लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 16 / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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लोक कवि ने दोनों की देह पर चादर डाला, जांघिया नहीं मिला तो अंगोछा लपेटा, कुरता पहना और कमरे का दरवाजा खोला। मीनू को देखते ही वह सन्न हो गए। बोले, ‘ई चेहरा कइसे सूज गया? कहीं चोट लगा है कि कहीं गिर गई?’

‘नहीं गुरु जी!’ कहते हुए मीनू रुआँसी हो गई।

‘तो कोई मारा है का?’

लोक कवि ने पूछा तो मीनू बोली नहीं पर सिर हिला कर स्वीकृति दी। तो लोक कवि बोले, ‘किसने? का तेरे मरद ने?’ मीनू अबकी फिर नहीं बोली, सिर भी नहीं हिलाया और फफक कर रोने लगी। रोते-रोते लोक कवि से लिपट गई। रोते-रोते बताया, ‘बहुत मारा।’

‘कौने बात पर?’

‘मुझे रंडी कहता है।’ वह बोली, ‘कहता है आप की रखैल हूँ।’ बोलते-बोलते उसका गला रूंध गया और वह फिर फफक कर रोने लगी।

‘बड़ा लंठ है।’ लोक कवि बिदकते हुए बोले। फिर उसके घावों को देखा, उसके बाल सहलाए, सांत्वना दी और कहा कि, ‘अब कोई दवा तो यहाँ है नहीं। घाव को शराब से धो देता हंू और तुम दू तीन पेग पी लो, दर्द कुछ कम हो जाएगा, नींद आ जाएगी। कल दिन में डाक्टर को दिखा देना। बहादुर को साथ ले लेना।’ वह बोले, ‘हम लोग तो सुबह गाड़ी पकड़ कर पोरोगराम में चले जाएंगे।’

‘मैं भी आप के साथ चलूँगी।’

‘अब ई सूजा हुआ यह फुटहा मुंह ले कर कहाँ चलोगी?’ लोक कवि बोले, ‘भद्द पिटेगी। यहीं आराम करो। पोरोगराम से वापिस आऊंगा तब बात करेंगे।’ कह कर वह शराब की बोतल उठा लाए और मीनू के घाव शराब से धोने लगे।

‘गुरु जी, अब मैं कुछ दिन यहीं रहूँगी, जब तक कोई और इंतजाम नहीं हो जाता।’ वह जरा दबी जबान बोली।

लोक कवि कुछ नहीं बोले। उसकी बात लगभग पी गए।

‘आप को कोई ऐतराज तो नहीं है गुरु जी।’

‘हम को काहें ऐतराज होगा?’ लोक कवि बोले, ‘ऐतराज तुम्हारे मर्द को होगा।’

‘ऊ तो हम को आप की रखैल कह ही रहा है।’

‘क्या बेवकूफी की बात कर रही हो?’

‘मैं कहती हूँ कि आप मुझ को अपनी रखैल बना लीजिए।’

‘दिमाग तुम्हारा ख़राब हो गया है।’

‘क्यों?’

‘क्यों क्या ऐसे हम किस-किस को रखैल बनाता फिरूंगा।’ वह बोले, ‘लखनऊ में रहता हूँ तो इस का का मतलब हम वाजिद अली शाह हूँ?’ वह बोले, ‘हरम थोड़े बनाना है। ऐसे आती-जाती रहो यही ठीक है। आज तुम को रख लूँ कल को यह दोनों जो लेटी हैं इन को रख लूँ परसों और रख लूँ फिर तो मैं बरबाद हो जाऊंगा। हम नवाब नहीं हूँ। मजूर हूँ। गा बजा के मजूरी करता हूँ। अपना पेट चलाता हूँ और तुम लोगों का भी। हाँ, थोड़ा मौज मजा भी कर लेता हूँ तो इस का मतलब ई थोड़े है कि....?’ सवाल अधूरा सुना कर लोक कवि चुप हो गए।

‘तो यहाँ नहीं रहने देंगे हम को?’ मीनू लगभग गिड़गिड़ाई।

‘रहने को कौन मना किया?’ वह बोले, ‘तुम तो रखैल बनने को कह रही थी।’

‘मैं नहीं गुरु जी मेरा मरद कहता है तो मैंने कहा कि रखैल बन ही जाऊं।’

‘फालतू बात छोड़ो।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ रोज यहाँ रह लो। फिर हो सके तो अपने मरद से पटरी बैठा लो नहीं कहीं और किराए पर कोठरी दिला दूँगा। सामान, बिस्तर करा दूँगा। पर यहाँ परमामिंट नहीं रहना है।’

‘ठीक है गुरु जी! जैसा आप कहें।’ मीनू बोली, ‘पर अब उस हरामी के पास मैं नहीं जाऊंगी।’

