लिहाफ हटाती कहानियाँ-इस्मत चुगताई / सपना मांगलिक

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15 अगस्त 1915 बदायूं में जन्मी एक नन्ही-सी नटखट लड़की जो दुनिया को अपनी अलग नजरों से देखने के साथ-साथ लड़कों से भिड़ने और धूल चटाने में माहिर थी। बड़े होकर जब उस ने उच्च शिक्षा हासिल की तो दुनिया भर में महिलाओं और युवतियों के साथ हो रहे दोयम व्यवहार को देख उसके अंदर की वही बचपन वाली लड़ाका पुन: बुद्धिजीवी का रूप लेकर जाग्रत हो गयी और इस्मत जो अब इस्मत आपा के नाम से जानी जाने लगीं थीं उस दोगले पुरुष समाज से दो दो हाथ करने से खुदको रोक न सकी।नतीजा उनकी बेबाक शैली और पुरुष समाज में फैली घिनौनियत को उजागर करती कहानियों के रूप में सामने आया। 1941 में समलैंगिकता पर आधारित लिहाफ ऐसी ही कहानी थी। जिसने पुरातनपंथी समाज को हिलाकर रख दिया। इस बेबाकीयत के कारण लाहौर कोर्ट में उनपर मुकदमा तक चला जो बाद में ख़ारिज भी कर दिया गया। उस दौर में किसी महिला के लिए ऐसी बिंदास कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत अश्लीलता को लेकर लगाए गए इलजाम और मुक़दमे के रूप में चुकानी पड़ी।

इस्मत नारीवाद की समर्थक थीं और यह कोई बुरा कार्य तो नहीं था। इतिहास साक्षी है, कि महिलाओं की स्थिति कमोबेश सभी देशों में दयनीय रही, उन्हें हर जगह दोयम दर्जे का नागरिक माना गया। स्त्रियों के मन में भी हमेशा ही से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने की ख्वाईशें और आत्मसम्मान से जीने की तड़प उन्हें बैचैन करती आई है।आखिर दूसरों की मर्जी से सोना उठना बैठना पढ़ना और ज़िन्दगी के अहम् फैसले लेना कितनी घुटन कितनी तड़प स्त्री को होती है कोई पुरुष इन हालातों में जी कर तो देखे? शायद इसीलिए 1960 तक सीमोन द बोउवार की किताब "द सेकेण्ड सेक्स" और ब्रेत्ती फ्राईदें की "द फेमिनिन" ने नारी समाज में हलचल पैदा कर दी थी और एक विश्व व्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया था। नारीवाद को वर्तमान में लोग अपने अपने नजरिये से परिभाषित करते हैं। कुछ स्वच्छंद तबीयत की स्त्रियाँ सिगरेट के छल्ले उड़ाने, आधे अधूरे वस्त्र पहनकर फ़िल्मी अंदाज में घूमने और पुरुषों के साथ खुलेआम रोमांस करने को मानती हैं तो वहीँ पुरुष इसे स्त्रियों का वही घिसा-पिटा रोना-धोना और पुरुष पर आक्षेप मानकर इसकी खिल्ली उड़ाते हैं जबकि नारीवाद से हमारा अभिप्राय पुरुषों को कोसना नहीं है। माता पत्नी बहन और बेटी बनने से भी परहेज नहीं है। संस्कार और रीतिरिवाजों को तिलांजलि देना भी नहीं है नारीवाद का इतना ही कहना है कि नारी भी एक हाड मांस से बनी स्त्री है जैसे कि पुरुष बने है, उन्हें और उनकी सोच और जीने के (अपने हिसाब से) हक़ को वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसे कि हमारे समाज में पुरुषों को किया गया है। अब नारी अगर इंसान है तो उसके अन्दर भावना और आत्मसम्मान भी होगा जैसा पुरुषों में होता है। स्त्री इंसान हैं तो तो कोई न कोई ग्रंथि उसके जिस्म में भी ऐसी ज़रूर होगी जो गुदगुदाती होगी, मात्र इसलिए की कुछ लेखिकाए खुला लिखती हैं उन्हें अश्लील, मर्यादाविहीन या जमाने से अलग नहीं माना जा सकता। अपनी भावनाओं को छिपाना उतना ही कठिन कार्य है जैसे जन्म लेते बच्चे को रोकना और अगर इसकी अति कर दी जाए तो जैसे जन्म लेता बच्चा प्रसव में बाधा होने पर ज़िन्दगी से लड़ते-लड़ते दम तोड़ देता है उसी तरह से स्त्री भी अपनी भावनाओं पर जबरन रोक और प्रहार सहते-सहते खुद एक शोषित जीवन जीने पर मजबूर हो जाती है, जैसा की हमारे समाज की स्त्रियों के साथ सदा से होता आया है। इस्मत