लागी करेजवा में फांस / विवेक मिश्र

Gadya Kosh से
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गली के हर खिड़की-दरवाज़े से झाँकती आँखें मनोहर की पीठ पर चस्पा थीं। गली संकरी होने के कारण, पुलिस की जीप अंदर नहीं आ सकी थी। उनके दोनो हाथ पुलिसवालों ने कसकर पकड़ रखे थे। एक सांवला, मझोले क़द का, बड़ी आँखों वाला इन्स्पेक्टर भीड़ को हटाता हुआ आगे चल रहा था। मनोहर के पीछे भी तीन हवलदार चल रहे थे, जिनमें एक महिला भी थी।

मनोहर ने आज छ: साल बाद अपनी गली में क़दम रखा था। गली के मकानों का रंग-रोगन बदल चुका था। उनके बेटे के साथ गली में निक्कर पहनकर क्रिकेट खेलने वाले लड़कों की दाड़ी-मूँछें निकल आई थीं। उनकी बेटी के साथ लंगड़ी, खो-खो और नागनगिप्पी खेलने वाली लड़कियों ने चुन्नी ओढ़नी शुरू कर दी थी। यह सब मनोहर अपनी काले गड्ढों में धसी हुई आँखों से, न चाहते हुए भी देख रहे थे। वह रह रहकर आँखों को ज़ोर से बन्द करके, बार-बार मिचमिचाते हुए खोल रहे थे, पर छ: साल पहले का कोई भी दृश्य पूरा का पूरा, उनकी स्मृति, उनके आगे नहीं रख पा रही थी। वह कभी अपनी पत्नी को एक मंज़िला मकान की छत पर सूखते कपड़ों को समेटते हुए देखते, कभी अपने बेटे को बिजली के तारों में फंसी पतंग को उतारने की कोशिश करते हुए, तो कभी अपनी बेटी को गली में डुगडुगी बेचनेवाले को रोककर, डुगडुगी खरीदने की ज़िद्द करते हुए देखते।

बेटी तुनकते हुए उनके कुर्ते की बाँह पकड़कर खींच रही है।

हाँ, उस शाम का यह दृश्य उन्हें याद है। वह इसे पूरा देख सकते हैं। वह शायद सुन सकते हैं कि क्या कहके तुनक रही है, उनकी बिटिया। पर डुगडुगी बेचनेवाला ज़ोर से डुगडुगी बजा रहा है। डुगडुगी की आवाज़ तेज़ हो रही है। बिटिया की ज़िद्द फीकी पड़ रही है। अब बिटिया डुगडुगी नहीं मांग रही है। वह उसकी आवाज़ से डर रही है। डुगडुगी बेचने वाले की आँखें लाल हो गई हैं। वह और ज़ोर से डुगडुगी बजाने लगा है, ...अनायास डुगडुगी फट गई है। डुगडुगी चुप हो गई है। दृश्य में से ध्वनि का लोप हो गया है। स्मृतियाँ धीरे-धीरे गली में तिर रही हैं। मनोहर भाग रहे हैं। एक-एक स्मृति को पकड़ रहे हैं। उन्हें अपनी जेबों में भर रहे हैं। लूट रहे हैं। डुगडुगी फिर बजने लगी है। अब उसका स्वर मनोहर के कानों को चुभ रहा है। उनके कान फोड़ रहा है।

अब मनोहर आँखें मिचमिचाते हुए उन्हें पूरा खोलने की कोशिश कर रहे थे। उनकी आँखों में दिन की रोशनी चुभ रही थी। वह बिना कुछ देखे, बस इतना समझ पा रहे थे कि यह डुगडुगी की आवाज़ नहीं थी। इन्स्पेक्टर मनोहर के घर के दरवाज़े की साँकल खड़का रहा था।