‘चलो सो जाओ! सुबह टेªन पकड़नी है।’ कह कर लोक कवि खुद बिस्तर पर लेट गए। बोले, ‘तुम भी यहीं कहीं लेट जाओ और बिजली बंद कर दो।’

लाइट बुझ गई लोक कवि के इस कैंप रेजीडेंस की।

यह कैंप रेजीडेंस लोक कवि ने अभी नया-नया बनाया था। क्यों कि वह गैराज अब उन के रहने और रिहर्सल दोनों काम के लायक नहीं रह गया था और घर पर जिस ‘स्टाइल’ और ‘शौक’ से वह रहते थे, रह नहीं सकते थे। और रिहर्सल तो बिलकुल ही संभव नहीं था सो उन्हों ने यह तिमंजिश्ला कैंप रेजीडेंस बनाया। नीचे का एक हिस्सा लोगों के आने-जाने, मिलने जुलने के लिए रखा। पहली मंजिश्ल रिहर्सल वगैरह के लिए और दूसरी मंजिश्ल पर अपने रहने का इंतजाम किया। जब यह कैंप रेजीडेंस उन्हों ने बनवाया तब मुस्तकिल देख रेख नहीं कर पाए। उन के लड़कों और चेलों ने इंतजाम देखा। कोई आर्किटेक्ट, इंजीनियर वगैरह भी नहीं रखा। बस जैसे-जैसे राज मिस्त्राी बताता-बनाता गया वैसे-वैसे ही बना यह कैंप रेजीडेंस। सौंदर्यबोध तो छोड़िए, कमरों और बाथरूम के साइज भी बिगड़ गए। ज्यादा से ज्यादा कमरा बनाने-निकालने के फेर में। सो सारा कुछ पहला तल्ला, दूसरा तल्ला में बिखर-बटुर कर रह गया। नक्शा बिगड़ गया मकान का। लोक कवि कहते भी कि, ‘इन बेवकूफाें के चलते पैसा माटी में मिल गया।’ पर अब जो था, सो था और इसी में काम चलाना था। लोक कवि बाहर आते जाते बहुत कुछ देख चुके थे। उसमें से बहुत कुछ वह अपने इस नए रेजीडेंस में देखना चाहते थे। जैसे कई होटलों में वह बाथटब का आनंद ले चुके थे, लेते ही रहते थे। चाहते थे कि यह बाथटब का आनंद वह अपने इस नए घर में भी लें। पर यह सपना उन का खंडित इस लिए हुआ कि बाथरूम इतने छोटे बने कि उसमें बाथटब की फिटिंग ही नहीं हो सकती थी। तो भी यह सपना उन का खंडित भले हुआ हो पर टूटा नहीं। अंततः वह बाथटब लाए और बाथरूम के बजाय उसे छत पर ही खुले में रखवा दिया। वह उसमें पहले पानी भरवाते पाइप से, फिर लेट जाते। लड़कियां या चेले या बहादुर या जो भी सुविधा से मिल जाए वह उसी में लेटे-लेटे उस से अपनी देह मलवाते। लड़कियां होतीं तो कई बार वह लड़कियों को भी उसमें खींच लेते और जल क्रीड़ा का आनंद लेते। कई बार रात में भी। इस ख़ातिर परदेदारी की गरज से उन्हों ने छत पर रंग बिरंगे परदे टंगवा दिए। लाल, हरे, नीले, पीले। ठीक वैसे ही जैसे कुछ होटलों के सामने विभिन्न रंग के झंडे टंगे होते हैं। पर यह सुरूर ज्यादा दिनों तक नहीं चला। वह जल्दी ही अपने देसीपन पर आ गए। और भरे बाथटब में भी बैठ कर लोटा-लोटा ऐसे नहाते गोया पानी बाथटब से नहीं बाल्टी से निकाल-निकाल नहा रहे हों। लेकिन यह सुरूर उतरते-उतरते उन्हें एक नया शौक चर्राया, धूप में छतरी के नीचे बैठने का। साल दो साल वह सिर्फ इस की चर्चा करते रहे और अंततः छतरी मय प्लास्टिक की मेज सहित ले आए। यह शौक भी अभी उतरा नहीं था कि पेजर का दौर आ गया। तो वह पेजर उन के कुछ बहुत काम का नहीं निकला। पर वह सबको बताते कि, ‘मेरे पास पेजर है। मेरा पेजर नंबर नोट कीजिए।’ पर अभी पेजर की खुमारी ठीक से चढ़ी भी नहीं थी कि मोबाइल फोन आ धमके। जहाँ-तहाँ वह इस की चर्चा सुनते। कहीं-कहीं देखते भी। अंततः एक रोज अपनी महफिल में इस का जिक्र वह छेड़ बैठे। बोले, ‘इ मोबाइल-फोबाइल का क्या चक्कर है?’ महफिल में दो तीन कलाकार भी बैठे थे। बोले, ‘गुरु जी ले लीजिए। बड़ा मजा रहेगा। जहाँ से चाहिए वहाँ से बात करिए। टेªन में, कार में। और जेश्ब में धरे रहिए। जब चाहिए बतियाइए, जब चाहिए काट दीजिए।’ इस महफिल में चेयरमैन साहब और वह ठाकुर पत्रकार भी जमे हुए थे। पर जितनी मुह उतनी बातें थीं। चेयरमैन साहब ‘मोबाइल-मोबाइल’ सुनते-सुनते उकता गए। लोक कवि से वह मुख़ातिब हुए। घूरते हुए बोले, ‘अब तुम मोबाइल लोगे? का यूज है तुम्हारे पास?’ वह बोले, ‘पइसा बहुत काटने लगा है का?’ पर लोक कवि चेयरमैन साहब की बात को सुन कर भी अनसुना कर गए। कुछ बोले नहीं। तो चेयरमैन साहब भी चुप लगा गए। ह्विस्की की चुस्की और सिगरेट के कश में गुम हो गए। लेकिन तरह-तरह के बखान, टिप्पणियां और मोबाइल के खर्चे की चर्चा चलती रही। पत्रकार ने एक सूचना दी कि, ‘बाकी खर्चे तो अपनी जगह। इसमें सबसे बड़ी आफत है कि जो फोन काल आते हैं उसका भी प्रति काल, प्रति मिनट के हिसाब से पैसा लगता है।’ सभी ने हाँ में हाँ मिलाई और इस इनकमिंग काल के खर्चे को सबने ऐसे व्याख्यायित किया गोया हिमालय सा बोझ हो। लोक कवि सबकी बात बड़े गशैर से सुन रहे थे। सुनते-सुनते अचानक वह उछल कर खड़े हो गए। हाथ कान पर ऐसे लगाया गोया हाथ में फोन हो और बच्चों का सा सुरूर और ललक भर कर बोले, ‘तो मैं न कुछ कहूँगा, न कुछ सुनूंगा। बस मोबाइल फोन पास धरे रहूँगा। फिर तो खर्चा नहीं बढ़ेगा न?’

