लाजवन्ती / राजेन्द्रसिंह बेदी

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(ए सखि ये लाजवंती के पौधे हैं, हाथ लगाते ही कुम्हला जातें हैं.)

बँटवारा हुआ और अनगिनत घायल लोगों ने उठाकर अपने शरीर से खून पोंछ डाला, और फिर सब मिलकर उन लोगों की ओर आकर्षित हो गये, जिनके शरीर तो स्वस्थ थे, लेकिन दिल घायल थे।

गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले में 'फिर बसाओ' कमेटियाँ बन गयी थीं, और शुरू-शुरू में बड़े परिश्रम के साथ 'कारोबार में बसाओ', 'धरती पर बसाओ' और 'घरों में बसाओ' प्रोग्राम शुरू कर दिया गया था। किन्तु एक प्रोग्राम ऐसा था, जिसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वह प्रोग्राम भगायी हुई औरतों के सम्बन्ध में था, जिसका नारा था—'दिल में बसाओ!' और नारायण बाबा के मन्दिर और उसके आस-पास बसने वाली पुरानपन्थी दल की ओर से इस प्रोग्राम का बड़ा कड़ा विरोध हो रहा था।

इस प्रोग्राम को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए मन्दिर के पास मुहल्ला मुल्ला शकूर में एक कमेटी बन गयी और ग्यारह वोटों के बहुमत से सुन्दरलाल बाबू को उसका सेक्रेटरी चुन लिया गया। वकील साहब प्रधान हुए। चौकी कलाँ के बूढ़े मुहर्रिर और मुहल्ले के दूसरे प्रतिष्ठित लोगों का विचार था कि सुन्दरलाल से अधिक लगन से उस काम को कोई और न कर सकेगा, शायद इसलिए कि सुन्दरलाल की अपनी पत्नी भी इस दुर्घटना की चपेट में आ चुकी थी, जिसका नाम था लाजो—लाजवन्ती!

चुनाँचे प्रभात-फेरी निकालते हुए जब सुन्दरलाल बाबू और उनके साथी रसालू, नेकीराम आदि गाते—'हथ लाँयाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे वूटे...?' तो सुन्दरलाल का कण्ठ एकदम भर आता और वह खामोशी के साथ चलते-चलते लाजो के सम्बन्ध में सोचते—'जाने वह कहाँ होगी,' 'वह कभी आएगी भी या नहीं?...' और पथरीली सड़क पर चलते-चलते उनके कदम लड़खड़ाने लगते।

और अब तो यह हालत हो गयी थी कि उन्होंने लाजवन्ती के सम्बन्ध में सोचना ही छोड़ दिया था, उनका दुख संसार का बन गया था, उन्होंने इस दुख से बचने के लिए अपने आपको लोक-सेवा में डुबो दिया था। किन्तु इसके बावजूद साथियों के स्वर-में-स्वर मिलाते हुए उन्हें इनका विचार जरूर आ जाता—मनुष्य का हृदय कितना कोमल होता है? जरा-सी बात पर उसे ठेस लग सकती है, वह लाजवन्ती की वेल की तरह है, जिसकी ओर हाथ बढ़ाओ, तो मुरझा जाए। परन्तु उन्होंने लाजवन्ती के साथ निर्ममता बरतने में भी कोई कसर न उठा रखी थी। वह उसे मौके-बेमौके, उठते-बैठते, खाते-पीते, लापरवाही दिखाते हुए साधारण-सी बातों पर भी पीट दिया करतेथे।

और लाजो एक दुबली-पतली देहाती लड़की थी। अधिक घाम देखने के कारण उसका रंग सँवला गया था, उसकी तबीयत में एक अजीब तरह की व्याकुलता थी, लेकिन उसकी व्याकुलता ओस की उस बूँद की तरह थी, जो पाराक्रास के बड़े पत्ते पर इधर-उधर ढुलकती रहती है। उसका दुबलापन उसकी अस्वस्थता की दलील न थी, उलटे वह स्वास्थ्य की निशानी था जिसे देखकर भारी-भरकम सुन्दरलाल पहले तो घबराये, लेकिन जब उन्होंने देखा कि लाजो हर तरह का बोझ, हर तरह का दुख, यहाँ तक कि मार-पीट तक को सहन कर लेती है, तो वह अपनी ज्यादती क्रमश: बढ़ाते गये, और उन्होंने उन सीमाओं का भी विचार न किया, जहाँ पहुँचकर किसी मनुष्य का सब्र टूट सकता है, परन्तु लाजो थी कि उन सीमाओं को धुँधलाने की सामर्थ्य प्राप्त कर चुकी थी। वह बहुत देर तक दुखी हृदय लेकर बैठ नहीं सकती थी इसीलिए बड़ी-से-बड़ी लड़ाई के बाद सुन्दरलाल के केवल एक बार मुस्करा देने पर वह अपनी हँसी न रोक पाती और केवल इतना कह देती—'अबकी मारोगे तो मैं तुमसे कभी न बोलूँगी।' और साफ मालूम होता कि वह सारी मार-पीट को एकदम भूल चुकी है। गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह वह भी जानती थी कि पति अपनी पत्नियों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया करते हैं। यदि कोई पत्नी थोड़ी-सी भी मुँहजोर होती तो औरतें खुद ही नाक पर उँगलियाँ रखकर कहतीं—'और वह भी कोई मर्द है कि दो हाथ की औरत काबू में नहीं आती।'...और यह मार-पीट उनके गीतों में भी समा गयी थी। खुद लाजो गाया करती थी—'मैं शहर के जवान से शादी नहीं करूँगी। वह बूट पहनता है और मेरी कमर बड़ी पतली है।'...किन्तु पहले ही अवसर पर लाजो ने शहर के एक छोकरे से लौ लगा ली, जिसका नाम था सुन्दरलाल, जो एक बारात के साथ लाजवन्ती के गाँव चला आया था और जिसने उस बारात के दूल्हे के कान में केवल इतना कहा था—'तेरी यह साली तो बड़ी नमकीन है यार, बीवी भी चटपटी होगी।' और लाजवन्ती ने सुन्दरलाल की इस बात को सुन लिया था और वह शायद यह भूल ही गयी कि सुन्दरलाल ने कितने बड़े-बड़े और भद्दे बूट पहन रखे हैं और उसकी अपनी कमर कितनी पतली है।