वह दरवाज़ा जिसे उनके इन्तज़ार में खुला होना चाहिए था, वह बन्द था। आज वह खटखटाने पर भी नहीं खुल रहा था। मनोहर सोच रहे थे कि छ: साल के अंतराल के बाद उनकी बेटी तेरह और बेटा सोलह साल का हो गया होगा। कैसे दिखते होंगे वे अब? उन्हें तो गली में आकर उनके पैरों से लिपट जाना चाहिए था। पर वे गली में, दरवाज़े पर, छत पर कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। मनोहर अपने घर की चौखट को आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहे थे। उनकी पत्नी कान्ता, जो उनको जाता हुआ देखकर, इसी चौखट पर खड़ी-खड़ी जड़ हो गई थीं, पथरा गई थीं। उन्हें तो चौखट पर खड़ा होना चाहिए था। पर वह वहाँ नहीं थीं। गली में कितना कुछ ऐसा था, जो होना चहिए था पर नहीं था। अब इन्स्पेकटर दरवाज़ा खड़का नहीं रहा था, पीट रहा था। उसकी आँखें लाल हो गई थीं।

तभी धीरे से दरवाज़ा खुल गया।

दरवाज़ा खोलने वाली मनोहर की पत्नी कान्ता ही थीं। दरवाज़े के खुलते ही इन्स्पेक्टर ने उनकी देह को अपनी लाल, उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखों से भीतर तक स्केन करते हुए घूरा। ऐसे में कान्ता को काँप उठना था, उन्हें आँखें झुका लेनी थीं, पर उनकी आँखें स्थिर हो गई थीं। वे कान्ता की आँखें थी ही नहीं। वे किसी मरी हुई मछली की स्थिर हो चुकी आँखें थीं, जिन्होंने आखिरी बार कोई काँटा, कोई जाल या फिर पानी में करंट छोड़ता कोई बिजली का तार देखा था, उन आँखों में आखिरी बार देखे गए दृश्य के डर की छाया स्पष्ट देखी जा सकती थी।

इन्स्पेक्टर ने मनोहर को घूरा और फिर धीरे से गुर्राते हुए कहा, "कल इसी वक़्त, ठीक चौबीस घंटे बाद, निकलेंगे यहाँ से। एक लेडी कॉन्सटेबल अंदर रहेगी, एक आदमी बाहर और एक गली के मोड़ पर भी तैनात रहेगा। कोई चालाकी कि तो फांसी के लिए मुकर्रर समय से पहले ही गोली मार दूँगा" यह सुनकर भी कान्ता की स्थिर हो चुकी आँखों में कोई भाव नहीं उभरा था। वे अब भी अतीत में ठहरी हुई आँखें थीं।

चौबीस घंटों के लिये मनोहर के घर और गली में पहरा बिठा दिया गया था। घर के दरवाज़े बंद हो गए थे। उस एक मंजिला मकान में दो कमरे, एक आंगन, एक चौका और एक छोटा-सा गुसलखाना था। आगे के कमरे में कोने में एक पुराना टेलीविज़न रखा था, जिसे महिला कांस्टेबल ने किसी से बिना पूछे ही चला दिया था। वह किसी दक्षिण भारतीय भाषा का फ़िल्मी चैनल देख रही थी, जिस पर दिन की रोशनी में आतंकित कर देने वाला, नाभि उघाड़ नृत्य चल रहा था।

मनोहर आगे के कमरे से निकल कर आंगन में आ गए थे। आंगन में उनके दाईं ओर पहले गुसलखाना और उससे लगा हुआ चौका था। चौका और गुसलखाना दोनो इतने दिनों में ज़रा भी नहीं बदले थे। पर आंगन के एक कोने में लगी पीतल की टोंटी काली पड़ गई थी। शायद अब उसका इस्तेमाल बंद हो गया था। मनोहर गर्मियों के दिनों में काम से लौट कर इसी पीतल के नल के नीचे बाल्टी लगा कर, खूब बदन मल-मल के नहाया करते थे। उसी समय बच्चे लोटों में पानी भर कर आसमान में उछालते और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते, "बारिश आ गई, बारिश आ गई"। यदि ऐसा करते हुए कभी सच में आसमान से बूँदें गिरने लगतीं, तो वे तालियाँ बजाकर नाचने लगते। चौके में खड़ी, रात के खाने की तैयारी करती कान्ता, उन्हें देख-देखकर खूब हँसतीं। नल, बाल्टी, लोटा, चौका, गुसलखाना, आंगन सब जी उठते।