‘मतलब न काल करोगे न काल सुनोगे?’ चेयरमैन साहब भड़क कर बोले, ‘तब का करने के लिए मोबाइल फोन रखोगे जी?’

‘सिर्फ एह मारे कि लोग जानें कि हमारे पास भी मोबाइल है। हमारा भी स्टेटस बना रहेगा। बस!’

‘धत चूतिए कहीं के।’ चेयरमैन साहब के इस संबोधन के साथ ही यह महफिल उखड़ गई थी। क्यों कि चेयरमैन साहब सिगरेट झाड़ते हुए उठ खड़े हुए थे और पत्रकार भी।

तो भी लोक कवि माने नहीं। मोबाइल फोन की उधेड़बुन में लगे रहे।

एक वकील का बिगड़ैल लड़का था अनूप। लड़कियों के फेर में वह लोक कवि के फेरे मारता रहता। बाहर की लड़कियों को वह लालच देता कि लोक कवि के यहाँ आर्टिस्ट बनवा देंगे और लोक कवि के यहाँ की लड़कियों को लालच देता कि टी.वी.आर्टिस्ट बनवा देंगे। इस ख़ातिर वह कुछ टेली फिल्म, टेली सीरियल बनाने का भी ढोंग फैलाए रहता। किराए पर कैमरा ले कर वह शूटिंग वगैरह का भी ताम-झाम जब तब फैलाए रहता। लोक कवि भी उसके इस ताम-झाम में फंसे हुए थे। दरअसल अनूप ने लोक कवि की एक नस पकड़ ली थी। लोक कवि जैसे शुरुआती दिनों में कैसेट मार्केट में आने के लिए परेशान, बेकरार, और तबाह थे ठीक वैसे ही अब के दिनों में उन की परेशानी सी.डी. और वीडियो एलबम की थी। इस बहाने वह विभिन्न टी.वी. चैनलों पर छा जाना चाहते थे। जैसे कि मान और दलेर मेंहदी सरीखे पंजाबी गायक उन दिनों विभिन्न एलबमों के मार्फत विभिन्न चैनलों पर छाए हुए थे। पर भोजपुरी की सीमा, उन का जुगाड़ और किस्मत तीनों ही उन का साथ नहीं दे रहे थे और वह मन ही मन छटपटाते और शांत नहीं हो पाते। क्यों कि सी.डी. और एलबम की द्रौपदी को वह हासिल नहीं कर पा रहे थे। खुल कर सार्वजनिक रूप से अपनी छटपटाहट भी दर्ज नहीं कर पा रहे थे। लोक कवि की इसी छटपटाहट को छांह दी थी अनूप ने।

