लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 20 / दयानंद पाण्डेय

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‘तो का कलक्टर की नौकरी दिलवाता?’ लोक कवि बोले, ‘एह बेरोजगारी में इहो नौकरी एह नचनिया गवैया को मिल गई ई का कम है। नहीं हमारे मर जाने के बाद साला भूखों मरेगा ई चिंता तो नहीं रहेगी। इसका परिवार तो कट में नहीं रहेगा!’

लोक कवि का लड़का पहले लोक कवि के ही चेलों की टीम में जब तब गाता। पर बाद में जब सब कर धर कर वह हार गए और लड़का फिर भी नहीं माना तो वह बोले, ‘हमारे चेलों की नौकरी बजाता है? चलो अपनी टीम में गाओ बजाओ।’ तो वह लोक कवि की ही टीम में गाने बजाने लगा। पर बाद में गाने बजाने में कम टीम की मैनेजरी के काम में उसका मन ज्यादा लगने लगा। लड़कियों की छांट बीन में भी वह लगा। कई बार तो क्या होने लगा कि एक ही लड़की पर बाप बेटे दोनों रियाज मारने लगते। पर दोनों एक दूसरे से छुप-छुपा कर। लड़की भी बाप से पैसे ऐंठती और बेटे की जवानी भोगती। यह चर्चा भी अब कलाकारों के बीच आम हो गई थी। पर लोक कवि और उनका बेटा इन बातों पर कान नहीं देते या जान बूझ कर शुतुरमुर्ग बन रेत में सिर छुपा लेते।

कोई भी लोक कवि या उनके बेटे पर लगाम लगाने की बात करते भी डरता था। बात करे तो टीम से बाहर। इसलिए सब चुप-चुप रहते और चेयरमैन साहब की याद करते और कहते, ‘चेयरमैन साहब जो जीते होते तो वह यह अनीति रोक सकते थे।’

अब के दिनों में होने यह भी लगा कि टीम की मैनेजरी के रुतबे में लोक कवि का लड़का कलाकारों के साथ मनमानी और बदसुलूकी पर भी आ गया था। धीरे-धीरे बात इतनी विस्फोटक स्थिति में आ पहुंची कि कलाकारों ने लगभग बगशवत कर एक यूनियन बना ली। घंटे और किलोमीटर के हिसाब से वह मेहनताना माँगने लगे। लोक कवि का दिमाग घूम गया। वह समझ गए कि असंतोष को अगर तुरंत नहीं दबाया किसी तरकीब से तो धंधा तो चौपट! ऐसे समय पर उन्हें चेयरमैन साहब की याद बहुत आई कि वह होते तो कुछ तरकीब जरूर भिंड़ाते और कुछ नहीं होता। फिर भी लोक कवि ने हार नहीं मानी। बातचीत के लिए दो तीन कलाकारों को बुलाया। पूछा कि, ‘मेरी टीम में रह कर महीने में नहीं-नहीं तो पांच सात हजार रुपए औसत तो कमा ही लेते हो?’

‘हाँ, यह तो है।’’ तीनों एक साथ बोले।

‘अभी दो महीने बाद बिदेसी दौरे पर निकलना है। वहाँ पोरोगराम करने, आने जाने में दस बारह दिन लगेंगे। और रुपए मिलेंगे सिर्फ बीस-बीस, पचीस-पचीस हजार तब भी चलोगे तुम लोग?’

‘बिलकुल गुरु जी!’

‘चुप्प भोसड़ी वालों।’

‘का हुआ गुरु जी?’

‘अरे जो तुम लोगों ने किलोमीटर, घंटे वाला रेट लगाया है उसके हिसाब से तो एक लाख से भी ज्यादा रुपए तुम लोगों को मुझे देना चाहिए। और एतना तो हम दे नहीं पाऊंगा।’ वह बोले कि, ‘जहाज का टिकट भी कटाऊं, वहाँ रहने, खाने, घूमने का बंदोबस्त भी करूं। तब तो डेढ़ लाख दो लाख में भी एक कलाकार मैं वहाँ नहीं ले जा पाऊंगा!’ वह बिगड़े, ‘मतलब पोरोगराम बंद कर दूं और तुम लोगों की गांड़ पर लात मार कर भगा दूं यहाँ से।’

‘नहीं गुरु जी!’

‘तो?’

‘अब आप ही बताइए!’

‘मैं कुछ नहीं बताऊंगा।’ वह बोले, ‘तुम लोग खुद सोच लो! मेरा क्या मैं तो ढपली बजा कर अकेले ही बिरहा गा लूँगा। तुम लोग अपनी रोजी रोटी की सोच लो!’

‘गलती हो गई गुरु जी! कह कर सब लोक कवि के चरणों में गिर पड़े। लोक कवि ने तीनों की पीठ थपथपाई। बोले, ‘चलो भगवान सद्बुद्धि दे तुम लोगों को। और तुम लोगों की तरह औरों को भी!’

‘जी गुरु जी!’ वह सब विनयवत बोले।

‘तुम्हीं लोग सोचो कि मैंने कितना संघर्ष और जोड़ जोगाड़ के बाद थोड़ा सा नाम दाम कमाया है, टीम खड़ी की है।’ वह बोले, ‘हम लोग कलाकार हैं, सूदखोर नहीं कि दिन के हिसाब से, घंटा और किलोमीटर के हिसाब से पैसा तय करें।’ वह बोले, ‘यह तो किसी भी कला में संभव नहीं है। बड़े-बड़े भी भले पैसा ज्यादा लेते हैं। पर खुल्लमखुल्ला ऐसा नहीं करते!’ लोक कवि पलटते हुए बोले, ‘ई कौन तुम लोगों की बुद्धि ख़राब कर रहा है? तुम लोगों के कलाकार को मार रहा है?’ तीनों इस पर कुछ नहीं बोले। एक चुप तो हजार चुप। अंततः लोक कवि ने ही ख़ामोशी तोड़ी। बोले, ‘घर जाओ। ठंडे दिमाग से सोचो। फिर बताओ!’