प्रभात फेरी के समय ऐसी बातें सुन्दरलाल को याद आतीं और वह यही सोचते, 'एक बार, केवल एक बार लाजो मिल जाए तो सचमुच ही मैं उसे दिल में बसा लूँ और लोगों को बता दूँ कि उन बेचारी औरतों के जाने में उनका कोई दोष नहीं है, दंगों की दुर्घटनाओं का शिकार हो जाने में उनकी कोई गलती नहीं और यह समाज, जो इन मासूम और निर्दोष औरतों को स्वीकार नहीं करता, उन्हें अपनाता नहीं, वह तो गला-सड़ा समाज है, जिसे मिटा देने में ही भला है।...' वे भगायी हुई औरतों को घर में आबाद करने के विचार में निमग्न रहते और उन्हें उस पद पर आसीन देखना चाहते, जो घर में किसी भी औरत, किसी भी माँ, बेटी, बहन या पत्नी को शोभा देता है।

'दिल में बसाओ' प्रोग्राम को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए मुहल्ला मुल्ला शकूर की इस कमेटी ने कई प्रभात-फेरियाँ निकालीं। सुबह चार-पाँच बजे का समय इसके लिए बड़ा उपयुक्त होता था। न लोगों का शोर, न सभाइयों की उलझन, रात-भर चौकीदारी करने वाले कुत्ते तक बुझे हुए तन्दूरों में सिर दे के पड़े होते थे। अपने-अपने बिस्तरों में दुबके हुए लोग जागकर केवल इतना कहते थे—'ओह'! वही मंडली है।' कभी शान्ति और कभी क्रोध से वे बाबू सुन्दरलाल का प्रचार सुना करते। वे औरतें जो बड़ी हिंफांजत से इस पार पहुँच गयी थीं, गोभी के फूलों की तरह फैली पड़ी रहतीं और उनके पति या सम्बन्धी डंठलों की तरह अकड़े पड़े-पड़े प्रभात-फेरी के शोर पर भुनभुनाते हुए चले जाते, या कहीं कोई बच्चा थोड़ी देर के लिए ऑंखें खोलता और 'दिल में बसाओ' के फरियादी और करुण प्रचार को एक गाना समझकर फिर सो जाता।

लेकिन सुबह के समय कान में पड़ा हुआ शब्द अकारथ नहीं जाता, वह सारे दिन एक गूँज की तरह दिमाग में चक्कर लगाता है। कभी-कभी तो आदमी उसके अर्थ को न समझकर भी गुनगुनाता चला जाता है। इसी स्वर में मन में घर कर जाने की बदौलत ही था कि उन्हीं दिनों जब मिस मृदुला साराभाई पाकिस्तान से भगायी हुई स्त्रियाँ बदले में भारत लायीं तो मुहल्ला मुल्ला शकूर कुछ आदमी उन्हें फिर से बसाने के लिए तैयार हो गये। उनके भाई-बन्धु शहर से बाहर चौकी कलाँ पर उनसे मिलने के लिए गये और बेचारी अबला स्त्रियाँ और उनके भाई-बन्धु कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे और सिर झुकाकर अपने बरबाद घरों को आबाद करने के काम पर चल दिए। रसालू, नेकीराम और सुन्दरलाल बाबू कभी 'महेन्द्रसिंह जिन्दाबाद' और कभी 'सोहनलाल ंजिन्दाबाद' के नारे लगाते। और वे नारे लगाते रहे, इतना कि उनके गले सुख गये।