अनूप जिसका बाप एडवोकेट पी.सी. वर्मा अपने जिले का मशहूर वकील था। और उसकी वकालत के एक नहीं कइयों किस्से थे। लेकिन एक ठकुराइन पर दफा 604 वाला किस्सा सभी किस्सों पर भारी था।

मुख़्तसर में यह कि एक गाँव की एक ठकुराइन भरी जवानी में विधवा हो गईं। बाल बच्चे भी नहीं थे। लेकिन जायदाद ज्यादा थी और सुंदरता भी भरपूर। उनकी पढ़ाई लिखाई हालांकि हाई स्कूल तक ही थी तो भी ससुराल और मायके में उनके बराबर पढ़ी कोई औरत उनके घर में नहीं थी। औरत तो औरत कोई पुरुष भी हाई स्कूल पास नहीं था।

सो ठकुराइन में अपने ज्यादा पढ़े लिखे होने का गुमान भी सिर चढ़ कर बोलता था। इस तरह सुंदर तो वह थीं ही तिस पर ‘पढ़ी लिखी’ भी। सो नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देतीं। लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि पति की दुर्घटना में मृत्यु हो जाने से वह जल्दी ही विधवा हो गईं। मातृत्व सुख भी उन्हें नहीं मिल पाया। शुरू में तो वह सुन्न पड़ी गुमसुम बनी रहीं। पर धीरे-धीरे उन का सुन्न टूटा तो उन्हें लगा कि उनके जेठ और देवर दोनों की नजर उनकी देह पर है। देवर तो मजाक ही मजाक में उन्हें कई बार धर दबोचता। उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता। वह अपनी मर्यादा में ही सही इसका विरोध करतीं। लेकिन मुखर नहीं होतीं। फिर एक दुपहरिया जब अचानक उनके कमरे में जेठ भी आ धमके तो वह खौल पड़ीं। हार कर वह चिल्ला पड़ीं और जेठानी को आवाज दी। जेठ पर घड़ों पानी पड़ गया था और वह ‘दुलहिन-दुलहिन’ बुदबुदाते हुए सरक लिए। जेठ तो मारे शर्म के सुधर गए पर देवर नहीं सुधरा। हार कर उन्होंने सास और जेठानी को यह समस्या बताई। जेठानी तो समझ गईं और अपने पति पर लगाम लगाई लेकिन सास ने घुड़प दिया और उल्टे उन्हीं पर चरित्रहीनता का लांछन लगा दिया। सास बोली, ‘एक बेटे को डायन बनके खा गई और बाकी दोनों को परी बन के मोह रही है। कुलटा, कुलच्छनी!’

ठकुराइन सकते में आ गईं। बात लेकिन थमी नहीं। बढ़ती गई। बाद के दिनों में खाने, पहनने, बोलने बतियाने में भी बेशऊरी और चरित्रहीनता छलकने के आरोप गाढ़े होने लगे। हार मान कर ठकुराइन ने अपने पिता और भाई को बुलवाया। बीच-बचाव रिश्तेदारों, पट्टीदारों ने भी किया-कराया। लेकिन वह जो कहते हैं कि, ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की।’ और आखि़रकार ठकुराइन ने एक बार फिर अपने पिता और भाई को बुलवाया। फिर जमीन जायदाद और मकान पर अपना कानूनी दावा ठोंक दिया।

अंततः पूरी जायदाद में तीसरा हिस्सा अपने नाम करवा कर वह अलग रहने लगीं। अब जेठ और देवर उनके खि़लाफ खुल करके सामने आ गए। उनको तरह-तरह से परेशान करते, अपमानित करते। लेकिन वह ख़ामोश रह कर सब कुछ पी जातीं। लेकिन एक दिन उन्हों ने ख़ामोशी तोड़ी और ऐसे तोड़ी की पूरा गाँव हैरान रह गया।

उन्होंने सारा शील-संकोच, परदा-लिहाज तोड़ा और अपने पति का कुर्ता पायजामा पहन लिया। अपने पति की लाइसेंसी दोनाली बंदूक जो अब उनके नाम स्थानांतरित हो चुकी थी, उठाई और घर से बाहर आ कर अपने जेठ और देवर को ललकार दिया। लेकिन जेठ, देवर घर से बाहर नहीं निकले घर में ही दुबके रहे। ठकुराइन का चीख़ना चिल्लाना सुन कर एक बार देवर तमतमा कर उठा भी पर माँ ने उसे हाथ जोड़ कर रोक लिया। बोलीं, ‘ऊ तो हाथी नीयर पगला गई है, कहीं गोली, वोली दाग देगी तो का होगा?’ देवर अफना कर रह गया। रह गया घर में ही।

