लाश / कमलेश्वर

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सारा शहर सजा हुआ था। खास-खास सडकों पर जगह-जगह फाटक बनाए गए थे। बिजली के खम्भों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर। वालण्टियर कई दिनों से शहर में पर्चे बाँट रहे थे। मोर्चे की गतिविधियाँ तेज़ी पकडती जा रही थीं। ख़्याल तो यहाँ तक था कि शायद रेलें, बसें और हवाई यातायात भी ठप्प हो जाएगा। शहर-भर में भारी हडताल होगी और लाखों की संख्या में लोग जुलूस में भाग लेंगे।

शहर से बाहर एक मैदान मे पूरा नगर ही बस गया था। दूर-दूर से टुकडियाँ आ रही थीं। कुछ टुकडियाँ ठेके की बसों में आई थीं। बसों पर भी झंडे थे। कपडे की पट्टियों पर तहसील का नाम था। कुछ टुकडियों में औरतें भी थीं, बच्चे भी। औरतें खाली वक्त में अभियान गीत गाती रहतीं।

केंद्रीय समिति ने कुछ नए नारे बनाए थे। जिला स्तर के कुछ लोग उन नारों का रियाज कर रहे थे। लंगर में आपा-धापी थी। शहर के सब रास्ते, होटल, धर्मशालाएँ, सरायें और रिश्तेदारों के घर प्रदर्शनकारियों से भरे हुए थे।


दो महीने पहले दर्ज़ियों को झंडे और टोपी सिलने का ठेका दे दिया गया था। पर्चे और पौस्टरों का काम सात छापाखानों के पास था। जिन पर्चों पर मांगें और नारे छपे थे, वे सब प्रदर्शनकारियों को बाँट दिए गए थे। पुलिस की सरगर्मी भी बढती जा रही थी। यातायात पुलिस ने नागरिकों की सुविधा के लिए ऐलान निकालने शुरू कर दिए कि मोर्चे वाले दिन नागरिक शहर की किन-किन सड़कों को इस्तेमाल न करें... कि नागरिक अपनी गाड़ियाँ इत्यादि सुरक्षित स्थानों पर रखें।

मोर्चे की विशालता का अंदाज लगाकर पुलिस कमिश्नर ने पी.ए.सी. को बुला लिया था। जिन-जिन सड़कों से जुलूस को गुज़रना था, उनकी इमारतों पर जगह-जगह सशस्त्र पुलिस तैनात कर दी थी। सड़कों के दोनों ओर सिर्फ़ वह पुलिस थी, जिसके पास डंडे थे... ताकि प्रदर्शनकारियों को ताव न आए। यह सब इंतज़ाम पुलिस कमिश्नर ने ख़ुद ही कर लिया था।

अपने चौकस इंतज़ाम की ख़बर देने के लिए जब पुलिस कमिश्नर मुख्यमंत्री के पास पहुँचा तो उसका सारा तनाव ख़ुद ही ख़त्म हो गया। मुख्यमंत्री के चेहरे पर कोई चिंता या परेशानी नहीं थी। वे हमेशा की तरह प्रसन्न मुद्रा में थे। गृहमंत्री धीरे-धीरे मुस्करा रहे थे। मुख्यमंत्री ने कुछ कहा तो पुलिस कमिश्नर ने तफ़सील देनी शुरू कीं--- दो हज़ार लोकल फोर्स हैं, पाँच सौ पी.ए.सी., चार सौ डिस्ट्रिक्ट से आया है, तीन सौ रेलवे का है, अस्सी जवान जेल से उठा लिए हैं, दो सौ होमगार्ड! इनमें से आठ सौ आर्म्ड हैं। हर पुलिस चौकी पर शैल्स का इंतज़ाम है। सोलह सौ लाठियाँ पिछले हफ़्ते आ गई थीं। साढे चार सौ का फोर्स सिविलियन है...

पुलिस कमिश्नर सब बताता जा रहा था, पर मुख्यमंत्री विशेष उत्सुकता से नहीं सुन रहे थे। गृहमंत्री भी बहुत दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। कमिश्नर कुछ हैरान हुआ। उसने एक क्षण रुककर उन दोनों की तरफ ताका तो मुख्यमंत्री ने अपना चश्मा साफ़ करते हुए कहा, 'ख़्वामख़्वाह आपने इतनी तवालत की।

'इन विरोधी पार्टियों का कुछ भरोसा नहीं... अगर हम इंतज़ाम न करें तो... कमिश्नर कह रह था।

'मोर्चा शांत रहेगा। गृहमंत्री ने कहा।

'क्या पता। कमिश्नर बोला, 'मुझे तो...

