। गंगा की ये उर्मियाँ ही उसे अब अपनी साथी लगतीं और वह अपना अकेलापन उन्हीं में घोल देती। जो बच्चे इस घर में जितने बरसों रहकर पढ़े-लिखे थे, वे या उनके माता-पिता सुजाता के अकेलेपन में साथ देने को उतने दिनों की भी व्यवस्था नहीं कर सके थे।

"बहनजी आप रुक जातीं न कुछ दिनों सुजाता के पास, कैसे रहेगी इतनी बड़ी कोठी में अकेली।" संदीप के जाने के बाद सुजाता की बहन ने उसकी ननद को सुझाया था। पर ननद ने यह कहकर अपनी विवशता ज़ाहिर कर दी थी-"इनको खाने-पीने की दिक्कत हो जाती है, मेरे घर न होने से। हाँ आप रुक जाओ बहनजी, आपकी तो बहू भी है घर पर।" ये वही ननद है, जिसका पति चेन्नई से नौकरी छोड़कर खाली हाथ आ गया था। बरसों नौकरी नहीं मिली थी, बीवी-बच्चों सहित सारा खर्चा दीप और सुजाता के ऊपर ही रहा था। सुजाता की बहन पहले तो सकपका गईं। फिर अपने हिस्से का बहाना खोज लिया था तुरत बुद्धि ने,

"बहू है, यही तो रोना है बहनजी। ऐसी जिम्मेदार होती कि घर-बार सँभाल ले, तो मैं ज़रूर रुक जाती। कुछ दिन और रुकी, तो सब चौपट मिलेगा। यों सुजू को यहाँ अकेली छोड़कर मेरे मुँह में तो एक निवाला भी मुश्किलों से जाएगा।"

सुजाता की इन जीजी के फेफड़ों में पानी भर गया था, मौत के मुँह में ही चली गई थी लगभग। दीप ही लिये-लिये दौड़े थे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल, तभी भेजा था गाँव जब वह पूरी तरह ठीक हो गई थी। अब दीप नहीं रहे, तो अकेली सुजाता क्या मदद कर पाएगी इन अपनों की यही सोचकर अपनायत के रंग बदरंगे होकर ढलक आए थे और दीप की आरिष्टि वाले दिन ही ये दोनों भी चलती बनी थीं। उस दिन गंगा में लहरें नहीं, दोनों तटों के बीच उनके आँसू बहे थे।

सुजाता ने अपनी बड़ी भतीजी से कहा था कि "कुछ दिन रुक जा टिन्नी, तू तो नौकरी भी नहीं कर रही अभी।" पर टिन्नी ने दीप के इलाज के दौरान सुजाता के मना करते-करते एक बार अस्पताल का बिल भर दिया था। अतः रुकने के नाम पर उसने कह दिया, "बुआ मैं तो नहीं रुक पाऊँगी, विधु और ये परेशान हो जाते हैं मेरे बिना और फिर मेरी तो सास भी पूरा ड्रामा है। वैसे भी मैं जो कर सकती थी वह तो मैंने कर ही दिया न बुआ।"

'जो वह कर सकती थी वह तो उसने कर ही दिया?' कितना कम हो गया था सुजाता का मनोबल उन दिनों। बिंदास बोलने बाली सुजाता उसका मुँह ताकती रह गई थी बस। याद करती रह गई कि यह वही टिन्नी है, जिसे पढ़ाने-लिखाने के लिए वह अपने घर ले आई थी, सबसे लड़-झगड़कर। तीसरी कक्षा से लगाकर अपने पास ही रखा था सुजाता ने एम.बी.ए. तक। वह आज कुछ हज़ार रुपये देकर अपने पालन-पोषण का उधार चुका गई थी। उसे क्या कहे, दो बेटे, एक बेटी के होते, किसी बच्चे ने झूट को भी तो यह नहीं कहा था कि माँ मेरे साथ चलो, मेरे घर। तुम जिस घर में कभी एक दिन भी अकेली नहीं रहीं, उसी घर में कैसे रहोगी निपट अकेली, पापा के बिना। बल्कि छोटी बहू ने यह बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिया था कि मम्मी जी को उनके पीहर छोड़ दिया जाए कुछ दिन के लिए, इनका मूड चेंज हो जाएगा। उसके वे दिन तो ख़ैर दुःख के थे पर आया उसे क्रोध था। वह बहू से पूछना चाहती थी, "यह बताने का हक़ तुम्हें किसने दिया कि मैं कहाँ रहूँ?" पर उसने क्रोध के अंगार को अपने सीने में दफ़न करने में ही भलाई समझी थी। उड़ती-उड़ती यह बात उसके भाई-भाभी के कानों में भी पहुँच गई थी। बहू की इस चतुराई-भरी सलाह का दुष्परिणाम यह निकला कि भाई-भाभी ने भी उससे कन्नी काट ली थी। इस डर से कि कहीं सुजाता जीवन भर के लिए हमारे ही गले न पड़ जाए। अभी बस माह भर ही तो बीता था। अभी तो मन की हिलोरें धीमी भी नहीं पड़ी थीं कि अकेलेपन के भँवर में फँसी वह जीवन के इस नए और विचित्र रूप से साक्षात्कार कर रही थी। उन दिनों गंगा की लहरें अपने निबलतम रूप में हिलोरें लेती थीं।

बेटी माधवी से भी मिन्नतें की थीं उसने, "माधवी तू तो जानती है कि मुझे अकेले रहना हमेशा से किस कदर सालता है। कुछ दिनों के लिए आ जाती।"

"माँ फोन पर तो बात हो ही लाती है रोज़। फिर मेरा या किसी और का आ जाना स्थायी समाधान तो है नहीं, देखो।"

