लाल मिट्टी वाले अखाड़ों की परम्परा / जयप्रकाश चौकसे

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लाल मिट्टी वाले अखाड़ों की परम्परा
प्रकाशन तिथि :03 जनवरी 2015


जॉन अब्राहम, सलमान खान आैर अामिर खान ने इसी क्रम से देशी कुश्ती के पहलवान के जीवन पर फिल्म की योजना बनाई आैर समय तथा धन खर्च करने के बाद योजना को निरस्त कर दिया। आमिर खान ने तो एक विशेषज्ञ से भूमिका के अनुरूप जिस्म बनाने के बारे में बात भी की थी। सलमान खान की फिल्म प्रसिद्ध गामा पहलवान के जीवन से प्रेरित थी जिनका एक स्वागत समारोह पाकिस्तान में भी किया गया आैर वहां भी उन्हें रुस्तमे-हिंद के खिताब से संबोधित किया गया। बहरहाल आज का जिम जाने वाला युवा लाल मिट्टी के अखाड़े के रोचक अनुभव की कल्पना भी नहीं कर सकता। उन्हें यह भी अनुमान नहीं कि वह लाल मिट्टी कई बार छानी जाती थी, फिर उसे अखाड़े योग्य माना जाता था। हर पहलवान रियाज या कुश्ती के पहले उस मिट्टी को माथे से लगाता था जैसे रंगमंच के कलाकार मंच पर माथा नवाते हैं या सिने एक्टर सेट पर प्रवेश के पूर्व माथा नवाता है। यह एक ही सम्मान परम्परा के स्वरूप है जिसकी जड़ गुरु के चरण छूने तक जाती है। अखाड़े के उस्ताद को गुरु समान आदर दिया जाता था। ये उस्ताद दांव-पेंच के साथ ही हड्डी चटखने या मांस पेशियों के खिंचाव का इलाज करना भी जानते थे गोयाकि गुरु आैर वैद्य दोनों भूमिकाआें को निभाते थे। अखाड़ों के वार्षिक जुलूस भी निकलते थे आैर उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता नाक का सवाल बन जाती थी। ये कुंभ मेले के धार्मिक अखाड़ों से अलग परम्परा थी जिसमें शरीर सौष्ठव से आत्मा का विकास जुड़ा था। जब उस्ताद किसी को अपना शिष्य स्वीकार करते तब बकायदा एक फंक्शन होता, उस्ताद शागिर्द को गंडा बांधते थे आैर शागिर्द के पिता उस्ताद को साझा पहनाते थे। इस आयोजन के बाद शिष्य अपने पिता के साथ उस्ताद के नाम से नई पहचान प्राप्त करता था। आज भी उस अखाड़ा परम्परा का निर्वाह कही-कही होता है।

कुछ वर्ष पूर्व मैंने गुरु भल्ला के साथ मिलकर अखाड़ों पर सीरियल की योजना बनाई थी परंतु सभी चैनलों ने इसे अस्वीकृत कर दिया। अत: सिनेमा में इसे निरस्त करने के पीछे भी संभवत: यही कारण होगा कि इसकी लोकप्रियता आज के दौर में संदिग्ध है। आज तो जिम का दौर है आैर प्रोटीन तथा एम्लो एसिड टैबलेट खाकर मांसपेशियों की रचना की जाती है। दरअसल मांसपेशियों की निर्माण प्रक्रिया अजीब है कि पहले एक्सरसाइज करके उन्हें तोड़ा जाता है फिर वह कसरत कुछ दिन नहीं की जाती है। प्रोटीन आैर एम्लो एसिड इत्यादि के सेवन से टूटी हुई मांस पेशी जुड़ते हुए बड़ा आकार ग्रहण करती है। अत: अंतराल के बाद प्रक्रिया दोहराई जाती है। यह याद दिलाता है कि जब हम एक भ्रष्ट व्यवस्था को तोड़ते हैं तो दूसरी भ्रष्ट व्यवस्था बड़े आकार में अन्य रूप में सामने आती है। सारांश यह कि समूल नाश ही नई व्यवस्था निर्माण प्रक्रिया का पहला कदम है।

बहरहाल जिम बनाम अखाड़ा की तरह ही फिल्मों में अब होली, दीवाली, ईद या क्रिसमस के त्योहार के गिर्द दृश्य नहीं रचे जाते। इसी तरह ग्रामीण परिवेश की जगह महानगर आैर महानगर की जगह अमेरिका, स्वीट्जरलैंड इत्यादि लोकेशन गए हैं। अब नए त्योहारों का विवरण होता है जैसे वेलेंटाइन डे, फ्रेंडशिप डे, मदर्स डे इत्यादि। यह गौरतलब है कि आधुनिकता के नाम पर ये परिवर्तन हो रहे हैं आैर आधुनिकता का मूल स्वर है- स्वतंत्र विचार शैली आैर तर्क सम्मत विचार परंतु इनकी आज भी मुनादी है। मसलन आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता परोसी जाए, आइटम सांग डाले जाए परंतु आधुनिकता के तर्क सम्मत स्वतंत्र विचार वाली फिल्म का विरोध करना यह संदेश देता है कि आप अपराध सरगना के जीवन पर फिल्म बनाएं, आइटम सांग की जगह बनाएं आैर फूहड़ता पर कोई पाबंदी नहीं है। अजीब सी बात है। फिल्म उद्योग से नौ सांसद चुने गए हैं परंतु ताजा मामले में वे खामोश हैं। यह फिल्म जगत की 'मित्रता' की हकीकत है।

बहरहाल लाल मिट्टी के अखाड़ों की रोचकता किसी भी उत्तेजक फिल्म का विषय हो सकता है परंतु सिने उद्योग व्यवस्था के दुर्ग में सेंध मारना आसान नहीं है। हमारी सारी परिवर्तनशीलता भीतर से कही जड़ आैर अविचल है। हमने अपनी सहूलियत को परिवर्तन कहना शुरू किया है आैर हम सौ बार झूठ दोहराकर उसे सच मानने के आदी हो चुके हैं। आज के युवा वर्ग को जानकर आश्चर्य होगा कि पृथ्वीराज कपूर, आज के रनवीर कपूर के पड़दादा, दंड-बैठक लगाते थे तथा हिंदी के महान कवि जयशंकर प्रसाद भी दंड-बैठक लगाते थे। गिरीश कर्नाद के नाटक 'हयवदन' का नायक कवि था आैर उसका एकमात्र मित्र पहलवान था। अमोल पालेकर ने कवि तथा अमरीश पुरी े पहलवान की भूमिकाएं की थी। आज एक कवि आैर पहलवान की मित्रता की फिल्म रनवीर कपूर आैर रितिक रोशन के साथ बनाई जा सकती है आैर लाल मिट्टी वाले अखाड़ा-संस्कृति की वापसी सितारों से जड़ित फिल्म से ही हो सकती है। यूं तो हमारी संसद भी दंगल है परंतु वह पवित्र लाल माटी से नहीं बनी है। सच तो यह है कि हम काली मिट्टी, पीली मिट्टी, लाल मिट्टी सभी से दूर जा चुके हैं आैर दुर्भाग्यवश इसे परिवर्तन, विकास आैर आधुनिकता का नाम भी दे रहे हैं।