ठकुराइन थोड़ी देर तक चीख़ती चिल्लाती रहीं, हाथ में दोनाली बंदूक लिए लहराती रहीं। पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। अवाक देखता रहा। पर जेठ-देवर, सास-जेठानी घर से बाहर नहीं निकले। घूंघट काढ़े कुछ बूढ़ी अधेड़ औरतों ने ठकुराइन को किसी तरह समझा बुझा कर घर के भीतर किया। कुर्ता पायजामा उतरवा कर फिर से साड़ी ब्लाउज पहनाया। शील-संकोच, मान-मर्यादा जैसी कुछ हिदायतें दीं। और यह हिदायतें जब ज्यादा हो गईं तो ठकुराइन बोलीं, ‘ई सब कुछ हमारे लिए ही है, उन लोगों के लिए कुछ नहीं?’ यह कह कर एक औरत के कंधे पर सिर रख कर वह फफक कर रो पड़ीं।

बाहर भीड़ छटने लगी। अंदर भले ठकुराइन रो पड़ी थीं पर बाहर एक बूढ़ा व्यक्ति लोगों से कह रहा था, ‘दुलहिन पर दुर्गा सवार हो गई हैं।’ जो भी हो अब ठकुराइन गाँव में ही नहीं जवार में भी ख़बर थीं। उनके कुर्ते पायजामे और बंदूक लहराने की चर्चा चहुंओर थी। मिर्च-मसाले के साथ।

दिन फिर धीरे-धीरे गुजरने लगे। अब ठकुराइन के जेठ देवर भी उनसे घबराते। और कहीं कोई मोर्चा नहीं बांधते। तो भी उनके दिल का दर्द अभी बाकी था। सास तो खुले आम कहती, ‘हमारे कलेजे पर लिट्टी ठोंक रही है।’ जेठ, देवर भी इस मर्म को समझते। फिर धीरे-धीरे ठकुराइन के खि़लाफ व्यूह रचने में वह लग गए। इस बार सीधे कुछ करने-करवाने के बजाय वाया-वाया खुराफात शुरू हुई। किसी छोटी जाति के व्यक्ति को ठकुराइन के खि़लाफ लगा देना, किसी पट्टीदार को भड़का देना आदि। ठकुराइन सब समझतीं पर पहले ही की तरह फिर बड़ी ख़ामोशी से सब कुछ टाल जातीं। लेकिन जब उनके हलवाहे को जेठ, देवर ने भड़काया तो वह एक बार फिर खौल गईं। लेकिन अब की पति का कुरता पायजामा नहीं पहना उन्होंने। न ही दोनाली बंदूक उठाई। अबकी वह कुछ ठोस कार्यवाई करना चाहती थीं।

लेकिन तभी उनके दुर्भाग्य ने उन्हें एक बार फिर घेर लिया।

घरके आँगन में धोया हुआ गेहूँ सुखवाने के लिए उन्होंने पसार रखा था। बाहर का दरवाजा किसी काम से खुला पड़ा रह गया था। कि तभी दो तीन बकरियां दौड़ती-उछलती घर में आ गईं। आँगन में पड़ा गेहूँ चबाने लगीं। ठकुराइन वैसे ही खौली हुई थीं, बकरियों को गेहूँ में मुंह डाले देखा तो भड़क गईं। घर में रखा एक डंडा उठाया बकरियों को मारने के लिए। बाकी बकरियां तो डंडा उठाते ही फुदक कर भाग गईं। लेकिन एक बकरी फंस गई। ठकुराइन ने सारा गुस्सा, सारा उबाल उसी बकरी पर उतार दिया। डंडे का प्रहार इतना जबरदस्त था कि वह बकरी बेचारी वहीं छटपटा कर छितरा गई। कुछ ही क्षणों में उसने सांस से भी छुट्टी ली और वहीं आँगन में दम तोड़ बैठी।

ठकुराइन डर गईं। माथा पकड़ कर बैठ गईं। पहली चिंता जीव हत्या की थी, इस अपराध बोध में इस पाप बोध में तो वह थीं ही दूसरी और कहीं बड़ी चिंता यह थी कि जाने किस की बकरी थी यह। और जिस भी किसी की बकरी होगी उसे जेठ, देवर चढ़ा भड़का कर जाने क्या-क्या करवाएंगे?