आपा ने आज से करीब 70 साल पहले पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। उनके अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है। उनकी कहानियों की स्त्री पूरी ईमानदारी से अपनी भावनाओं को मुखर करने का कोई मौका नहीं छोडती, चाहे लिहाफ की बेगम हो, या घरवाली की लाजो जो चंचल मना होने के साथ साथ सुघड़ गृहणी के दायित्व भी बखूवी निभाती थी, मुग़ल बच्चा की बेगम का मासूम गुरूर, या बच्छी फूफी जैसी बहन जो गुस्से में भाई को कोसने के पश्चात उसे अपनी भी उम्र लग जाने की दुआ देती है। सास कहानी की सास और बहु की नोंक झोंक के बाद सास का बहु की चोट को देख माँ की तरह से फ़िक्र करना इत्यादि साबित करते हैं कि इस्मत इस समाज को मानो कहना चाहती हैं कि - "अरे ओ पुरुष समाज, एक औरत तुम्हारे लिए एक समर्पित पत्नी, बहु, बेटी, बहन और माँ हमेशा थी और रहेगी बस इंसान के तौर पर उसके अस्तित्व और उसकी मर्जी की कद्र करो, नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि तुम उसका अस्तित्व नकारते-नकारते खुद अपना ही अस्तित्व उसकी नजर में खो बैठो" उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा और इसी कारण उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं। ईस्मत अपने समय से आगे का देखती और सोचती थीं, कहना न होगा कि आज जो खुलेआम हो रहा है इस्मत के समय में वही चीजें लिहाफ के अन्दर होती थीं। इस्मत ने तो आज की कडवी सच्चाई को सत्तर वर्ष पूर्व ही लिहाफ उठाकर बेपर्दा कर दिया था। उन्होंने तो बस स्त्री के अबूझ मन को बूझा था और जिस तरह सागर मंथन करने पर रत्न और दिव्य सामान के साथ हलाहल निकला था ठीक वैसे ही इस्मत ने जब अबूझ को बूझा तब उनका ऐसे ही हलाहलों से सामना हुआ। अब सिर्फ हलाहल निकलने के डर से अगर देव सागर मंथन रोक देते या प्रतिबंधित कर देते तो रत्न और दिव्य वस्तुओं की प्राप्ति क्या संभव हो पाती? नहीं न, फिर नारीवाद पर चर्चा व्यर्थ कैसे हो सकती है? उनकी "लिहाफ" इन्हीं विशेषताओं के कारण ही विवादास्पद रही। तन-मन का झंकार और बुद्धि, वाणी की पारस्परिकता इस तरह गुँथा गया है कि कभी पाठक रचनात्मक यथार्थ से अभिभूत होता है, कभी हैरानी से उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं तो कभी कानों से धुंआ निकलने लग जाता है। इस्मत आपा ने इस पुरुष प्रधान समाज के आगे, स्त्री और उसके हक के लिए अपनी रचनाओं के माध्यम से कई सवाल उठाये। साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनकी कहानियों में करारा व्यंग्य और मजेदार मिसालें उन्हें रोचक और पठनीय बनाती हैं। "कहते हैं न कि"कोरी-कोरी पीने में भी क्या ख़ाक मजा आता है जब तक की चखने का चटखारा न हो "।इसी तर्ज पर उन्होंने ठेठ मुहावरेदार गंगा जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया जिसे हिन्दी - उर्दू की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता। उनकी कहन अद्भुत है और इसने उनकी रचनाओं को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने स्त्रियों को उनकी अपनी जुबान के साथ अदब में पेश किया।उनकी रचनाओं में सबसे आकर्षित करने वाली बात उनकी निर्भीक शैली और रोचक संवाद थे। उर्दू साहित्य में सआदत हसन मंटो, इस्मत, कृष्ण चंदर और राजेन्दर सिंह बेदी को कहानी के चार स्तंभ माना जाता है। इनमें भी आलोचक मंटो और चुगताई को ऊंचे स्थानों पर रखते हैं क्योंकि इनकी लेखनी से निकलने वाली भाषा, पात्रों, मुद्दों और स्थितियों ने उर्दू साहित्य को नई पहचान और ताकत बख्शी।