लाल का पतन / राजा सिंह

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बहुत वर्षो बाद आज मैं फिर उस दहलीज पर खड़ा हॅू। वही बंगला था। वही नींबू की झाड़ी और एक लम्बा लान, खाली और उजाड़। मौनता का मुखौटा ओढे़ हुये निस्तब्ध, प्रतीक्षारत एक मूक बॉंट जोहता। अप्रैल की गर्म हवा सॉंय-सॉंय करती उसे झकझोरती है, सूनी दोपहर बंगलें को लपेटती उसे चिढ़़ा रही है।

काका भीतर होंगें? मैं गेट खटखटाता हॅू। आवाज वहीं ठहर गयी है। भीतर तक गई भी या नहीं? बहुत कुछ ठहरा है। जैसे वक्त ठहर गया हो। उसे विश्वास नहीं होता कि वह वही आदमी है जो 10 साल पहले था। वह गेट खोल कर भीतर आ गया, एकदम अकेले। वह घर के बाहर खड़ा। यदि वे जीवित होंगें, तो एकदम उसे पहचान जायेंगें। इतने सालों में वह उसके जेहन में आते रहे और हान्ट करते रहे। ...पर वे यह जानते, तुम कहॉं से लौट कर आये हो।

काका की पथराई ऑंखांे में विस्मय और प्रसन्नता का एक तारा चमका और उनकी ऑखों को गीला करता गुजर गया। काका कभी नहीं सोच सकते, बसु अब मूर्त रूप में खड़ा होगा। सुख, वह सुख में थे और तृप्ति आ चुकी थी उनके पास। अपने निहायत प्यारे को वर्षों बाद फिर अपने पास होने का अहसास।

मैं ऊॅंपर आ गया हॅूं। मॉ-पिता की तस्वीर। तस्वीर में खून टपकता हुआ और तब उसके भीतर एक बहुत धुॅंधली तस्वीर खिंच आती है। खून-खून से लिपटी बहते हुये खून की बिखरती तस्वीर और फिर गायब होती मॉं-पिता की तस्वीरें और दूर जाती उनकी आवाजें। डूबते, उतरते बिछड़ते और ओंझल होते चेहरें।

फिर उभरती है दादा-दादी की सफेद बालों और झुर्रियाँ पड़े चहरे से, उसकी ओर ममता, करूणा और प्यार से सरोबार ऑखें। दस साल पहले जब वह यहॉ से गया था। उसको सीने से चिपटाये, बिलखते दादा-दादी। फिर जब वह आया दादा के जाने के बाद। सूना-सूना घर और सूनी ऑंखो ंसे भरी दादी। उसके बीच बहुत से वर्षो का सूना लम्बा फांसला था और हफ्ते बाद उसकी दादी भी चली गई दादा की तेरहवीें से पहले ही। शायद उसे देखने को रूकी थीं, वरना दादा के साथ ही जाना था। दादी को अंतिम समय में देख पाया। दादा-दादी ही उसके माता पिता भी थेे। माता-पिता तो उसे सौंपकर चले गये थे जब वह पॉंच साल का था।

दादा-दादी बसु को धरोहर की तरह से सम्हालते और बरतते। बसु को काई तकलीफ न हो। कभी कोई रोक-टोक नहीं। सिर्फ़ तकती ऑंखों का सम्मोहन, प्यार लुटाती ऑखो की ममता और बसु पर विश्वास की गहन पर्ते बिछाती, अतिशय भावुकता। संयत निर्विकार स्वर की पहरेदारी। उसकी नियति का धागा उसके पास सुरक्षित था।

उसका कमरा। उसके अकेलेपन का सुरक्षित और मजबूत किला। जिसके आने के दो रास्ते, एक भीतर से नीचे हाल से होकर और दूसरा बाहर पीछे के लान से। अक्सर उसका रात में विचरण करने का असंदिग्ध जरिया। दादा-दादी के बगैर जानकारी के कुछेक लोगों के लाने-ले जाने और मीटिंग करने का गुप्त स्थान।

मैं उन लोगों के साथ था जिन्हें दुनिया बदलनी थी। पूंजीवादी दुनिया से उलट सर्वहारा की दुनिया। समानता, मानवता और विकास की दुनियॉं। आज से 12 साल पहले की दुनिया। समानता के लिये अपना खून अर्पित करने की लालसा।