और उन का यह डर सचमुच सच साबित हुआ। यह बकरी एक खटिक की थी। उसने आसमान सिर पर उठा लिया। ठकुराइन समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें वह। क्योंकि वह खटिक अब छिटपुट गालियों पर भी उतर आया था। वह अपने जेठ और देवर से न तो हार मानना चाहती थीं न ही उन के सामने झुकने को तैयार थीं। मायके में भी बार-बार वह आँसू बहाते, शिकायत करते तंग हो गई थीं। सो हार मान कर उन्होंने घर में ताला लगाया और चुपचाप शहर का रास्ता पकड़ा। शहर पहुँच कर पता किया कि सबसे बड़ा वकील कौन है? फिर उस वकील के घर का पता लगा कर उसके घर पहुंची। सुंदर थीं ही सो घर में एंट्री पाने में मुश्किल नहीं हुई, न ही वकील से मिलने में। वकील के चैंबर में गईं तो कुछ लोग वहाँ और भी बैठे थे। सो वह थोड़ा संकोच घोलती हुई बोलीं, ‘माफ कीजिए मैं जरा प्राइवेट में बात करना चाहती हूँ।’ सुंदर और जवान स्त्री खुद ही प्राइवेट बात करना चाहते तो भला कौन पुरुष इंकार कर पाएगा? वकील साहब भी इंकार नहीं कर पाए। वहाँ बैठे बाकी लोगों को यथासंभव जल्दी-जल्दी निपटाया और जब सब लोग चैंबर से बाहर निकल गए तो उन्होंने मुंशी को बुला कर बता दिया कि, ‘थोड़ी देर तक किसी को भी अंदर नहीं आने देना।’ फिर ठकुराइन से वह बोले, ‘हाँ, बताइए मैडम!’ फिर मैडम ने बकरी वाली मुश्किल मय पट्टीदारी के लोगों द्वारा खटिक को चढ़ाने भड़काने के विस्तार से बताई और बोलीं, ‘जो भी पैसा खर्च होगा, मैं करूंगी।’ फिर वह हाथ जोड़ कर विनती करती हुई बोलीं, ‘लेकिन मुझे बचा लीजिए वकील साहब!’ फिर अपनी जगह से उठ कर वह उनके पास तक गईं और उनके पैर छूती हुई बोलीं, ‘मुझे बचा लीजिए।’ फिर जोड़ा, ‘किसी भी कीमत पर।’ वकील साहब ने मौका देख कर उनकी पीठ पर हाथ फेरा, सांत्वना दी और कहा, ‘घबराइए नहीं बैठिए, कुछ सोचता हूँ।’

फिर थोड़ी देर तक वह चिंतित मुद्रा में मौन रहे। माथे पर दो-चार बार हाथ फेरा। कानून की दो चार किताबें अलटीं-पलटीं और लगभग परेशान हो गए।

उन की परेशानी देख कर ठकुराइन बेकल हो गईं। बोलीं, ‘का नहीं बच पाऊंगी?’

‘आप जरा शांत बैठिए।’ कह कर वकील साहब ने अपनी पेशानी पर परेशानी की कुछ और रेखाएं गढ़ीं। फिर कुछ और कानूनी किताबें अलटीं-पलटीं। और जब उन्हें सामने बैठी मैडम की मूर्खता भरी गंभीरता पर पूरी तरह यकीन हो गया और यह भी कि अब चूकना नहीं चाहिए। माथे पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘दरअसल आपने किसी आदमी की हत्या की होती तो आसान था, बचा लेता। क्यों कि तब सिर्फ धारा 302 ही लगती। लेकिन आपने तो जीव हत्या कर दी है। सो मामला डबल हो गया है और 302 की बजाय मामला दफा 604 का हो गया है।’ वकील साहब थोड़ा और गंभीर हुए, ‘दिक्कत यही हो रही है तिस पर यह बकरी खटिक की है। और आप शायद नहीं जानतीं खटिक अनुसूचित जाति में आता है। सो एक पेंच यह भी पड़ेगा।’

ठकुराइन थोड़ा और घबराईं। बोलीं, ‘लेकिन हम तो आपका बड़ा नाम सुनी हूँ। तभी आप के पास आई हूँ।’ वह थोड़ा और खुलीं, ‘जो भी कीमत देनी होगी मैं दूंगी। खर्चा-बर्चा का आप फिकिर मत करिए, मैं सब करूंगी। चाहिए तो आप जज-वज सब सहेज लीजिए।’ वह लगभग घिघियाईं, ‘बस आप कइसो हमको बचा लीजिए। गाँव में हमारी बेइज्जती न हो, पट्टीदारों के आगे सिर न झुके।’

‘घबराइए नहीं।’ वकील साहब ने भरपूर सांत्वना देते हुए कहा, ‘अब आप हमारे पास इतने विश्वास से आई हैं तो कुछ तो करना ही पड़ेगा।’ वह निशाना और दुरुस्त करते हुए बोले, ‘अब समझिए कि अगर आप को नहीं बचा पाया तो हमारी वकालत तो बेकार हो गई। मेरी थू-थू होगी और मैं वकालत छोड़ दूँगा।’ वह बोले, ‘तो आप निश्चिंत रहिए मैं जी जान लगा दूँगा। आप को कुछ नहीं होगा। उलटे उस खटिक को ही फंसवा दूँगा। कि आखि़र उसकी बकरी आप के घर में घुसी कैसे? उसकी हिम्मत कैसे हुई एक शरीफ और इज्जतदार अकेली औरत के घर में बकरी घुसाने की।’

