लावा / जावेद अख्तर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » संकलनकर्ता » अशोक कुमार शुक्ला  » संग्रह: कविता संग्रह समीक्षा
संग्रह: साहित्य अकादमी पुरस्का
लावा के मार्फ़त जावेद अख्तर की वापसी.... !
समीक्षा:पवन कुमार

( ***** यह समीक्षा पाखी के जून अंक में प्रकाशित हुई है. )

प्यास की कैसे लाए ताब कोई
नहीं दरिया तो हो सराब कोई

शाइरी के शौकीनों के लिए जावेद अख़्तर का नया गज़ल/नज़्म संग्रह ‘लावा’ बेशक एक दरिया ही है, सराब तो (मृगतृष्णा) कतई नहीं। एक मुद्दत बाद जावेद अख़्तर हाजिर हैं,लगभग सत्रह बरसों बाद। वैसे उनकी ये हाजिरी मजमूए के साथ तो सत्रह बरस लम्बी हो सकती है वरना अपने फिल्मी सफर के साथ उनका साथ रोज-रोज का है,चाहे वो उनके फिल्मी गीत हों, पटकथा हो, संवाद हो, रियल्टी शो हो, सेमिनार हो,अखबारों में किसी मुद्दे पर प्रतिक्रया हो या फिर टेलीविजन पर कोई चैट शो हो।

बहरहाल 20 वें विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में जावेद अख़्तर ‘लावा’ के मार्फत फिर एक बार चर्चे में हैं। जावेद साहब जनता की नब्ज बखूबी जानते हैं तभी तो फिल्मी दुनिया में बीते लगभग चालीस बरसों से अपनी मौजूदगी धमक

अपने अदबी प्रशसंकों को ध्यान में रखकर ही जावेद साहब ने ‘लावा’ को पेश किया है। वे ये खूब जानते हैं कि अदब की महफिल में हल्कापन नहीं चल सकता सो उन्होंने ‘लावा’ के जरिए वाकई जांची-परखी चीजें परोसी हैं। वे इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘शायरी तो तब है कि जब इसमें अक्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया है। इसमें असंगति है मगर ‘‘बेखु़दी-ओ-हुशियारी ,सादगी-ओ-पुरकारी,ये सब एक साथ दरकार हैं।’’ तो जाहिर है कि शाइर अपनी जिम्मेदारी से वाकि़फ़ है। के साथ बनाये हुए हैं। जावेद साहब ये भी जानते हैं कि कौन सी चीज ‘पब्लिक’ को पसंद आती है और कौन सी चीज ‘अदबी’ लोगों को ।

ग़ज़ल के रवायती मिज़ाज के साथ-साथ जावेद साहब के नये-नये प्रयोग ‘लावा’ की जान हैं। वे जब यह लिखते हैं कि

जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

और

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना,हामी भर लेना
बहुत हैं फा़यदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता

तो जाहिर कर देते हैं कि ‘लावा’ के जरिए वे क्या कुछ नया देने वाले हैं। नये प्रयोगों का मज़ा इस शेर में लीजिए-

पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।

पानी के ऊपर बतख की ख़ामोशी और पानी के अन्दर उसके पैरों की हलचल को शायर कि स तरह महसूस करता है और किसी खूबसूरती से व्यक्त करता है यही जावेद अख़्तर का करिश्मा है। दोस्ती- दुश्मनी के रंग उर्दू शाइरी में भरे पडे़ हैं, मगर जा़वेद के जाविए से इस रिश्ते का एक नया रंग देखें-

जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है
कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।"

ग़ज़ल की रिवायत को निभाना है तो जाने-अनजाने रिश्तों की,दिल की ,इश्क की गलियों से गुजरना हो ही जाता है। इस अहसास को जावेद अलग अलग तरीके से जाहिर करते हैं-

बहुत आसान है पहचान इसकी
अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है

या

फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में

और इस शेर के तो क्या कहने हैं-

जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।"

सफर में हरेक आदमी है। सफर-मंजिल का यह रिश्ता शाइरी की जान रहा है। इस मजे़दार सिलसिले को कुछ इस तरह वुसअत देते हैं कि

मुसाफि़र वो अजब है कारवाँ में
कि जो हमराह है शामिल नहीं है

चित्रपट और अदब की दुनिया में जावेद़ अख़्तर बहुत बड़ा नाम है। उनके पीछे कही न कही जां निसार अख्तर, मजाज का नाम भी जुड़ा रहता है। 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर मे जन्मे जावेद अख़्तर का अलीगढ़, लखनऊ, भोपाल के बाद मुंबई तक का सफर जिन्दगी जीने के तरीकों की अपनी अनोखी दास्तान है। जिन्दगी जीने के अन्दाज के बारे में उनसे बेहतर और कौन बता सकता है। उनका ये शेर इसी नसीहत की बानगी है-

