लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 12 / दयानंद पाण्डेय

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‘कुछऊ नाहीं बाबा!’ गणेश तिवारी के दोनों पांव छू कर ऊंकड़ई बैठते हुए वह बोला, ‘वोही कमवा बदे आइल हईं बाबा।’

‘अइसै फोकट में?’ गणेश तिवारी की बोली थोड़ी तल्ख़ हुई।

‘नाई बाबा हई पइसा ले आइल हईं।’ धोती के फेंट से रुपयों की गड्डी निकालता हुआ वह बोला।

‘है केतना?’ कुछ-कुछ टटोलते, कुछ-कुछ गुरेरते हुए वह बोले।

‘बीस हजार रुपया!’ वह खुसफुसाया।

‘बस!’

‘बस धीरे-धीरे औरो देब।’ वह आँखें मिचमिचाता हुआ बोला, ‘जइसे-जइसे कमवा बढ़ी, तइसे-तइसे।’

‘बनिया का दुकान बूझा है का?’

‘नाहीं बाबा! राम-राम!’

‘त कवनो कर्जा खोज के देना है का?’

‘नाहीं बाबा।’

‘त हमारे पर विश्वास नइखै का?’

‘राम-राम! अपनहू से जियादा!’

‘तब्बो नौटंकी फइला रहा है!’ वह आँखें तरेर कर बोले, ‘फौजी पंडित का पांच लाख घोंटेगा और तीसो चालीस हजार खर्चने में फाट रहा है!’

‘बाबा जइसन हुकुम देईं।’

‘सबेरे दस हजार और दे जो!’ वह बोले, ‘फेर हम बताएंगे। बकिर बाकी पइसा भी तैयार रखना!’

‘ठीक बा बाबा!’ वह मन मार कर बोला।

‘और बात इधर-उधर मत करना।’

‘नाहीं-नाहीं। बिलकुल नाहीं।’

‘ठीक है त जो!’

‘बकिर बाबा काम हो जाई भला?’

‘काहें ना होई?’

‘मनो होई कइसे?’ वह थोड़ी थाह लेने की गरज से बोला।

‘इहै जान जाते घोड़न त पोलादन पासी काहें होते?’ वह थोड़ा मुसकुरा कर, थोड़ा इतरा कर बोले, ‘गणेश तिवारी हो जाते!’

‘राम-राम आप के हम कहाँ पाइब भला।’ वह उनके पांव पकड़ता हुआ बोला।

‘जो अब घरे!’ वह हंसते हुए बोले, ‘बुद्धि जेतना है, वोतने में ही रहो। जादा बुद्धि का घोड़ा मत दौड़ाओ!’ वह बोले, ‘आखि़र हम काहें ख़ातिर हैं?’

‘पालागी बाबा!’ कह कर वह गणेश तिवारी के पांव छूता हुआ चला गया।

दूसरे दिन सुबह फिर दस हजार रुपए ले कर वह आया तो गणेश तिवारी ने तीन चार सादे कागज पर उसके अंगूठे का निशान लगवा लिया।

वह फिर घर चला गया। धकधकाता दिल लिए। कि जाने का होगा। पैसा डूबेगा कि बचेगा।

हफ्ता, दो हफ्ता बीता। कुछ हुआ ही नहीं। वह गणेश तिवारी के पास जाता और आँखों-आँखों में प्रश्न फेंकता। तो उधर से गणेश तिवारी भी उसे आँखों-आँखों में ही जैसे तसल्ली देते। बोलते दोनों ही नहीं थे। गणेश तिवारी का तो नहीं पता पोलादन को, पर वह ख़ुद सुलगता रहता। मसोसता रहता कि काहें एतना पइसा दे दिया? काहें गणेश तिवारी जैसे ठग आदमी के फेर में पड़ गया? वह इसी उधेड़बुन में था कि एक रात गणेश तिवारी उसके घर आए। खुसुर-फुसुर किए और गाँव छोड़ कर कहीं चले गए। एही रात फौजी तिवारी के घर पुलिस ने छापा डाला और उनके दोनों बेटों सहित उन्हें थाने उठा ले गई दूसरे दिन ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने वह और उनके दोनों बेटे पेश किए गए। बड़ी दौड़ धूप की उनके नाते रिश्तेदारों, पट्टीदारों और शुभचिंतकों ने पर जमानत नहीं मिली। क्योंकि उन पर हरिजन ऐक्ट लग गया था। बड़े से बड़ा वकील कुछ नहीं कर पाया! कहा गया कि अब तो हाइकोर्ट से ही जमानत मिलेगी। और जाने जमानत मिलेगी कि सजा?