मुख्यमंत्री ने बात काट दी- 'बहुत ऊधम नहीं मचेगा। बस जरा गुंडों पर नज़र रखिएगा...

'गुण्डे तो तीन-चौथाई से ज़्यादा पकड लिए गए हैं... यह तो तीन दिन पहले ही कर लिया गया था। कुछ आज दोपहर बंद कर दिए जाएंगे।

'ठीक है।

'तो मैं इज़ाज़त लूँ? कमिश्नर ने पूछा।

'ठीक है, मुख्यमंत्री ने कहा, 'अक्ल से काम लीजिएगा। मेरे ख़्याल से आप मोर्चे के कर्ता-धर्ताओं से मिलते हुए निकल जाइए। तीनों यहीं एम.एल.ए. हॉस्टल में टिके हुए हैं... 'जी मुझे मालूम है, पर शायद अब तक वे अपने पण्डाल में चले गए होंगे...। कमिश्नर ने जरा सकुचाते हुए कहा, 'और वहाँ जाकर मिलना... मेरे ख्याल से ठीक नहीं होगा...

'वे यहीं होंगे... अरे भई, आपको मालूम नहीं, उनमें से कांति तो मेरे साथ जेल में रहे हैं। बड़े आदर्शवादी आदमी हैं... तेज़ और बेलाग। ऐसे विरोधी को मैं तो सर-माथे बिठाता हूँ । उनकी बस एक ही कमज़ोरी है- नींद! आप उनके सर पर नगाडा बजाइए, पर वे नौ बजे से पहले नहीं उठ सकते। जेल में भी यही आदत थी। सत्याग्रह आंदोलन के दिनों में भी! उन्हें नींद पूरी चाहिए... अभी वहीं होंगे... मुख्यमंत्री ने तारीफ़ करते हुए आगे कहा, 'अब मोर्चे का मामला है, इसलिए शायद वे मिलने न आएँ, नहीं तो हमेशा आते हैं... बेहद उम्दा आदमी है। भई, मैं तो उनकी बडी इज़्ज़त करता हूँ।

'इस पार्टीबाजी और पॉलिटिक्स को क्या कहा जाए... कांतिलाल जी को तो सरकार में होना चाहिए था... गृहमंत्री ने बडे दुख से कहा।

'बिलकुल... मुख्यमंत्री बोले, 'देखते जाइए, मिल जाएँ तो ठीक है... मेरा नमस्कार बोलिएगा। न हों तो पण्डाल में जाने की ज़रूरत नहीं है...

पुलिस कमिश्नर नया था। बहुत सकुचाते हुए बोला, 'मोर्चेवाले शायद आपका पुतला भी जलाएँगे, उसके बारे में...

'अरे ठीक है, जलाने दीजिए... इससे आपका कानून कहाँ भंग होता है। जो उनके दिल में आए करने दीजिए, आप निगरानी रखिए, बस, आपकी यही ज़िम्मेदारी है। मुख्यमंत्री ने कहा और कुर्सी से उठ खडे हुए।

चार बजे चौक मैदान से जुलूस चल पडा। मोर्चा ज़बरदस्त था। सबसे आगे झंडे और बिगुल थे। उनके पीछे अभियान गीत गाने वालों की टोली थी। उसके पीछे माँगों की दफ़्तियाँ पकड़े औरतों की टोली थी। उसके पीछे हज़ारों की संख्या में प्रदर्शनकारी थे। जगह-जगह से आए हुए लोग सब टोपियाँ लगाए थे। हाथों में छोटे-छोटे झंडे या माँगों की दफ़्ती पकडे थे। मोर्चा बहुत शान से चल रहा था। कतारों के दोनों तरफ कंधों से लाउडस्पीकर लटकाए नारे देने वाले वालण्टियर थे। बीचों-बीच झंडों से सजी जीप पर कांतिलाल, उनके साथी नेता और कुछेक महत्वपूर्ण लोग थे।

मोर्चा बढ़ता जा रहा था। हर कोई चकित था। पता नहीं, इतने लोग एकाएक कहाँ से निकल पडे थे। तमाशाबीन नागरिकों की कतारें डंडेवाली पुलिस के पीछे से आश्चर्य से झाँक रही थीं।