"क्यों माधवी क्या मैंने तुम लोगों के लिए कुछ किया ही नहीं, जो तुम लोग मेरे लिए कुछ दिनों की छुट्टी भी नहीं ले सकते।"

"मम्मी कुछ तो प्रैक्टिकल बात करो। मेरा ऑफिस है, कैसे संभव है हर बार छुट्टी लेना।" सुजाता अपने ऊपर शर्मिंदा ही हुई थी ऐसी 'इम्प्रेक्टिकल' बात करके।

"आप रिया को बोलकर देख लो, उसकी तो मदर इन लॉ भी हैं उसके घर का खयाल रख ही लेंगी। पैसे वाली है उसकी जॉब छूट भी जाएगी, तो क्या फर्क पड़ेगा उसे।" बेटी माधवी ने उसे राय दी थी। रिया सुजाता की बहन की बेटी थी जो उसके ही घर रहकर पढ़ी थी।

" अरे जब तुम ही नहीं आ सकतीं, तो रिया पर ही मेरा क्या हक रह गया। कैसे कर रहे हो तुम लोग जैसे कुछ हुआ ही नहीं, एहसास है भी तुम्हें क्या हो गया है मेरे साथ?

"हाँ-हाँ मम्मी, सबको पता है, तुमने ही अपने पति को नहीं खोया, हम सबने अपने पापा को खोया है।" उसे कैसे समझाती सुजाता कि अपने परिवार में पापा से दूर रहकर उन्हें खोना और यहाँ सिर्फ तुम्हारे पापा के साथ अकेले रहकर, उन्हें ही खो देने में कितना बड़ा अंतर था। उन दिनों बड़ी विरक्त, विदग्ध और उदास हो गई थीं गंगा की लहरें।

बड़े भैया जिनकी बेहद लाड़ली थी सुजाता उन्होंने एक बार आना तो दूर, फ़ोन पर भी तो यह पूछने की जहमत नहीं उठाई थी कि सुजु अब तेरा विचार कहाँ रहने का है? एक बार झूट को ही कह दिया होता कि 'सुजू तू परेशान मत होना मैं भी हूँ।' ये वही बड़े भैया थे जिनका कभी मन उखड़ता। तो सुजाता के शहर, उसके घर की तरफ ही दौड़ते। जिनकी दोनों बेटियों को सुजाता ने ही पाला और पढ़ाया था। जब सुजाता संदीप के बाद पहली बार पीहर गई तो उसकी आँखें आँसुओं से भर गई थीं, इस पर भाभी ने तुरंत टोक दिया था। बस रोना-राना मत करना सुजु, बेकार अशगुनी करने को घर में, 'जैसी बात है'। ये वे ही भाभी थीं, जिन्हें बीमार पड़ने पर वह कितनी ही बार ले आई थी अपने साथ, अपने घर। जिनके हर रोने-धोने में भी वह उनके आँसू पोंछने के लिए अपना आँचल लिये खड़ी रही थी। भाभी की हिदायत के बाण से उसका दिल भीतर तक बिंध गया था। जब वह उन जैसे आत्मीयों से भी अपना दुःख नहीं बाँट सकती, तो फिर उनके पास आने का अर्थ ही क्या है आख़िर। सुजाता ने कभी अपने माँ-बाबू जी को याद करके भाई-भाभी के प्यार के कमतर होने का अहसास नहीं होने दिया था। उस दिन भाभी की बात सुनकर माँ-बाबू जी बेहद याद आए थे। वे होते तो उनके सीने से लिपटकर वह मन के सभी बाँध खोलकर रो तो सकती थी कम से कम, अपने पीहर के घर में। अपने दुःख और एकांत के भारी-भरकम पहाड़ को अपने जीवन के दरवाज़े से उसे अकेले ही धकेलना था, वह समझ गई थी। बस उसकी एक मित्र राधिका ही उसके साथ खड़ी रही थी। वह अक्सर ऑफ़िस से सुजाता के पास चली आती उसके घर। गंगा की लहरों से उस दिन सुजाता को किसी संकल्प की—सी ध्वनि आई थी।

महीनों बीत चुके थे संदीप को गए, अभी तक किसी काम को देखने का मन हुआ नहीं था सुजाता का। उसने किसी तरह अपने मन को समझाकर छूट गए कामों को उठाया था। उसके सामने तमाम कागज़ फैले हुए थे बिजली का बिल, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, गाड़ी का लेट हो गया बीमा, नई प्रॉपर्टी की छूट गई किश्तें और भी तमाम काम, जिन्हें वह संदीप की बीमारी के दौरान देख नहीं पाई थी, पड़े थे निपटाने को। उफ़! उस दिन कैसा भँवर बनाया था गंगा की लहरों ने, सब देखते ही रह गए।

उफ! क्या मुसीबत है। कौन—सा काम बाद में करे और कौन-सा पहले कर ले, समझ ही नहीं पा रही थी। इन सब कामों को निपटाने का जिम्मा तो संदीप का ही था। अब कई कामों को निपटाने के लिए संदीप के ही मृत्यु प्रमाणपत्र की आवश्यकता थी, वह भी उसे खुद ही बनवाना था। फिर से रुआँसी हो उठी थी वह। कल जिसके कंधों पर उसका जीवन टिका था, आज वह खुद ही काग़ज़ों में सिमटकर रह गया था। समझ ही नहीं आ रहा था, वह बैठकर रो ले या काम कर ले। पर रोकर भी क्या करेगी, आसपास कोई आँसू पोंछने वाला भी तो नहीं। सबके होते वह अकेली ही तो संदीप की बीमारी से जूझती रही थी। पर तब तो संदीप थे, सो हर मुसीबत से लड़ने की ऊर्जा थी उसमें। संदीप की एक मौत ने कई शिकार किए थे। मसलन, सुजाता की खुशियों का, उसके मन के चैन का, उसकी सुरक्षा भावना का, उसके स्वास्थ्य और सफलताओं का शिकार। उन दिनों गंगा की लहरों के चेहरे कैसे रुग्ण और वितृष्णा से भरे लगते थे।