जेल जाते-जाते फौजी तिवारी रो पड़े। रोते-रोते बोले, ‘ई गणेश तिवारी गोहुवन सांप है। डंसा इसी ने है। पोलदना तो इस्तेमाल हुआ है औजार की तरह।’ फिर उन्होंने एक भद्दी सी गाली दी गणेश तिवारी को! बोले, ‘भोसड़ी वाले को पचीस हजार की दलाली नहीं दी तो इस कमीनगी पर उतर आया!’

‘त दे दिए होते दलाली!’ फौजी तिवारी का साला बोला, ‘हई दिन तो नहीं देखना पड़ता!’

‘अब का बताएं?’ कह कर फौजी तिवारी पहले मूछों में फिर फफक कर रो पड़े।

शाम हो गई थी सो उन्हें और उनके बेटों को पुलिस वाले पुलिस ट्रक में बिठा कर जेल की ओर चल दिए। इस पूरे प्रसंग में फौजी तिवारी टूटे हुए, रुआँसे और असहाय कुछ न कुछ बुदबुदाते रहे थे और उनके बेटे निःशब्द थे। लेकिन उनके चेहरों पर आग खौल रही थी और आँखों में शोला समाया हुआ था।

जो भी हो गाँव भर क्या पूरे जवार को जानते देर नहीं लगी कि यह सब गणेश तिवारी का किया धरा है। और इस बहाने गाँव जवार में एक बार फिर गणेश तिवारी का आतंक बरपा हो गया। किसी गुंडे या किसी आतंकवादी का आतंक क्या होता होगा जो गणेश तिवारी का आतंक होता था। जो आतंक वह खादी पहन कर, बिना अहिंसा के और ख़ूब मीठा बोल कर बरपाते थे।

इस या उस तरह लोग आतंक में जीते और गणेश तिवारी की विलेज बैरिस्टरी चलती रहती।

कई-कई बार वह इस सबके बावजूद निठल्ले हो जाते। लगन नहीं होती तो गाने का सट्टा भी नहीं होता। मुकदमे नहीं होते तो कचहरी भी क्या करते जा कर? या मुकदमे कभी-कभार कम भी पड़ जाते। तो वह एक ख़ास तकनीक अपनाते। पहले वह तड़ते कि किस-किस के बीच तनातनी चल रही है या तनातनी के आसार हैं या आसार हो सकते हैं। इसमें से किसी एक पक्ष से कई-कई बैठकी में मीठा-मीठा बोल कर, उसकी एक-एक नस तोल कर वह उसके मन की पूरी थाह लेते। कुछ ‘उत्प्रेरक’ शब्द उसके कान में अनायास भेजते। प्रतिक्रिया में वह दूसरे पक्ष के लिए अप्रिय शब्दों का जखीरा खोल बैठता, कुछ राज अपने विरोधी पक्ष का बता जाता और अंततः उसकी ऐसी तैसी करने लगता। फिर गणेश तिवारी जब देखते कि चिंगारी शोला बन गई है तब उसे बड़े ‘शांत’ ढंग से चुप कराते और उसे बड़े धीरज और ढाढ़स के साथ समझाते, ‘ऊ साला कुकुर है तो उससे कुकुर बन कर लड़ोगे का?’ वह उसे बिना मौका दिए कहते, ‘आदमी हो आदमी की तरह रहो। कुत्ते के साथ कुत्ता बनना ठीक है का?’

‘तो करें का?’ अगला खीझ कर कहता।

‘कुछ नहीं आदमी बने रहो। और आदमी के पास बुद्धि होती है, सो बुद्धि से काम लो!’

‘का करेंगे बुद्धि ले कर?’ अगला और बउराता।

‘बुद्धि का इस्तेमाल करो!’ वह उसे बड़े शांत ढंग से समझाते, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है? तुम खुद क्यों लड़ते हो?’

‘तो का चूड़ी पहन कर बैठ जाएं?’

