लाल साहब / सुषमा मुनीन्द्र

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विश्वास तो किसी को नहीं होता पर लाल साहब प्रेम में पड चुके हैं। उस भव्य बंगले की बुनावट में व्याप्त वायुमण्डल का एक एक अणु चकित है लाल साहब के इस प्रेम पर। ये खुर्राट लाल साहब जब चण्डिका का रूप धारण कर कप प्लेटें गिलास तोडते हैं या अबोध भतीजे भतीजियों पर उमडते घुमडते हैं या दानवी अट्टहास करते हैं या मुंह फुला कर लम्बी ल्म्बी साँसे छोडते हैं तो वायुमण्डल के अणु जैसे घूर्णन करना भूल जाते हैं। आज वही लाल साहब अपने शाही शयन कक्ष जिसमें बाबूजी के अतिरिक्त कोई नॉक किये बिना नहीं जा सकता, में भतीजे भतीजियों के छोटे मोटे जुलूस के साथ कमर लचका लचका के नाच रहे हैं।गाना भी कौन सा? नित्य की भॉँति हा - हू वाला पॉप नहीं वरन् मोहे पनघट पर नन्दलाल छेड ग़यो रे...

लाल साहब के शयन कक्ष की साज सज्जा राजकुँअरी के शयनकक्ष से कम नहीं है। कक्ष में बच्चों का प्रवेश प्राय: वर्जित है। बच्चों का मनेविज्ञान भी कम विचित्र नहीं। वे वर्जित प्रदेश में अवश्य झाँकना चाहते हैं और लाल साहब के कोप का भाजन बनते हैं। लाल साहब की सामान्य सी चिंघाड पर मंझली भाभी कुमकुम के नन्हे पुत्र की सू सू निकल गई थी और लाल साहब चिड्डे से उछले थे - ”इन भाभियों ने औलादें पैदा करदीं और छुट्टा छोड दीं। अम्मा मेरा कमरा साफ करवाओ। जल्दी।”बडी भाभी भागवंती जाने किस दुस्साहस से कह गईं थीं - “ननद जी, तुम्हारे बच्चे होंगे तब क्या होगा? “

लाल साहब आदत के अनुसार अपनी तराशी हुई धनुष सी भौंहें सिकोड क़र भाल के मध्य ले आए थे और उनके पुण्डरीक नयन फैल कर भौंहों को स्पर्श करने लगे थे। ”माय फुट! विवाह कर अपने हाथ की लकीरों में कौन जनम भर को गुलामी लिखाएगा? दिन भर वानर सेना को सहेजो सकेलो, पति की बाट जोहते हुए तुम लोगों की तरह उबासी लो, ये हमसे न होगा। मैं तो बस कोई ठसकेदार सरकारी पद हथिया कर रोब गालिब करुंगी।”

इन्हीं रोबीले लाल साहब के दुर्लभ कक्ष में बच्चे नाच गा रहे हैं।सम्पदा को लाल साहब नाम यूं ही नहीं दे दिया गया। ठाकुरों की रियासत, गढी, प्रभुत्व, आतंक अब भले ही न रहा हो पर ठाकुर रणवीर सिंह की इस दुलरुआ इकलौती पुत्री की लाल साहबी आज तक अक्षुण्ण है। आप हिन्दी साहित्य से एम ए कर रही हैं। छोटी भाभी नीरजा, फुसफुसा कर हँसा करती है - लाल साहब के तेवर ऐसे कलफदार हैं कि जब सुरूर में आ कोई पद्य जोर से पढते हैं तो लगता है कोई कोतवाल अपने कैदियों को हडक़ा रहा है।”सुनकर कुमकुम तनिक अभिमान में कन्धे उचकाती है - “इसलिये न मैं ने सम्पदा को इतना बढिया उपनाम दिया है। लाल साहब वाह वाह।”“अच्छा अच्छा। बहुत न इतराओ। लाल साहब को जब अपने इस नाम के बारे में पता चल गया तो हम तीनों की खैर नहीं।”

और भागवंती की चेतावनी पर तीनों महिलाएं भयभीत मृगी सी दिखने लगती हैं। लाल साहब नामकरण आनन फानन में हो गया था। कुमकुम की बैंगनी साडी लाल साहब की नजरों में चढ ग़ई थी। यद्यपि लाल साहब लडक़ो से परिधान शर्टस और जीन्स पहनते हैं पर उन्हें भाभियों को पीडा पहुँचाने में आनन्द आता है और वे उनकी व्यक्तिगत वस्तुएं राम नाम जपना, पराया माल अपना की तर्ज पर हडपतपे रहते हैं। कुमकुम ने कह दिया यह साडी मेरे लिये तुम्हारे भैया मेरे जन्मदिन पर लाए थे। तुम बाबूजी से अपने लिये ऐसी ही साडी मंगवा लो।

दूसरे दिन कुमकुम के बिस्तर में उस प्रिय साडी क़ी कतरनें फैली छितराई थीं। लाल साहब ने न जाने कब कैंची उठा कर साडी क़ोतरकारी-भाजी की तरह कतर डाला था। बाबूजी पुत्री के पक्ष में ढाल बन कर खडे हो गये थे - अभी सम्पदा में लडक़पन है।धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। कुमकुम तुम्हें दूसरी साडी आजाएगी।

तीनों भाई रमानाथ, कामतानाथ, श्रीनाथ मूक बधिर से उस करुण दृश्य को देखते रह गये थे। लालसाहब को ललकारें इतनी ऊर्जा और बल किसी की भुजाओं में न था। फिर रसोई में भागवंती और कुमकुम की बैठक हुई थी। कुमकुम हिचकते हुए बोली थी - लाल साहबों को जमाना लद गया पर इसकी लालसाहबी न गई। ये लालसाहब गलत समय में पैदा हो गये।आजादी के पहले पैदा होना चाहिये था। भागवंती ने हिचकती कुमकुम की पीठ ठोंकी- वाह कुमकुम क्या नाम सुझाया है तुमने लाल साहब! वाह वाह! लाल साहब गलती से लडक़ी बनकर पैदा हो गये वरना इनके नाक के नीचे और अधर के ऊपर जो सपाट मैदान है वहाँ सीधी कलफदार मूँछ लहरा रही होती।