ठकुराइन वकील साहब के इस कहे पर बड़ी आश्वस्त हुईं। उनके चेहरे पर खुशी की कुछ रेखाएं खिलीं। वह बुदबुदाईं ‘आपकी बड़ी कृपा।’ फिर वकील साहब ने कुछ वाटर मार्क और वकालतनामा पर उनसे दस्तख़त करवाए। खटिक का और उनका पूरा पता लिखा। एक हजार रुपए फीस के वसूले। और बोले, ‘मैडम आप निश्चिंत हो जाइए। आप की इज्जत को संभालना अब हमारा काम है।’ उन्होंने एहतियात के तौर पर उनसे यह भी कह दिया, ‘आप इज्जतदार और प्रतिष्ठित औरत हैं सो आप को कचहरी, इजलास दौड़ने धूपने से भी छुट्टी दिलवा दूँगा जज साहब को दरख्वास्त दे कर। नाहक वहाँ आने से बेइज्जती होगी। आप बस यहाँ आ कर सीधे हमसे ही मिलती रहिएगा।’ फिर वकील साहब ने आगाह किया कि, ‘हमारे मुंशी या किसी जूनियर वकील से भी इस केस की चर्चा मत करिएगा। भूल कर भी नहीं। नहीं एक मुंह से दो मुंह, दो से चार, चार से चालीस मुंह बात फैलेगी। ख़ामख़ा जगहंसाई होगी और केस में भी नुकसान हो सकता है, हो जाए। सो ध्यान रखिएगा यह बात हमारे आप के बीच प्राइवेट ही रहे।’

ठकुराइन बिलकुल किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह वकील साहब की सारी बातें मान गईं। और निश्चिंत भाव से खुशी-खुशी गाँव लौट गईं। गाँव पहुँचने पर खटिक ने फिर हल्ला दंगा किया। पर दूसरे दिन पुलिस आई और उस खटिक को पकड़ ले गई। हुआ यह था कि वकील साहब ने ठकुराइन की ओर से पुलिस में खटिक के खि़लाफ एक अप्लीकेशन दे कर जान माल का ख़तरा बता दिया। और पुलिस वालों को पटा कर धारा 107 और 151 में खटिक को बंद करवा दिया। अपना ही एक जूनियर लगा कर उसे दूसरे दिन जमानत पर छुड़वा भी दिया। उसे कचहरी में अपने तख्ते पर बुलवाया। दो सौ रुपए दिए और अपनी बात समझाई।

खटिक गाँव में वापस गया और ठकुराइन से माफी माँगने की बात कही। ठकुराइन ने उलटे उसे झाड़ दिया। बोली, ‘जाओ कचहरी में नाक रगड़ो। माफी वहीं माँगो।’ ठकुराइन बिलकुल वीर रस में थीं। खटिक चला गया। लेकिन कुछ दिन बाद ही खटिक फिर भाव खाने लगा। ठकुराइन भाग कर शहर गईं। वकील से मिलीं उन्होंने फिर सांत्वना दी, फीस ली। बाद के दिनों में तो जैसे यह क्रम ही बन गया। खटिक ठकुराइन से कभी गिड़गिड़ाता, कभी भाव खा जाता। ठकुराइन फिर शहर जातीं और बात ख़त्म हो जाती। लेकिन कुछ दिनों में फिर उभर जाती। क्योंकि होता यह था कि ठकुराइन के खि़लाफ कोई मुकदमा तो वास्तव में था नहीं लेकिन खटिक के खि़लाफ 107 व 151 का मुकदमा तो था ही। सो वह पेशी पर शहर जाता, वकील से मिलता, सौ पचास रुपए लेता और वकील के कहे मुताबिक गाँव में ‘ऐक्ट’ करता। कभी कहता कि, ‘अब कि तो मैं फंस गया। लगता है मुकदमा हमारे उलटा जाएगा।’ तो कभी कहता, ‘अब तो ठकुराइन बच नहीं पाएंगी। सजा इन्हीं को होगी।’ क्योंकि वकील साहब के यहाँ से ऐसा ही कुछ कहने का निर्देश होता। जब जैसा निर्देश होता खटिक वैसा ही गाँव में आ कर ऐक्ट करता। ठकुराइन के जेठ, देवर, सास भी मामले की तह में गए बिना ठकुराइन की दुर्दशा का आनंद लेते।

