लेह-लद्दाख में शेरपा-जंग बहादुर / जयप्रकाश चौकसे

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लेह-लद्दाख में शेरपा-जंग बहादुर
प्रकाशन तिथि : 28 जून 2020


भारत में की गई आउटडोर शूटिंग में केवल सात घंटे ही काम होता है, परंतु यूरोप में अधिक समय मिलता है। यूरोप में सूर्यास्त देर से होता है। भारत में खाने-पीने का सामान यूरोपीय देशों की तुलना में बहुत सस्ता है। यूरोप में आवागमन भी सस्ता नहीं है। भारतीय फिल्मकार अपने साथ अपना रसोइया भी ले जाते हैं। यूरोप का भोजन हमारे तकनीशियनों को रास नहीं आता। फिल्मकार यूरोप में वॉशिंग मशीन खरीद लेते हैं और शूटिंग के बाद वहीं छोड़ देते हैं या कबाड़ में बेच देते हैं। विविध दृश्यावली और किफायत के कारण विदेश में शूटिंग की जाती रही है।

कश्मीर, फिल्मकारों का प्रिय लोकेशन रहा, परंतु आतंकवाद के कारण वह सुरक्षित नहीं रहा, इसलिए यूरोप जाना प्रारंभ हुआ। यूरोप में होटल महंगे हैं। यूरोप में शूटिंग के लिए सरकार से अनुमति नहीं लेना पड़ती और न ही कोई लोकेशन चार्ज लिया जाता है। सड़क पर शूटिंग के लिए पूर्व सूचना देनी होती है, ताकि जनता को सूचना दी जा सके कि वे वैकल्पिक रास्ते का उपयोग कर लें। मुंबई में एक सड़क पर शूटिंग के लिए 80 हजार रुपए प्रतिदिन देना होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेहतर अवसर की तलाश में लोग यूरोप जाना चाहते थे और पासपोर्ट, वीसा लेना आसान नहीं था। ये लोग निर्माता को धन देकर उसकी यूनिट में शामिल हो जाते थे। वहां अपने लिए काम देखते और ठिकाना खोज लेते थे। इस अवैध तरीके को कोड नेम दिया गया था ‘कबूतरबाजी’। राजे-रजवाड़ों का कबूतरबाजी पर एकमात्र मालिकाना अधिकार नहीं रहा है। इंग्लैंड में शूटिंग को बढ़ावा देने के लिए शूटिंग पर आए खर्च का 30 प्रतिशत धन फिल्मकार को वापस दिया जाता था, परंतु सच्चे-झूठे हिसाब बनाकर इस सुविधा का अंत कर दिया गया। फिल्म शूटिंग न केवल पर्यटन को बढ़ावा देती थी, वरन् यूनिट द्वारा वहां खर्च की गई रकम से उस देश की व्यवस्था को लाभ पहुंचता रहा है। फिल्मकार लोकेशन देखकर नया दृश्य व संवाद भी रच लेते हैं। मसलन स्विट्जरलैंड में एक जलप्रपात पर इंद्रधनुष को देख संवाद लिखा गया- ‘खुद साधना करने वाला व्यक्ति दूसरों की तपस्या भंग नहीं करता। ब्याहत स्त्री का जीवन इंद्रधनुष की तरह जलप्रपात पर खेलता है। और मिटता है तो ऐसे, जैसे था ही नहीं’। संगीतकार और गीतकार भी सायोनारा या लुबलुबा, इश्क-बदिश्क और दसवीदानिया जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे। विदेश में लंबे समय तक शूटिंग करने के कारण कलाकारों में कुछ अंतरंग संबंध भी बने, बहार आई और कागज के फूल भी महके। इस नशे के उतार के समय शीशे की तरह दिल भी तड़के। एकाकीपन को आत्मसात करना साधना से कम नहीं है। विदेश में रची फंतासी पत्नी, यथार्थ से सामना होते ही टुकड़ा-टुकड़ा हो जाती है। पासपोर्ट पर लगे ठप्पे का प्रभाव दिल पर भी पड़ता है।

अमेरिका में शूटिंग करना सबसे अधिक महंगा है। सुभाष घई ने शाहरुख खान और महिमा अभिनीत ‘परदेस’ अमेरिका में शूट की थी। उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बंगलों और कारों का उपयोग किया। इन्हीं लोगों की दावतों में शरीक होने के दबाव के कारण शाहरुख और सुभाष घई में अनबन हो गई थी। एक दौर में ‘डॉलर सिनेमा’ का विकास हुआ जब फिल्मकार प्रवासी लोगों की रुचियों की फिल्म गढ़ने लगे। यह गुब्बारा शीघ्र ही फूट भी गया। खबर है कि व्यवस्था को खुश करने के लिए कुछ फिल्मकारों ने लेह-लद्दाख में शूटिंग की घोषणा की है। जे.पी.दत्ता अपनी फिल्म ‘एलओसी’ की शूटिंग वहां कर चुके हैं। दशकों पूर्व चेतन आनंद फिल्म ‘हकीकत’ की शूटिंग लद्दाख में कर चुके हैं। लेह-लद्दाख में गोलियां दागी जा रही हैं। ऐसे में फिल्म शूटिंग के लिए इस्तेमाल खाली कारतूस फुस्स हो जाएगा। वहां तो मौसम ही आक्रामक है, जबकि फिल्म वालों को तलाश रहती है आशिकाना मौसम की। विदेशी पर्वतारोही साजो-सामान से लदे होते हैं। शेरपा अपने दम-खम पर पहाड़ चढ़ता है। आर.के. नैयर की रद्द की गई फिल्म का नाम था ‘शेरपा जंग बहादुर’।