‘नाहीं भाई, चूड़ी पहनने को कौन कह रहा है?’

‘तो?’

‘तो क्या!’ वह धीरे से बोलते, ‘ख़ुद लड़ने से अच्छा है कि उसी को लड़ा देते हैं।’

‘कैसे?’

‘कैसे का?’ वह पूछते, ‘एकदम बुरबक हो क्या?’ वह जोड़ते, ‘अरे कचहरी काहें बनी है! कर देते हैं एक ठो नालिश, दू ठो इस्तगासा!’

‘हो जाएगा!’ अगला खुशी से उछलता हुआ पूछता।

‘बिलकुल हो जाएगा।’ कह कर गणेश तिवारी दूसरे पक्ष को टोहते और उसके ख़िलाफ पहले पक्ष द्वारा की गई अप्रिय टिप्पणियों, खोले गए राज को बताते और जब दूसरा पक्ष भी आग बबूला होता तो उसे भी धीरज बंधाते। धीरज बंधाते-बंधाते उसे भी बताते कि, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है?’ वह कहते, ‘ऐसा करते हैं कि उसी को लड़ा देते हैं।’

अंततः दोनों पक्ष कचहरी जा कर भिड़ जाते बरास्ता गणेश तिवारी। कचहरी में उनका ‘ताव’ देखने लायक होता। सूट फाइल होने, काउंटर, रिज्वाइंडर में ही छ-आठ महीने गुजर जाते। साथ ही साथ दोनों पक्षों का जोश खरोश और ‘ताव’ भी उतर जाता। नौबत तारीख़ की आ जाती। और जैसा कि हमेशा कचहरियों में होता है न्याय कहिए, फैसला कहिए मिलता नहीं, तारीख़ ही मिलती है। और यह तारीख़ भी पाने के लिए पैसा खर्चना पड़ता। इस पर पक्ष या प्रतिपक्ष प्रतिवाद करता तो गणेश तिवारी बड़ी सफाई से उसे ‘राज’ की बात बताते कि, ‘अबकी की तारीख़ तुम्हारी तारीख़ है। तुम्हें मिली है। और तुम्हारी ही तारीख़ पर उसको भी आना पड़ेगा!’

‘और जो ऊ नहीं आया तो?’ अगला असमंजस में पड़ा पूछता।

‘आएगा न!’ वह बताते, ‘आख़िर गवर्मेंट की कचहरी की तारीख़ है। कैसे नहीं आएगा। और जो ऊ नहीं आएगा तो गवर्मेंट बंधवा कर बुलवाएगी। और नहीं कुछ तो उसका वकिलवा तो आएगा ही।’

‘आएगा न!’

‘बिलकुल आएगा!’ कह कर गणेश तिवारी उसे निश्चिंत करते। और भले ही जनरल डेट लगी हो तो भी गणेश तिवारी उसे उसकी तारीख़ बताते और उससे अपनी फीस वसूल लेते। यही काम और संवाद वह दूसरे पक्ष पर भी गांठते और उससे भी फीस वसूलते। दोनों पक्षों के वकीलों से कमीशन अलग वसूलते। कई बार मुवक्किल उनकी मौजूदगी में ही वकील को पैसा देता तो वह हालांकि अंगरेजी नहीं जानते थे तो भी मुवक्किल के सामने ट्वेंटी फाइव फिफ्टी, हंडरेड, टू हंडरेड, फाइव हंडरेड, थाउजेंड वगैरह जैसे उनकी जरूरत या रेशियो जो भी बनता बोल कर अपना कमीशन सुनिश्चित कर लेते। बाद में अगला पूछता कि, ‘वकील साहब से अऊर का बात हुई?’ तो वह बताते, ‘अरे कचहरी का ख़ास भाषा है, तू नहीं समझेगा।’ और हालत यह हो जाती कि जैसे-जैसे मुका्दमा पुराना पड़ता जाता दोनों पक्षों का ‘ताव’ टूटता जाता और वह ढीले पड़ते जाते। फिर एक दिन ऐसा आता कि कचहरी जाने के बजाय कचहरी का खर्चा लोग गणेश तिवारी के घर दे जाते। मुकदमा और पुराना होता तो दोनों पक्ष खुल्लमखुल्ला गणेश तिवारी को ‘खर्चा-बर्चा’ देने लगते और अंततः कचहरी में सिवाय तारीख़ों के कुछ मिलता नहीं सो दोनों पक्ष सुलह सफाई पर आ जाते और आखि़रकार एक सुलहनामा पर दोनों पक्ष दस्तखत करके मुकदमा उठा लेते। बहुत कम मुकदमे होते जो एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट, दूसरी कोर्ट से तीसरी कोर्ट तक पहुँच पाते। अमूमन तो तहसील में ही मामला ‘निपट’ जाता।