लेकिन भगायी हुई स्त्रियों में से कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पिता, माँ, बाप, बहन और भाइयों ने उन्हें पहचानने में असमर्थता प्रकट कर दी थी। 'आखिर वे मर क्यों न गयीं, अपनी मर्यादा और लाज को बचाने के लिए उन्होंने विष क्यों नहीं पी लिया, कुओं में छलाँग क्यों न लगा दी? वे कायर थीं जो इस प्रकार जीवन से चिपटी रहीं। सैकड़ों-हजारों औरतों ने अपनी मर्यादा लुट जाने से पहले प्राण दे दिये।...' किन्तु उन्हें क्या मालूम कि वे जीवित रहकर कितनी बहादुरी से काम ले रही हैं और किस तरह वे पथरायी निगाहों से मौत को घूर रही हैं—इस संसार में, जहाँ उनके पति तक उन्हें नहीं पहचानते। फिर उनमें से कोई मन-ही-मन अपना नाम दोहराता है—'सुहागवन्ती...सुहागवन्ती...' और अपने भाई को उस भीड़ में देखकर आंखिरी बार इतना-सा कहती है—'तू भी मुझे नहीं पहचानता, बिहारी? मैंने तुझे गोदी में खिलाया है रे...' और बिहारी चीख उठना चाहता है, फिर वह माँ-बाप की ओर देखता है, और माँ-बाप अपने कलेजे पर हाथ रखकर नारायण बाबा की ओर देखते हैं और बहुत ही बेबसी के भाव में नारायण बाबा आकाश की ओर देखते हैं, जिसकी वास्तव में कोई यथार्थता नहीं है, जो केवल हमारी नंजर का धोखा है, जो केवल एक सीमा है जिसके पार हमारी निगाहें काम नहीं करतीं।

लेकिन फौंजी ट्रक में मिस साराभाई बदले में जो स्त्रियाँ लायीं, उनमें लाजो नहीं थी। सुन्दरलाल ने बड़ी निराशा से आखिरी लड़की को ट्रक से नीचे उतरते देखा और फिर उन्होंने बड़ी खामोशी और दृढ़ता से अपनी कमेटी की सरगर्मियों को बढ़ा दिया। अब वे सुबह ही के समय प्रभात-फेरी के लिए नहीं निकलते, बल्कि शाम को भी वे जुलूस निकालने लगे और कभी-कभी छोटी-मोटी सभा भी करने लगे, जिसमें उस कमेटी के बूढ़े सभापति वकील कालिकाप्रसाद 'सूफी' ख्रखारों से मिले-जुले भाषण दे दिया करते और रसालू पीकदान लिए डयूटी पर हमेशा मौजूद रहता। लाउडस्पीकर में अजीब तरह की आवांजें आतीं—'खा, हा हा, खा, खा...' और फिर नेकी राम भी कुछ कहने के लिए उठते। परन्तु वे जितनी बातें कहते, उनमें शास्त्रों और पुराणों का उदाहरण देते, इतना कि अपने और अपने सिध्दान्तों के विरुध्द भी बहक जाते और इस प्रकार मैदान हाथ से जाता देखकर बाबू सुन्दरलाल उठते। लेकिन वे दो वाक्यों से अधिक कुछ न कह पाते। उनका गला भर आता और उनकी ऑंखों से ऑंसू टपकने लगते और वे रुऑंसे होने के कारण भाषण पूरा नहीं कर पाते और अपनी जगह पर बैठ जाते। सुनने वालों पर एक विशेष प्रकार का मौन छा जाता और सुन्दरलाल के उन दो वाक्यों का असर, जो कि उनके दिल की गहराइयों से निकल आते थे, वकील कालिकाप्रसाद 'सूफी' के सारगर्भित उपदेशों के ऊपर छा जाता और लोग वहीं रोकर अपनी भावनाओं को शान्त कर लेते। फिर...खाली मन लिए घर लौट जाते।

एक दिन कमेटी वाले शाम के समय भी प्रचार करने के लिए चले आये और होते-होते पुरान-पन्थियों के दुर्ग में पहुँच गये। मन्दिर के बाहर पीपल के एक पेड़ के आस-पास सीमेंट के एक चबूतरे पर श्रध्दालु भक्तजन बैठे थे और रामायण की कथा हो रही थी। नारायण बाबा रामायण के लव-कुश-कांड का वह भाग सुना रहे थे, जहाँ एक धोबी ने अपनी धोबिन को घर से बाहर निकाल दिया था और उससे कह दिया था कि मैं रामचन्द्र नहीं, जिन्होंने इतने वर्ष रावण के साथ रह आने पर भी सीता जी को बसा लिया! और राजा रामचन्द्रजी ने महारानी सीता को अपने महल से निकाल दिया, उस हालत में, जबकि वे गर्भवती थीं। क्या इससे भी बढ़कर कोई रामराज्य का उदाहरण मिल सकता है? नारायण बाबा ने कहा, यह है रामराज्य, जिसमें एक धोबी की बात को भी उतने ही महत्त्व की दृष्टि से देखा जाता था...

