लोक-मन की बात / प्रतिभा सक्सेना

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संस्कृतियों का जन्म लोकमानस के क्रोड़ में होता है, उनका विकास और संरक्षण लोक के द्वारा ही संभव है। लोक-मन के सहज-सरल परिवेश में जो मान्यताये जड़ें जमाती हैं और लोक-व्यवहार जिसे स्वीकार करता चलता है वह कालान्तर में संस्कृति का अंग बन जाती हैं

लोक-मन का संसार बहुत व्यापक है, वह बहुत उदार होता है। हर स्थिति में अपने को ढाल लेने की सामर्थ्य के साथ। सहनशीलता और लचीलेपन से परिपूर्ण। आभिजात्य मन होता है उतना ही परंपरावादी और कठोर। लोक-मन सोचता है -अरे ये लोग ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं आज़मायें। और अभिजात कहेगा हम ऐसा करते आये हैं अब अपने को क्यों बदलें! लोक नवीन का अभिनन्दन करता है, उसे स्वीकार करता है,इसीलिये वह निरंतर परिवर्धित और विकसित होता चलता है। अभिजात परंपरा को पकड़े रहने की कोशिश करता है अपनी मान्यताओं को बदलना नहीं चाहता। लोकमन जन-विश्वासों को पूरा सम्मान देता है। बेहद समन्वयशील, सभी मान्यताओं को शिरोधार्य करनेवाला, और सब मतों का आदर, विरोधों का समन्वय। एक ओर सीता को पत्नीत्व आदर्श मानता है तो दूसरी ओर कृष्ण-प्रिया राधा की महिमा गाते परकीया भाव शिरोधार्य करते नहीं अघाता।

लोक-मन विश्वासी है सबको स्वीकारता चलता है। परंपरागत रीति-रवाजों को जतनी निष्ठा से निभाता है उतनी ही सहजता से नये को भी सिरधार लेता है। भाषा के प्रयोग में यह बात बहुत स्पष्ता से देखी जा सकती है। जबकि अभिजात को हमेशा संशयात्मा देखा जाता है। । भाषा का प्रयोग करने में एक ओर हम परंपरा के अनुसार चलनते हैं वहाँ जन सामान्य भाषा को अपने हिसाब से गढ़ लेता है। टाइम का टैम, फ़ारवर्ड के लिये फर्वट। और तो और शब्दों को अपने हसाब से मोड़ लेने में वह माहर है। वो तो हन्न ह्वै गई। । अंग्रेजडी के ज्यूस को झूस बना लेता है और कहता है- झूसदार तरकारी (रसे की सब्ज़ी )।

लोक-मन बड़ा विनोदी है और सतत प्रयोगशील भी, बहुत उदार होते हुये भी विदग्धता संपन्न है। सब-कुछ देखता-सुनता है, मन में रखे रहता है और उपयुक्त अवसर आते ही प्रतिक्रिया व्यक्त करने से चूकता नहीं। मर्यादाओं का निर्वाह करता है लेकन खरी-खरी सुनाने में किसी को बख़्शता नहीं। ' जन-भाषा में एक शब्द चलता है - राम जना, । जिसके जनक का पता नहीं माँ ने लाञ्छन झेल कर जन्म दिया, अकेले रह कर सेवा-सुश्रुषा या जैसे हो सका पाला हो उसे झट् से यह नाम दे देता है-। जानता है राम तो किनारा कर गयें होंगे, औलाद को पालने आयेंगे नहीं- उन्हें दुनिया भर के काम हैं। जानते हैं न कि कोई पाले-सम्हाले रहेगी हमारी ही। फ़ालतू झंझट क्यों पालें, औरत जाने उसका काम जाने।

