लोकतन्त्र की यात्रा : चंद और मुक़ाम (पृष्ठ-2) / अजित कुमार

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विचारणीय यह भी है कि आम आदमी की हालत कहीं अग्येय की कहानी ‘शत्रु’ के नायक जैसी न हो जाय जो घर-परिवार-जाति-धर्म-समाज-राजनीति-व्यवस्था को बारी-बारी से दोषी समझने के बाद, आखिरकार अपने को ही अपना शत्रु मान आत्महत्या के लिए विवश होता है । आशा करनी चाहिए कि यह घमासान भारतीय जन को इस दिशा में न धकेलेगा ।विशाल देश की विस्तृत आबादी की विविध समस्याओं का समाधान सत्ता और व्यवस्था के कुशल संयोजन द्वारा ही सम्भव है, मात्र आदर्शवाद, आश्रम-स्थापन या ईश्वरीय न्याय के बलबूते नहीं, यह जब इन तमाम बरसों और चुनावों ने स्पष्ट कर दिया है तो साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ है कि कुर्सी महज़ चैन और मौज-मज़े को सुरक्षित नहीं करती, वह अपने साथ बहुत-सी जवाबदेही भी जोड़ती है जो कुर्सीधारी को यह आश्वासन कदापि नहीं दे सकता कि वह कम-से-कम पाँच साल के लिए पूरी तरह सुरक्षित है और इतनी अवधि में वह अपनी अगली पाँच पीढियों की सुरक्षा का प्रबन्ध अवश्य ही कर लेगा । एकदलीय सरकार की जगह बहुदलीय सरकारों के उदय ने राष्ट्रीय राजनीति का यह पहलू भलीभाँति उजागर कर दिया है इसलिए पहले एकजुट हुए दल यदि आज अलग- अलग हो, अपने बलबूते चुनाव लड़ रहे हैं तो 16 मई 2009 की मतगणना के बाद अस्थिरता की आशंका जनमानस में भले हो और विभिन्न दल इस आशंका का लाभ अपने लिए उठाने में संलग्न भी हों इस बात की पूरी संभावना है कि नतीजे आने पर दलीय समीकरण फिर से बनने-बिगड़ने शुरू होंगे, जिसमें यों तो कोई हर्ज नहीं बशर्ते कि सरकार के गठन-विघटन के बावजूद कुशल और व्यवस्थित राज-तन्त्र सुनिश्चित हो सके । वही देश की प्रमुख और नाजुक समस्या है क्योंकि तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार जन-जीवन को प्रत्येक स्तर पर नुकसान पहुँचाता है । ऊपर से नीचे तक घूस, फीताशाही और टालमटोल का जो बोलबाला है, उसने अमीरी-ग़रीबी की दूरी बढाने में जो भूमिका निभाई है और तरह-तरह के जिस छल-प्रपंच का विस्तार किया है, उससे देश किस तरह निबटेगा, सोचने की बात है । जो राजनेता आज वोट के लिए सारी हदें पार कर रहे हैं, उनको यह डर भी ज़रूर होगा कि जल्द ही आम आदमी भी दैनन्दिन जीवन की कठिनाइयों से घबराकर सारी हदें तोड़ने पर आमादा होनेवाला है । आज़ादी के साठ सालों ने जहाँ भारत में अरबपति बढाए हैं, वहीं भुक्खड़ों की भी पंक्ति बड़ी होती गई है । कुछ दल विदेशी बैंकों में छिपे भारतीय खातों के खुलासे पर ठीक ही ज़ोर दे रहे हैं, उसके साथ-साथ देश के भीतर बढते काले धन और समानान्तर फूलती- फैलती अर्थ-व्यवस्था का भी पर्दाफाश होना ज़रूरी है । जिसे आम बोलचाल में ‘सिस्टम’ बताया जाता है और जो सामान्यत: धनराशियों के निम्नमूल्यन और आवश्यकतानुसार अतिमूल्यन का भी सहारा लेता है, उसकी मौजूदगी से पूरी तरह परिचित रहकर भी सरकार उससे बेखबर होने का जो ढोंग रचती है- मसलन सम्पत्तियों के मूल्य-निर्धारण अथवा कर- निर्धारण में, वह दूसरे तमाम प्रपंचों से जुड़कर सभी आर्थिक आँकड़ों की विश्वसनीयता को जिस तरह झुठलाता रहा है, उससे देश का बच्चा-बच्चा परिचित भले हो पर सरकार उससे आँख मूँदे रहना चाहती है ताकि कारिन्दों और सत्ताधीशों की अतिरिक्त आमदनी का भरपूर जुगाड़ चलता रहे । जिसे अंग्रेज़ी में ‘फाल्सीफ़िकेशन आफ़ अकाउन्ट्स’ कह सकें, वह कितने सुनियोजित और पक्के-पुख्ता ढंग से आज के हिन्दुस्तान की वास्तविकता बन चुका है, किसीसे छिपा नही। फलत: यहाँ का सारे का सारा हिसाब-किताब यदि संदिग्ध मालूम होता है, तो जि़म्मेवारी शत-प्रतिशत सरकार की या उसकी दोषपूर्ण नीति की है।इस बिन्दु पर सरकारी नीति के पीछे मौजूद सोच की चर्चा भी जरूरी मालूम होती है, जिसका निर्धारक तत्व ‘अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक हित’ के अलावा अन्य कुछ कदापि नहीं हो सकता । पिछले दिनों में राजधानी दिल्ली के एक क्षेत्र में बसों तथा अन्य वाहनों के लिए निर्धारित ‘कारिडार’ पर्याप्त विवाद का विषय बना और प्क्ष-विपक्ष में भाँति-भाँति के तर्क सामने आए । समाधान अभी शायद पूरी तरह नहीं हो सका, लेकिन इसे लेकर दो रायें नहीं हो सकतीं कि जब सुविधा और सुरक्षा के बीच चुनाव का प्रश्न उठे तो सुरक्षा का पलड़ा हमेशा भारी समझना होगा । कुछ की सुविधा के वास्ते बहुतों की ज़िन्दगी दाँव पर कदापि नहीं लगाई जा सकती । नयी सरकार का गठन होने से लेकर तेरहवीं लोकसभा की समूची अवधि के दौरान यह किस तरह सुनिश्चित किया जा सके, यही मेरे खयाल से इस चुनाव का बुनियादी मुद्दा भी है जो तमाम पिछले निर्वाचनों से इसको अलग करता है और जताता है कि अगले पाँच साल सत्तापक्ष और विरोधी पक्ष के लिए भी ‘बिज़िनेस ऐज़ यूज़ुअल’ नहीं रह पाएंगे । जनता के धैर्य की सीमा पूरी हो चुकी है, उसके साथ अब अधिक खिलवाड़ नहीं किया जा सकता । दंगल में शामिल सबको यह अच्छी तरह समझ लेना होगा ।