कमेटी का जलूस मन्दिर के पास रुक चुका था और लोग रामायण की कथा और श्लोकों के अर्थ सुनने के लिए ठहर गये थे। सुन्दरलाल ने आखिरी वाक्य सुना और कहा, हमें ऐसी रामायण नहीं चाहिए, बाबा।

चुप रहो जी, तुम कौन होते हो? खामोश! भीड़ में से आवांजें आयीं।

और सुन्दरलाल ने बढ़कर कहा, मुझे बोलने से कोई नहीं रोक सकता।

मिली-जुली आवांजें आयीं, खामोश! हम नहीं बोलने देंगे!

और एक कोने से यह भी आवांज आयी—मार देंगे।

नारायण बाबा ने बड़ी मीठी आवांज में कहा—तुम शास्त्रों की मान-मर्यादा को नहीं समझते, सुन्दरलाल।

सुन्दरलाल ने कहा, मैं एक बात तो समझता हूँ कि रामायण में धोबी की आवांज तो सुनी जाती है किन्तु रामराज्य के चाहने वाले सुन्दरलाल की आवांज नहीं सुनते।

उन्हीं लोगों ने, जो अभी मार-पीट पर तुले हुए थे, अपने नीचे से पीपल की गूलरें हटा दीं फिर से बैठते हुए बोल उठे, सुनो, सुनो, सुनो।...

रसालू और नेकीराम ने सुन्दरलाल को बढ़ावा दिया और सुन्दरलाल बोले— श्री रामचन्द्र हमारे नेता था, किन्तु यह क्या बात है बाबा जी, कि उन्होंने धोबी की बात को तो सत्य समझ लिया, परन्तु इतनी बड़ी सतवन्ती महारानी सीता के सतीत्व पर विश्वास नहीं कर पाये?

नारायण बाबा ने अपनी दाढ़ी की खिचड़ी पकाते हुए कहा—

सीता जी उनकी अपनी पत्नी थीं सुन्दरलाल। तुम उस बात की गहराई को नहीं जानते।

हाँ बाबा! सुन्दरलाल ने कहा, इस संसार में बहुत-सी बातें हैं, जो मेरी समझ में नहीं आतीं। परन्तु मैं सच्चा रामराज्य उसे समझता हूँ, जिसमें मनुष्य अपने आप पर भी अत्याचार न कर सके। अपने आप तो अन्याय करना भी उतना ही बड़ा पाप है, जितना किसी दूसरे पर करना। और आज भी भगवान राम ने सीताजी को घर से निकाल दिया है...इसलिए कि वह रावण के पास रह आयी थीं, इसमें क्या दोष था सीता जी का? क्या वे भी हमारी बहुत-सी माँ-बहनों की तरह छल और कपट का शिकार न हुई थीं? इसमें सीता जी के सत्य और असत्य की बात है या राक्षस रावण के अत्याचार की बात है, जिसके दस सिर तो मनुष्य जैसे हैं और एक सबसे बड़ा सर गदहे का है...आज हमारी सीता भी घर से निर्वासित कर दी गयी है...सीता...लाजवन्ती... और सुन्दरलाल बाबू ने रोना शुरू कर दिया। रसालू और नेकीराम ने वह तमाम पोस्टर उठा लिये, जिन पर आज ही स्कूल के लड़कों ने बड़ी सफाई से नारे काटकर चिपका दिए थे। और फिर वह सब 'बाबू सुन्दरलाल जिन्दाबाद' के नारे लगाते हुए चल दिए। जलूस में से एक ने कहा—'महारानी सीता ंजिन्दाबाद।' एक ओर से आवांज आयी—'श्री रामचन्द्र...'

और फिर बहुत-सी आवांजें आयीं—'खामोश! खामोश।'

और नारायण बाबा की कथा अकारथ हो गयी। बहुत-से लोग जलूस में शामिल हो गये, जिसके आगे-आगे वकील कालिकाप्रसाद और हुकुमसिंह मुहर्रिर चौकी कलाँ जा रहे थे, अपनी बूढ़ी छड़ियों को जमीन पर पट-पट मारते, एक हल्की-सी आवांज करते हुए। उनके बीच में सुन्दरलाल जा रहे थे और उनकी ऑंखों में ऑंसू बह रहे थे, आज उनके हृदय को बड़ी ठेस लगी थी और लोग बड़ी खुशी के साथ एक-दूसरे के स्वर-में-स्वर मिलाकर गा रहे थे— 'हथ लाँयाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे'

अभी गीत की धुन लोगों के कानों में गूँज रह थी, सुबह भी नहीं हो पायी थी और मुहल्ला मुल्ला शकूर के मकान नं. 414 की विधवा अपने बिस्तर की तहों में विरह-भरी ऍंगड़ाई ले रही थी कि सुन्दरलाल का दोस्त लालचन्द, जिसे अपने असर और रसूख का प्रयोग करके सुन्दरलाल और कालिकाप्रसाद ने राशन डिपो दिलाया था, दौड़ा-दौड़ा आया और अपने गाढ़े की चादर से हाथ बाहर कर बोला—

बधाई है बाबू सुन्दरलाल!