ठकुराइन का अब शहर जाना भी बढ़ने लगा था। वकील साहब उनसे फीस तो ले ही रहे थे। डोरे भी डाल रहे थे। ठकुराइन को यह सब ठीक नहीं लगता। लेकिन गाँव में उनकी इज्जत वकील साहब बचाए हुए थे सो वह इसे अनचाहे ही सही शुरू-शुरू में बर्दाश्त करती रहीं। लेकिन बाद में उन्हें भी यह सब ठीक लगने लगा। वकील साहब की पुरुष गंध में भी वह बहकने लगीं। शुरू-शुरू में तो वकील साहब के चैम्बर में ही प्राइवेट बातचीत के दौरान नैन मटक्का करतीं, उनके घर में ही ठहरतीं। लेकिन बाद में वकील साहब के ही घर में महाभारत मचने लगी। वो कहते हैं न कि लहसुन का खाना और पर नारी की सोहबत छुपाए नहीं छुपती सो बात धीरे-धीरे खुलने लगी थी। क्योंकि ठकुराइन पहले तो सिर्फ मुवक्किल थीं, बाद में ख़ास मुवक्किल बनीं और फिर अचानक एकदम ख़ास बन गईं वकील साहब की। हालांकि देह की सांकल ठकुराइन ने वकील साहब के लिए नहीं खोली थी पर आँखों से होते हुए मन की सांकल तक तो वकील साहब आ ही गए थे, यह बात ठकुराइन भी जान गई थीं। वकील साहब के साथ सिनेमा-विनेमा, चाट, पकौड़ी भी वह करने लगी थीं। लेकिन बाद में वकील साहब के घर में झंझट जब ज्यादा शुरू हो गई तो वकील साहब उन्हें एक होटल में ठहराने लगे। कभी-कभार होटल पहुँच कर हाल चाल भी वह ले लेते। लेकिन जल्दी ही मुख्य हाल चाल पर आ गए और ठकुराइन की मीठी-मीठी ना नुकुर के बावजूद उन्होंने उनकी देहबंध को आखि़र लांघ लिया। अब कई बार वकील साहब होटल में ही ठकुराइन के साथ दिन रंगीन कर लेते। लेकिन होटल में कई बार असुविधा होती सो उन्होंने ठकुराइन को शहर में ही घर ख़रीदने की राय दी। ठकुराइन ने घर ख़रीदा तो नहीं पर एक इंडिपेंडेंट घर किराए पर ले लिया। यह कह कर कि बाद में ख़रीद भी लूँगी। बाद में उन्होंने आवास विकास परिषद का एक एम.आई.जी. मकान ख़रीदा भी। इस बीच दो तीन बार एबॉर्शन की भी दिक्कत उठानी पड़ी ठकुराइन को। अंततः वकील साहब ने एक प्राइवेट डाक्टर से उन्हें कापर टी लगवा दिया। अब कोई दिक्कत नहीं थी। वकील साहब गाँव में ठकुराइन की इज्जत बचाने की फीस धन और देह दोनों में वसूल रहे थे। सिलसिला चलता रहा। खटिक का 107 और 151 का मुकदमा कब का ख़त्म हो गया था लेकिन ठकुराइन के खि़लाफ दफा 604 का मुकदमा ख़त्म नहीं हो रहा था।

लेकिन ठकुराइन को इसकी फिकर नहीं थी।

वह तो आकंठ वकील साहब को जी रही थीं। हाँ, वकील साहब उन्हें जरूर नहीं जी रहे थे, वह तो भोग रहे थे। कभी-कभी किसी बात पर दोनों के बीच खटपट भी होती। लेकिन कुछ ही दिनों की तनातनी के बाद वकील साहब उन्हें ‘मना’ लेते। हालांकि तनातनी के दिनों ठकुराइन गाँव चली जातीं। खेती बारी बटाई पर दे रखी थी। हिस्से में जो अनाज मिलता उसको बेच बाच कर खर्च चलातीं। कुछ भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करती रहतीं। धीरे-धीरे समय बीतता गया। ठकुराइन भले देह सुख में डूब कुछ देखती सुनती नहीं थीं। पर लोग सब कुछ देख सुन रहे थे। गाँव में जिस इज्जत बचाने के फेर में वह इस फांस में फंसी थीं वहाँ भी लोग दबी जबान और छुपे कान से ही सही जान चले थे कि जेठ, देवर को धूल चटाने वाली ठकुराइन शहर में एक वकील की रखैल बन गई हैं। बात ठकुराइन के मायके तक भी पहुंची। उनके भाई ने एकाध बार ऐतराज भी जताया पर बाद के दिनों में वह सिंगापुर चला गया कमाने। पिता का निधन हो गया। देवर, जेठ को वह मक्खी-मच्छर बराबर भी नहीं समझती थीं। गाँव में ज्यादातर रहती नहीं थीं कि ताना सुनें। दूसरे, घर में कामधाम करने वाले, देखभाल करने वालों को पैसा, अनाज की मदद दे कर इतना उपकृत किए रहतीं कि वह होठ खोलना तो दूर डट कर आँख मूंद जाते। और जो कोई ठकुराइन की अनुपस्थिति में कभी कभार इन आदमियों से चर्चा चलाता भी तो ये सब तरेर देते। कहते, ‘ठकुराइन मलकिन पर अइसन लांछन की बात हमारे सामने करना भर मत। नहीं, जीभ खींच लूँगा।’