भाभियां लाल साहब की कितनी ही निन्दा करें पर बाबू जी को वे प्राणों से प्रिय हैं। वे नियम पूर्वक प्रात: लाल साहब के कमरे में जाते हैं उनके काले कत्थई रेशमी केश सहलाते हैं - बिटिया उठो दिन चढ आया है। और लाल साहब कुनमुनाते हुए, हाथ पैर झटकते हुए, चादर मुंह तक तान एक पकड और सो लेते हैं।बाबूजी कहते हुए अगाते नहीं - सम्पदा, के जन्म के बाद ही हम पर धन लक्ष्मी की कृपा हुई। पहले बघेल वस्त्रालय बिलकुल न चलता था अब तो रेडीमेड गारमेन्ट्स के तीन तीन प्रतिष्ठान हैं।

“साक्षात लक्ष्मी है लक्ष्मी।”ममता में डूबी अम्मा बाबूजी का अनुमोदन करतीं। अम्मा बाबूजी के अतिरिक्त संरक्षण और दुलार से पोषित लाल साहब का शैशव तीनों भाईयों की शिकायत करते हुए बडी आन बान और शान से बीता। तरुणाई तक पहुंचते पहुंचते आपकी प्रकृति - प्रवृत्ति का तीखापन शीर्ष पर पहुंच गया। वो नीली छतरी वाला भी कम छल छंद नहीं रचता। लाल साहब की दूधिया मरमरी त्वचा, काले कत्थई रेशमी केश,पुण्डरीक नयन, लचकती टहनी सी कोमल देह में इतनी ऊष्मा और हठधर्मिता पता नहीं क्या सोच कर भर दी।

इस हठधर्मिता के चलते लाल साहब भूख हडताल करने में गाँधीजी की तरह निष्णात हैं। अन्न जल त्याग को अमोघ अस्त्र कीभॉँति प्रयोग करते हैं। उन्हें मालूम है कि भूख हडताल से उनका अपराध कम हो जाता है और घर के निरपराध मेम्बरान अपराधी दिखाई पडने लगते हैं। बाबूजी चीख कर घर की चूलें हिला देते हैं- तुम लोग बच्ची को भूखा मारोगे क्या? गलतियाँ बच्चों से हो जाएं तो क्या वह भूखा प्यासा पडा रहे? तुम लोग बस एक ननद को खुश नहीं रख पातीं? बस वही खाओं और सोओ! “

बाबूजी जब तीनों भाभियों को बहुत कुछ कह डालते और तीनों भाई लाल साहब को मनाने में जुट जाते तब लालसाहब व्रत तोडने को तैयार होते रोयी रोयी लाल आँखे मेज पर गडा कर बैठ जाते। उस दिन अकारण ही उन्हें सब्जी में नमक अधिक लगता या चावल कच्चा रह जाता।लाल साहब रमानाथ को उलाहना देते - ब्रदर, इन अनपढों को कहाँ से ब्याह लाये हो, ये खाना नहीं गोबर है गोबर।

श्रीनाथ अम्मा का मुंह लगा है और अपेक्षाकृत साहसी है, बोल देता - सम्पदा अगर स्नातक भाभियां अनपढ हैं तो फिर अनपढ तुम भी हुईं। तुम स्वयं कभी रसोई में झाँकने नहीं जातीं और लाल साहब श्रीनाथ पर हिंस्त्र दृष्टि डालते। बाबूजी स्थिति संभालते - बेटी तुम खाना खाओ। इन लोगों से मत उलझो।खाना खाते समय चित्त शांत रखना चाहिये। ”चित्त शांत और इसका? जिसके दिमाग में इतनी गर्मी भरी हो उसका चित्त शांत नहीं रह सकता बाबूजी। कह कर श्रीनाथ अपनी ही बात पर हँसलेता।

लाल साहब का धैर्य छूट जाता। कुछ चुगते, कुछ छोडते और थाली में हाथ धो उठ खडे होते। वे थाली में नित्य इसी तरह हाथ धो, झूठी थाली छोड धम्म धम्म पैर पटकते चले जाते हैं।घर में भाभियाँ हैं, उनकी झूठी थालियां न उठाएंगी तो क्या दिन भर पंलग तोडेंग़ी!

भाभियाँ लाल साहब को कितना ही बुरा कहें पर इनकी असीम अनुकम्पा न होती तो इन लोगों का गृह प्रवेश दुर्लभ हो जाता।

भागवंती जब घर में आई तब लाल साहब छोटे थे पर कुमकुम और नीरजा, लाल साहब की सर्वोच्च परीक्षण से गुजर कर आ पाई हैं।

बाबूजी ने स्पष्ट कह दिया था, “बहू का चयन तो हमारी बिटिया करेगी।”

लाल साहब बडी ठसक से श्रीनाथ, अम्मा, बाबूजी के साथ नीरजा को देखने पहुँचे थे। नीरजा को कम और छत व दीवारों को अधिक देखते हुए, थाली में चम्मच घुमा घुमा कर नगण्य सा कुछ चुगते हुए, रूमाल से अधर पौंछते हुए, कनपटियों में फुसफुसाते अम्मा-बाबूजी की बात गर्व से सुनते हुए, श्रीनाथ के कान में मंत्रणा करते हुए लाल साहब ने नीरजा को हरी झण्डी दिखायी थी।

उन लोगों के जाने के बाद, व्यवस्था का भार संभाले नीरजा के मौसेरे भाई उपमन्यु ने नीरजा को बहुत डराया - “नीरजा संभल के। ये सम्पदा तो घर की बॉस दिखती है। वाह भई प्रभुत्व हो तो ऐसा। माता पिता उसकी आज्ञा के बिना कोई काम नहीं करते।”