...पर आज ये सबके सब किसी अज़नबी की तरह एकटक उनकी ओर देख रहे थे। वे सब उन्हें भूल चुके थे। वे सब उनके बिना रहना सीख चुके थे। पीतल की टोंटी के ऊपर एक पुराना, फ्रेम किया हुआ शीशा टंगा था। मनोहर उसके सामने खड़े, उसमें अपना चेहरा ढूँढ़ रहे थे। पर उसमें जो चेहरा वह देख रहे थे, उसे ठीक से वह स्वयं भी नहीं पहचानते थे।

मनोहर बदल चुके थे। उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी थी। उन पर अपने मालिक के क़त्ल का आरोप था, जो कि अब अदालत में सिद्ध हो चुका था। पुलिस और क़ानून के मुताबिक उन्होने अपने मालिक गिरधारी के शरीर के, एक गड़ासे से कई छोटे-छोटे टुकड़े करके, उन्हें एक बड़े बैग में भर कर यमुना में फेंक दिया था। मनोहर के अपराध को 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' अर्थात जघन्य और बर्बरतापूर्ण तरीके से किये गए अपराधों की श्रेणी में रखा गया था। निचली अदालतों में उनके इस अपराध के लिए उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई थी, जिसे उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में बरकरार रखा था। न्यायालय के अपना फैसला सुनाने से पहले प्रतिपक्ष के वकील ने अदालत में एक विशेष टिप्पणी भी की थी, जिसमें कहा गया था कि मनोहर जैसे अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है, जिससे कि नौकरों, कामगारों में क़ानून का भय बना रहे और रोज़गार दाताओं का क़ानून और सुरक्षा में विश्वास। यह नई और तेजी से बदलती हुई अर्थव्यवस्था के लिए निहायत ज़रूरी है।

इस मुक़द्दमे का एक और पक्ष भी था और वह पक्ष था, मनोहर का। उनका दावा था कि वह बेकसूर हैं और उनके मालिक गिरधारी की हत्या उन्ही के भाई बांकेबिहारी ने उनकी सम्पत्ति और व्यवसाय को हड़पने के लिए की थी। पर मालिक, मालिक था और नौकर, नौकर। सो सभी को नौकर की नीयत पर ही शक़ था। मनोहर थे भी लम्बी क़द-क़ाठी के, तेज़ तर्रार, बात-बात पर गुस्सा हो जाने वाले, बिहार के अपने गाँव से विस्थापित, खेतों से बेदखल-किसान। शायद इन्हीं सब बातों के कारण क़ानून और समाज के सामने मनोहर एक हत्यारे साबित हो चुके थे। अपने पक्ष में पुख्ता सबूतों और लम्बे समय तक टिके रह सकने वाले गवाहों के अभाव और प्रतिपक्ष की दौलत और रसू्ख़ के आगे मनोहर की दलीलें रेत के क़िले-सी ढह गई थीं। वह केस हार गए थे। उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई थी। आखिरी तारीखों में अपना केस उन्होंने खुद लड़ा था। शायद वह शुरूआत से ही जानते थे कि वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। इसीलिए उच्च न्यायालय के फैसले के बाद उन्होंने आगे अपील न करने का मन बना लिया था।

आज वह आखिरी बार अपने घर अपनी पत्नी कान्ता, बेटे मुकुल और बेटी नित्या से मिलने आए थे। वह इन सालों में सबके लिए जीवित होकर भी उनके आस-पास कहीं नहीं थे। उनकी स्मृति में भी उनका घर, उनका परिवार, उनके बच्चे कुछ भग्न-सी बनती बिगड़ती मूर्तियों के रूप में ही शेष रह गए थे। वह शायद उनके सहारे अपनी मृत्यु से पहले अपने आपको अपने जीवित होने का एहसास करा रहे थे।

