लोकल से चर्चगेट से विरार तक का रोमाँचकारी सफ़र / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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चर्चगेट से विरार तक जाने वाली लोकल ट्रेन मुम्बई की सबसे रोमाँचक यात्रा कराती है। इस पर पीक आवर्स में चढ़ना तो दूर दरवाज़े पर लटकने भी मिल जाए तो अहो भाग्य। मुम्बई की ज़िन्दग़ी केअसल रंग दिखाती है यह लोकल। भीड़ भड़क्के का पर्याय व मानक, खट्टी मीठी यादों से जुड़ा और लगभग मिथक। विरार पश्चिम रेल का अंतिम स्टेशन है। यहाँ से पालघर, दहाणू, सूरत, भरूच, वलसाड़ के लिए शटल भी जाती है।

सालों किराए के मकान में रहने के बाद मैंने विरार में स्टेशन से पाँच मिनट की दूरी पर टू बेड रूम हॉल किचन का फ्लैट ख़रीदा था। सोचती हूँ वह मेरा दुस्साहस था। ग्रांट रोड स्थित अपने स्कूल में अध्यापिका की नौकरी के लिए सुबह छै: बजे से घर से निकलने को मजबूर मैं आठ बजे रात को जब लौटती थी तो लगता था जैसे शहर में काम निपटा रात को अपने गाँव लौटी हूँ। लेकिन विरार तब भी आकर्षण से भरा था। खूबसूरत पहाड़ की चोटी पर स्थित जीवदानी देवी का सफेद झक्क मंदिर यहाँ आने वाले हर मुसाफिर को लुभाता है। लगभग बारह सौ सीढ़ियाँ चढ़ कर जब मैंने जीवदानी देवी के दर्शन किये तो लगा इससे खूबसूरत मूर्ति मैंने कहीं नहीं देखी। नमक के खेतोंऔर घनी वन संपदा से भरा पूरा है विरार। पहले यहाँ कोली और वार्ली आदिवासी रहते थे जो गन्ना उगाते थे। यहाँ उन्नीसवीं सदी का पारसनाथ मंदिर और भीमाशंकर मंदिर भक्तों की भीड़ से भरा रहता है। सागर का अरनाला तट दूर-दूर तक कैसुआरिना के ऊँचे-ऊँचे सतर दरख़्तों से घिरा है। सफेद रेत के किनारों से समँदर की गरजती बिछलती लहरें जब टकराती हैं तो अपने पीछेछोड़ जाती हैं शैवाल, सीप और घोंघे। यहाँ किला और जैनियों का प्रसिद्ध अयाशा तीर्थ भी है। अरिहंत वॉटर पार्क रिसॉर्ट में पर्यटकों का जमावड़ा रहता है। फ़िल्म अभिनेता गोविंदा यहीं छोटे से घर में रहता था। लेकिन वह उसका आरंभिक दौर था जिससे हर कलाकार गुज़रता है।

विरार से चर्चगेट के लिए रवाना होने पर पहला स्टेशन नालासोपारा आता है। भारत में रेलवे की शुरुआत के दिनों में दहिसर बसीन और विरार के साथ जिस नीला नाम का ज़िक्र मिलता है वह दरअसल नालासोपारा ही है। ईसा पूर्व 15वीं सदी से 1300 ईस्वी तक नालासोपारा उत्तरी कोंकण की राजधानी था। कहते हैं गोकर्ण तीर्थ से प्रभास तीर्थ जाते समय पांडवों ने यहाँ विश्राम किया था। यह भगवान परशुराम, तीर्थंकर ऋषभ देव जी और बुद्ध के एक अवतार की धरती है। जैनों के एक संप्रदाय का नाम यहाँ के नाम पर है और यह जैनों के 84 तीर्थस्थानों में भी शुमार है। नालासोपारा सम्राट अशोक के पश्चिमी प्रांत का मुख्यालय और बौद्ध ज्ञान विज्ञान का केन्द्र भी रहा है। अशोक की लाट, स्तूपों पर इसका अस्तित्व मिलता है। पुरातत्वविदों को सोपारा नामक टीले पर पाँच पात्रों के साथ सिक्के, उच्च कलात्मक चीज़ें और अन्य चिह्न मिलेहैं जो एशियाटिक सोसाइटी में रखे हैं। नीला से नालासोपारा तक का सफ़र धीमी रफ़्तार से चला। दूध, सब्ज़ी और मछलियों की बहुतायत की वजह से यहाँ से ये सारी चीज़ें शहर भेजी जाने लगीं। नालासोपारा हर वर्ग और समुदाय की कॉस्मोपोलिटन बस्ती है। सेंट फ्रांसिस और सेंट एलोशियस इंग्लिश स्कूल की गणना क्षेत्र की अच्छी शैक्षिक संस्थाओं में होती है। कलंब और माजोडी नाम के समुद्र तट पर्यटकों को लुभाते हैं। इसके नज़दीक है मुम्बई की जलपूर्ति करने वाली वैतरणा, तुलसी और निर्मला झीलें। आगाशी नामक खूबसूरत गाँव है। सिद्धेश्वरी देवी का मंदिर, शंकराचार्य का मंदिर, निर्मल गाँव जहाँ से कार्तिक मास में छह दिनों की यात्रा शुरू होती है, के कारण यह स्टेशन मुम्बई के पर्यटन में स्थान पा चुका है।