मैं कई बार वहॉं आ चुका था। कामरेड मोहन बुद्धिजीवी लीडर और समानता का पक्षधर था। हरेक को अपना अनुयायी बना लेने की क्षमता। रात-दिन-दोपहर वह सब कभी भी मिल लिया करतें। लम्बी-लम्बी बहसें। कार्लमाकर््स के सिद्धान्त, लेनिन की कार्यपद्धति, माओं से तुंग की पीपुल लिवरेशन, क्यूबा की क्रान्ति, चेग्वेरा का दर्शन के विचार विमर्श और अन्त में आते-आते कनू सान्याल और चारूमजूमदार के नायकत्व में समर्पित हो जाने का जुनून। सर्वहारा का उद्धार इसी तरह से हो सकता है। -परन्तु आज काम बॅंटना था। माहौल चुप्पी का था। गम्भीर वातावरण, कुछ कर गुजरनंे की तमन्ना। जैसे इतिहास के पन्नों में आज के बाद उनका भी नाम होगा। काकोरी काण्ड की तरह।

हमारी परीक्षा का अन्त आ पहुॅंचा है। कामरेड ने दिशा निर्देश दिये। लाल-सलाम, व्यवस्था परिवर्तन के आहवान हेतु आवश्यक पम्फलेट, पर्चिंया और छोटे-छोटे पोस्टर। जिन्हें हम सबको शहर के मुख्य स्थानों, दीवालों और खम्बों में चिपकाने है। सत्ता की संग दिली और संवेदन शून्यता से जनता को रूबरू कराती पक्तियाँ। इसे जानकर हममें से कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था कि ये काम के लिए इतना गुप्त ताम-झाम।

कामरेड ने बाहर का रास्ता दिखाया। जैसे पिछले कुछ मिनटों जो कुछ घटित हुआ वह निरर्थक था। अभी कुछ अपूर्ण है। उस पर बहस करना कोई माने नहीं रखता था।

उस क्षण काम को अंजाम देने का उत्साह क्षीण हो चुका था और निराशा घर चुकी थी। परन्तु हमारे मन में खीज या कटुता नहीं थी। कुछ क्षणों में ही हमारा वह मायावी क्षण टूट गया। हम फिर वापस अपने-अपने में लौट आये थे और काम के प्रति सजग हो उठे।

हम केवल चार थे। हमें आपस में तारतम्य बिठाना था। हम अलग-अलग थें। आज जुडे थे। कानपुर के अलग-अलग कोनों से आकर एक कामन काज के लिए जुटे थे। विजय आर्या जाजमऊ से, एहसान अहमद चमनगंज से, आनन्द वर्मा रेलबाजार से, मैं पटकापुर से। सामान थोड़ा-सा ही था। आपस में बॉंट लिया।

अभी रात के दस बजे थे। अभियान रात बारह बजे के बाद प्रारम्भ करना था। हम एक सड़े से सस्ते होटल में बैठ गये और बीयर पी रहे थे।

मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि रोजमर्रा की दैनिक ज़िन्दगी के साथ-साथ, मैं एक दूसरी ज़िन्दगी भी जी रहा हॅू। मुझसे अलग, मुझसे बाहर, मुझसे अछूती-एक ज़िन्दगी जिसका मुझसे कोई वास्ता नहीं था।

बी-टेक के लास्टईयर में पढने वाला जहीन, दब्बू सहमा, एच0बी0आई0टी0 का स्टूडेन्ट।

एहसान ने शर्ट के उपरी बटन खोल दिये। गर्मी उतनी नहीं थी, परन्तु वह शो ऐसा ही कर रहा था-इससे मुझे खास आश्चर्य नहीं हुआ। वह एक लम्बा हष्ट-पुष्ट युवक था। फ़िल्मों के खलनायक की तरह। वह कसाई था। उसके पिता की मीटशाप की दुकान थी। वह अपनी जींस में एक लम्बा चाकू रखे था। कह रहा था, रात में शायद इसकी ज़रूरत पड़े।

विजय आर्या इण्टर तक पढ़ कर छोड़ चुका, मध्यम कद काठी का युवक था। उसने फ्रेंच कट दाढ़ी मूछें रखी थी। वह उदास था और पूरी तरह बेरोजगार था। उसका पिता मोंची था। सड़क पर जूते गॉंठने और चमकाने का काम, जिससे वह सख्त नफरत करता था।