सौ दो सौ मुकदमों में से दस पांच ही जिला जज तक पहुँचते बरास्ता अपील वगैरह। और यहाँ से भी दो चार सौ मुकदमों में से दस पांच ही हाइकोर्ट का रुख़ कर पाते। अमूमन तो यहीं दफन हो जाते। फिर गणेश तिवारी जैसे लोग नए क्लाइंट की तलाश में निकल पड़ते। यह कहते हुए कि, ‘खुद लड़ने की क्या जरूरत है, उसी को लड़ा देते हैं।’ और ‘उसी को’ लड़ाने के फेर में आदमी खुद लड़ने लगता।

लेकिन गणेश तिवारी का यह नया शिकार पोलादन इस का अपवाद था। फौजी तिवारी को उसने सचमुच लड़ा दिया था क्योंकि गणेश तिवारी ने उसे हरिजन ऐक्ट का हथियार थमा दिया था। हरिजन ऐक्ट अब उनका नया अस्त्र था। और सचमुच वही हुआ जैसा कि गणेश तिवारी ने पोलादन से कहा था, ‘खेत बोए जरूर फौजी पंडित ने हैं पर काटोगे तुम।’ तो पोलादन ने वह खेत काटा, बाकायदा पुलिस की मौजूदगी में। खेत कटने तक फौजी तिवारी और उनके दोनों बेटे जमानत पर छूट कर आ गए थे पर मारे दहशत के वह खेत की ओर झाँकने भी नहीं गए। खेत कटता रहा। काटता रहा पोलादन खुद। दो चार लोगों ने फौजी तिवारी से आ कर खुसफुसा कर बताया भी कि, ‘खेतवा काटता बा!’ पर फौजी तिवारी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, न ही उन के बेटों ने।

इस पूरे प्रसंग पर लोक कवि ने एक गाना भी लिखा। गाना तो नहीं चला पर लोक कवि की पिटाई जरूर हो गई इस बुढ़ौती में। फौजी तिवारी के छोटे बेटे ने की पिटाई। वह भी फौज में था और गणेश तिवारी, पोलादन के हथियार हरिजन एक्ट ने उसकी फौजी नौकरी दांव पर लगा दी थी।

बहरहाल, जब खेत वगैरह कट कटा गया, पोलादन पासी का बाकायदा कब्जा हो हवा गया खेतों पर तो एक रात गणेश तिवारी खांसते-खंखारते पोलादन पासी के घर खुद पहुंचे। क्यों कि वह तो बुलाने पर भी उनके घर नहीं आता था। ख़ैर, वह पहुंचे और बात ही बात में दबी जबान से फौजी तिवारी मद में बाकी पैसों का जिक्र कर बैठे। तिस पर पोलादन ने दबी जबान नहीं, खुली जबान गणेश तिवारी से प्रतिवाद किया। बोला, ‘कइसन पइसा?’ उसने आँख तरेरी और जोड़ा, ‘बाबा चुपचाप बइठीं। नाई अब कानून हमहूँ जानि गइल हईं। कहीं आप के खि़लाफ भी कलक्टर साहब के अंगूठा लगा के दरखास दे देब त मारल फिरल जाई।’

सुन कर गणेश तिवारी का दिल धक् हो गया। आवाज मद्धिम हो गई। बोले, ‘राम-राम! ते त हमार चेला हऊवे! का बात करते हो। भुला जाओ पैसा वैसा!’ कह कर वह सिर पर पांव रख कर वहाँ से सरक लिए।

रास्ते भर वह सिर धुनते रहे। कि वह क्या करें? पर कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें। घर आए। ठीक से खाए भी नहीं। सोने गए तो पंडिताइन पैर दबाने लगीं। वह धीरे से बोले, ‘पैर नहीं, सिर में दर्द है।’ पंडिताइन सिर दबाने लगीं। सिर दबाते-दबाते दबी जबान पूछ बैठीं, ‘आखि़र का बात हो गइल?’