सुन्दरलाल ने गुड़ तम्बाखू में मिलाते हुए कहा, किस बात की बधाई, लालचन्द?

मैंने लाजो भाभी को देखा है।

सुन्दरलाल के हाथ से चिलम छूट गयी और मीठी तम्बाखू फर्श पर फैल गयी। कहाँ देखा है? उन्होंने लालचन्द के कन्धों को पकड़कर पूछा और जल्दी उत्तर न पाने पर झकझोर दिया।

वागह की सरहद पर।

सुन्दरलाल ने लालचन्द को छोड़ दिया और सिर्फ इतना कहा—कोई और होगी?

लालचन्द ने विश्वास को छोड़ दिया और सिर्फ इतना कहा—कोई और होगी?

लालचन्द ने विश्वास दिलाते हुए कहा—नहीं भइया, वह लाजो ही थी, लाजो।

तुम उसे पहचानते भी हो? सुन्दरलाल ने फिर से मीठी तम्बाखू को फर्श पर से उठ कर हथेली पर मलते हुए पूछा और ऐसा करते हुए उन्होंने रसालू की चिलम हुक्के पर से उठा ली और बोले—भला क्या पहचान है उसकी?

एक गुदना ठोड़ी पर है, दूसरा गाल पर...

हाँ, हाँ, हाँ! और सुन्दरलाल ने खुद ही कह दिया—तीसरा माथे पर। वह नहीं चाहते थे कि कोई सन्देह रह जाए और एकदम उन्हें लाजवन्ती के जाने-पहचाने शरीर के सारे गुदने याद आ गये, जो उसने अपने शरीर पर बचपन में गुदवाये थे। वे गुदने जो हल्के-हल्के, हरे-हरे दानों की तरह थे, जो छुई-मुई की बेलों के शरीर पर होते हैं, बिलकुल उसी तरह उन गुदनों की ओर इशारा करते ही लाजवन्ती शरमा जाती थी, जैसे उसके सारे भेद किसी को मालूम हो गये हों और किसी नामालूम खजाने के लुट जाने से वह दरिद्र हो गयी है...और सुन्दरलाल का शरीर एक अनजानी मुहब्बत और उसकी पवित्रता से सिहरने लगा। उन्होंने फिर से लालचन्द को पकड़ लिया और पूछा—लाजो वागह कैसे पहुँच गयी?

लालचन्द ने कहा—भारत और पाकिस्तान में औरतों का बदला हो रहा था न...

फिर क्या हुआ? सुन्दरलाल ने उकडू बैठते हुए कहा।

रसालू भी अपनी चारपाई पर उठ बैठा और तम्बाखू पीनेवालों की विशेष खाँसी खाँसते हुए बोला—सचमुच आ गयी है लाजवन्ती भाभी? लालचन्द ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा—वागह में सोलह औरतें पाकिस्तान में दे दीं और उसके बदले में सोलह औरतें ले लीं। लेकिन एक झगड़ा खड़ा हो गया। हमारे वालंटियर विरोध कर रहे थे कि तुमने जो औरतें दी हैं, उनमें अधेड़, बूढ़ी और बेकार औरतें ंज्यादा हैं। इस झगड़े पर लोग इकट्ठे हो गये। उस समय उधर के वालंटियरों ने लाजो भाभी को दिखाते हुए कहा—तुम इसे बूढ़ी कहते हो?...देखो, देखो, जितनी लड़कियाँ तुमने दी हैं, उनमें से एक भी बराबरी करती है इसकी? और वहाँ लाजो भाभी सबकी नंजरों के सामने अपने गुदने छिपा रही थीं।

फिर झगड़ा बढ़ गया। दोनों ने अपना-अपना माल वापस लेने की ठान ली। मैंने शोर मचाया—आओ लाजो भाभी! मगर शोर मचाने पर हमारी फौज के सिपाहियों ने हमें मार-मार कर भगा दिया।