आनन्द वर्मा बी.ए. पास था। एक तरह से उसे मोटू भी कहा जा सकता था। उसका पिता सरकारी प्राथमिक स्कूल का अध्यापक। उसका बाप खर्चा उठाने में असमर्थ था।

वह नौकरी पाने के लिए बेचैन था और नौकरी उससे दूर थी। उसको रोजगार के दफ्तरांे के चक्करों से फुरसत नहीं थी। आनन्द ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और हमारे आगे कर दिया। सिगरेट की तलब ने शिष्टाचार ताक पर रख दिया और हम चारों उसकी सिगरेटों पर टूट पड़े और पैकेट खाली कर दिया।

पिक्चर छूट गई थी। सिनेमा हाल खाली हो रहे थे। इसके बाद सन्नाटा और हम लोगों को अपना काम अंजाम देना था। कानपुर की रात, भयावह गंदी और सुनसान। वह शहर का एक उजाड़ कोना था और सड़क खाली थी। खाली, लेकिन वीरान नहीं।

हम दो ग्रुप में हो गये। एहसान मेरे साथ था, हम दोनों के पास मरे कम्पनी से निशात टाकीज का ईलाका कवर करना था और विजय और आनन्द को विवेक टाकीज से निशात टाकीज तक। हम लोग दो रिक्शा पकड़ कर अलग-अलग दिशा में बढ़ गये।

हमने अपना काम बखूबी अंजाम दिया था। निशात की उभरी चौहद्दी पर, मैं बैठा था। एहसान नीचे खड़ा खामोशी से इधर-उधर तॉक रहा था। शायद कुछ तलाश रहा था। हम आनन्द और विजय की प्रतीक्षा कर रहे थे।

एक प्रतीक्षा के बाद वे दोनों अचानक प्रगट हो गये। उन्हें कुछ पुलिस वालों ने देखा था। रात में पोस्टर आदि के विषय में टोका भी था, परन्तु पास आकर न देखा, न पूछा। वे वहॉं से खिसक लिए थे। फिर जुट गये थे अपने काम को अंत करने में। फिर भी शक उनके भीतर प्रवेश कर चुका था। एहसान अब भी कुछ ढूढ रहा था, शायद कुछ खाना। मैं खोया था इस मिशन की सार्थकता पर, निर्थकता पर। मैं थका। काम से नहीं चलने से। मैं सोच रहा था कहीं दादा-दादी को पता न चल गया हो कि मैं इतनी देर से बाहर हॅू। एक डर मेरे भीतर घुस आया था। सुबह क्या, मैं दादा की पूंछती निगाहों को सम्भाल पाऊॅगा?

हम चार आपस में एक दूसरे को तौलती निगाहों से, प्रश्न का पीछा कर रहे थे, अब क्या? हम पर भूख और थकावट सवार थी। मैं वापस घर जाने को उत्सुक था। वे अपनी पूर्ति की तलाश में। -चलो, कुछ बियर पी जाए. बिना कुछ पिए मैं ठीक से सो नहीं सकता। -आनन्द ने कहा -नही, कुछ खांते है। एहसान पलटा। विजय हल्की-सी दुविधा में था। उसकी जेब में शायद पैसे नहीं थे।

मैं बाउन्ड्री वाल से कूदां। मैंने विजय के कन्धें पर हाथ रख कर उससे कहा-फिक्र की कोई बात नहीं। मैं सब कर लूॅंगा।

वे तीनों आश्वस्त हुये। एक अजीब-सी खुशी उनके चेहरे पर फैल गई.

हमारे पॉव खाने और पीने की तालाश में चल पड़े।

दो पुलिस वाले दूर खड़े, हम लोगों को तक रहें होगें। एकदम से सामने। हम सब अकबका गये। -कौन हो? क्या करते हो? एक ने कड़क आवाज में पूछा। -स्टूडेन्ट है। मैं मिमियाया। -इस समय, कैसे? झूठ बोलते हो। दूसरा बोला -ऐसे ही। पढते-पढते बोर हो गये, तो रिफ्रेश होने निकल आये अब की आनन्द ने जोड़ा। -हास्टल कितनी दूर है यहॉ से? मूर्ख बनाते हो। -पहले वाला गर्जा। -साले! सब चोर है। चोरी करने की प्लानिंग बना रहे होगें। गिरफ्तार करो। उसने जेब से कुछ खोजने की सोचीं। वे अपनी रायफल के बोझ से दबे थे। हम चारों को अपने डन्डे से कवर कर के थाने चलने का प्रयत्न करने लगे।