फिर धूमधाम से बारात आई। बारात में पधारे लाल साहब ऐसे लग रहे थे जैसे पानी की सतह पर तैरती तेल की बूँदे। दूधिया रंगत पर लाल परिधान। उपमन्यु बडे नाटकीय ढंग से एक हाथ छाती पर रख कर बोला -”नीरजा, ये लाल छडी हमारे दिल के आर पार हो गई। मैं उसे देखते ही ढेर हो गया हूँ। ससुरालपहुँचते ही तुम कोई ऐसा जुगाड बैठाना कि लाल छडी क़ा शाही दिल हमारी झोली में आ गिरे।”

नीरजा आठ दिन रही ससुराल में। नवें दिन जाकर उपमन्यु उसे वापस लेकर आया। इधर उधर ताक झांक करता रहा पर लाल छडी क़े दर्शन लाभ न हो सके। घर पहुँचते ही अधीर सा पूछने लगा - “नीरजा, हमारी लाल छडी, क़हां लोप थी भई? हम उचकते छटपटाते रहे कि तनिक दरस परस हो जाएं पर।”

सुन कर विक्षुब्ध नीरजा, बम सी फट पडी - “लाल छडी नहीं लाल साहब कहो'।”मेरी जिठानियां उसे लाल साहब कहती हैं।उपमन्यु भाई तुमने गलत नम्बर डायल कर दिया है। लाल साहब के दांव पेच सामान्य मनुष्य की समझ से परे हैं। बिजली गुल होने पर वे इस लिये घर की चूलें हिला देते हैं कि उन्हें गर्मी लग रही है। मलिन उदास होकर वातायन के पास खडी हो पेडों की फुनगियां निहारा करती हैं। यद्यपि उन्हें स्वयं के उदास होने का कोई कारण ज्ञात नहीं होता। भाभियों से गिनी चुनी बातंउ करते हैं। दूसरे शब्दों में भाभियों को मुंह नहीं लगाते । उन्होंने मेरी पांच साडियां ऐसे झपट लीं जैसे उन्हीं की थीं। भाई भाभी होटल, पिकनिक, सिनेमा कहीं भी जाएं लाल साहब अनिवार्य रूप से साथ जाते हैं। मैं हनीमून के लिये कहीं बाहर नहीं गई अन्यथा लाल साहब वहां भी जाते। भागवंती जीजी ने साफ साफ समझा दिया कि यहां गृहस्थी के बोझ के साथ लाल साहब के नखरे भी उठाने पडते हैं। बस इतना जान लो कि लाल साहब की नाक पर मक्खी बैठ जाए तो पूरा घर उस दुस्साहसी मक्खी के पीछे पड ज़ाता है। सुनकर मां ने कपाल थामा - “राम राम, दिखने में इतनी सुन्दर और लच्छन ऐसे।”उपमन्यु ने नीरजा की पीठ में एक धौल जमाई - “मौसी लच्छन चाहे जैसे हों पर ऐसा शाही रुतबा न देखा न सुना। अब मेरा क्या होगा! “

नीरजा चिढ ग़ई - होगा क्या? उम्मीदवारी से अपना नाम वापस ले लो अन्यथा तुम्हारे दिमाग के सारे कोण सही जगह पर आ जाएंगे। सहायक प्राध्यापिकी से जो पाते हो उतना लाल साहब अपने वस्त्र, प्रसाधन, पेट्रोल, होटल में स्वाहा कर देती हैं।


“बाप रे, मुझे तो सुनकर पसीना आ गया।”कहकर विहंसते हुए उपमन्यु ने एक बार फिर अपने लौह हाथों से नीरजा की पीठ तोडी, “बहिन जी लगी रहिये लाल साहब की सेवा में, मेवा मिलेगा।”

“ठीक है सेवा मैं कर लूंगी, मेवा तुम खा लेना।”नीरजा ने उलाहना दिया।

“इस क्षुद्र के भाग्य में मेवा कहाँ? “

पता नहीं उपमन्यु के भाग में मेवा खाना था या नहीं पर अगले महीने ही उसका स्थानान्तरण नीरजा की ससुराल के शहर में हो गया। लाल साहब ने जब उपमन्यु को कॉलेज परिसर में देखा और सुना कि वह उसकी क्लास को हिन्दी साहित्य पढाएगा तो वह मन ही मन फुंफकारी - सफेदकपडों में स्वयं को शशि कपूर समझ रहा है। वैसे लालसाहब गुरु का निरादर नहीं करते पर ये गुरु बाद में नीरजा भाभी का भाई पहले है। और भाभियों के मायके वालों से आदर से बात करना लाल साहब की नियमावली में नहीं। लाल साहब ने बडी सतर्कता से प्राध्यापक की कुर्सी में खुजली वाली केंवाच फैला दी। बैठते ही उपमन्यु को खुजलाहट का दौरा पड ग़या। उसे ताण्डव करते देख छात्राएं पेट पकड क़र हँसने लगीं लाल साहब अपने स्थान पर बैठे बैठे विकृत अट्टहास कर रहे थे।

खुजलाहट से किसी सीमा तक नियंत्रण पाकर उपमन्यु ने एक विहंगम दृष्टि पूरी क्लास पर डाली । उसकी भूरी पुतलियां लालसाहब के मुख पर आबध्द हो गयीं-

“अरे आप आप इसी कॉलेज में हैं! ”

“जज....।जी सम्पदा सिटपिटा गई।”

“मैं इस सत्कर्म करने वाले के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। कभी कभी ऐसा स्वागत भी होना चाहिये। वैसे मैं चेहरा पढने में दक्ष हूँ। चेहरा पढ क़र बता सकता हूँ कि यह काम किसका है पर सबके बीच उसका नाम ले मैं उसे लज्जित नहीं करूंगा।”