दो दिनों से कामवाली भी नहीं आई है। ना ही कोई कुछ खा लेने को कहने वाला, ना कोई कुछ खाने को बनाकर देने वाला, न बनाने को ही कहने वाला। वह उस दिन सुबह से ही कागजों में ऐसी उलझी कि कुछ खाने का ध्यान ही नहीं आया। दिमाग कुछ झुँझला—सा गया, पर क्यों? यह भी याद नहीं आया था उसे। साँझ की दबंगई के कारण दिन, ढलने से पहले ही कुछ फीका—सा हो आया था। लगभग पौने चार बज गए थे, अब उसके दिमाग़ ने काम करना लगभग बन्द कर दिया था। गंगा की लहरों में उसे बहुत बेचैनी घुली हुई लग रही थी। अचानक उसे याद आया कि आज सुबह से कुछ भी तो नहीं खाया था उसने। वह दुखी मन से कुछ खा लेने के लिए उठना चाह ही रही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी। अब उठना जरूरी हो गया। उसने दरवाजा खोला तो आँखें आगंतुक के चेहरे पर टिकी ही रह गईं।

"तुम?" गंगा की लहरों में ज्वार—सा आया था उस पल।

"चलो अभी तुम मुझे भूली नहीं हो।" आगंतुक ने आश्वस्ति प्रकट की।

"तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ?"

उसकी उदास, बेबस आँखें आगंतुक को सामने देखकर बरस पड़ी थीं। वह भूल गई थी उसे बैठने को कहना भी। तब आगंतुक ने खुद ही पूछा था, "बैठने को नहीं कहोगी?"

"——"

आँसुओं को पोंछते हुए, कुछ बोल तो नहीं पाई थी वह, बस उसने इशारा ही किया था, लिविंग एरिया में पड़े सोफ़े की तरफ।

"ग़नीमत है बैठने का इशारा तो किया तुमने, वरना वहीं खड़ा रख देतीं।" दिन भर की यात्रा से थका हुआ आगंतुक सोफ़े पर बैठ गया।

"मैं पानी लाती हूँ तुम्हारे लिए।" कहकर आँसू पोंछती हुई वह रसोई की ओर चली गई थी।

"हाँ, बहुत प्यास लगी है, मैं रेलवे स्टेशन से यहाँ तक आने में बेहाल हो गया सुजू। बहुत गर्मी है तुम्हारी इस धरम नगरी में तो।"

माहौल को थोड़ा हल्का करने के लिए यही बोल सका था आगंतुक। सुजाता पानी ले आई थी और उसने बिना कुछ बोले ही ट्रे आगंतुक के आगे कर दी। वह भी बिना कुछ बोले एक साँस में गिलास का सारा पानी पी गया और सुजाता को खड़ी ही देखकर बोला, "बैठो सुजू।" वह यंत्रवत् बैठ गई।

"कहाँ से आ रहे हो, घर का पता किससे लिया?"

"घर का पता भी मिल ही गया कहीं से।"

"जानते हो क्या हो गया देव?" कहकर उसकी हिचकियाँ बँध गईं।

"हाँ।" गंभीरता से देव इतना ही बोला बस।

"पर तुम्हें कैसे पता चला?" रुलाई रोकने की कोशिश में उसके होंठ काँपने लगे थे।

"फेस बुक..."

"पर तुम तो फेसबुक पर हो ही नहीं।" उसने अपनी हिचकियाँ रोककर, आँखों से जबरन बाहर निकल आए अपने आँसू पोरुओं से पोंछते हुए पूछा था।

"मैं नहीं हूँ; पर तुम तो हो न..."

"हूँ।" बस यही बोल पाई थी सुजाता।

"तुम क्या सोचती हो कि मैं इतना लापरवाह हूँ तुम्हें लेकर कि तुम्हारी कोई खबर भी नहीं रखूँगा?" उदासी से भारी हो आई आवाज़ में बोला था देव।

"तो फिर आने में इतने सारे दिन क्यों लगा दिए देव?" और खुद को रोकते-रोकते वह फिर से रो दी थी।

"तुमने संदीप की बीमारी की कोई खबर दी ही नहीं थी मुझे, न ही अपनी फेसबुक वॉल पर कोई पोस्ट डाली तुमने। मैं कैसे जान पाता कि तुम इतनी बड़ी परेशानी से गुजर रही हो।"

"दीप के जाने के बाद भी तुमने कितने सारे दिन लगा दिए आने में।" सुजाता ने शिकायत की थी।

"इससे पहले तो मैं आ ही नहीं सकता था सुजू।"

"पर क्यों?" वह बच्चों की तरह अधीर हो उठी।

"तुम चाय-वाय नहीं पिलाओगी?" देव बात को बदलने के लिए थोड़ा मूड बदलकर बोला था।

"हूँ।" वह अतिथि सत्कार में चूक होने पर थोड़ी—सी झेंपी और चाय बनाने रसोई में चली गई थी।

"तुम्हें फ्रेश होना हो तो वाशरूम उधर है।" चाय चढ़ाकर सुजाता ने देव को वाशरूम का रास्ता बताया था।

देव जब तक हाथ-मुँह धोकर निकला, सुजाता दो कप चाय, बिस्किट, नमकीन और थोड़ा—सा केक बचा पड़ा था फ्रिज में, सो ले आई। थोड़ी देर चुप्पी ही रही। फिर सोफ़े पर बिखरे हुए कागजों की तरफ गर्दन घुमाकर देव ने पूछा, "ये सब क्यों बिखेर रखे हैं?" उत्तर में वह रुआँसी हो आई थी।

"इतने दिनों से कोई भी काम नहीं हो सका था देव, सो आज सब लेकर बैठी हूँ।" उसने अपनी आर्द्र हो आई आँखों पर अपनी पलकें गिरा लीं।

"हाँ, तो इसमें परेशान होने वाली क्या बात है?"