अनायास हम सब भांगने लगे। एक ही दिशा की तरफ। वे दौड़ नहीं पा रहे थे। सब निकल गये। मैं पकड़ गया। मुझे पीटने लगे। मैं चिल्ला रहा था। मुझे कभी किसी ने डॉंटा भी नहीं था, मारने की बात तो काफी दूर की बात थी।

मैं पिट रहा था। अपना बचॉव भी करता जा रहा था। अचानक मेरी तरफ एहसान भागता आता दिखाई पड़ा।

एहसान ने अपने चाकू की दहशत से उन्हें ढकेला। मुझे बचाया। वह मेरा हाथ, पकड़ कर बेतहाशा भाग रहा थां। हम दोनों एक गली में घुस गयें। वहॉ पर विजय और आनन्द भी सहमें से मिले। हम सभी हॉफ रहे थे और सुरक्षित जगह की तलाश में भटक रहे थें।

एक घर के नीचे निकले एक चबूतरे पर हम सहमें से सुस्ता रहे थे। ऑखें गली के छोर पर टिकी थी। उन पुलिस वालों की सम्भावित आगमन की आशंका से, भयभीत, सिहर रहे थे। गली के भीतर अँधेरा था। सिर्फ़ चार जोड़ी ऑखें चमक रही थीं। तनाव से त्रस्त, अपने को पहचान रहे थे।

गली से गुजरते हुये, हम सब मूलगंज चौराहे पर निकले। हम सबका गंतव्य घंटाघर था। रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन और घंटाघर आपस में सौ गज की दूरी पर विद्यमान थें। हमें भूख लगी थी, प्यास लगी थी और दहशत भी लगी थीं।

हम सब एक होटल की तरफ बढ़ गये। दरवाजा खेलते ही आवाजों और धुयें के गरम रेले ने हम सबका स्वागत कियाँ। रोशनी थी, पीली मद्विम, धुयें से घिरी, जिसमें लोगों को पहचानना मुश्किल था।

हम स्टूडेंट थे। मालिक के लड़के को ईशारा किया। नीचे बेसमेंट था, कुछ सीढ़ियाँ उतरकर। कई गोल मेज पड़ी थीं और उनके चारों ओर परिक्रमा करती कुर्सियाँ। हम कोने की मेज के इर्द-गिर्द बैठ गए. लड़का आया तो आर्डर हमने ही किया, कुछ देर बाद बियर की चार बोतलें और गिलास आ गए. हम पीने लगे थे।

मुझे चोट आई थी। पूरा शरीर छिल-सा गया था। शरीर में जगह-जगह लाल निशान थे जो नील पड़ते जा रहे थे। मैं अपनी भूमिका को लेकर संशकित हो रहा था। -हम लोगों के साथ कामरेड मोहन भी होने चाहिए थे। मैंने कहा। -वह सब जगह लीड नहीं कर सकते। एजाज बोला। -वह कमान्डर है, हमारे। उनका आदेश काफी हैं। आनन्द ने कहा। -पर्चियाँ पिचकाने से क्रान्ति आ जायेगी? -पहल ऐसे ही होती हैं। जन-जागरण के जरिये अपना उद्देश्य फैलाना हैं जितने लोग इस अभियान में जुडें़गे उतनी ही व्यापक परिवर्तन होगां। -मुझे संदेह है, इस तरह से समाजवाद आने में। -समाजवाद नहीं साम्यवाद आ जायेगां। -दोनों में फर्क क्या है? -साम्यवाद का मतलब कम्यूनिष्ट का शासन। -अरे! बाप रे, जैसे चीन में हैं। -तो क्या हुआ सबको रोटी, कपड़ा और मकान तो हैं। -विरोध का तो गला ही घुट जाता है। -सब लोग एक जैसे हो जायेंगे। ...न कोई अमीर न कोई गरीब। -तो क्या अमीरों का माल छीनकर, गरीबों में बॉट देंगे? राबिनहुड की तरह। -पूरी व्यवस्था बदल जायेगी। सम्पत्ति किसी के पास नहीं रहेगी। सिर्फ़ काम होगा। सबको काम करना पडे़गा और उसके बदले में उसे सभी आवश्यक सुविधाएॅ मिलेंगी। -ऐसा होता है क्या? ये असम्भव है। सब बराबर नहीं हो सकते। ये भ्रम हैं। छलावा है। उनके बीच में धीमे-तेज की आवाजें आने लगी थीं। उनके भीतर का गुबार निकल रहा थां। -मैं कामरेड का सम्मान करता हूॅ। मैंने बहस को विराम देने की कोशिश की। -वह गरीबों, मजदूरों और कमजोरों के लिए लड़ता हैं एजाज ने मेज ठोंकते हुए अपनी बात रखीं। -हॉ मेरे कालेज दोसर वैश्य इण्टर कालेज में स्टूडैंट यूनियन उसी के कारण बनी थी।