कहते हुए उपमन्यु की दृष्टि लाल साहब के चौर्गिद फिसलती रही। जो लाल छडी उसके दिल के आर पार हो गई थी उसके मुख से दृष्टि हटाना आसान न था। लाल साहब उस धीर गम्भीर दृष्टि की ताक झांक सह नहीं पा रहे थे।ये तो ज्योतिषी मालूम पडता है। तभी तो जान गया कि केंवाच मैं ने डाली है। लाल साहब की ग्रीवा, कमर तक झुक गई। वस्तुत: लालसाहब की लालसाहबी घर तक ही सीमित है, बाहर वे शिष्ट शालीन ही रहते हैं।

उपमन्यु पूरी कक्षा से सम्बोधित हुआ - आज आप लोग अपना अपना परिचय दें। कुछ अपनी कहें कुछ मेरी सुनें।आप लोगों को मास्टर्स डिग्री मिलने वाली है। मैं भी मास्टर आप भी मास्टर।मुझे अपना मित्र समझें। कोई कठिनाई हो तो नि:शंक कहें।

उपमन्यु ने अपने सरल प्रशान्त स्वभाव से पहले ही दिन मैदान मार लिया। सभी छात्राएं अपना परिचय देने लगीं।लालसाहब का उत्साह एकाएक चुक गया। वे पिचके गुब्बारे से दिखने लगे। ये प्राय: प्रथम अवसर था जब लाल साहब स्वयं को अपराधी पा रहे थे। उन्हें गुरु का अपमान नहीं करना चाहिये था। क्लास के बाद लाल साहब अपराधी से उपमन्यु के सामने आ खडे हुए।

“सॉरी सर”

“किस बात के लिये? “

“मैं ने आपकी कुर्सी पर केंवाच.....। ”

“केंवाच आपने डाली थी? पर आप जैसी शिष्ट लडक़ी”

“जी।”

“आप कहती हैं तो मान लेता हूँ।”लाल साहब को इतने समीप देख कर उपमन्यु की छाती रेलगाडी सी धडधडाने लगी।

“तोतो आप नहीं जानते केंवाच किसने डाली है? “सम्पदा के कण्ठ में शब्द अटक कर रह गये।

“नहीं मैं कैसे जानूंगा? खैर हटाइये आपने अपराध स्वीकार किया ये अच्छी बात है। मैं आशा करता हूँ आगे से आप ऐसी कुचेष्टा नहीं करेंगी।”कह कर उपमन्यु मुस्कुरा दिया और स्टाफ रूम की ओर चला गया।

घर लौटते हुए लाल साहब आत्मग्लानि में डूबे हुए थे।उन्होंने व्यर्थ ही अपनी पोल खोली। रात भर उपमन्यु का क्षमादान झिंझोडता रहा। फिर भी उन्हें अपराध स्वीकार करके आत्मसंतोष मिल रहा था। उसकी दूधिया मुस्कान याद आती रही थी। उसकी मुस्कान जैसे झील के स्चच्छ पानी में चाँदनी छिटकी हो। दूसरे दिन शाम को उपमन्यु घर आ पहुँचा। गेट से उसे प्रविष्ट होते देख अपने कक्ष के वातायन में बैठे वॉकमैन सुन रहे लाल साहब ऐसे झटके से उठ खडे हुए जैसे निकट ही कहीं बम विस्फोट हुआ हो।अब उपमन्यु उसकी शिकायत करेगा और भाभियों के सामने उसकी हेठी होगी। वह अव्यवस्थित सी कक्ष में चक्कर काटने लगी। श्रीनाथ ने पर्दे की फांक से झांका -

“सम्पदा, तुम्हारे सर आए हैं तुम्हें बुला रहे हैं।”

“मुझे! पर क्यों? “सम्पदा संट।

“ऐसे ही बुला रहे हैं।”

धम्म धम्म पैर पटक कर चलने वाली सम्पदा, भीगी बिल्ली सी कला कक्ष में पहुँची- नमस्ते सर।

उस भव्य सुसज्जित कला कक्ष में जैसे नुपुर बज उठे।नीरजा और अम्मा से बात कर रहे उपमन्यु ने उसे एक ओर बैठने का संकेत कर कहा- माता जी कह रही हैं आपको विषय सम्बंधी कुछ कठिनाइयां हैं । मैं नीरजा से मिलने कभी कभी आता रहूँगा आप नि:संकोच हो मुझसे अपनी कठिनाईयां पूछ सकती हैं।

“जी।”

“प्रीवियस में कितना प्रतिशत आया है?”

“छप्पन।”

“थोडा मेहनत कर लेंगी तो प्रथम श्रेणी आ सकती है।”

“जी।”

सम्पदा प्रयास करके भी जी से आगे नहीं बढ पा रही थी।विषय सम्बंधी कुछ परामर्श सुन वह जल्दी ही अपने कक्ष में भाग आई। वह कृतज्ञ थी कि उपमन्यु ने केंवाच प्रकरण नहीं उठाया।

- और फिर कवियों की कविताओं का सरस वर्णन करते हुए उपमन्यु पता नहीं कब लाल साहब के हृदय के प्रकोष्ठों में उतरता चला गया। विद्यार्थियों के इस प्रिय गुरु की भूरीआँखे और प्रशान्त चितवन लाल साहब की आँखों में समा गई। देह में छाती गई एक सुखद स्वप्निल अनुभूति बन कर। उन्हें अचरज होता कि वे अनजाने उपमन्यु के स्वर,चाल ढाल, पोस्चर, वस्त्र विन्यास, केश विन्यास को परखते रहे हैं। लाल साहब को आश्चर्य होता कि जिसे भाभी का भाई है कोई लाट साहब नहीं सोच कर लापरवाही से कंधे उचका दिये थे वह अनजाने अनचाहे उसकी स्मृतियों में आठों प्रहर विद्यमान रहता है। अपने इस परिवर्तन पर लाल साहब आश्चर्यचकित थे फिर भी उन्हें लगने लगा कि पुरुषों में एक ऐसा आकर्षण होता है जिसमें बंध कर बडेआनन्दी भाव से सारी उमर गुजारी जा सकती है। वे उपमन्यु सर के लेक्चर सुनते हुए पता नहीं किन अज्ञात अदृश्य, मनोरम घाटियों में निर्बाध निर्द्वन्द्व नि:शंक भाव से उतरते चले गये। ये निष्ठुर निर्मोही हठी लाल साहब अपने सद्य: प्रस्फुटित प्रेमअंकुरों को लेकर झेंपे, लजाये उडे उडे रहने लगे और भाभियां एक दूसरे को कनखी मार उनके इस राधा रूप का बखान करतीं।