"इतना कुछ है कि समझ ही नहीं आ रहा, क्या पहले करूँ और क्या बाद में।"

"धैर्य रखो और एक-एक करके करो, सब हो जाएँगे।"

"एक बड़ी और नई मुसीबत और आ पड़ी है देव।" चाय का मग देव के हाथ में पकड़ाते हुए वह बोली थी। उसे अपनी मुसीबत के आगे ध्यान ही नहीं आया कि देव बरसों बाद मिला है उसे। उससे बातें कर ले या उसकी कोई कुशल-क्षेम ही पूछ ले।

"क्या है वह बड़ी मुसीबत, जान सकता हूँ?" देव ने पूछा था।

"जब दीप बीमार थे, तो मैं अकेली होने की वजह से बहुत घबरा गई थी। तब मैंने ऊपर वाले फ़्लोर पर एक किराएदार रख लिया था। शुरू में तो लगा कि पति-पत्नी दोनों मददगार हैं, पर उसकी नीयत का राज जल्दी ही खुल गया। कई महीने हो गए उसने किराया ही नहीं दिया। बीवी-बच्चों को न जाने कहाँ छोड़ आया। बाहर लॉन में क़ब्ज़ा जैसे कर लिया है, रोज़ ना जाने कौन-कौन आते हैं उसके पास, घंटों खाना-पीना वहीं करता है, मैं बाहर भी निकलने से बचने लगी हूँ। मेरा ही घर, मैं ही यहाँ फ़्रीली नहीं रह सकती।"

"तो उसे घर ख़ाली करने को कहो।" देव ने सुझाया।

"घर खाली करने को कह रही हूँ तो टाल-मटोल करता है।"

"बच्चों को बुला लेतीं सुजू।"

"बच्चों से कहा कि यह मसला हल कराकर जाएँ, तो किसी के पास समय ही नहीं। कहते हैं कि मत देने दो किराया, आपको कौन-सी पैसे की कमी है। तुम्हीं बताओ ऐसे कैसे रहने दूँ! कल मुझे भी निकाल बाहर करने पर उतर आया तो?" सुजाता ने निरीह नज़रों से देव की ओर देखा। गंगा की लहरों के स्वर कुछ ऐसे आए थे जैसे किसी मज़बूत शृंखला में बाँध दी गई हों।

"कोई बात नहीं सुजू! अब मैं आ गया हूँ न, अगर तुम चाहोगी तो मैं तुम्हारी मदद करूँगा।" देव ने उसे आश्वासन दिया। गंगा की लहरें अकस्मात् ही आश्वस्ति से भर उठीं।

"इतने औपचारिक हो जाओगो, तो मन ख़राब होगा देव। मैं भला क्यों नहीं चाहूँगी, पर तुम यहाँ रह ही कितना पाओगे।" वह ठंडी साँस लेकर बोली। उसके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आईं। देव कितना भी अच्छा दोस्त सही; पर है तो एक पुरुष ही। वह उसके साथ घर में देर तक कैसे रह सकता है। वह यहाँ रह गया तो आस-पड़ोस के लोग क्या कहेंगे, नाते-रिश्तेदार क्या कहेंगे? सबसे ज़्यादा चिंता तो उसे अपने बच्चों की हुई कि बच्चे क्या कहेंगे? पल भर में उसने यह सब सोच डाला। गंगा की लहरों का स्वर आश्वस्ति छोड़ बेचैनी में बदल गया।

"सुजाता चिंता मत करो, मैं यहाँ उतना ही रहूँगा, जितना तुम चाहोगी।" देव को सुजाता की उलझन समझते देर नहीं लगी। एक-दूसरे की अनकही को समझ पाने की यह क्षमता ही तो है, जिसके कारण पिछले लगभग तीन दशकों से उनकी दोस्ती बरकरार है। इस बीच चाहे वे आपस में मिले या नहीं, फ़ोन पर भी बात हुई या नहीं पर दोस्ती के प्याले में कभी कोई चटकन नहीं आने पाई।

"नहीं-नहीं, उसकी चिंता नहीं कर रही।" जैसे देव ने उसकी कोई चोरी पकड़ ली थी। अतः उसने बात को दूसरा रुख दिया।

"पता है देव हमने तीनों बच्चों के ब्याह-शादी निपटा दिए थे, हमारी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी हो चुकी थीं, जब संदीप का रिटायरमेंट हुआ। मैंने अपना कार्यकाल पूरा होने से तीन बरस पूर्व ही वी आर एस ले लिया और हमने अपनी पसंदीदा जगहें घूमने का प्लान बनाया। टिकिट तक करा लिये थे। हमारे भ्रमण में तुम्हारा मॉरीशस भी शामिल था और शामिल था तुमसे मिलना भी।" वह कहते-कहते पल को रुकी।

"" -देव बिना कुछ बोले, एकटक सुजाता की तरफ़ देखते हुए पूरे मनोयोग से उसकी बात सुन रहा था।

"कितनी अजीब बात है न देव, जब तक हम कमाते हैं, तब तक पैसा हमेशा कम ही पड़ा रहता है और जब हम रिटायर हो जाते हैं, तो पैसे की बहुतायत होती है। तब तक सारे खर्चे, घर-मकान से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, ब्याह-शादी, सब निपट चुके होते हैं।"