और लालचन्द अपनी कोहनी दिखाने लगा, जहाँ उसे लाठी पड़ी थी।

रसालू और नेकीराम चुपचाप बैठे रहे और सुन्दरलाल कहीं दूर देखने लगे या शायद कुछ सोचने लगे—'लाजो आयी, पर न आयी...' और सुन्दरलाल की सूरत से जान पड़ने लगा, जैसे वह बीकानेर के तपते हुए हजारों मील के रेगिस्तान को फाँद कर आये हैं और अब कहीं पेड़ की छाँव में जबान बाहर लटकाये हाँफ रहे हैं और मुँह से इतना भी नहीं निकलता, पानी दे दो। उन्हें ऐसा अनुभव हुआ जैसे बँटवारे से पहले और बँटवारे के बाद की हिंसा अभी तक वैसी ही है, बल्कि और शक्ति पा गयी है। किसी से पूछो, 'साँभरवाल में लहनासिंह रहा करता था और उसकी भाभी बन्तो...' तो वह झट से कहता, 'मर गये।' और उसके बाद मौत और उसकी अर्थ से बिलकुल बेंखबर, बिलकुल खाली आगे चला जाता। इससे भी बढ़कर एक कदम आगे, बिलकुल ठंडे हृदय से मानवता की जननी के सौदागर, मानवता के लोहू और माँस की सौदागरी और उसका लेन-देन करने लगे, जैसे मंडियों में मवेशी खरीदने वाले किसी भैंस या गाय का जबड़ा हटाकर दाँतों से उसकी उम्र का अन्दाजा करते हैं, उसी तरह वे जवान औरत के रूप, उसके निखार और उनके प्यार रहस्यों और गुदनों की सरेआम प्रदर्शनी करने लगे, और यह संस्कार सौदागरों के रोम-रोम में बस गया था। पहले मंडी में माल-ताल बिकता था और भाव-ताव करने वाले हाथ मिलाकर, उस पर एक रूमाल डाल लेते और रूमाल के नीचे उँगलियों के इशारे से सौदा हो जाता था। अब तो जैसे वह रूमाल भी हट चुका था और सामने सौदे हो रहे थे, और लोग सौदागरी की परम्पराओं को भी भूल गये थे। वह सारा लेन-देन, वह सारा कारोबार, 'बोकाश्यो' की कहानी मालूम हो रहा था—एक ऐसा वर्णन जिसमें औरतों के खुले क्रय-विक्रय की कहानी कही जाती है, और 'उजबक' अनगिनत नग्न औरतों के सामने उनके शरीर को टोह-टोह के देख रहा है। जब वह किसी औरत के शरीर को उँगली से छूता है तो उस पर एक गुलाबी-सा गढ़ा पड़ जाता है और उसके गिर्द एक जर्द-सा घेरा, और फिर वह जर्दी और सुर्खी एक-दूसरे की जगह लेने की दौड़ पड़ती है।...उजबक आगे निकल जाता है और निकाली हुई औरत एक पराजय की भावना हृदय में लेकर अपमान की ज्वाला में, एक हाथ से नाड़े को थामे और दूसरे से अपने चेहरे को लोगों की निगाहों से छिपाए सुबकियाँ लेती है। कुछ आगे चलकर उसमें जैसे पराजय की भावना भी नहीं रह जाती। वह उसी तरह नंगी 'सिकन्दरिया' के बांजारों में से गुजरती है, और फिर 'त्राइफेरा' के रूप में अपनी सहेली 'सैसो, यह कौन जालिम मसखरा है जिसने सामने की दीवारों पर लिखा दिया है—

'बाकिस'

थेरसाइटिस के लिए दो ओबली (एक छोटा सिक्का) में। और फिर वह कहती है, 'दो ओबली में?' और फिर सैसो कहती है, 'मर्दों को यों हमारी मंजांक उड़ाने की इजांजत नहीं होनी चाहिए। यदि वाकिस की जगह मैं होती, तो ंजरूर पूछताछ करती...' और सैसो दो ही कदम आगे बढ़ती है कि उसे दीवार पर लिखा हुआ मिलता है— निदूस की सैसो टायमन के लिए एक मिना (एक बड़ा सिक्का) में...

थोड़ी देर में सैसो का रंग पीला होता है और फिर वह उस लिखावट के नीचे खड़ी हो जाती है, और इन्तजार करती है, जबकि बाकी औरतें उसेर् ईष्या और द्वेष से देखते हुए गुजरने लगती हैं... सुन्दरलाल अमृतसर की सीमा पर जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्हें लाजो के आने की खबर मिली। एकदम इस खबर के मिलते ही सुन्दरलाल घबरा गये, उनका एक कदम फौरन दरवाजे की ओर बढ़ा, किन्तु वह फिर पीछे लौट आया। उनका जी चाहता था कि वे रुक जाएँ और कमेटी के तमाम 'प्लेकार्डों' और 'पोस्टरों' को बिछाकर बैठ जाएँ और खूब जी भर कर रोएँ। किन्तु वहाँ भावनाओं का इस प्रकार प्रदर्शन मुमकिन नहीं था। उन्होंने अपने पुरुष के पुरुषत्व से खींचातानी की, प्रतिरोध किया और अपने डगों से धरती नापते हुए चौकी कलाँ की ओर चल दिये। यही वह जगह थी, जहाँ भगायी हुई औरतों की डिलीवरी दी जाती थी। अब लाजो सामने खड़ी थी और किसी आशंका से काँप रही थी, वह सुन्दरलाल को जानती थी, उसके सिवा उन्हें कोई नहीं जानता था। वह पहले ही उसके साथ बुरा बर्ताव करते थे, और अब जबकि वह पराये मर्द के साथ जीवन के कितने ही दिन बिताकर आयी थी, न जाने क्या करेंगे? सुन्दरलाल ने लाजो की ओर देखा, वह शुध्द इस्लामी ढंग का काला दुपट्टा ओढ़े हुए थी और बायाँ पल्ला डाले हुए थी...आदत, केवल आदत...दूसरी आदतों में घुलमिल जाने और अपने पिंजरे से भाग जाने की आसानी थी! परन्तु वह सुन्दरलाल के सम्बन्ध में इतना अधिक सोच रही थी कि उसे अपने कपड़े बदलने और दुपट्टा ठीक से ओढ़ने की भी सुध न थी। वह हिन्दू और मुसलमान के बुनियादी अन्तर 'दायाँ पल्ला, बायाँ पल्ला' के गुण-दोष परखने में भी असमर्थ थी। अब वह सुन्दरलाल के सामने खड़ी थी और काँप रही थी, एक आशा और निराशा के भय की भावना के साथ।