जब सुबह के नाश्ते के वक्त लाल साहब ने उद्धोषणा की - मुझे एम ए फाईनल टफ लग रहा है, मैं उपमन्यु सर से टयूशन लूंगी। तो नीरजा काँप कर रह गई। अब ये उसके भाई की भावनाओं से खिलवाड क़रेगी और वो गरीब मारा जाएगा। अभी कुछ दिन पहले ही तो बाबूजी अम्मां से कह रहे थे- अपनी इस बच्ची को बडे ठाठ बाट से विदा करुंगा।हिंडोले में झूलेगी। हुकुम बजाने को दसियों नौकर। बडे समधी के माध्यम से बात चल रही है यदि जम जाएगा तो इसी गर्मी में इसका विवाह कर देंगे। लडक़ा आई ए एस की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका है। आजकल ट्रेनिंग में है।

सुनकर अम्मा उत्साह और संतोष की उस नाव में सवार हो गई थीं जिसमें बाबूजी सवार थे, इधर लाल साहब कुछ और रच रहे हैं।

लाल साहब का प्रस्ताव सुन कर बाबूजी कहने लगे- 'टयूशन लेना ही है तो किसी और से ले लो। उपमन्यु नीरजा का मौसेरा भाई है। टयूशन फीस न लेगा तो हमें संकोच होगा।

“कैसे न लेंगे। लिफाफा जबरन जेब में डाला जा सकता है बाबूजी। वे बहुत अच्छा पढाते हैं। मेरा डिविजन बन जाएगा।”

“ठीक है बात करेंगे।”

नीरजा ने अनिच्छा दर्शायी पर तुम व्यर्थ परेशान होती हो। कह कर उपमन्यु नित्य सांध्यकाल पहुँचने लगा। पहले शाम को लाल साहब घर में कम ही टिकते थे। कभी क्लब,कभी पिकनिक, कभी शॉपिंग, कभी थियेटर या सहेलियों के घर। पर अब वे घर पर रह कर शाम की प्रतीक्षा में घुलने लगे। विरह में दग्ध होने लगे।

अम्मां संझा बेरी पुत्री को घर में देखती हैं तो तुष्ट होती हैं कि लडक़ी की लडक़ई जा रही है समझदारी आ रही है।अम्मा जिस तिस देवी देवता के आगे माथा टेकती रहतीं थी कि पुत्री को समय रहते चेत आ जाए। यद्यपि अम्मा ने मुक्तहस्त से सम्पदा पर दुलार लुटाया है पर उसके बडे होने के साथ ही वे दुश्चिंता में घिरती गईं कि इसके लालमिर्च से स्वभाव को देखते हुए ससुराल में इसका निर्वहन कैसे होगा। उन्होंने कई बार सम्पदा को समझाना चाहा पर बात अब उनके हाथ में नहीं रह गई थी। सम्पदा उन्हें अपनी फटकार से चित्त कर देती और अम्मां खेत रहे सेनानी सी अचल अचेत बैठी रह जातीं।अब वही घुमक्कड पुत्री घर में रहती है अम्मां प्रसन्न कैसे न रहें?

अम्मां को उपमन्यु का शाम को आना अच्छा लगने लगा है और वे नित्य ही उसके लिये चाय नाश्ते का प्रबंध कर रखतीं। उपमन्यु हँसता- सम्पदा रोज एेसा तर माल उडाउंगा तो होटेल का खाना बेस्वाद लगेगा। ये सब खा करमाँ की याद आ जाती है। घर के खाने में जो स्वाद है वह होटलों में कहाँ।

“मालूम होता है आपको खाने पीने का बहुत शौक है।”

“हाँ है। इस दो जून के खाने से ही तो आदमी तमाम दिन जूझने की ऊर्जा पाता है। अच्छा खाना बनाना भी एक कला है सम्पदा।”

खाना बनाना कला? क्या सचमुच? तभी श्रीनाथ कहता है- नीरजा, इतना अच्छा खाना न बनाया करो वरना किसी दिन सुरूर में आकर मैं तुम्हारी उंगलियां चबा जाऊंगा।

नीरजा मंद मंद मुस्कुराती और लाल साहब के अधर तिर्यक हो जाते खाना बना दिया तो मानो जंग जीत ली। और अब उपमन्यु वही भोजन प्रकरण लेकर बैठ गया है।

“अच्छा चलूं।”

“ओह हाँ।”सम्पदा पता नहीं कहाँ खोई थी।

“सर ये टयूशन फीस।”

“फिर वही, सम्पदा तुम इस तरह मुझे संकोच में डालती हो। कुछ क्षण में घरेलू वातावरण में व्यतीत करता हूँ, क्या ये पर्याप्त

नहीं?”