"हाँ सो तो है।" देव ने समर्थन किया।

"अब हम जहाँ चाहे घूम सकते थे, जो कभी पहले नहीं किया, वह कर सकते थे। मसलन जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत बड़े उत्साह के साथ करने की योजना बना रहे थे हम।" कहकर उसकी आँखें डबडबा आईं। वह थोड़ा रुकी, फिर बोली।

"दीप को पेट में हल्का-हल्का—सा दर्द रहना शुरू हो गया था। जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत खराब तरह से न हो कहीं, इस डर से दीप ने महीनों मुझे यह बात बताई ही नहीं। खुद ही चुपचाप दर्द-निवारक गोलियाँ खाते रहे। जब उनकी भूख और वज़न कम होने लगे तो मुझे चिंता हुई। घूमने जाने से पहले दीप को डॉक्टर को दिखाया तो पैंक्रियाज़ का कैंसर उनमें अपनी जड़ जमाकर पूरे शरीर में पसर चुका था। घूमने जाने का प्लान तो ख़त्म हो ही गया ख़ैर, उसके साथ ही सात-आठ महीनों में देव का शारीरिक रूप भी ख़त्म हो गया।" वह फिर चुप हो गई। गंगा की लहरों का कंठ भी कुछ अवरुद्ध हो गया जैसे।

देव ने बस अपना सिर हल्के से हिलाया।

"पता है देव! दीप कहते थे कि तुम्हारे बिना तो मैं कहीं जा ही नहीं सकता।" इस बार उसका अपना कण्ठ अवरुद्ध हो आया, देव ने उसे पानी का गिलास पकड़ाया, उसने घूँट भर पानी पिया और अवरुद्ध कंठ से ही बोली, "और देखो अब, मेरे बिना ही, अंतहीन भ्रमण पर निकल गए। जीवन की दूसरी पारी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई देव।" कहकर वह बच्चों की तरह

सुबक-सुबककर रो पड़ी और रो पड़ीं गंगा की लहरें भी। देव गहरी संवेदना से भर उठा था। मन किया कि सुजाता को अपने सीने से लगा ले, पर यह कर नहीं सका वह। यही आशंका कि कहीं सुजाता उसे अवसरवादी न समझ बैठे। डर से उसने खुद को आवश्यकता से भी अधिक सँभाले रखा। सम्भवतः वह इस सत्य से अनभिज्ञ था कि सुजाता को उस समय रोने के लिए किसी अपने के कंधे की ज़रूरत तो ज़रूर ही थी।

साँझ गहराती जा रही थी। देव को क्या खिलाना है डिनर में, घर में देखा तो कुछ था ही नहीं बनाने के लिए। अतः वह देव के लिए टीवी ऑन करके, कॉलोनी वाली दुकान से सब्ज़ी ले आई थी। जल्दी से उसने खाना बनाया, खिलाया और मन ही मन इस प्रश्न में उलझ गई थी वह कि क्या देव रात में यहीं रहेगा, यहाँ कैसे रह सकता है आख़िर। देव उसकी उलझन समझ गया और सुजाता को अहसास कराए बिना पौने नौ बजे करीब बोला, "अब मैं चलता हूँ सुजू, थैंक्स फ़ॉर डिनर।"

"कहाँ जाओगे देव?" वह बुझी-सी, पर आश्वस्त हुई आवाज़ में बोली।

"तुम्हारे घर से करीब ढाई-तीन किलोमीटर पर ठहरा हूँ। मेरे दोस्त का घर है। वह साल भर के लिए जर्मनी गया है, सो घर खाली है। वहाँ केयर टेकर भी है, वह खाना भी बनाता है। मेरे लिए भी बना दिया करेगा। तुम उस सबकी चिंता मत करना। सुबह फिर से आ जाऊँगा। ये सारे काम देखता हूँ, कैसे निपटाने हैं। किराएदार को यहाँ से हटाने का भी कोई उपाय करता हूँ, बस तुम परेशान मत होना।" इस समय सुजाता के लिए यह सहारा बहुत से भी कुछ अधिक ही था। देव ने उठकर प्यार से सुजाता के कंधों को थपथपाया और अपने एकांत से रूबरू होने चला गया।

गंगा की लहरें रात भर सुजाता की चिंता को बहाकर दूर ले लाने का यत्न करती रहीं, फिर भी देर तक सुजाता को नींद नहीं आई। वह याद करती रही कि कैसे देव से पहली मुलाक़ात ट्रेन में हुई थी, तब, जब वह अपने विवाह के लिए नौकरी से डेढ़ माह की छुट्टी लेकर घर जा रही थी। देव को नई नौकरी मॉरीशस में मिली थी। वह अपने घर जा रहा था, मॉरीशस जाने की तैयारी करने। कितना आत्मीय लगा था वह उसे। क़रीब सोलह घंटों की यात्रा के बाद उससे विश्वास की ऐसी गाँठ बँधी जो कई जन्मों तक भी बँधी रह सकती है। पहले चिट्ठियों के माध्यम से, फिर लैंड लाइन फ़ोन, फिर मोबाइल फ़ोन, इंटरनेट और फिर, फिर तो विडियो तक आ ही गए और उनके बीच संवाद और भी निरंतर बन गया।