हिंदी में"कुँवारी"व अन्य कई कहानी-संग्रह तथा अंग्रेजी में उनकी कहानियों के तीन संग्रह प्रकाशित हुए. इनमें "काली" काफ़ी मशहूर हुआ। चुग़ताई भारतीय साहित्य में एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से उठाया और पुरुष प्रधान समाज में उन मुद्दों को चुटीले और संजीदा ढंग से पेश किया।इन्हें उर्दूं का प्रेमचंद भी कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।गुरु के रूप में इस्मत के भाई मिर्ज़ा आजिम बेग ने उनको लेखन के गुर सिखाये।चुग़ताई ने 'कागजी हैं पैरहन' नाम से एक आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी आख़िरी फ़िल्म"गर्म हवा"(1973) को कई पुरस्कार मिले। उन्होंने अनेक चलचित्रों की पटकथा लिखी और जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म"छेड़-छाड़"1943 में आई थी। वे कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। ऐसा माना जाता है कि"टेढी लकीरे" उपन्यास में उन्होंने अपने ही जीवन को मुख्य प्लाट बनाकर एक स्त्री के जीवन में आने वाली समस्याओं और स्त्री के नजरिए से समाज को पेश किया है। इस्मत का कैनवास काफी व्यापक था जिसमें अनुभव के विविध रंग उकेरे गए हैं। इस्मत को 'टेढ़ी लकीर' के लिए 'गालिब अवार्ड' (1974) में मिला। इसके साथ ही 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'इक़बाल सम्मान', 'नेहरू अवार्ड', 'मखदूम अवार्ड' मिला।और चौबीस अक्टूबर उन्नीस सौ इक्यांवें को इस्मत आपा ने इस जहाँ को अलविदा कह दिया। उनकी वसीयत के अनुसार मुंबई के चन्दनबाड़ी में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया।

इस्मत चुगताई की कहानियाँ और मेरी नजर

लिहाफ के कुछ संवाद देखिये -"कभी-कभी मुझे ख्याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं। मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी"।"अम्मा खूब जानती थीं कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूंगी" मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाजी करते हैं, इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफरत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज खाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियां और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं।इस कहानी में बेगम ने लिहाफ डालकर आखिर क्या गुनाह कर दिया जबकि नवाब साहब यही पराक्रम खुले आम दिखा रहे थे? अब कहानी घरवाली देखिये, कहानी "घरवाली" हास्य से भरपूर थी। कहानी में दिखाया कि मिर्जा के घर में लाजो नामक एक नई नौकरानी आती है। वह सुंदर है तथा गली के सभी नौजवान उस पर नजर रखते हैं। मिर्जा उसे काम पर रख लेते हैं। जब लाजो घर में रहती तो दूध देने वाला ग्वाला तथा रद्दी वाला भी लाजो के साथ मसखरी करते, जिसे देखकर मिर्जा के सीने पर सांप लोटने लगते, लेकिन तब भी मिर्जा लाजो को कुछ कह नहीं सकते थे, क्योंकि वह तो उनकी नौकरानी है। अंत में मिर्जा लाजो से निकाह कर उसे अपनी बीवी बना लेते हैं। कहानी की एक पंक्ति है -"माशूक के नाज उठाना और बात है मगर बीबी की जूतियाँ मर्द बर्दाश्त नहीं कर सकता"कोई मिर्ज़ा को जोरू का गुलाम न कहे इसलिए धीरे-धीरे मिर्जा लाजो को भुलाकर एक कोठे पर जाना शुरू कर देते हैं।और जब मिर्ज़ा से उपेक्षित लाजो, हलवाई के यहाँ काम करने वाले मिठुवे के साथ मन बहलाने लगी तो मिर्ज़ा ने उसे मार मारकर अधमरा कर दिया और तलाक दे दिया।