“अच्छा इसे आप न लें और हम संकोच में पडें। है न! ना, बाबा ना।”सम्पदा ने बडे अधिकार से लिफाफा उपमन्यु की कमीज

की जेब में डाल दिया। सम्पदा की लरजती स्वेद सिक्त उंगलियां उपमन्यु की धडधडाती छाती से जा टकराईं। पेन लेते देते, पुस्तक

के पन्ने पलटते हुए तो कई बार उंगलियों की पोरों का टकराव होता है पर हृदय की धडक़न को महसूसती हुई सम्पादा बिलकुल ही

कुमकुमी हो आयी।सम्पदा रात भर वह स्पर्श महसूस करती रही। उपन्मन्यु की धडक़न सुनती रही। सुबह लाल साहब रसोई में पहूँचे - बडी भाभी आज सब्जी हम बनाएंगे। तीनों भाभियां इस तरह एक दूसरे का मुँह ताकने लगीं जैसे उनके साथ कोई दुर्घटना घटने जा रही हो। लाल साहब को बघार के तीखे धुँएं से उबकाई आती है फिर आज ये कैसा हठ? भागवंती बोली- ' अरे नहीं लालओह सम्पदा जी ये गजब ना ढाओ। तुम्हारे भाई हमारे प्राण निकाल लेंगे। रहने दो, रहने दो।

“भाईयों से मैं निबट लूंगी, भाभी तुम तो मुझे सब्जी बनाना सिखाओ। प्लीज।”लाल साहब नीरजा को कंधे से पकड ग़ोल गोल घूमने लगे।सम्पदा के साथ जबरन घूमती नीरजा, नीरीह सी दिखने लगी थी। लाल साहब के ऐसे स्नेह की आदत जो न थी। ऐसे क्या देख रही हो भाभी?सिखाओगी न!

लाल साहब के इस आग्रह पर तीनों भाभियां दुविधा में पड ग़ईं। लाल साहब सब्जी बनाने में जुट गये और हाथ जला बैठे। लाल सुर्ख हथेली में फफोले छलछला आए पर अचरज कि उन्होने कोई विशेष तबाही नहीं मचाई। यह वही लाल साहब थे जिनके हाथ में गुलाब का पुष्प तोडते में कांटा चुभा था और वे ऐसे कराहे छटपटाये थे कि घर के सभी मेम्बरानों को दर्द होने लगा था। सब्जी का स्वाद वर्णनातीत था पर बाबूजी ने पुत्री का प्रयास देख फरमान जारी कर दिया घर के सभी सदस्य यह सब्जी अवश्य खाएंगे। बाबूजी प्रेम से खाने लगे पर श्रीनाथ ने ऐसा मुंह बनाया जैसे बहुत कडवा खाद्यान्न चबा लिया हो।

“ये गोबर किसने बनाया है।”श्रीनाथ अपेक्षाकृत साहसी है और उसने कह ही डाला। अम्मा छाती फुला कर बोलीं सम्पदा ने।

“सम्पदा ने! इसे पता है कि किचन का दरवाजा है कहाँ?”

बाबूजी ने मिजाजपुरसी की - चलो चलो खाओ। बहुत बढिया सब्जी बनी है। पहला प्रयास ऐसा ही होता है।

“प्रयास का यही स्तर रहा तो मेरी स्वाद ग्रंथियां निष्क्रिय हो जाएंगी।”श्रीनाथ की बात पर सभी सदस्य दबी दबी हंसी हंसने लगे। पीछे से एक हँसी सुनाई दी जो सम्पदा की थी। उसे हँसते देख सदस्यों ने खुल कर हंस लेने का साहस संजो लिया। शाम को उपमन्यु पढाने आया तो उसकी दृष्टि सबसे पहले लाल साहब की सुर्ख हथेली पर पडी।

“ये क्या? “कह कर उसने न जाने किस तरंग में उसकी कमल नाल सी कलाई पकड ली। उस क्षण सम्पदा का सब कुछ हरण हो गया। उपमन्यु की ऊष्ण हथेली की दृढता ने सम्पदा को भीतर तक मथ डाला।

प्रकंपित कण्ठ से बोल फूटा- सब्जी बना रही थी, जल गई।

“ओह खाना तुम बनाती हो? और ये नीरजा लोग?”कहते हुए उपमन्यु ने जिस त्वरा से कलाई पकडी थी उसी त्वरा से छोड दी। एकाएक लगा भावुकतावश अनायास उससे ये चेष्टा हो गई। उस छोटी सी गोल मेज के उस ओर बैठी सम्पदा के नेत्रों में सलज्ज भाव तारी था।

“नहीं खाना मैं नहीं बनाती। न जाने क्यों कल आपकी बात सुन कर इच्छा हुई कि मैं भी कुछ सीखूँ।”

“सीखो, मगर प्यार से।”

दोनों की समवेत हँसी कक्ष में गूंज उठी। अध्ययन अध्यापन और लीला। लाल साहब को जो इन्द्रधनुषीय अनुभूति इस समय हो रही है, कभी न हुई थी। वे चकित हैं कि प्यार जैसी महान उपलब्धि के बारे में उन्होंने अब तक कैसे नहीं सोचा। इस प्रेम रसायन ने उनके र्दुव्यवहार को सद्व्यवहार में बदल डाला। नीरजा तो उनकी विशेष कृपा पात्र बन गई। लालसाहब कभी कभी नीरजा के कमरे में आकर उसका एलबम देखने लगते हैं। इस एलबम में उपमन्यु के बहुत से फोटो हैं। लाल साहब उन फोटो पर न्यौछावर हो जाते- भाभी सर आपके मौसेरे भाई हैं न!