ऐसा नहीं कि संदीप को सुजाता के देव से संपर्क बनाए रखने से कोई ऐतराज नहीं था। अक्सर वह सुजाता से पहले ही देव के पत्र खोलकर पूरे-पूरे पढ़ डालते; परंतु उनमें कभी कुछ ऐसा नहीं खोज पाए कि जिसके बहाने उनकी दोस्ती पर कोई प्रतिबंध लगा पाने की बात सोच पाते। पर किसी शंकालु पति की तरह वे अक्सर इतना तो कह ही देते कि स्त्री-पुरुष के बीच कभी भी सिर्फ़ दोस्ती नहीं रह सकती। कभी 'तुम्हारा वह तथाकथित दोस्त' कहकर तानाकशी भी कर देते। सुजाता इसे पति की स्वाभाविक पजेसिवनैस जानकर हमेशा अनदेखा करती रही थी। देव का मर्यादित रहना सुजाता को उससे दोस्ती रखने के लिए बल देता रहा। फिर वह कौन—सा अपनी गली या अपने नुक्कड़ वाला था, जो पलक झपकते आ धमकता उसके सामने। वह तो देश तक में नहीं था। शायद संदीप के लिए एक यही राहत वाली बात रही होगी, खुले शब्दों में ऐतराज न कर पाने की। शादी के बाद अपने मॉरीशस भ्रमण में संदीप ने देव के घर रुकने से साफ इंकार कर दिया था; पर वहाँ जाकर देव का आत्मीयता से भरा व्यवहार देखकर उसका आतिथ्य अस्वीकार नहीं कर पाए थे संदीप। सुजाता देव से दुबारा तभी मिली थी। उसके बाद जब भी देव भारत आया तो सुजाता और संदीप से ज़रूर मिला था। इस बार वह लम्बे अंतराल के बाद मिल रहा था। अविश्वसनीय—सा लगता है आज के युग में इतने बरसों न मिलकर भी आत्मीय बने रह जाना, जिस युग में आए दिन मिलकर आत्मीय भी आत्मीय नहीं रहते। आधी रात जा चुकी थी। सदियों से सतत बहती गंगा की लहरें अविश्वसनीय को विश्वसनीय बनने में सहयोग दे रही हैं। सोचते-सोचते सुजाता को नींद आ गई थी। देव अगले दिन समय से आ गया था। सुजाता की जितनी भी कागजी कार्यवाही थी, सब ठीक-ठाक कराने का जिम्मा ले लिया था उसने। कई दिनों तक कार लिये साथ ही साथ घूमते रहे थे देव और सुजाता एक स्थान से दूसरे स्थान। एक-एक कर काम निपटाए थे दोनों ने मिलकर। इत्तफाकन देव के बहनोई, लगभग छह माह पूर्व एस पी की पोस्ट पर ट्रांसफ़र होकर हरिद्वार ही आए थे। अतः सुजाता के किराएदार को निकालना तो देव के लिए चुटकी का खेल हो गया था।


उस दिन वे दोनों संदीप का मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर लाए थे। देव गाड़ी ड्राइव कर रहा था और सुजाता अपनी उदासी को शब्दों के घोल में तरल बनाकर उसके कानों में उड़ेले जा रही थी।

"देखो न देव, स्त्री के तो सकल अस्तित्व पर छपी दिखाई देती है उसके पति की मृत्यु, वह भी अमिट रंगों से, फिर भी उससे उसके पति की मृत्यु का प्रमाण पत्र माँगते हैं, कितने निर्मम हैं न लोग।" देव जैसे यह सब सुनकर थक चुका है।

"सुजू, अब बस भी करो यार, कल पीछे छूट चुका है और पीछे देखने के लिए आँखें नहीं दी हैं प्रकृति ने मनुष्य को। कौन-सी दुनिया में फँसी हो तुम, अब आगे बढ़ो, संदीप अब लौटेंगे नहीं, यह स्वीकारो और खुद को सँभालो।"

"देव!" जैसे कोई छोटा बच्चा किसी बड़े की नाराज़गी से सहम जाए, वैसे ही सहमकर बस उसका नाम ही पुकार पाई थी सुजाता।

"हाँ, आगे बढ़ो सुजाता।" दाहिने हाथ से स्टेयरिंग थामकर बाएँ हाथ से देव ने उसकी गोदी में रखा उसका हाथ बड़ी नरमी से छुआ था।

चलते-चलते देव शहर से बाहर गंगा के किनारे निकल आया था। गंगा किनारे ग्रीष्म की साँझ अलौकिक आनंद का अनुभव कराती है। गंगा का यह किनारा 'हर की पौड़ी' जैसी किसी पहचान का मोहताज नहीं। यहाँ गंगा अपनी लहरों को किसी बंधन में नहीं बाँधती, वह उन्हें स्वेच्छा से बहने देती है, उन्हें स्वच्छन्दता से बनने-बिगड़ने देती है। ऐसी ही स्वतंत्र और स्वच्छन्द निर्मल धाराएँ दूर तक गंगा के आँचल में खेलती दिखाई दे रही थीं। दोनों किनारे जैसे इस मनमौजी, बिगड़ैल और अल्हड़ बच्ची गंगा के माता-पिता सरीखे हैं, जो इसे सुरक्षित रखने के लिए ही, सदा इसके दोनों तरफ़ उपस्थित रहते हैं।

इस किनारे पर कोई तीर्थ यात्री नहीं आता। हाँ, कुछ शांतिप्रिय सैलानी कभी-कभार अवश्य आ जाते हैं। साँझ गंगा के विस्तृत तन पर ढलक आई थी। ढलता सूरज जैसे अपना सारा गेरुआ रंग गंगा के तरल तन पर उड़ेले दे रहा था, तरलता में रंग जल्दी समा जाते हैं न, यही कारण है कि किनारों के द्वारा निर्धारित किए गए एक निश्चित आकार को आगे-पीछे धकियाती यह अल्हड़ गंगा, ज़रा-सी देर में अनुशासित गेरुआ धारी योगिनी—सी दिखाई देने लगी थी।