मेरे कालेज, हलीम मुस्लिम इण्टर कालेज में भी।

कामरेड पर प्रबन्धन के गुंडे इस्माइल ने चाकू तान दिया था। मैंने बीच में आकर अपना सीना खोल दिया। प्रहार करना है तो पहले मुझ पर करो और वह हट गया थां। -मिल मजदूरों की भी हड़ताल में भी वह शामिल होता हैं। -हॉ हम लोग भी शामिल होते हैं, वकर्स की भीड़ में। हम लोग जोर-शोर से नारे लगाते हैं। इस तरह और भी मजदूर शामिल होते हैं और हड़ताल सफल होती है। -कामरेड अन्याय के खिलाफ हैं। इसलिए हम सब उसके साथ हैं। -वह तो राजनैंतिक पार्टी की मीटिंग में भी जाता हे और गरीबों के समर्थन में भाषण देता है। -भाषण अच्छा कर लेता हैं। बॉध देता हैं। -उसके कहने पर हम मर मिटने को तैय्यार हैं। कुछ देर बाद होटल का मालिक हमारी मेज पर आकर खड़ा हो गया। गोल मटोल देह किन्तु काफी सुगठित रंग काला था। -और कुछ चाहिए.

खाना कुछ मिला नहीं। सब समाप्त हो चुका थां। होटल का स्टाफ खाना, खा-पीकर समाप्त कर चुका था। मगर मालिक ने प्याज की, आलू की पकौड़ियाँ बनवा दी थीं। उससे अच्छा कोई विकल्प मौजूद नहीं था। खैर पेट में कुछ चला गया था।

सुबह के पांच बज रहे थें। वे पूरी रात से जग रहे थें। बहस कर रहे थे। डर बाहर टहल रहा था और डर सबके भीतर भी था। सूरज अपने निकलने की तांक में था और वह सब बाहर निकलने में डर रहे थे। मैं अपने में सिमटा, सहमा हूॅ। दादा और दादी को अगर पता चल गया कि मैं रात भर बाहर रहा तो? कहीं मेरी चोट दिखाई पड़ गई तो?

मैं उलझन में था। दादा जी के सम्भावित प्रश्नों के उत्तर तलाशता हुआ। विजय अधमुखी ऑंखों से झूम रहा था। आनन्द अब भी पीने के फिराक में था। एजाज उठने की हड़बड़ी दिखा रहा था, परन्तु सामुहिक निर्णय की प्रतीक्षा में सभी थे।

मैंने देखा। कामरेड बेसमेंट की सीढ़ियाँ उतर रहा था। ं मेज पर आकर सबको एक दृष्टि से उसने देखा। -क्या रहा? उसके स्वर में तनाव था। -वर्क डन। ं एजाज ने कहा।

कामरेड ने राहत की संास ली। -अब सब उठो। निकलो यहॉ से। आज ही दोपहर लालइमली मिल में सभा हैं। आप सभी दो बजे वहॉं पहॅुचें। हम सब एक-एक करके अपने घर रवाना हो गये।

दूसरे दिन जब मैंने वह घटना अपने आप को सुनाई, तो मुझे खुद आश्चर्य हुआ था। मेरे ऊॅपर ऐसा घटना बीती थी, बाद में किस आसानी से वह हल्की पड़ गई थी। क्योंकि उस घड़ी में, बिल्कुल उस घड़ी में, जब घटना घट रही थी मैं कितना बदहवास-सा हो गया था। मैं डर से सराबोर था और भीतर विहृवल कातरता भर गई थी। उस रात जब मैं सबके साथ अंधेरी सड़क पर भाग रहा था और अकेले में दबोच लिया गया था। ...और फिर एजाज का एक्शन।

यह जगह मेरे लिए ठीक नहीं है। एक अवश-सी कातरता मेरे भीतर उभर आई. फिर आंॅखें मुंद जाती हैं। कितनी देर ऐसे ही रहा। फिर अनायास ऐसा लगता है कि गाल गीले से हैं। ...क्या ऑसू निकले थे। इस पर मुझे विश्वास नहीं आता हैं।