सुन्दरलाल को धक्का-सा लगा। उन्होंने देखा, लाजवन्ती का रंग पहले से कुछ निखर गया था और वह पहले की अपेक्षा स्वस्थ भी नंजर आती थी। नहीं, वह मोटी भी हो गयी थी। सुन्दरलाल ने जो कुछ लाजो के सम्बन्ध में सोच रखा था, वह सब झूठ था। वे समझते थे, दु:ख में घुल जाने के कारण लाजवन्ती बिलकुल मरियल हो चुकी होगी और आवांज उसके मुँह से निकाले भी न निकलती होगी। इस विचार से कि वह पाकिस्तान में बड़ी खुश रही है, उन्हें ठेस-सी लगी। किन्तु वे चुप रहे, क्योंकि उन्होंने चुप रहने की सौगन्ध खा रखी थी, यद्यपि वे नहीं जान पाये कि अगर वहाँ इतनी खुश थी तो चली क्यों आयी? उन्होंने सोचा, शायद भारत सरकार के दबाव के कारण उसे अपनी मर्जी से विरुध्द यहाँ आना पड़ा है, किन्तु वह एक चीज समझ नहीं सके कि लाजवन्ती का सँवलाया हुआ चेहरा जर्दी लिये हुए था, और क्लेश, केवल क्लेश के कारण उसके शरीर पर माँस ने हड्डियों को छोड़ दिया था, वह दु:ख की मार से मोटी हो गयी थी और स्वस्थ-सी नंजर आती थी। लेकिन वह ऐसा मुटापा था, जिसमें दो ंकदम चलने पर आदमी की साँस फूल जाती है। लाजो के चेहरे पर पहली निगाह पड़ने का प्रभाव कुछ अजीब-सा हुआ, लेकिन अपने सारे विचारों का उन्होंने दृढ़ता से मुकाबिला किया। और भी बहुत से लोग मौजूद थे, किसी ने कहा—

'हम नहीं लेते मुसलमान की जूठी औरत!'

'हम नहीं लेते मुसलमान की जूठी औरत!'

और यह आवांज रसालू, नेकीराम और चौकी कलाँ के बूढ़े मुहर्रिर के नारों में गुम होकर रह गयी। उन सब आवांजों से अलग कालिकाप्रसाद की फटी और चिल्लाती हुई आवांज आ रही थी। वह खाँस भी लेते थे और बोलते भी जाते। वे इसी नयी यथार्थता, इस नये सिध्दान्त के अनुयायी हो चुके थे। ऐसा जान पड़ता था, जैसे आज उन्होंने कोई नया वेद, नया पुराण और शास्त्र पढ़ लिया है और अपने इस हिस्से में दूसरों को भी साझीदार बनाना चाहते हैं।

उन सब लोगों और उन सारी आवांजों में घिरी हुई लाजो और सुन्दरलाल अपने डेरे को जा रहे थे और ऐसा जान पड़ता था, जैसे हजारों वर्ष पहले के श्री रामचन्द्र और सीताजी किसी नैतिक बनवास के बाद अयोध्या में प्रवेश कर रहे हों। और उधर एक ओर लोग खुशी से दीप-मालाओं को सजा रहे थे और दूसरी ओर उन्हें इतनी तपस्या के कष्ट के बाद फल मिलने के सुअवसर पर बधाई दे रहे थे। लाजवन्ती के आ जाने पर भी सुन्दरलाल ने उसी परिश्रम से 'दिल में बसाओ' आन्दोलन को जारी रखा। जो करनी-कहनी थी, उसे निभा दिया था और उन लोगों ने, जिनको सुन्दरलाल की बातों में खाली-खूली भावुकता नंजर आती थी, कायल होना शुरू कर दिया। लेकिन सुन्दरलाल बाबू को किसी की परवाह और बेपरवाही की चिन्ता नहीं थी। उनके हृदय की देवी लौट आयी थी, उनके दिल का गढ़ा भर चुका था। सुन्दरलाल ने लाजो की स्वर्ण-मूर्ति को अपने मन-मन्दिर में बसा लिया था और खुद दरवांजे पर बैठकर उसकी पूजा करने लगे थे। लाजो, जो पहले भय से सहमी रहती थी, धीरे-धीरे सुन्दरलाल की उदारता देखकर खुलने लगी थी। सुन्दरलाल लाजवन्ती को अब 'लाजो' के नाम से नहीं पुकारते थे, वे उसे कहते थे 'देवी'।