नालासोपारा के बाद वसई जिसे बसाई और बासीन भी कहा जाता था। मुम्बई से 50 कि।मी। दूरअरब महासागर के तट पर वसई एक खूबसूरत गाँव है जो उल्लास नदी के तट पर बसा है। वसईअब धीरे-धीरे मुम्बई की संस्कृति अपनाकर और आधुनिक बदलाव सहित मुम्बई का ही हो गया है। वसई का किला बहुत प्रसिद्ध है जो 16वीं सदी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के अधीन था और जिसे पुर्तगालियों ने 23 दिसम्बर 1534 में हुई संधि के द्वारा अपने अधीन कर लिया था। इस किले का पुनरुद्धार कर पुर्तगालियों ने इसे नया रूप दिया। विशाल परकोटे, किले के चारों ओर सुरक्षा के लिए बनाए गये 11 बुर्ज और भव्य भवनों के निर्माण के कारण यह खूबसूरत आकार में ढल गया। इसमें कई कलात्मक चर्च भी बने। वसई भारतीय उपमहाद्वीप में पुर्तगालियों की व्यापारिक गतिविधियों का मुख्यालय बन गया।

किले के आसपास नारियल और खजूर के पेड़ों की हरियाली मन मोह लेती है। लेकिन इतने वर्षों में सत्ता के हस्तांतरण, लूट पाट की वजह से किला अब खंडहर हो गया है और किले की चार कि।मी। तक फैली दीवारों और सीढ़ियों पर झाड़ियाँ उग आई हैं। वहाँ एक छोटा दुर्ग भी है जो पानी के टैंकों और शस्त्रागार आदि से सुसज्जित है। किसी समय यहाँ फसलों और साग सब्ज़ियाँ उगाई जाती थीं। अब वहाँ सन्नाटा रहता है। कभी-कभी पर्यटक आ जाते हैं या फिर दीपावली के दौरान रौनक रहती है।

वसई में तुंगेश्वर मंदिर, चिंचोटी जलप्रपात, रनगाँव समुद्र तट, चंडिका देवी का मंदिर आदि वसई के लोकप्रिय दर्शनीय स्थल हैं। वसई गाँव अब अपने जंगल खो चुका है और बिल्डरों ने उन जगहों पर गगनचुम्बी इमारतें, बंगले, डुप्लेक्स खड़े कर दिये हैं जिसकी वजह से वसई समृद्ध होता जा रहा है। बॉलीवुडकी नज़र भी वसई को अपनी गिरफ़्त में ले चुकी है। लेखक, कलाकारों का बसावड़ा और लोकल ट्रेन की सुविधाओं ने वसई को मानो कलानगरी का रूप दे दिया है।