"आओ यहाँ बैठो।" देव ने सुजाता से कहा था।

"रेत गीली है देव।"

"हाँ, लगता है गंगा को आज सगर के साठ हज़ार पुत्रों की अंतिम विदाई का स्मरण हो आया और उसकी यह सलेटी रेत आँसुओं से आर्द्र हो आई।" हालांकि देव उदासी भरी बातों से परहेज़ करता है, फिर भी वह बोला था।

"इसके आँचल पर तो रोज़ ही संसार के ना जाने कितने पुत्र-पुत्रियों की अंतिम विदाई के विलाप लिखे जाते हैं देव, इसे उदास होने के लिए सगर के साठ हज़ार पुत्रों की विदाई याद करने की क्या ज़रूरत होगी भला!" सुजाता ने कहा था।

"हाँ यह भी सच है सुजू, वैसे भी मैं तो तुम्हारी ही तर्ज़ पर थोड़ी दार्शनिकता लुढ़का रहा था तुम्हारी तरफ़।" कहकर देव हँस दिया। इस निर्जन में उसकी हँसी गंगा की लहरों की कल-कल में मिलकर वातावरण को जीवंत करने के साथ ही सुजाता के थके-हारे मन में आशा का संचार कर गई।

"मैं सोचती हूँ देव कि इन नदियों से ही हमारी पहचान है, इन्होंने ही हमें जीवन दिया, हमारी आरम्भिक सभ्यताओं ने इन्हीं के किनारे जन्म लिया, फली-फूलीं और इनके आँसुओं की हमें ज़रा चिंता, ज़रा परवाह नहीं। एक पल को मान लो कि गंगा को हरिद्वार से अलग कर दिया जाए, तो हरिद्वार में कितना हरिद्वार बचेगा भला!"

"हाँ आदमी का स्वार्थ ही है सब, अब तो उसे अपनी ही चिंता-परवाह है बस।" बातें करते-करते वे दोनों एक पत्थर पर बैठ गए। दोनों ही लम्बे पीड़ादायी एकांत से चुके हुए प्राणी एक दूसरे के सान्निध्य का सुख बूँद-बूँद सोख लेना चाहते थे।

"मैं नहीं जानता कि तुम्हारे पास बैठकर मुझे इतना सुकून क्यों मिलता है सुजू, इस फ़ैक्ट का मैं कारण जानना ही नहीं चाहता।" देव ने शब्दों में हेर-फेर किए बिना कहा था।

"—"-सुजाता का मौन भी प्रत्युत्तर में जैसे यही तो कहना चाहता था देव से।

"गंगा के किनारे बैठने का सुख मैं बरसों बाद ले रहा हूँ सुजू। मॉरीशस में तो समझो लोटा भर गंगा है।"

"लोटा भर गंगा कैसी होती है?" इस बार सुजाता हँस दी।

"जब अंग्रेज भारतीयों को गिरमिटिये मज़दूर बनाकर ले गए थे, तो वे बेचारे गिरमिटिये दो ही चीजें लेकर गए थे। एक तो रामचरितमानस की प्रतियाँ और दूसरा गंगा का जल। पहली से उन्होंने अंग्रेजों के अधीन पराई धरती पर अपना धर्म ध्वज स्थापित किया और दूसरे ले जाए गए गंगा जल को वहाँ के जल में मिलाकर परदेस की धरती पर पवित्र पापमोचनी गंगा के प्रतिरूप का निर्माण किया और देखो आज वे इन दो चीजों और अपनी लगन के बल पर वहाँ के शासक हैं।"

दोनों की समीपता के कारण सुजाता का दाहिना और देव का बायाँ कंधा एक दूसरे को हल्का—सा स्पर्श कर रहे थे। सुजाता इस स्पर्श के सुख को शब्दों के जल से धोकर ज़ाया हो जाने देना नहीं चाहती, अतः वह मौन हो गई।

"उदास हो सुजू?" सुजाता की चुप्पी ने देव से यह प्रश्न निकलवाया था।

"नहीं तो।" उसने संक्षिप्त उत्तर दिया था।

"जीवन और सुख-दुःख, गंगा और उसकी लहरों जैसे ही तो हैं सुजू, जो अलग-अलग होते हुए भी एक ही हैं। इनके लिए समभाव रखना ही ठीक है, उदास मत रहो तुम। इस संसार में हम सब अपने-अपने जीवन में अकेले ही तो हैं, कोई किसी के साथ नहीं।" सुजाता ने अपना सिर देव के कंधे पर टिका दिया। निःशब्द रहकर ही वह देव के सान्निध्य की सुखानुभूति को आत्मा तक सहेजना चाहती थी जैसे। सूरज धरती और आकाश के मध्य क्षितिज में कहीं बलात् घुसने को प्रयासरत था। शायद इसी मशक़्क़त के कारण उसका चेहरा लाल सिंदूरी हो आया। पवन का स्वर थोड़ा और मंद पड़ गया था। वे दोनों देर तक वहाँ यूँ ही बैठे रहे निःशब्द। सूरज क्षितिज में समा जाने में सफल हुआ और वे दोनों घर जाने के लिए उठ खड़े हुए। उस दिन का उनका अनुभव कह रहा था कि गंगा का यह निर्जन किनारा अब अक्सर उनके सान्निध्य का गवाह रहने वाला था।

यों हरिद्वार धर्मनगरी ही सही; पर किसी के सुख-दुख बाँटने का धर्म यहाँ भी कोई नहीं करता। हाँ, किसी को मिल गई किसी सुविधा या किसी को मिले हमदर्द को ताड़ने की फुरसत तो धर्मनगरी भी निकाल ही लेती है। देव का रोज़ आना-जाना सुजाता के जान-पहचान वालों के बीच कानाफूसी का विषय बनता जा रहा था। लोग सवालों को आड़ा-तिरछा करके पूछते, जैसे,