और लाजो एक अनजानी खुशी से पागल हुई जाती थी। वह कितना चाहती थी कि सुन्दरलाल से अपनी रामकहानी कह सुनाये और सुनाते-सुनाते इतना रोये कि उसके सारे अपराध धुल जाएँ।

लेकिन सुन्दरलाल लाजो की वे बातें सुनना स्वीकार नहीं करते। और लाजो अपने खुल जाने में भी एक प्रकार से सहमी रहती और अपनी इस चोरी में पकड़ी जाती। जब सुन्दरलाल इसका कारण पूछते तो वह, 'नहीं,' 'योंही,' 'ऊँ हूँ' के सिवा और कुछ न कहती और सारे दिन के थक-माँदे सुन्दरलाल फिर ऊँघ जाते।

हाँ, शुरू-शुरू में एक बार सुन्दरलाल ने लाजवन्ती के 'काले दिनों' के बारे में केवल इतना-सा पूछा था—'कौन था वह?' लाजवन्ती ने निगाहें नीची करते हुए कहा, जुम्मा! फिर अपनी निगाहें सुन्दरलाल के चेहरे पर जमाये कुछ कहना चाहती थी, लेकिन सुन्दरलाल एक अजीब-सी नंजरों से लाजवन्ती के चेहरे की ओर देख रहे थे और उसके बालों को सुलझा रहे थे। लाजवन्ती ने फिर ऑंखें नीची कर लीं और सुन्दरलाल ने पूछा, अच्छा व्यवहार करता था वह?

हाँ।

मारता तो नहीं था?

लाजवन्ती ने अपना सिर सुन्दरलाल की छाती से सटाते हुए कहा, नहीं तो...। और फिर बोली, उसने मुझे कुछ नहीं कहा, यद्यपि वह मारता नहीं था, परन्तु उससे अधिक मुझे डराता था। तुम मुझे मारते थे, पर मैं तुमसे डरती नहीं थी...अब तो न मारोगे?

सुन्दरलाल की ऑंखों में ऑंसू छलक आये और उन्होंने बड़ी लज्जा और दु:ख-भरे स्वर में कहा, नहीं देवी, अब नहीं मारूँगा, नहीं मारूँगा!

देवी! लाजवन्ती ने सोचा। और वह ऑंसू बहाने लगी।

और उसके बाद लाजवन्ती सब-कुछ कह देना चाहती थी, लेकिन सुन्दरलाल ने कहा, जाने दो बीती बातें। उसमें तुम्हारा क्या अपराध है? उसमें अपराध है हमारे समाज का, जो तुम जैसी देवियों को उनका पद नहीं सौंपता। इससे वह तुम्हारी हानि नहीं करता, खुद की हानि करता है!

और लाजवन्ती की मन-की-मन में ही रही, कह न सकी सारी बात, चुपकी-दुबकी पड़ी रही और अपने शरीर की ओर देखती रही, जो कि बँटवारे के बाद अब देवी का शरीर हो गया था, वह शरीर लाजवन्ती का शरीर नहीं था। वह खुश थी, बहुत खुश थी, बहुत खुश, लेकिन एक ऐसी अजीब-सी खुशी, जिसमें आशंका और भय की पुट थी, और कई बार वह लेटी-लेटी अचानक चौंककर बैठ जाती, जैसे अत्यधिक खुशी के क्षण में कोई आहट पाकर एकाएक और आकर्षित हो जाए।

और अन्त में जब बहुत दिन बीत गये तो खुशी का स्थान दु:ख ने ले लिया। इसलिए नहीं कि बाबू सुन्दरलाल ने फिर वही पुरानी पशुता दिखायी थी, बल्कि इसलिए कि वह लाजो से बहुत अच्छा सलूक करने लगे थे—ऐसा सलूक, जिसकी लाजो को आदत नहीं थी। वह सुन्दरलाल की वही पुरानी लाजो हो जाना चाहती थी जो गाजर से लड़ पड़ती और मूली से मान जाती। किन्तु अब लड़ाई का सवाल ही नहीं था। सुन्दरलाल ने उसे यह अनुभव करा दिया कि जैसे वह लाजवन्ती, काँच की कोई चीज है, जो छूते ही टूट जाएगी—और लाजो दर्पण में अपने को सिर से पाँव तक निहारती, और अन्त में इस निर्णय पर पहुँचती कि वह और तो सब-कुछ हो सकती है, परन्तु लाजो नहीं बन सकती।...वह बस गयी, पर उजड़ गयी।

सुन्दरलाल के पास उसके ऑंसू देखने के लिए न ऑंखें थीं, न आहें सुनने के लिए कान। मुहल्ला मुल्ला शकूर के सबसे बड़े सुधारक खुद भी न जान सके कि मनुष्य का हृदय कितना कोमल होता है।...प्रभात फेरियाँ निकलती रहीं और रसालू और नेकीराम के साथ मिलकर वे एक मशीन आवांज में गाते रहे— 'हथ लाँयाँ कुमलान नी लाजवन्ती दे बूटे।'