मनोहर ने एक नज़र उस आसमान पर डाली, जो आस-पास के मकानों के उनकी छत से चार-पाँच मंजिल ऊपर उठ जाने से सिकुड़कर छोटा हो गया था फिर वह आँखें मिचमिचाते हुए भीतर वाले कमरे में दाखिल हो गए. कमरे के एक कोने में एक पुराना लकड़ी का पलंग पड़ा हुआ था, जिसकी पॉलिश जगह-जगह से उधड़ गई थी। सामने की दीवार पर उनकी और उनकी पत्नी की तस्वीर टंगी थी। यह उनकी शादी के समय की तस्वीर थी। दीवार की सीलन ने तस्वीर में उतरकर उसे पीला कर दिया था। इस तस्वीर में वह नीला कोट पहिने हुए थे। वह सोच रहे थे कि इन सालों में उनका वज़न बहुत कम हो गया है। वह वैसे ही पतले हो गए हैं जैसे अपनी शादी के समय पर थे। कहाँ है यह नीला कोट? वह कल, हाँ कल, पुलिस के साथ घर से जाते वक़्त, यही कोट पहिनकर निकलेंगे अपने घर से, पर उनके जूते, वे तो एकदम बदरंग हो चुके हैं। वह कल सुबह पॉलिश करके चमका देंगे उन्हें। पॉलिश, पॉलिश तो होगी घर में। काली पॉलिश की डिब्बी. बच्चे स्कूल जाते वक़्त अब भी चमकाते होंगे, अपने जूते। पहले वह खुद अपने हाथों से चमकाते थे, बच्चों के जूते। वह आज भी चमका सकते हैं, बच्चों के जूते, पर बच्चे। 'कहाँ हैं बच्चे?' वह धीरे से बुदबुदाए. कान्ता ने उनके हाथ में चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, "दो बजे आएंगे"। इस छोटे से वाक्य के बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली। मनोहर ने घर में आने के बाद पहली बार अपनी पत्नी को ध्यान से देखा। वह जैसे हवा में घुल गई थीं। उनकी चंदन-सी देह इस कठिन समय से रगड़ते-घिसते एक पतली छिपट भर रह गई थी। पर महक, महक तो चंदन की छिपट में भी होती है, सो थी। शायद बहुत थोड़ी-सी बची थी, जो कमरे के कोने में पड़े पलंग पर बिछी चादर में छुपी थी। जिसे मनोहर धीरे-धीरे चाय पीते हुए महसूस कर रहे थे।


कान्ता दीवार से टिकी खड़ी थीं।

वह मनोहर को, या चाय को, या फिर दोनो को देख रही थीं। मनोहर ने देखा कान्ता की स्थिर आँखें धीरे-धीरे हिल रही थीं। उनकी पलकें झपक रही थीं। वह अपने भीतर से आँसुओं जैसी किसी चीज़ को, खींच कर उनसे भीग जाना चाहती थीं। पर आँखें शुष्क थीं। पानी कहीं भी नहीं था, न नल में, न बाल्टी में, न आँखों में।

पानी सूख गया था।

समय रेतघड़ी की रेत-सा कान्ता की आँखों से रिस रहा था। वह तेजी से सरकते इस समय में अपनी उम्र के तमाम दिन-रात, महीने और साल टटोल रही थीं। उन्होंने अनायास ही सरकते समय में से एक दिन को ज़ोर से पकड़ लिया। वह बिलकुल साफ देख पा रही थीं। उन दिनों इस पलंग की पॉलिश, जिस पर मनोहर बैठे थे, बिल्कुल नहीं उधड़ी थी। वह उस पर चादर बिछा रही हैं। वह झुक कर उसकी सिलवटें दूर कर रही हैं। अभी चादर की सिलवटें मिटी भी नहीं हैं, अभी चादर ठीक से बिछी भी नहीं है कि मनोहर उसपर लेट गए हैं। वह उनसे गुस्सा हो रही हैं। मनोहर ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास खींच लिया है। चादर में असंख्य सिलवटें पड़ गई हैं। अब चादर मनोहर और कान्ता की देह पर बिछ गई है। चादर धीरे-धीरे नम हो रही है।

कान्ता अतीत में जाकर, पलंग पर बिछी चादर को निचोड़ लेना चाहती थीं। वह मन ही मन उसे ज़ोर से निचोड़ रही थीं, पर उसमें अब ज़रा-सी भी नमी नहीं थी।