"ये आपके भाई कहाँ से आए हैं?" या

"आपके भाई साहब काफी दिनों की छुट्टियाँ लेकर आए हैं, आपकी मदद के लिए।" या "कहाँ होते हैं ऐसे भाई आजकल सुजाता जी जैसे आपको मिले।"

यह सब सुनते-सहते सुजाता तंग आ गई थी। मुसीबतों के पहाड़ अकेली अपने कंधों पर ढोकर उसमें हर परिस्थिति का सामना कर पाने का साहस तो आ ही गया था और आ गया था मुँहतोड़ जवाब देना भी।

"नहीं देव मेरे कोई भाई-वाई साहब नहीं हैं, वे मित्र हैं मेरे।" अब ऐसे उत्तर देने को वह स्थगित नहीं करती।


उस दिन देव देर से आ पाया था। सुजाता ने उसे बैठने को कहा और कॉफ़ी बना लाई। बात सुजाता ने छेड़ी थी,

"तुम उस दिन कह रहे थे कि इससे पहले आ ही नहीं सकते थे भारत। ऐसा क्या हुआ था देव, आज बताओ?"

"क्या करोगी जानकर?"

"जानना ही है बस।"

"लेकिन क्यों जानना है?"

"बस यूँ ही कि कहीं तुम जान-बूझकर तो देर से नहीं आए, कहीं मुझे इग्नोर तो नहीं करते रहे।"

"कैसी बात करती हो सुजू।" सुजाता नामालूम-सी मुस्कान मुस्कुराई और देव के क़रीब आकर उसका हाथ अपने हाथों में कसकर पकड़ लिया और उसके बिल्कुल पास बैठ गई।

"तो सुनो फिर, रमोना का तो तुम्हें पता ही है न, उसने तो तलाक ले ही लिया था, दसियों बरस हो गए इस बात को। विजित यानी बेटा ही था साथ बस, उसी के सहारे चल रहा था जीवन, परंतु क़िस्मत में नहीं था उसका साथ भी। न जाने कब और कैसे उसे ड्रग्स लेने की लत पड़ गई। रमोना ने एक बार भी उसके विषय में नहीं सोचा और वापस नहीं आई। मैंने प्रयास तो जी तोड़ किया विज़ित को बचा लेने का; पर बहुत देर हो चुकी थी सुजू। यह ऐन तभी की बात है, इसीलिए नहीं आ सका था तब मैं। अब वहाँ विजित को ईश्वर ने नहीं छोड़ा और रमोना होते हुए भी नहीं है। सो अब तो यहीं आ गया हूँ हमेशा के लिए।"

"ओह! अपना इतना बड़ा दुःख, इतने दिनों तक नहीं बताया मुझे तुमने।" सुजाता ने देव को कसकर गले लगा लिया। दोनों की रिक्तियाँ भरने लगीं जैसे और गंगा की लहरों पर प्रेम का गुलाबी रंग तिर आया।

देव की आँखों से कुछ आँसू बिखर पड़े। देव की आपबीती सुनते-सुनाते बहुत रात निकल गई थी। देखा तो घड़ी की सुइयाँ रात के साढ़े तीन बजा रही थीं। देव उठकर जाने लगा, पर सुजाता ने उसे रोक दिया।

"मुझे जाने दो सुजू। देखो दिन की बात और है, अगर मैं रात को यहाँ रुका, तो तुम्हें लोगों से उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिलेंगी।" देव ने स्पष्ट कहा था।

"अब रात बची ही कहाँ है देव? वैसे भी, अब अगर तुम चले भी गए, तो कौन-सी वे बातें नहीं सुननी पड़ेंगी मुझे?"

"सुजू मैं देख रहा हूँ इन मुट्ठी भर दिनों में तुम कितनी बोल्ड हो गई हो!" देव की दृष्टि उसकी आँखों में जाकर ठहर गई। सुजाता ने हौले से उसकी दृष्टि को पलकों के भीतर ही बन्द कर लिया।


"आजकल तुम्हारे पास कौन आया हुआ है सुजाता?" अगले ही दिन सुजाता की बड़ी ननद का फ़ोन आया था।

"देव है।"

"कौन देव?"

"वही, मेरा मॉरीशस वाला मित्र, आप नहीं जानतीं?"

"मैं क्यों जानती फिरूँगी किसी ऐरे-ग़ैरे नत्थु खैरे को?"

"देव कोई ऐरा-ग़ैरा नहीं है, मेरा बहुत पुराना दोस्त है।" सुजाता की आवाज़ थोड़ी तल्ख़ हो आई।

"हाँ-हाँ दोस्त तो ठीक है; पर इतने दिनों के लिए क्यों आया हुआ है?"

"वो इतने नहीं, सब दिनों के लिए यहीं आ गया है भारत।" सुजाता ने हिम्मत से जवाब दिया था।

और भी पचास प्रश्न उठ खड़े हुए थे उनके। जवाब तो सुजाता के पास सबके हैं, परंतु उसे अपनी मित्र राधिका की बात याद हो आई, "तू किसी के चक्कर में मत पड़ सुजाता, किसी से कोई सवाल-जवाब भी मत कर, अपने बारे में सोच बस। देव जैसा कोई, हर किसी के नसीब में नहीं होता। अगर किसी तरह वह तेरे जीवन में आ ही गया है, तो उसे किसी क़ीमत पर जाने मत देना।" सुजाता ने उत्तर दिए बिना ही फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया। गंगा की लहरों पर प्रेम का कोई सुरीला गीत सरसरा रहा था।