मैं बैठ गया हूॅ। फिर सतर्क हो गया। पैरों की आहट मेरे पास चली आयी थी। बहुत धीमे-धीमे गति से। मैं आखें बंद किए था। मैं ऊॅघने लगा था। कोई मेरे कंधों को हिला रहा था। -क्या बात है? तबीयत खराब है? -नहीं...ऐसा नहीं। आंखें खुल गईं। मेरे ऊपर दादी झुकी थी। ममत्व से भरी, उनकी ऑखें, मेरी ऑखों में आंॅंसू भर गई थी।

मैंने अपने आप को अलग कर लिया। मुझे लगा मैं उस वर्ग में नहीं हॅू। मैं उस कारण के लिए मानसिक रूप से जिन्दा था कार्यशीलता करीब-करीब मरने की सीमा तक पहुॅंच गई थी।

काका रिश्ते में कोई नहीं लगते किन्तु उनसे जान-पहचान इतनी पुरानी है कि अपने-पराये का अन्तर कभी हमारे बीच नहीं रहा। वे मेरे पालक रहें है। मेरे जन्म से पहले वह इस घर में आये थे। सब चले गये। सिर्फ़ वहीं रह गये थे। अंजाने शहरों में आत्मीयता की भूख कितनी सताती है, यह कानपुर में रहते कभी अहसास नहीं रहा था। मैं लौट आया था, इसी आत्मीयता की खोज में। मुझे अजीब-सा भ्रम रहता है कि मैं उन अकेले लोगों में हॅू, जो अकेला होने पर भी अपनों से जुड़े रहते है। कभी इस जगह इस शहर से मोह भंग हो पायेगा?

यह जीवन? मैंने सोचा। माता-पिता बचपन में मर गये। दादा-दादी मेरे युवापन की दहलीज पर मर गये। क्या काका? नहीं...! सब आत्मीय छूट जायेंगें। अकेले में, एकदम अकेले में। कैसे होगा जीवन? "तुम यह घर बेच क्यों नहीं देते। -" काका कहते है। तुम विलायत में रहते हो। -तुम्हारे रहते कदापि नहीं। मैंने कहा। -यह तुम्हारे पिता का घर है और मैं इसमें जांेक की तरह चिपका हॅू। काका की वेदना, मुझ तक पहुॅंच रही थी। मैं बाहर आ गया था। उजड़े लान पर टहलकदमी करता हुआ। उस उजडे गुलशन में भी आत्मीयता थी। एक कसक थी। एक आकर्षण था। अन्तहीन यादों का सिलसिला था।

'बसु, जानते हो, तुम्हारा वह नेता। अरे! वहीं जो सांवला सा, हरदम खादी के कुर्ते पजामें में रहता था।' अपने साथ कइयों को लाता था और तुम, सब बहस में उलझ जाते थे। क्या नाम था, उसका? ' काका दिमाग पर जोर डालते है। मैं भी स्मृतियों के आइनें में देखने लगता हॅू।

'कामरेड, मोहन'। मैंने कहा।

हॉ, वहीं। अब इस ईलाके का विधायक हो गया है।

'अच्छा।'

'और एजजवॉं, बहुत बड़ा आदमी बन गया है। बड़ा ठेकेदार है।'

काका, विजय कैसा है? वह कहॉं है?

उसका चमड़े जूते-चप्पलों का बहुत बड़ा शोरूम है। आया था, तुम्हारे विषय में पॅंूछ रहा था। अपने शोरूम के उद्घाटन का कार्ड दे गया था। -और काका, आनन्द। -मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

वह तो सरकारी स्कूल में टीचर हो गया। बड़े ठाठ है, उसके. काका अपनी रौ में आ चुके थे। सभी कभी-कभी आते रहे थे और तुम्हारे बारे में पूॅंछते रहे है। उनसे मिलोगे नहीं?

मैं हाल के कमरे में आ जाता हॅू। एक बार मन करता है कि जल्दी से दौड़कर सबसे मिल लॅू। फिर रूक जाता हॅू। सोचता हॅू मैं बदला, सभी बदल गए. लाल सलाम-कभी नीले, हरे और भगवे में बदल गया है। छुट-पुट कही है तो अराजक, आतंकवादी और घृणित रूप में।