पानी सचमुच सूख चुका था।

तभी आगे के कमरे में चलते टी.वी. का वॉल्यूम तेज़ हो गया। अब महिला कॉन्स्टेबल कमरे में पड़े तखत पर लेट गई थी। टी.वी. पर कोई भारी-भरकम देहवाली नायिका दुल्लती झाड़ती हुई कूद रही थी। नहीं शायद वह नाच रही थी। टी.वी. के शोर के बीच से रास्ता बनाती कोई आवाज़ भीतर वाले कमरे में पहुँच रही थी। कान्ता के हाथों से वह बीता हुआ दिन। उसकी स्मृति अनायास ही फिसल गई थी। शोर के बीच से एक आवाज़ फिर से आ रही थी। कान्ता इसे अच्छे से पहचानती थीं। बच्चे स्कूल से लौट आए थे। वह अपने ही घर का दरवाज़ा डरते हुए, धीरे-धीरे खटखटा रहे थे। कान्ता आगे के कमरे में आ गईं, पर उनके दरवाज़ा खोलने से पहले ही महिला कॉन्सटेबल ने उठकर दरवाज़ा खोल दिया।

बच्चों के मन में उठते प्रश्नों की छाया किसी ग्रहण की तरह उनके चेहरों पर उतर आई थी। कान्ता उन्हें मनोहर के पास भीतर वाले कमरे में ले जाना चाहती थीं, पर बच्चे आंगन में आकर ठिठक गए थे। मनोहर भीतर बैठे उनकी उपस्थिति महसूस कर रहे थे। वह उन्हें गले लगा लेना चाहते थे, उन से लिपटकर रो पड़ना चाहते थे, पर उनके घुटने जाम हो गए थे। वह बहुत कोशिश करने पर भी अपनी जगह से हिल भी नहीं पाए थे। कान्ता बच्चों को लेकर कमरे में आ गई. बच्चे कमरे में आकर मनोहर के दोनो ओर पलंग पर बैठ गए. उनके दाईं तरफ बेटी नित्या और बाईं तरफ बेटा मुकुल। उनके जूतों पर धूल जमी थी। मनोहर को उन पर पॉलिश करनी थी। उन्हें नित्या को डुगडुगी और मुकुल को पतंग दिलानी थी। उन्हें उन दोनो से कुछ पूछना भी था। पर वही बात, जो पूछनी थी, मनोहर भूल गए थे। बच्चे अलग-अलग दिशाओं में ताक रहे थे। मनोहर अपनी स्मृति से उनके चेहरे निकालकर उनके किशोर होते चेहरों से मिला रहे थे। शायद वह उनके चेहरों को अपने चेहरे से भी मिला रहे थे। मनोहर ने दोनो के हाथों को पकड़कर उनके हाथ की रेखाओं को पढ़ना चाहा था, पर बच्चे हाथ छुड़ाकर आंगन में आ गए. मनोहर भी उठकर कमरे से बाहर आ गए. बच्चे जैसे वहीं खड़े-खड़े घुल जाना चाहते थे। बच्चे बिना मनोहर की ओर देखे आंगन से पीछे वाले कमरे की छत पर जाने वाली सीढ़ियाँ चढ़ गए. मनोहर बिना कुछ बोले चुपचाप कमरे में आकर ज़मीन पर पड़े एक अख़बार के टुकड़े को उठाकर पढ़ने लगे। उधर छत पर खड़े बच्चे आस-पास की छतों से छुपकर झाँकते बच्चों की नज़रो से बच रहे थे। मनोहर कमरे में बैठे उस पुराने अख़बार के टुकड़े में पीछे छूट चुकी तमाम खबरों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, पर उसमें छपी भाषा जैसे वह भूल चूके थे। अब वे अक्षर, उनसे बनने वाले शब्द, उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते थे।