'रामजना'। राम के जने तो लव-कुश थे पर बड़े होने तक उनके पता का नाम अज्ञात ही रहा था। वाल्मीकि आश्रम में पैदा हुये। सीता वहीं आश्रम में रह कर वहाँ के सेवा-कार्य करती हुई पालती-पढ़ाती रहीं। तब तक वे सीता के पुत्र कहलाते रहे। अश्वमेध का घोड़ा हार जाने के बाद राम स्वयं आये और अपना पुत्रों को स्वीकार कर साथ ले गये। जिनके पिता अज्ञात हों उन सब, चाहे जारज ही हों, पुत्रों को राम के नाम कर दिया। बड़ी सटीक और तीखी व्यंजना-शक्ति से संपन्न है लोक-मन, साथ ही बड़ा विनोदी है। इशारे -इशारे में मर्म पर चोट कर गया। बात कही किसके लिये और पहुँच रही है कहाँ। राम के कोई पुत्री नहीं थी इसीलिये 'रामजनी ' जारज पुत्री के लिये प्रयुक्त न कर वेश्या के नाम कर दिया गया(हिन्दी थिसारस)। )

संस्कृति, सद्भाव, धर्म, कला,विद्या समाज सापेक्ष हैं, लोक के बिना संदर्भहीन, व्यवहारहीन। उनकी व्याप्ति लोक में हो तभी उनका उपयेग और महत्व है, लोक में ही उनका पूर्ण प्रस्फुटन संभव है। परस्पर विरोधों में मजे से संतुलित रहता है लोक-मन। अपने लिये नये-नये रास्ते ढूँढ लेता है। लोग जो माने वह सब ग्रहण करता चलता है और बड़े कौशल से विभिन्न पक्षों का निर्वाह करता चलता हैं वह सब कोई कहे राधा विवाहिता थी तो कथायें चल नकलती हैं राधा कृष्ण की मामी थीं -भद्रगोप /अयन गोप की पत्नी, वय में कृष्ण से कई वर्ष बड़ी। जो वर्ग यह मान कर चले कि कुमारी थी वह भी ठीक - पर कवियों की कल्पना के अनुसार वह उन्हें बराबर का मान लेता है, जो खेलते हैं, लड़ते हैं नोक-झोंक एक दूसरे से अगाध प्रेम करते है। यह सब तो मन की लीलायें हैं- लोक मानस में निरंतर नव-नव रूपों में सजती-सँवरती। जिसमें हृदय को आनन्द की अनुभूति हो उसी में हम भी मगन। हमें सब मंज़ूर!

शिशु सा सरल लोक-मन, सहज विश्वासी है जो कुछ सामने आता है, से उसे स्वीकार है और आत्मसात् करता चलता है सब से निभाता चलता है। लोक-मन अजस्र प्रवाहित गंगा की धारा है, जो सारे विकारों, प्रदूषणों को अपने पावन प्रवाह में समाहित करतासहज ग्राह्य बना देती है। वास्तव में लोक का मन ही गंगा बन जाता है, जिसकी चेतना विराट् है,जिसकी संस्कारशीलता का स्तर अपनी मर्यादा नहीं खोता। यह प्रवाह कभी क्षीण नहीं होता चिर पुरातन होकर भी चिर-नवीन बन रहता है। काल के क्रम में अनेक छोटी-बड़ी धारायें इसमें आ मिलती हैं, जन मानस को सींचती हुई हमें आश्वस्त करती हैं कि जीवन कभी रीतता नहीं, उसकी परिधि छोटी-छोटी वृत्तिकाओं को समाहित करती अपनी व्यप्ति परिवर्धित करती रहती है। सारा जग-जीवन इसके अंतर्गत है खेती-बाड़ी से सूरज-चाँद-सितारों तक और बाज़ार भाव, मौसम और रोज़मर्रा के जीवन से लेकर अध्यात्म चिन्तन ज्ञान -विज्ञान, कला विद्या सब इसमें सिमट आते हैं। लेकिन देखता है सबको यह अपनी दृष्टि से, जिसमें मनस्तत्व की प्रधानता है। यह सर्व-ग्राही है, सब को शिरोधार्य करता है। जितना मान राजा भोज को देता है उतनी तन्मयता से गंगू तेली की जीवन शैली पचा लेता है।