“हाँ हम चार बहने हैं, भाई की कमी उपमन्यु भाई पूरी कर देते हैं। कोई भी काम हो हाजिर।”नीरजा के हाथ एक गति और लय से स्वेटर बुन रहे हैं। सर का स्वभाव सबसे अलग है। स्टूडेन्ट्स उन्हें इतना पसंद करते हैं कि पूछो मत। अपने विषय पर उन्हें अच्छा कमाण्ड है।

लाल साहब उपमन्यु के बारे में बहुत कुछ कहना सुनना चाहते हैं।

“बाकि सब ठीक है पर लापरवाह बहुत है। ठण्ड आ रही है पर भाई अपने लिये स्वेटर तक न खरीदेंगे। ये एक बनाए दे रही हूँ।”

“ये सर के लिये है! सफेद रंग उनको बहुत सूट करता है।”लाल साहब अधबने स्वेटर की सतह पर कोमलता से हाथ फेरने लगे। कॉलेज प्रांगण में कई बार देखा सर का श्वेत धवल बिम्ब आज भी आँखों में कैद है। सम्पदा का मुग्ध नायिका का सा रूप देख कर नीरजा सोच में पड ग़ईओह ये तो सचमुच ही प्यार के हिंडोले में झूल रही है।

शाम को खाना तैयार करते हुए तीनों भाभियों में खुसुर पुसुर हुई- जीजी, लाल साहब तो गये काम से। प्रेम के दरिया में डूब रहे हैं। स्वेटर ऐसे सहला रहे थे जैसे उपमन्यु की पीठ हो। नीरजा दीदे फाडे बोली।

“तभी कहूँ पॉप की जगह - मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड ग़यो रे, क्यों सुना जाने लगा है। भागवंती ने चुहल की।

कुमकुम ने कपाल थामा- एक और असफल प्रेम कहानी।बाबूजी किसी आई ए एस लडक़े से चर्चा चला रहे हैं और इधर लाल साहब मास्टर से नैना लडा रहे हैं।

“अब प्रेम प्यार ओहदा देख के नहीं होता कुमकुम। जिस पर दिल आ गया तो आ गया। और फिर लाल साहब का शाही दिल। हम तो सोचते थे कि इनके पास दिल ही नहीं है। अब तो इनका बियाह हो जाए तो तनिक घर में शांति बहाल हो। भागवंती की बात सुन कर नीरजा मलिन पड ग़ई- तुम्हें शांति की लगी है, जीजी। मेंरे गरीब भाई के लिये भी तो जरा सोचो। बाबूजी को पता चला तो लाल साहब को तो कुछ न कहेंगे सारा दोष मेरे भाई पर थोपा जाएगा।

“प्रेम किया है तुम्हारे भाई ने तो परीक्षा भी देनी पडेग़ी।अरे नीरजा प्रेम प्यार में थोडी बहुत मशक्कत न हो तो प्यार कैसा। प्यार में नहर खोदनी पडती है नहर।”भागवंती लालसाहब के घर से टलने की सोच से उमगी पडती है।

नहर खोदने की दुखद स्थिति नहीं आएगी। बाबूजी अपनी इस दुलरुआ की कोई बात टालें उनमें इतना दम नहीं है वरना लाल साहब आसमान पर पैर न टिकाते। मैं तो इसी में प्रसन्न हूँ कि लाल साहब इस समय बडे ख़िले खिले,महके महके दिखते हैं। हम लोगों से दो चार बातें कर लेते हैं। तुम बेकार चिन्ता करती हो। जिस घर के लाडले को लालसाहब पत्नी रूप में प्राप्त होंगे उसके ठाठ के क्या कहने। कुमकुम ने नीरजा की हौसला अफजाई की।

सफेद स्वेटर में उपमन्यु बहुत अच्छा लग रहा था। नीरजा स्नेह से बोली- आज तो लगता है भाई तुम्हारी नजर उतार दूं।

“नजर मेरी नहीं इस स्वेटर की उतारना नीरजा। सारा कमाल तो इस स्वेटर का है।”कह कर उपमन्यु किसी मॉडल की तरह पॉज बना बना कर विभिन्न कोणों से नीरजा को दिखाने लगा।

“ये क्या लटक मटक रहे हो, तुम्हारी शिष्या सामने बैठी है। कुछ तो गंभीर बनो।”नीरजा ने झिडक़ा।

“वो हमसे न होगा बहन जी। कॉलेज में गम्भीरता दिखाते दिखाते गर्दन अकड ज़ाती है, यहाँ तो रिलैक्स रहने दो।”कह कर उपमन्यु सम्पदा से सम्बोधित हुआ- शिष्या जी आपको कोई आपत्ति? मंद मुस्कान के साथ लालसाहब ने अस्वीकार में गर्दन

हिला दी।

“नीरजा स्वेटर के लिये छोटा सा धन्यवाद लो और सटकोयहाँ से। हमें पढाना है।”उपमन्यु की बात सुन उसे संदिग्ध भाव से

देखती नीरजा जाने को उध्दत हुई।

“भाभी चाय प्लीज ।”लाल साहब मचल गये।

“भेजती हूँ।”

नीरजा चाय बनाने चली गई। इधर लाल साहब उपमन्यु को निहार रहे हैं जो स्वेटर पहन कर बच्चों सा किलक रहा है - नीरजा ने तो आज तबियत खुश कर दी। अच्छा चलो देखो कल क्या पढ रहे थे हम?”उपमन्यु पढाने लगा पर सम्पदा का ध्यान पुस्तक में नहीं है उसे तो अब तक ज्ञात नहीं था कि सृजन की कोई सराहना करे तो कितना सुख मिलता है। वह भाईयों के सराहना करने को चोंचले और भाभियों के खुश होने को नखरे समझती थी। वह भी सीखेगी स्वेटर बनाना। सर को जो भी पसन्द है वह सब करेगी।

दूसरे दिन सबने देखा कि कॉलेज से लौटते हुए लाल साहब बाजार से ऊन सलाई लाए हैं और अपने कमरे में बैठे ऊन सलाई से लड रहे हैं।

यह देख कर भागवंती च्च..च्च.. उच्चारते हुए कुमकुम के कान के पास जाकर बोली, “प्रेम में पड क़र लाल साहब का बुरा हाल है। पढाई करें, खाना बनाना सीखें या स्वेटर बुनना सीखें या सर की राह ताकें।”भागवंती और कुमकुम के मध्य खूब फुसफुसाहट होती पर नीरजा से ये प्रेमप्रकरण न उगलते बनता न निगलते। उसे रह रह कर उपमन्यु पर क्रोध आता। उधर स्वेटर सीखती हुई पुत्री के आस पास डोलती अम्मां बावरी सी हुई जाती हैं कि पुत्री का स्वास्थ्य तो ठीक है। बाबूजी चमत्कृत हैं कि लडक़ी राह पर आ रही है। लडक़ी लाख प्यारी है पर उसके हाथ पीले करके गंगा तो नहाना ही पडेग़ा। राजा महाराजा तक तो अपनी पुत्रियों को घर नहीं रख पाये उनके पास तो नाम के ठकुरईसी है।बात चल रही है। ठीक ठाक जम जाए तो इसी गर्मी में ब्याह कर देंगे।