मनोहर बहुत सोचकर कुछ बोलना चाहते थे। बीते समय के दुख-दर्द का कान्ता की आँखों में जायज़ा लेना चाहते थे। वह टटोलना चाहते थे-अपनी पत्नी, अपने बच्चों के भीतर बची रह गई उस जगह को जिसमें कहीं थोड़ी-सी मात्रा में वह भी बचे रह गए थे। पर शायद जहाँ वह खड़े थे वहाँ से उस जगह पहुँचने के सारे पुल इस बीच में ढह चुके थे। कुछ बोलने की कोशिश में उनकी ज़ुबान भारी हो गई थी। उनका मुँह सूख गया था। उन्हें लगा बहुत कोशिश के बाद उन्होंने कान्ता से कुछ कहा है। पर वह-वह नहीं था जो वह कहना चाहते थे। उनके मुँह से, जो निकला था, उसके जवाब में कान्ता ने उनके आगे पानी का गिलास लाकर रख दिया था। आंगन की दीवारों पर धूप धीरे-धीरे ऊपर की ओर खिसकने लगी थी। वह जो अखिरी दिन बिताने अपने घर आए थे, वह बीत रहा था। उनके चाहते ना चाहते रात उतर रही थी। आंगन में अँधेरा हो रहा था।

कान्ता ने आज कुछ जल्दी ही रात का खाना निपटा कर सबके सोने की व्यवस्था कर दी थी। मनोहर पलंग पर लेटे, छत को ताक रहे थे। कान्ता बच्चों के साथ ज़मीन पर लगे बिस्तर पर लेटी थीं। लगता था जैसे सब सो गए हैं, पर रात किसी कांटे की नोक से भिदी जाग रही थी। रह रहकर लगता था कोई रो रहा है। पर कौन? सभी तो आँखें बंद किये नि: शब्द पड़े थे। रात, चारों पहर, एक अदृश्य कांटे से छूटने की कोशिश में छटपटाती रही थी। पर कोई भी उसे कांटे की नोक से उतार कर बिस्तर पर नहीं रख सका था। सुबह हुई तो सभी की आँखों में रात की खराशें लाल डोरों-सी तैर रही थी।

बच्चे तय समय पर स्कूल जाने के लिये तैयार हो गए थे। कान्ता कई सहस्राब्दियों से अपनी नियत कक्षा में चक्कर लगाते किसी ग्रह की तरह आंगन, चौके और गुसलखाने के बीच घूम रही थीं। मनोहर इस सब से बाहर खड़े, हज़ारों मील की दूरी से यह दृश्य देख रहे थे। थोड़ी देर में बच्चे स्कूल के लिए निकल गए थे। उन्होंने जाते हुए अखिरी बार चोरी से नज़र उठाकर मनोहर की तरफ देखा था, शायद वह उनके न रहने के असर को भीतर ही भीतर नाप कर, अपने आप को आने वाले समय के लिए तैयार कर रहे थे, पर मनोहर यह सब घटता हुआ नहीं देख सके थे। बच्चों के जाते ही धीमे स्वर में होने वाली बात-चीत जो बच्चों और कान्ता के बीच कभी–कभी फूट पड़ती थी, वह भी थम गई थी। मनोहर ने कुछ भी कहने की अपनी कोशिश छोड़ दी और चुपचाप गुसलखाने में चले गए. कान्ता अभी भी आंगन और कमरे में भीतर-बाहर हो रही थीं। वह कोई अदृश्य काम में लगी थीं, जो खत्म ही नहीं हो रहा था। मनोहर गुसलखाने में नहाने लगे थे। वह अपने शरीर को रगड़ कर उसमें से कुछ छुटा रहे थे, शायद वह बीता हुआ समय ही था, जिसे वह अपनी देह से धो डालना चाहते थे। आज उन्होंने बहुत समय लगा कर दाड़ी बनाई थी, कई बार रेज़र चलाया था, पर वह जिस चेहरे को निकालना चाहते थे, वह नहीं निकल रहा था। वह जिसे धो डालना चाहते थे, वह उनको नहीं छोड़ रहा था।