‘बात नाई बड़ा बात हो गइल!’ गणेश तिवारी बोले, ‘एक ठो भस्मासुर पैदा हो गइल हमसे!’

‘का कहत हईं?’

‘कुछ नाहीं। तू ना समझबू। दिक् मत करो। चुपचाप सुति जा!’

पंडिताइन मन मार कर सो गईं। लेकिन गणेश तिवारी की आँखों में नींद नहीं थी। वह लगातार सोचते रहे कि भस्मासुर बने पोलादन से कैसे निपटा जाए! भगवान शंकर जैसी मति या क्षमता तो नहीं थी उनमें पर विलेज बैरिस्टर तो वह थे ही। लेकिन अभी तो यही विलेज बैरिस्टरी उनकी दांव पर थी। उधर फौजी तिवारी के छोटे बेटे की फौज की नौकरी दांव पर थी। पोलादन पासी के हरिजन ऐक्ट के हथियार से। सो उन्होंने उसी को साधने की ठानी। गए उसके पास मौका देख कर। पर उसने गणेश तिवारी के मुंह पर थूक दिया और भद्दी-भद्दी गालियां दी। कहा कि नरक में भी ठिकाना नहीं मिलेगा। पर गणेश तिवारी ने उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं माना। उसका थूका थूक पोंछ लिया। बोले, ‘अब गलती हुई है तो प्रायश्चित भी करुंगा। और गलती करने पर छोटा भी बड़े को दंड दे सकता है। मैं दंड का भागी हूँ।’ वह बोली में और मिठास घोलते हुए बोले, ‘मैं अधम नीच हूँ ही इसी लायक! फिर भी तुम लोगों के साथ भारी अन्याय हुआ है। इंसाफ भी कराऊंगा मैं ही। आखि़र हमारा ख़ून हो तुम लोग। हम लोगों की नसों में आखि़र एक ही ख़ून दौड़ रहा है। अब यह थोड़ा मतिभ्रम होने से बदल तो जाएगा नहीं। और न ई चमारों-सियारों और पासियों-घासियों की कुटिलता से बदल जाएगा। रहेंगे तो हम एक ही ख़ून। वह बोले, ‘तो ख़ून तो बोलेगा न नाती!’ इस तरह अंततः फौजी तिवारी का छोटा बेटा भी गणेश तिवारी के इस ‘एक ही ख़ून’ के पैंतरे में फंस गया। भावुक हो गया। फिर गणेश तिवारी और उसकी छनने लगी। उम्र की दीवार तोड़ कर साथ-साथ घूमने लगे दोनों। गलबहियां डाले। पूरा गाँव अवाक था कि यह क्या हो रहा है? विचलित पोलादन पासी भी हुआ यह सब देख सुन कर। वह थोड़ा सतर्क भी हुआ यह सोच कर कि गणेश तिवारी कहीं पलट कर उसे डंस न लें। पर उसे फिर से हरिजन ऐक्ट, कलक्टर और पुलिस की याद आई। तो इस तरह हरिजन ऐक्ट के हथियार के गुमान में वह बेख़बर हो गया कि, ‘हमार का बिगाड़ लिहैं गणेश तिवारी!’

दिन कटते रहे। एक मौसम बदल कर दूसरा आ गया पर पोलादन पासी का गुमान नहीं गया। उन दिनों उसका बेटा बंबई से कमा कर लौटा था। बिटिया की शादी बदे। शादी की तैयारी चल रही थी। पोलादन की नतिनी अपनी सखियों के साथ फौजी तिवारी वाले उसी खेत की मेड़ पर गन्ना चूस रही थी कि फौजी तिवारी का छोटा बेटा उधर से गुजरा। उसे देख कर पोलादन की नतिनी ने ताना कसा, ‘रस्सी जरि गइल, अईंठ ना गइल!’