वस्तुत: इकलौती लक्ष्मी सी पुत्री को बहुत दुलार देते हुए भी बाबूजी ने नहीं सोचा था वह इस तरह हठीली, तुनक मिजाज, ख़ुर्राट हो जाएगी। छूट का अनावश्यक लाभ लेगी,जब भी कभी उसे उसके व्यवहार के लिये समझाना चाहा वह सुबकने लगती, चीखने लगती या भूखहडताल कर देती।फिर निरुपाय बाबूजी उसे मनाने में लग जाते। उसी पुत्री में हरिकृपा से अपेक्षित सुधार हो रहा है और बाबूजी हतप्रभ,चमत्कृत! यह देख कर कि सम्पदा जीन्स शर्ट के स्थान पर सलवार कुर्ता पहनने लगी है। किसी बलात्कार की घटना की चर्चा चलने पर कभी उपमन्यु ने कहा था - सम्पदा ऐसी घटनाओं के लिये पुरुष तो जिम्मेदार है ही पर लडक़ियां भी पूर्णत: निर्दोष नहीं होतीं। लडक़ियों का पहनावा, बोलचाल, रहन सहन, अभिरुचियां सभी अमर्यादित होता जा रहा है। ये आधुनिकता के नाम पर शालीनता भूल रही हैं। हम आंकडे देखेंगे तो पाएंगे छेडछाड क़ी घटनाएं ऐसी ही लडक़ियों के साथ अधिक होती हैं। हाँ कुछ लडक़ियां परिस्थितियों का भी शिकार हो जाती हैं और निरपराध होते हुए भी कलंकित हो जाती हैं।”

“सर आपको किस तरह की लडक़ियां पसन्द हैं? “वह बुदबुदाई।

“मुझे! सीधी, शांत और शालीन। ऐसी लडक़ियों के साथ सामंजस्य में कठिनाई नहीं होती।”कह कर वह तनिक मुस्कुराया, “तुम हमारे सौन्दर्य बोध को नहीं जानती। हम तो चेहरा देख कर बता देते हैं कि किसके उपर क्या सूट करेगा। सोचता हूँ तुमपर सादे लिबास जितने अच्छे लगेंगे उतने ये आधुनिक लिबास नहीं।”

“सच सर।”

“मैं स्पष्टवादी हूँ। न झूठ बोलता हूँ न मुंहदेखी।”उपमन्यु ने सम्पदा के भाल पर छितरा आई अलकें तर्जनी से पीछे कर दीं।

“इन केशों को कायदे से बांधो फिर देखो अपना रूप।”आत्मविस्मृत अवश सम्पदा ने केश पीछे करते सर का हाथ बहुत कोमलता से थाम लिया - सर आपकी इसी सादगी ने तो मुझे ऐसा अधीर बना डाला है। आपकी बातों में इतना सुख मिलता है कि जी करता है आप बोलते रहें मैं सुनती रहूं।

कैसा अपूर्व और अनिंद्य था सम्पदा का वह समर्पित रूप।बालिका सा निश्छल, निर्दोष, ताजा। उपमन्यु को लगा इस लडक़ी का हृदय दर्पण सा निर्मल है बस अज्ञानतावश परिस्थितियों का अनावश्यक लाभ लेती गई है। उसकी श्वेत सुकोमल हथेलियों पर तनिक दबाव डाल बोला- सम्पदा संभालो स्वयं को वरना मैं कच्ची मिट्टी के लौंदे सा ही ढह जाउंगा। तुम मुझे उसी दिन से अच्छी लगने लगी थी जब तुम नीरजा को देखने आई थीं। मुझे जैसे एक नया उत्साह,नयी ऊर्जा, नयी ऊष्मा मिली थी। फिर जब तुम्हारे ठाट बाट देखे तो लगा कि मैं आकाश कुसुम की चाह कर बैठाहूँ। तुम बहुत रहीस पिता की इकलौती पुत्री हो। उन्होंने तुम्हारे लिये बहुत कुछ सोच रखा है वे तुम्हारा विवाह ऐसे व्यक्ति से करेंगे जो तुम्हें राजसी ठाट बाट दे सके।

“आपसे मिलने के बाद मुझे किसी राजसी ठाट बाट की कामना नहीं रही। मैं इन दिनों स्वयं को जितना हल्का,स्फूर्तियुक्त, तनावमुक्त, प्रसन्नचित्त पाती हूँ उतना पहले कभी नहीं पाया। आपके सरल स्वभाव को देखकर लगा कि मेरी अकड व्यर्थ है। मैं क्यों पूरे घर पर शासन करना चहती हूँ जबकि घर के सभी सदस्य उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि मैं। सच कहूँ सरतो मैं ने जब भाभियों, बच्चों में घुल मिल कर जो आनंद पाया वह स्वयं को प्रमुख घोषित करके कभी नहीं पाया। मैं अपने कवच से बाहर आना चाहती हूँ। आपसे मुझे नई दृष्टि मिली है। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य के विषय में नहीं सोच सकती।”

मंत्रमुग्ध उपमन्यु सम्पदा का वह क्षमाप्रार्थी रूप देखता रहा। निर्निमेष। वे एक दूसरे के भावों को समझते थे पर इस तरह स्पष्ट सम्पदा कभी नहीं बोली थी। उपमन्यु स्पष्ट महसूस कर रहा था कि लाल मिर्च सी लडक़ी मिश्री की डली सी मीठी हो गयी है।