लोक-संवेदना, तरल-सरल है जिसमें सारा विश्व प्रतिबिंबत हो जाता है। उसके लिए पर्वत, नदी, पेड़, जंगल सब सजीव हैं, पशु-पक्षी मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं और मनुष्य अपनी सारी कमज़ोरियों और समर्थ्य के साथ उसमें विद्यमान रहता है। नारी जीवन की संवेदनाओं का इतना गहरा और मार्मिक और वास्तविक चित्रण पहुँचे हुये कवियों की वाणी में नहीं मिलेगा जितना लोक- कथाओं और लोक-गीतों में। क्योंक इनका रचयिता स्वयं लोक-मन है। लोकमन भोक्ताहै नदियों और पहाड़ों की पीड़ा का। नगर से कृत्रिम जीवन के बजाय आँचलिक और ग्राम्य-जीवन के प्रति उसकी संवेदना अधिक मुखर रही है, क्योंक वहाँ दुराव छिपाव की गुँजायश नहीं होती, वह प्रकृति के निकट, स्वाभाविक जीवन की रसमयता,आत्मीयता से भरा-पुरा सच्चा कलाकार है। कलाओं का सर्वाधिक मौलिक स्वरूप हमें चहीं मिलता है। लोकमन की यात्रा अनादि और अनन्त है। जीवन के प्रारंभ से ले कर अंत तक की कोई भूमिका उससे छूटी नहीं है। साथ ही देश-काल -परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालने में वह सक्षम है।

लोक-मन मानव की स्वभावगत अनेकताओं को स्वीकार कर सबका उचित सत्कार करता है। उसके कथन कभी कभी विरोधाभासी लग सकते हैं। लेकन यह अन्तर्विरोध न होकर विभिन्नताओं सामंजस्य है जिसमें लोक की समग्रता समाविष्ट हो सके। एक ओर वह एक पक्ष के प्रति उदार है और दूसरी और उसके विपरीत पक्ष के प्रति भी उतना ही सहानुभूतिपूर्ण और सहनशील। उसकी संवेदना सब से जुड़ी है।

प्रचंड जिजीविषा उसे कभी हताश नहीं होने देती। गिरावट का काल आता है, कुछ समय को उसकी ग्रहण क्षमता क्षीण हो जाती है स्थितियों जब तेज़ी से बदलती हैं,नई आने वाली चीजों की बहुतायत हो जाती है तब कुछ समय यह स्तब्ध लगता है। लेकिन वह निरंतर सचेत रह कर सबको तोलता रहता है। यह प्रतिक्रिया-हीनता उसके साक्ष्य-भाव की द्योतक है। देखता -परखता है, इन्तज़ार करता है बाढ़ के उतरने का। बहुत प्रयोगशील है लोक-मन। समाज के विभिन्न व्यवहारों की आलोचना-प्रशंसा निर्लिप्त भाव से सुनता-गुनता है। जो भाता है उसे रच रच कर सँवारता है अपना कथाओं के भंडार में सम्मिलित कर लेता है। जिनका भंडार कभी रीतता नहीं -चिर नवीन रहता है सदा कुछ न कुछ नया जुड़ता चलता है। एक का दूसरे से प्रतिस्थापन करने में यह बड़ा कुशल है। मान्यताओं के साथ प्रतीक बदल जाते हैं। वह चुनता है, छाँटता है परिणाम की प्रतीक्षा करता है देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप व्वहारों को परखता है, कुछ त्यागता है, कुछ ग्रहण करता है और जो व्यर्थ लगता है, उसे बिल्कुल नकार देता है।

लोक- मन ऐसा यात्री है, जो अनवरत चलता है, अथक अविश्रान्त। सम-विषम परिस्थतियों को सम भाव से स्वीकार करता हुआ,सतत सचेत और चारों ओर जो घटता है उसे विचारते ग्रहण करते हुये देश, काल और परिस्थतियों के अनुकूल अपना रास्ता स्वयं बनाता है।