कारगिल मोर्चे पर शहीद हुए सेनाधिकारी को आबंटित पेट्रोलपंप मिलने के सिलसिले में नौकरशाही की हर सीढी पर चाही गई घूस का जो भयावह चित्र हाल की फिल्म ‘धूप’ में खीचा गया वह साथ ही साथ यह भी बेबाकी से दिखलाता हैं कि तथा कथित ‘सिस्टम का मुकाबला मजबुती से करने की मानसिकता बन चुकि है और मेरा अनुमान हैं कि सुचना अधिकार जैसे कानुन उस बदले हुए सोच की दिशा में उठाए गए एक बड़े कदम के रुप में या नाउम्मीदी के अँधेरे मे से उभरती रोशनी की एक किरण की शक्ल में देखी ही नहीं जा सकती बल्कि यह भरोसा भी मन में बनाती हैं कि आम आदमी के अटके हुए काम सरकार के निचले स्तर पर भी स्वभाविक रुप से निपट सकेंगे और इसके लिए न उसे घूस का सहारा लेना पडेगा न सर्वोच्च स्तर की सिफारिश लानी पड़ेगी । यह केवल एक कहानी या कोई अनोखा मामला नहीं, जिस तरह हिन्दी फिल्म में एक समय वह एग्रीमैन उभरा था जो निजाम बदलने के लिए तोड़ फोड़ और आक्रामकता का हथियार इस्तेमाल करता था उसने जहाँ गलत किस्म के आतंकबाद को बढावा देते हुए लोकतंत्र के बुनियादी शर्तों को नकारना चाहा वहाँ धूप को सिर्फ एक कहानी या अपवाद के रुप में नहीं बल्कि व्यक्ति की संकल्प शक्ति और उसके जुझारुपन का प्रमाण समझ रेखांकित करना होगा कि व्यवस्था में जहाँ जहाँ भी, जो कुछ भी बेजा और गलत है उसे सुधारे जाना हैं और वह जरुर ही सुधारा जा सकता है इस मसले को उठाने वाली यह अकेली फिल्म नहीं, गंगाजल, अ वेन्सडे, आदि तमाम दूसरी फिल्में भी इस तरह के मामले प्रभावकारी रुप में उठाती हैं। अमिताभ बच्चन और जान अब्राहम को लेकर बनी फिल्म या दादा जताती है की भीतर-भीतर जन मानस में क्या कुछ उबल और सुलग रहा है अधिक समय तक उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती

लेकिन इस नए दौर की जिस भयावह सच्चाई से भी लोकतंत्र को जुझना होगा वह है बाहुबलियों और निजी सेनाओं की बढती हुई शक्ति से मुकाबला करना क्यों की जब तक वयक्ति की आवाज नक्कारखाने में तूती जैसी बनी रहेगी और चोरी के ऊपर सीनाजोरी का प्रभुत्व बना रहेगा तबतक लोकतंत्र का केवल बनावटी और खूखार चेहरा ही प्रमुख रहेगा । आज तमाम अखबार और चैनल यही दोहरा रहें है कि मतदाता मतदान करे और अपना मत सही उम्मीदवार को ही दे लेकिन सही उम्मीदवार की शिनाख्त इस वक्त भी दुश्वार है और नतीजा आने के बाद तो और भी मुश्किल बढने का भय होगा क्योकि कलयुग में संघ की शक्ति पर बढ़ते भरोसे ने लोकतंत्र जो आघात किया है उसका एक कारण यह भी है जो जितना बड़ा चोर है वह उतनी ही ऊँची आवाज में अपने निर्दोष होने का उदघोष करता है और एक ऐसा कोरस शुरू हो जाता है जिसमे सत्य और न्याय का दम घुट कर रह जाए । तब यह फैसला करना भला किस तरह मुमकिन हो कि मामले की तह में कहाँ तक और किस रास्ते से पहुँचा जाए । सन 84 में सिक्खों पर हुए अत्याचार का जिक्र करे तो जाहिर है कि उसकी तत्कालिक वजह अंगरक्षक द्वारा प्रधान मंत्री की हत्या थी जिसका तर्क यह रहा होगा कि जिसके आदेश से स्वर्ण मंदिर के धर्म स्थल में सेना भेजी गई, उसे इसका खमियाजा अपनी जान देकर भरना होगा ।

वर्तमान चुनाव में कुछ अतिवादी धारणाओं को छोड़ दें, तो मीडिया, सरकार, चुनाव आयोग सभी इस पर जो़र दे रहे हैं कि जनता अपने मताधिकार का उपयोग अवश्य करे और सही उम्मीदवार को जिता कर संसद में बिठाए लेकिन ‘सही’ को परिभाषित करना जटिल होता गया है- यहाँ तक कि आपराधिक पृ्ष्ठभूमि वाले उम्मीदवार भी अपनेआप को दूध का धोया बताने में सबसे आगे हैं । आम आदमी की सबसे बड़ी फिक्र ऐसे में यह है कि इस बार का प्रयोग यदि असफल सिद्ध हुआ तो कतिपय पडोसी देशों की तरह भारत भी कहीं धुर नक्सली राह पर आगे न बढ़ चले । चुनाव क्षेत्रों के हालिया परिसीमन से जातीय समीकरण के पुराने आँकडे कुछ-न-कुछ बदले होंगे पर जातीय भेदभाव को बढाने या एकसाथ ‘लाखों गदर’ देश में चलते जाँय- की नियति बनाए रखने की ज्जगह देश में शान्त , समभावी ‘सिविल सोसाइटी विकसित होने में चुनाव की प्रभावकारी भूमिका बन-बढ सके, यह सभ्य –शिष्ट देश का अदर्श होना चाहिए की जगह लोकतन्त्र एक और शायद जिससे यह सुनिश्चित भले न हुआ हो कि और शायद वोट-बैंक के भरोसे

बूढे तोते जहाँ इन साठ वर्षों में बहुत कुछ नया सीखने में समर्थ हुए है,वहीं अब नमूदार हुए असंख्य नए तोतों की चोचों और खरोचों से हमारे सत्ताधीशों को सावधान रहना होगा । अब महज हवाई वादे और समस्याओं के साथ सख्ती से पेश आनेवाले खोखले इरादे नाकाफी साबित होंगे। फलत: अगले पाँच सालों तक वही सरकार और वही सांसद टिके रह सकेंगे जो अपना फर्ज मुस्तैदी और ईमानदारी के साथ निभायेंगे । -यह भोला आश्वासन कारगर रहनेवाला नहीं कि हम तो चुनकर आ गये, पाँच साल तक खाने-पीने-मौज-मजा करने की सुरक्षा हो गई- सांसद की सदस्यता बीच में खत्म कर देने- उसे‘रिकाल’ करनेवाला कानून तो बना नहीं, न हम उसे बनने देंगे ... हम संसद का काम-धाम ठप रहने देंगे... कोई भी हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता ऐसा सोचने-समझने वालों को शायद पता नहीं हैं, लेकिन जल्द ही पता चलेगा कि आज का भारत काहिली, मुफ्तखोरी, अन्याय, अत्याचार,शोषण आदि बर्दाश्त करने को कतई तैयार नहीं, इतने ज्यादा मोर्चों पर यहाँ लड़ाई पहले से छिडी हुई है कि और अधिक मोर्चे खोलने का खतरा उठाना लोकतन्त्र को ही बलिवेदी पर चढा देने जैसा काम होगा, जिसे उसी सूरत में बचाया जाना सम्भव है, जब सत्ता का ताज काँटों का ताज मानकर सर के ऊपर धरा जाएगा और इस चेतावनी को खालीखूली गीदड़ भभकी समझने के भ्रम में भी कोई न रहे - तब के गीदड़ अब न केवल खूँखार भेड़िए हो गए है, वरन बबर शेर बनने की तैयारी में हैं, देश के काफ़ी बडे़ हिस्से में फैल रहा नक्सल आन्दोलन थमेगा तभी जब सरकारें जोड़-तोड़ के बूते नहीं, न्याय, बराबरी और उदारता के नियमों से चलेंगी ..