वसई के आगे नायगाँव, भयंदर और मीरारोड भी कला नगरी बनते जा रहे हैं। मुझे याद है जब मुम्बई से फ़िल्मफेयर पत्रिका निकलती थी तो उसके पत्रकार किरन पांडे ने मीरा रोड में बहुत सस्ते दामों में प्लॉट ख़रीदा था... लेकिन तब यहाँ घना जंगल था, डाकू, हत्यारों, नशेड़ियों का अड्डा था यहाँ। खून करके लाश को जंगल में फेंक देना मामूली बात थी। घबराकर किरन ने प्लॉटबेच दिया लेकिन उसके बाद ही मीरा रोड की काया पलट हो गई. सेलसेटद्वीप पर बसा मीरा रोड कोंकण रेंजका ही एक हिस्सा है। धीरे-धीरे यहाँ लेखक और बॉलीवुड कलाकार बसते गये। बॉलीवुड एक्टर कुणाल खेमू और बजरंगी भाईजान की मुन्नी हर्षाली मल्होत्रा यहीं रहती है। यहीं सुप्रसिद्ध लेखक धीरेन्द्र अस्थाना और मैंने फ्लैट ख़रीदे। निर्मल प्रति सप्ताह निकलने वाली सबरंग नगर पत्रिका के संपादक। सबरंग बेहद लोकप्रिय हुई. मुम्बई का हर लेखक उसमें छपना अपनी शान समझता। टॉवर के सातवें फ्लोर पर मेरा संगमरमर का बेहद खूबसूरत फ्लैट था। महीने में एक बार मेरे घर लेखकों का जमावड़ा होता। कविता पाठ, कहानी पाठ की मुखरता में शामें बीततीं। कभी-कभी धीरेन्द्र अस्थाना जी अपने हाथों से नॉनवेज बनाकर खिलाते। तब वे जनसत्ता में सहयोगी संपादक थे और प्रतिसप्ताह निकलने वाली सबरंग नगर पत्रिका के संपादक। सबरंग बेहद लोकप्रिय हुई. मुम्बई का हर लेखक उसमें छपना अपनी शान समझता।

मुम्बई की बारिश के क्या कहने। पूरी बरसात छतरी, रेनकोट और टोपियों का बोलबाला रहता है। उस शाम भी घनघोर बारिश हुई और उसी शाम धीरेन्द्र अस्थाना का कहानी पाठऔर जम्मू से आए कवियों को मेरे घर आकर सभी को सुनना था। लग रहा था कोई नहीं आयेगा। लेकिन धुआँधार बारिश में घुटने तक पैंट चढ़ाए पहले धीरेन्द्र जी और फिर लगभग सभी आ गये। मीरा रोड की वह शाम कभी नहीं भूलती जब छमाछम बारिश में साहित्य रस घुल रहा था और रसोई में सिंकते भजियों की खुशबू माहौल को रोमेंटिक बना रही थी।

मीरा रोड से ठसाठस भरी लोकल पकड़ मुझे सुबह छै: बजे ग्रांट रोड आना पड़ता था। तब मैं वालकेश्वर स्थित गोपी बिरला मेमोरियल स्कूल में पढ़ाती थी। लोकल के दरवाज़े पर खड़े होने की जगह मिलती। भीड़ धीरे-धीरे अंदर ठेलती जाती। पता ही नहीं चलता कब अंदर पहुँच गई. कभी-कभी ट्रेन की पटरियों के किनारे लगे पालक के खेत दिखाई दे जाते। वहीं झोपड़पट्टी में तवे पर सिंकती मछली और पास ही के गटर की गंध एक साथ नथुनों में समाती।

मीरारोड के पश्चिम में बल्कि विरार तक नमक के खेत हैं। बड़े-बड़े खेतों में समुद्री पानी सूरज देवता की मेहरबानी से नमक में परिवर्तित होता जाता है। इस नमक को इकट्ठा करने, बोरियों में भरकर ट्रकों में लादने का काम जो मज़दूर करते हैं उनके पाँवों में प्लास्टिक बँधा होता है वरना नमक से पाँव गल जाने का ख़तरा रहता है। धूप में चमकते नमक के ये ढेर बर्फीले इलाके का आभास कराते हैं।

मीरारोड सलीके से बसा और तमाम सुविधाओं से युक्त उपनगर हो गया है जबकि दहिसर से आगे सारे उपनगर ठाणे जिले में आते हैं।

दहिसर में चैक नाका है जो ठाणे और मुम्बई को अलग-अलग दिशाओं में मोड़ देता है। दहिसर भी मुम्बई के उपनगर के तौर पर पूरी तरह गाँव से आधुनिक मुम्बई में तब्दील होता जा रहा है। यहाँ भी बिल्डरों ने जंगलों को ऊँची-ऊँची इमारतों में तब्दील कर दिया है। मुझे तो मीरा रोड के टॉवर फ्लैट की सातवीं मंज़िल में रहते हुए डर लगता था... मेरा मानना है कि हमें इतने ऊँचे नहीं जाना चाहिए कि ज़मीन से रिश्ता टूटने लगे। क्योंकि भले ही इतनी ऊँचाई से आसपास का नज़ारा दिलफ़रेब हो पर सड़क चलता आदमी कितना छोटा दिखाई देता है। न उसके माथे का पसीना दिखाई देता, न आँख के आँसू, न क़दमों की चाप। एक और बात है कि ज़मीन के बजाए सीधे सामने तेज़ी से उगती लगभग होड़-सी लेती नई इमारत पर ही नज़रें टिकी रहती हैं।