अब सवाल यह उठता है कि मिर्ज़ा निकाह के बाद भी लाजो को अगर पहले की तरह अपना स्नेह और साथ देते तो क्या लाजो के दोवारा भटकने के आसार बनते? "मुग़ल बच्चा" कहानी में जब काले मियां के कमरे से आवाजें सुनाई नहीं दी तो रिश्तेदारों की खुसर-पुसर पर गौर फरमाएं -"हाय हाय कैसी बहाया लड़की है? लड़की जितनी कुंवारी और मासूम होगी उतना ही दुंद मचाएगी"और जब काले मियां दुल्हन को छोड़ भाग गए तब रिश्तेदारों का नजरिया देखें -"आखिर वह उसका शौहर उसका देवता है, उसका हुक्म न मानना गुनाह है"हज़ारों बाजरू स्त्रियों की नथ उतारने वाले काले मियां की अकड़ तो देखिये की मरते पिता को वचन देने में भी आनाकानी कर रहे हैं "अब्बा हुजुर, मैं कसम खा चुका हूँ मेरी गर्दन उड़ा दीजिये मगर कसम नहीं तोड़ सकता"जहाँ एक तरफ समाज स्त्री के स्वंय घूँघट उठाने को बेहयाई समझता है।उसके पति के भाग जाने या जिद पर आने पर उसी स्त्री को घूँघट न उठाने के लिए गुनहगार भी ठहराता है।हुई न हास्यपद और दोगली पुरुष समाज की सोच? बच्छु फूफी कहानी में वह बहन जो हमेशा अपने भाई को बद्दुआ देने के लिए बदनाम थी जब अपने सामने बीमार भाई को देखती है तो बच्चों की तरह बिलख उठती है और बद्दुआ देने के बजाय उसके मुंह से निकलता है "या अल्लाह मेरी उम्र भी मेरे भैया को दे दे, या मौला अपने रसूल का सदका, और वः उस झुंझलाए बच्चे की तरह रो पड़ी जिसे अपना सबक याद न हो"कहानी के अंत में इस्मत का यह कहन कि-"सच है बहन के कोसने कभी भाई को नहीं लगते, वह माँ के दूध में डूबे हुए होते हैं"।सास कहानी की सास बहु के बचपने पर उसे कोसती है और मारने को भागती है, इस कहानी में बहु का भोलापन और बचपना और सास के अन्दर की ममता तो देखिये -"ख़ाक पड़ी तोते को क्यूँ खाए लेती है"? सास गुर्रायी "तो यह बोलता क्यों नहीं"बहु ने जवाब दिया।"नहीं बोलता तेरे बाप का खाता है"सास गरजी."हम तो इसे बुलवायेंगे" बहु ने इठलाकर तोते के पंजे में तिनका कोंचकर कहा।बुधिया जलकर ख़ाक हो गयी -"थू है तेरे जनम पर यही ढंग रहा तो दूसरी न कर लायी तो नाम नहीं" अब इन्हीं दो स्त्रियों का आपसी लगाव देखिये -जब असगर ने कहा "निकाल दो मारकर हरामजादी को, अम्मा अब दूसरी लायें—यह तो —"बुढिया ने कहा "जवान संभाल कमीने, हाथ तोड़कर रख दूंगी जो तूने, हाथ उठाया।कोई लायी भगाई है एं"और बुढिया सूखे लरजते हाथों से बहु का खून धोने लगी।यह कहानी दो स्त्रियों के अहम् के टकराव और आपसी लगाव की अद्भुत मिसाल है।इस्मत चुगताई की यह कहानी जितनी बार मैंने पढ़ी है उतनी दूसरी कोई कहानी नहीं पढ़ी।क्या गजब का मनोवेज्ञानिक विश्लेष्ण है इस्मत आपा का, ऐसा हिन्दी और उर्दू में दूसरा कोई मुश्किल से ही मिल सकता है।

संक्षेप में, इस्मत चुगताई ने हमेशा अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न को अपनी कहानियों का शीर्षक बनाया। वह जो बोलती थीं, वही लिखती थीं। इस्मत चुगताई के युग में दिल की बात को कागज पर लिखना बुरा समझा जाता था, परंतु वे जो सोचतीं और महसूस करती, उसे ही लिख देतीं। यथार्थ की गहरी पकड़, नए अर्थ खोलती अछूती उपमाएं, शब्दों का किफायती एवं बेहतरीन इस्तेमाल, उनकी बेबाक बयानी, चाहे स्त्री मुद्दों पर हो या कुरीतियों पर उनका बेबाक लेखन स्त्रियों के हक में बुलंदी से आवाज़ उठाता और उनके हालातों को बखूबी उजागर करता, उनकी जागरूकता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वह पहली मुस्लिम महिला थीं जिन्होंने स्नातक उपाधि हासिल की थी और इतना ही नहीं उन्होंने "प्रोग्रेसिव रायटर्स ऑफ़ एसोसिएशन" की बैठक अटेंड की थी। उन्होंने उसी वक़्त बेचलर ऑफ़ "एज्युकेशन" की डिग्री भी हासिल की। कहने का मकसद सिर्फ इतना कि आज के समय में ये सब सामान्य घटनाएँ हैं लेकिन जिस काल की बात की जा रही है वह भी एक मुस्लिम परिवेश में वह एक मिसाल से कम नहीं और यही प्रगतिवाद उनके लेखन की एक न सिर्फ विशेषता है बल्कि अन्य लेखिकाओं से उनको विशिष्ट भी बनाती है।