अब तक जि़न्दा रहने की तरकीब न आई
तुम आखि़र किस दुनिया में रहते हो भाई

आदमी को परखने का अहसास बहुत नाजुक होता है। जावेद जब यह कहते है कि

लतीफ़ था वो तख़य्युल से,ख्वाब से नाजु़क
गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में

तो इस नाजुकी का अहसास शिद्दत से होता है।

तन्हाई का आलम और हिज्र की बातें शायरी के लिये मुफ़ीद जमीन बनाती हैं। इन अनुभवों को महसूस करना शायरी के लिये बेहद जरूरी है। ‘लावा’ के वसीले से जावेद साहब इकरार करते है कि-

बहस,शतरंज, शेर ,मौसी़की
तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे

और

आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास
देखिए आज याद आए कौन

लेकिन इस तन्हाई को सूफियाना और रूहानी जामा पहनाना हो तो भी जावेद अख़्तर कमतर नहीं पड़ते-

बदन में कै़द खु़द को पा रहा हूँ
बड़ी तन्हाई है,घबरा रहा हूँ

वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। वक्त त के साथ आदमी, समाज, गांव, नगर, जरूरतें सभी का नक्षा बदला है। इन बदलावों को लेकर उनकी नजर-नीयत बिल्कुल साफ है। तभी तो वे इन परिवर्तनों के लिये सच्ची बात कहते हैं कि-

तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहां भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िन्दगी तुम वो ज़िन्दगी अब कहीं नहीं है

जि़द और जु़नून जावेद के वे हथियार हैं जो न केवल उनके व्यक्तित्व/ शख्सियत में बल्कि उनकी शायरी में पूरे जोशोखरोस के साथ प्रकट होते हैं . वे कहते हैं -

जो बाल आ जाए शीशे में तो शीशा तोड़ देते हैं
जिसे छोड़ें उसे हम उम्रभर को छोड़ देते हैं

लफ्जों के जरिये इमेजेज खीचने में जावेद अख़्तर की कोशिशें बेहतरीन हैं। दो मिसरों में पूरी की पूरी तस्वीर खींचने में जावेद साहब का हुनर कमाल का है। ये शेर देखें जिनमे वे दो मिसरों में पूरा पोर्ट्रेट सा खींच देते हैं-

शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू
फिर हुआ क़त्ल आफ्ताब कोई"

या

फिर बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में
कै़द अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा

यही करिश्मा इन शेरों में भी झलकता है-

थकन से चूर पास आया था इसके
गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों और कैसे दिल में खु़षी बसा लूं मैं
कैसे मुट्ठी में ये धुंआ ठहरे

एक कमी जरूर उनके प्रशंसकों को अखर सकती है वो है कुछ शेरों में दोहराव। दोहराव इस मायने मे क्योंकि उनके पहले गज़ल़/नज़्म संग्रह ‘तरकश ’ के कुछ शेर यहाँ भी जस के तस मौजूद हैं। जिन्होंने ‘तरकश ’ को पढ़ा है उन्हें ‘लावा’ मे यह दोहराव खटक सकता है। ‘तुम्हें भी याद नहीं..............’ जैसे कई शेर पहले ही काफी मकबूल हैं उन्हे इस संग्रह मे फिर से प्रस्तुत करना जरूरी नहीं था। ‘लावा’ की खूबसूरती केवल शेर-नज़्मों-कतअ तक ही नहीं सिमटी है। इस मज्मूअ के कवर पेज पर उनकी तस्वीर( जो बाबा आज़्मी ने खींची है) लाजबाव है जो पाठकों को सहज ही अपनी ओर खींचती है। पूरे कलेवर व साज सज्जा के लिये प्रकाषक राजकमल बधाई के पात्र हैं।

जावेद अख़्तर की नज्में जादू की तरह असर करती हैं । उनका कथ्य और विषय दोनों ही इतने स्पष्ट होते हैं कि नज़्म के आखिरी सिरे तक आते आते पाठक नज़्म से अहसासो के तौर पर चस्पा हो जाता है, एकाकार हो जाता है। इस संग्रह की नज्में शबाना, अजीब आदमी था वो (कैफी आज्मी के लिये) इस बात की गवाह है।

आज सवेरे से
बस्ती मे
कत्लो-खूं का
चाकूजनी का
कोई किस्सा नहीं हुआ है
खै़
अभी तो शाम है
पूरी रात पड़ी है

लावा के मार्फत जावेद अख़्तर ने वो नज़्म भी सौगात मे दी है जो उन्होने 15 अगस्त 2007 को संसद मे उसी जगह से सुनाई थी जहां से कभी 15 अगस्त 1947 को आजादी का ऐलान किया गया था। वे इस नज़्म मे कहते हैं-है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना/ मुसाफिरों अभी बाकी है कुछ सफर अपना तो लगता है कि उनकी ग़ज़लें/नज़्मे सच्चाई को बयां करने का कितना हसीं अन्दाज रखती हैं । बहरहाल ‘लावा’ के आखिरी सफहे तक आते आते यह अहसास होता है कि --

कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं

पवन कुमार के व्लाग नजरिया से साभार