दहिसर में भूटाला देवी मंदिर, विट्ठल मंदिर, श्री सिद्धिविनायक मंदिर, शिवमंदिर, गोवर्धन नेताजी की हवेली, श्री विट्ठल रखुमाई मंदिर, श्री भाव देवी मंदिर हैं। कई फ़िल्मों की शूटिंग यहाँ बहने वाली दहिसर नदी के किनारेऔर ओल्ड ब्रिज पर हुई है। यहाँ एक बंगला भूत बंगला नाम से सालों ख़ाली पड़ा रहा अब वहाँ फ़िल्म स्टूडियो है। दहिसर में कई शिक्षा के केन्द्र और विद्यालय हैं। रिसर्च इन्स्टिट्यूट और रुस्तमजी कैम्ब्रिज इन्टरनेशनल स्कूलहै।

दहिसर और मीरा रोड के बीच काशीमीरा एक खूबसूरत गंतव्य है। काशीमीरा वेस्टर्न हाइवे पर फाउंटेन होटल में उस रात मैंने अपनी सखियों के संग डिनर लिया था। बाहर घनघोर बारिश हो रही थी। यह होटल इतना लोकप्रिय है कि चाहे अमीर हों या ग़रीब हर बजट के लोग यहाँ भोजन करते हैं। अमीरों की गाड़ियाँ लाइन से खड़ी रहती हैं। इस के पीछे चायना क्रीक गाँव है जो गझिन हरियाली से ढँका है। बेहद विशाल अमराई... आम के ढेरों पेड़ जिनके नीचे से गुज़रते हुए लगता है जैसे हम मलीहाबाद आ गये हों। गाँव के बीचोंबीच नदी बहती है... जंगल से भरा गाँव पहाड़ियों से घिरा है जिनसे छोटे-छोटे झरने ख़ास बारिश के दिनों में प्रगट हो जाते हैं। दुनिया बदल गई, मुम्बई कहाँ से कहाँ पहुँच गई पर दहिसर चैक नाका से मात्र 6 किलोमीटर स्थित चायना क्रीक में मानो सदियों पुरानी तहज़ीब ठहर कर रह गई है। ग्रामवासी नहीं जानते चर्चगेट या मरीन ड्राइव कहाँ है। हाँ, खुश होकर यह ज़रूर बताते हैं कि... "साहब, लगा के मदर इंडिया से आज तक की फ़िल्में यहाँ शूट हुई हैं, मुग़लेआज़म के कुछ सीन शूट हुए हैं... यहाँ शूट हुई फ़िल्में ऑस्कर तक गई हैं।" तब यकीन नहीं होता कि जन ग्रामवासियों ने फ़िल्मी कैमरे, हीरो हीरोइन, वेनिटीकार और शूटिंग का साज़ो सामान देखा है उनके रहन सहन में ज़रा भी बदलाव नहीं। पैबन्द लगे कपड़े, नंगे पाँव और घरों के छप्पर टूटे फूटे... उन छप्परों पर लौकी, तुरई की बेलें ज़रूर छाई हैं।

उल्हास नदी के कच्चे किनारों से कुछ पथरीली सीढ़ियाँ नदी की ओर उतरती हैं। एक भुतहा टूटा फूटा बंगला भी दिखा जिसका लोहे का विशाल गेट था। थोड़ीदूरी पर घुड़साल जिसमें घोड़े एक भी न थे। फ़िल्मी डकैतों के घोड़े वहीं बँधते होंगे। टूटा फूटा बैरक नुमा लाइन से आठ दस कमरों का घर जिस पर टीन की छत और छत पर हरियाली का सघन विस्तार... दूर-दूर तक जंगल, खेत, दरिया और पंछियों की चहचहाहट। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री की स्थापना के साथ ही चायना क्रीक बॉलीवुड की निग़ाह में आ गया। यहाँ शुरुआत की फ़िल्म आलमआरा की शूटिंग भी हुई थी। चायना क्रीक से चलते-चलते लगा जैसे जंगल और सारे दृश्य जाने पहचाने हैं शायद इसलिए कि कई फ़िल्मों में इन्हें देख चुकी हूँ।