‘का बोलली?’ फौजी का बेटा कमर में बंधी लाइसेंसी रिवाल्वर निकाल कर हाथ में लेता हुआ भड़क कर बोला।

‘जवन तू सुनलऽ ए बाबा!’ पोलादन की नातिन ने उसी तंज में कहा और खिलखिला कर हंस पड़ी। साथ की उसकी सखियां भी हंसने लगीं।

‘तनी एक बार फिर से त कहु!’ फौजी तिवारी का बेटा फिर भड़कता हुआ उसी ऐंठ से बोला।

‘ई बंदूकिया में गोलियो बा कि बस खालिए भांजत हऊव ए बाबा!’

इतना सुनना था कि फौजी ने दौड़ कर पोलादन की नातिन को कस कर पकड़ लिया, ‘भागती काहें है? आव बताईं कि बंदूक में केतना गोली है!’ कह कर उसने वहीं खेत में लड़की को लिटा कर निर्वस्त्र कर दिया। बाकी लड़कियां भाग चलीं। पोलादन की नातिन बड़ा चीख़ी चिल्लाई, हाथ पैर फेंक कर बहुत बचाव किया पर बच नहीं पाई बेचारी। अंततः उसकी लाज लुट गई। फौजी तिवारी का बेटा उस की देह पर झुका अभी निढाल ही हुआ था कि पोलादन पासी, उसका बेटा और नाती लाठी, भाला ले कर चिल्लाते आते दिखे। उसने आव देखा न ताव बगल में पड़ी रिवाल्वर उठाई। रिवाल्वर उठाते ही लड़की सन्न हो गई। बुदबदाई ‘नाई बाबा, नाई, गोली नाहीं।’

‘चुप भोंसड़ी!’ कह कर फौजी के बेटे ने रिवाल्वर उसके सिर पर दे मारी, साथ ही निशाना साधा और नजदीक आते पोलादन, उसके बेटे, उसकी नाती पर बारी-बारी गोलियां दाग दीं। फौजी तिवारी का बेटा भी फौजी था सो निशाना अचूक था। तीनों वहीं ढेर हो गए।

अब तीनों की लहुलुहान लाश और निर्वस्त्र लड़की खेत में पड़ी थी। इन्हें कोई ढंक रहा था तो सिर्फ सूरज की रोशनी!

पूरे गाँव में सन्नाटा पसर गया। गाय, बैल, भैंस, बकरी सब के सब ख़ामोश थे। पेड़ों के पत्तों ने भी खड़खड़ाना बंद कर दिया था। हवा जैसे ठहर गई थी।

ख़ामोशी टूटी फौजी तिवारी की जीप की गड़गड़ाहट से। फौजी तिवारी उनके दोनों बेटे तथा परिवार की औरतों, बच्चों को ले कर घर में ताला लगा कर जीप में बैठ कर गाँव से बाहर निकल गए। साथ में पैसा, रुपया, जेवर-कपड़ा-लत्ता भी ले लिया। फौजी तिवारी के बेटे ने जैसे सब कुछ सोच लिया था। शहर पहुँच कर उसने अपने वकील से संपर्क किया। पूरा वाकया सही-सही बताया और वकील की राय पर दूसरे दिन कोर्ट में सरेंडर कर दिया।

उधर गाँव में पसरा सन्नाटा फिर पुलिस ने तोड़ा। फौजी तिवारी का घर तो भाग चुका था। पुलिस ने फिर भी ‘सुरागरशी’ की और गणेश तिवारी को धर लिया। लेकिन ‘हजूर-हजूर, माई-बाप’ बोल-बोल कर वह पुलिसिया मार पीट से अपने को बचाए रहे। और कुछ बोले नहीं। जानते थे कि थाने की पुलिस कुछ सुनने वाली नहीं है। हाँ, जब एस.एस.पी. आए तब वह उसके पैरों पर लोट गए। बोले, ‘हजूर आप तो जानते ही हैं कि हम गरीब गुरबा के साथी हैं।’ वह बोले, ‘ई पोलादन जी के साथ जब फौजी ने अन्याय किया था तब हम ही तो दरखास ले-ले आप हाकिमों के पास दौड़ रहे थे। और देखिए कि आज बेचारा ख़ानदान सहित मार दिया गया!’ कह कर वह रोने लगे। वह बोले, ‘हम तो उसके मददगार थे हजूर और दारोगा साहब हमहीं के बांध लिए हैं।’ कह कर वह फिर एस.एस.पी. के पैरों पर टोपी रख कर लेट गए।