कान्ता ने उनके लिए नाश्ता लगाकर कमरे में पलंग के आगे स्टूल पर रख दिया था। वह निष्प्रभ भाव से कान्ता को देख रहे थे। वह सोच रहे थे शायद कान्ता के भीतर सूख चुका सोता अचानक ही फूट पड़ेगा, वह रो पड़ेगीं, उनके मुँह से निकले शब्द आखिरी वक़्त तक उनके साथ रहे आएंगे। पर कान्ता के होंठ पाषांण में बदल चुके किसी पुरातन कथानक के चरित्र के होंठ थे, जिसके बारे में कई कहानियाँ कही जा सकती थीं, कई कयास लगाए जा सकते थे, पर उसके उन होठों के बीच से कोई शब्द प्रस्फुटित नहीं हो सकता था। बड़ी सजीव प्रतिमा थी, पर सदियों से खामोश, लगता था अभी बोल पड़ेगी, पर मनोहर जानते थे प्रतिमाएं नहीं बोलतीं। वह नहीं बोलेगी।

मनोहर कपड़े पहन कर तैयार हो गए थे। उन्होंने अपने जूतों को खूब समय लगा कर, अच्छे से चमकाया था। उनका नीला कोट उन्हें अलमारी में कहीं नहीं दिखा था। उन्होंने अलमारी में बच्चों के कपड़ों को, उसमें कुछ ढूँढने के बहाने धीरे से ऐसे सहलाया, जैसे वह बच्चों के सिर पर हाथ फेर रहे थे। हाँ इसी अलमारी के एक कोने में उन्हें कान्ता की एक पुरानी मोतियों की माला दिखाई दे रही थी। इस अलमारी में बीते हुए समय की गन्ध थी। वह ज़ोर से सांस खींच रहे थे। वह उसे साथ ले जाना चाहते थे। नहीं शायद वह वहीं रह जाना चाहते थे। उसी गंध के साथ। पर यह संभव नहीं था। वह यहीं मर जाना चाहते थे। वह सोच रहे थे, हाँ, यह हो सकता था।

वह यहीं मर सकते थे। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया।

मनोहर ने अलमारी बंद कर दी, अलमारी के भीतर की सुगन्ध उन्होंने अपने फेफड़ों में भर ली थी। अब वह जाने से पहले आखिरी बार कान्ता को देख रहे थे। कान्ता की आँखे फिर स्थिर हो गई थीं।

मनोहर बार-बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देख रहे थे। तभी बाहर के कमरे से महिला कॉन्स्टेबल ने आवाज़ दी। मनोहर के जाने का समय हो चुका था। मनोहर ने कान्ता को फिर से देखा और अपने दिमाग पर बहुत ज़ोर डाल कर सोचा, वह क्या बात थी, जो चलते हुए उन्हें कान्ता से कहनी थी। वह अभी सोच ही रहे थे कि उनके मुँह से निकला, 'अरे ज़रा देख तो, ये घड़ी बंद तो नहीं हो गई?'

कान्ता की नज़रें कमरे के फर्श पर टिकी थीं। मनोहर के जूते धीरे-धीरे सरकते हुए कमरे से बाहर चले गए थे। अब जूते कमरे में नहीं थे। कान्ता जूतों की जगह पर खड़े रह गए मनोहर के पैरों को देख रही थीं। छ: साल पहले ऐसे ही वह उन पैरों को देखती रह गई थीं, जब पुलिस मनोहर को बिना उनकी कोई बात सुने उठा कर ले गई थी। कान्ता मनोहर की कलाई में बंधी घड़ी की टिक-टिक को सुनने की कोशिश कर रही थीं। वह उस आवाज़ को सुन पा रही थीं, वह आवाज़ ज़ोर-ज़ोर से उनके भीतर बज रही थी। एक खटाक की आवाज़ से किसी ने बाहर का दरवाज़ा भेड़ दिया था।

बाहर के कमरे में अब टी.वी. नहीं चल रहा था।

कान्ता के भीतर से राग अहिर भैरव में उठता एक स्वर धीरे-धीरे तिरता हुआ घर के सन्नाटे को बहुत बेदर्दी से चीर रहा था, 'लागी करेजवा में फांस, लाख जतन करूँ निकसत नाहिं..., ...निकसत नाहिं...' कान्ता को लगा वह स्वयं गा रही हैं। वह गाते-गाते आँगन में लगे नल की पीतल की टौंटी खोल कर नहा रही हैं। वह देख रही हैं धरती से आसमान तक पानी ही पानी है, पर उसकी एक भी बूँद उन्हें भिगा नहीं पा रही है।

...पानी सूख गया है।