सचमुच विश्वास नहीं होता था कि इतनी तादाद में लोग अभी जीवित होंगे और वे अब भी इन तरीकों पर भरोसा करते होंगे। शानदार और उमड़ता हुआ अपार जुलूस अदम्य शक्ति से बढ़ता जा रहा था। बडे अख़बारों के फ़ोटोग्राफ़र इमारतों पर चढ-चढकर हर मोड़ पर जुलूस के चित्र खींच रहे थे। कुछेक विदेशी फ़ोटोग्राफ़र इस ऐतिहासिक मोर्चे को देखकर हैरान थे। वे जनतंत्र की ताकत के बारे में एकाध फ़िकरा बोलकर अपने काम में मशगूल हो जाते थे। वे ज़्यादातर आदिवासियों वाली टोली के चित्र उतार रहे थे। सरकारी फिल्म्स डिवीजन के कैमरामैन अपना काम कर रहे थे।

लम्बी सड़क पर जाते हुए जुलूस का दृश्य अदृश्य था। लाखों पैर-ही-पैर... लाखों सिर-ही-सिर। हज़ारों झंडे और उत्साह से भरे नारे...हहराता हुआ जनसमूह और समवेत गर्जन। कहीं न ओर न छोर।.. मीलों तक अजगर की तरह । तभी एकाएक विध्वंस हो गया... जुलूस के अगले हिस्से में भगदड़ मच गई। सारा बाराबाँट हो गया। चारों तरफ बदहवासी भर गई। इमारतों की खिडकियों और दुकानों के दरवाज़े तड़-तड़ बन्द होने लगे। जुलूस दौडती-भागती-चीखती-चिल्लाती बदहवास और अंधी भीड़ में बदल गया। चारों ओर भयंकर बदअमनी फैल गई। फिर धुएँ के बादल उठे... कुछ लपटें दिखाई दीं। तोड़फोड़ की गूँज़ती हुई आवाज़ें और घबराहट भरी चीखें आईं और गोलियाँ चलने की चटखती हुई तडतडाहट सारे वातावरण में व्याप्त हो गई। धुएँ के समुद्र में जैसे लाखों लोग ऊब-चूब रहे हों। गिरते-पड़ते और भागते हुए लोग। कुचले और अंगभंग हुए लोग... हुंकारे, चीखें, धमाके, शोर और तड़तड़ाहट।

देखते-देखते सब कुछ हो गया। सड़कों पर सिर्फ़ जूते-चप्पलें, झण्डे और माँगों की दफ़्तियाँ रह गईं। फटे कपडे, टोपियाँ, टूटे डंडे और फटी हुई पताकाएँ।

कुछ पता नहीं चला कि यह विध्वंस कैसे हुआ। क्यों हुआ? पुलिस की गाडियों में दंगाई और घायल भरे गए। घायलों को अस्पताल में पहुँचा दिया गया। दंगाइयों को दस मील दूर ले जाकर छोड दिया गया। वे गुण्डे नहीं थे, गुण्डे पहले से बंद थे।

चोटें बहुतों को आई थीं। वे भगदड़ में कुचल गए थे। पुलिस ने गोली चलाई ज़रूर थी, पर हवाई फ़ायर किए थे। उसकी गोली से एक भी आदमी घायल नहीं हुआ था। अंगों की सिर्फ टूट-फूट हुई थी।

सारा शहर सन्न रह गया था। ग़नीमत थी कि इतने बडे हादसे में सिर्फ एक लाश गिरी थी। वह लाश भी बिल्कुल सालिम थी। उसके न गोली लगी थी, न वह कहीं से घायल थी।

पुलिस ने लाश के चारों ओर से डेरा डाल दिया थ। पुलिस का कहना था कि लाश कांतिलाल की है। कांतिलाल ने यह सुना तो हैरान रह गए। भगदड़ और उस भयंकर हादसे से प्रकृतिस्थ होकर कुछ देर बाद वे लाश को देखने पहुँचे। उसे देखते ही कांतिलाल ने जोश से भरे स्वर में कहा- 'यह मुख्यमंत्री की लाश है।

घटित हुए हादसे का मुआयना करने के लिए मुख्यमंत्री भी निकल चुके थे। उन्होंने यह सुना तो सकपकाए हुए पहुँचे। उन्होंने गौर से लाश को देखा और मुस्कराते हुए बोले- 'यह मेरी नहीं है।