तीनों चले गए।

लोक कवि यह तो जान गए कि यूनियन की नींव में यही तीनों हैं पर चुपचाप नहीं बैठे। साम-दाम, दंड, भेद सभी उपाय लगाए और चार दिन में ही यूनियन को चित्त कर इन तीनों को टीम से बाहर कर दिया।

बात ख़त्म हो गई थी। पर लोक कवि निश्चिंत नहीं हुए। और चौकन्ने हो गए। बेटे को हालां कि टीम मैनेजरी से तुरंत नहीं हटाया। बोले, ‘गलत संदेश हो जाएगा। सब समझेंगे कि उन की खुराफात से डर गया हूँ।’ पर धीरे-धीरे बेटे को टीम मैनेजरी से यह कहते हुए अलग किया कि, ‘नौजवान हो, कलाकारी चमकाओ अपनी। रिहर्सल रियाज करो। स्टेज पर आओ, गाओ बजाओ!’ लड़का बेमन से ही सही पर मान गया। उसकी बादशाही धीरे-धीरे लद गई। हालांकि लोक कवि डरे हुए थे कि कहीं बेटा ही न बगशवत कर दे। जैसे अकबर के साथ सलीम ने किया था। यह बात वह खुद कहते अपने संगी साथियों से।

बाद के दिनों में उन्हों ने साथी कलाकारों को मेढकों की तरह ऐसे तौला, ऐसे चढ़ाया उतारा, ऊपर नीचे किया, पेमेंट से ले कर प्रोग्राम तक ऐसे काटा छांटा कि सभी सामान्य बन कर रह गए। कोई स्टार कलाकार, स्टार डांसर नहीं रह गया। एकाध पुराने ‘स्टार’ लोक कवि से बुदबुदाते भी कि, ‘गुरु जी अब टीम में कोई स्टार नहीं, कोई स्टार होना चाहिए!’

‘क्यों मैं स्टार नहीं हूँ?’ वह कहते, ‘अब टीम में एक ही स्टार रहेगा और वह मैं रहूँगा।’ वह जोड़ते कि, ‘क्या चाहते हो कि आज स्टार बना दूं, कल को ये यूनियन बना लंे और परसों टीम को में गोमती में बहा दूं? आखि़र सब की रोजी चलानी है, अपना नाम चलाना है। ई सब कुछ डुबोना थोड़े ही है!’

‘तो अब गुरु जी आप पहले की तरह फिर से गाना गाना शुरू कर दीजिए।’ कोई पुराना चेला यह कह कर लोक कवि को आइना दिखाते, चिकोटी काटते हुए उन्हें जैसे उन की औकात बताने की कोशिश करता।

‘हे साले मैं नहीं गाता तो तुम पैदा कैसे हुए?’ उसके तंज को मजाक में घोलते हुए जैसे उसे जूता मारते, ‘क्या तुम्हारे बाप ने तुम्हें पैदा किया?’ वह जरा रुकते उसके चेहरे का भाव पढ़ते कि जूता पूरा पड़ा है कि नहीं? फिर आहिस्ता से बोलते, ‘गायकी में किसने पैदा किया है तुम्हें?’

‘आप ने गुरु जी।’ चेला हार कर अपमान पीता हुआ बोलता।

‘तो अब हम को गाना गाना चाहिए तुम बताओगे?’

‘नहीं, गुरु जी!’

‘अरे, अब पोरोगराम में सब भड़ुवे लौंडियों की कुल्हा मटकाई और छातियों के उभार को देखने आते हैं तो वहाँ मैं का गाना गाऊं? कोई सुनेगा भला?’ वह बोलते, ‘लेकिन साल में चार-छ ठो कैसेट आते हैं उनमें तो गाता हूँ। उन्हीं गानों को किसी और से हिंदी में लिखवा कर गोविंदा जैसा हीरो सुन कर नाचता है तो ई का है? अरे ससुरे समझो कि मैं ही गाता हूँ। पर तुम लोग साले शोर मचा दिए हो कि गुरु जी अब नहीं गाते!’ वह दहाड़े, ‘कैसे नहीं गाता हूँ!’

‘तो गुरु जी आप का वीडियो एलबम या सीडी क्यों नहीं है मार्केट में?’ सुन कर क्षण भर के लिए निरुत्तर हो जाते लोक कवि। लेकिन दूसरे ही क्षण बोलते, ‘इस लिए कि हम अमीरों के लिए नहीं, गश्रीबों के लिए गाता हूँ। क्यों कि भोजपुरी गश्रीबों की भाषा है। और गश्रीब सी.डी., वीडियो नहीं देखता, सुनता।’ फिर वह धीरे से कहते, ‘लेकिन घबराओ नहीं अनुपवा लगा है। कुछ करेगा।’

‘लेकिन कब?’

‘अब देखो कब करता है?’ कहते हुए लोक कवि लगभग हताश हो जाते।

‘ऊ अनुपवा चार सौ बीस के चक्कर से छुट्टी ले लीजिए गुरु जी!’

‘काहें?’

‘आप को बिकवा देगा।’ कोई चेला बोलता, ‘ऊ आप को बेच रहा है।’

‘बहुत लोग बेच चुके हम को। लेकिन हम नहीं बिके।’ वह कहते, ‘थोड़ा उसको भी बेच लेने दो।’ कह कर वह बइठकी बर्खास्त कर देते।

पर उन की चिंताएं बर्खास्त नहीं होतीं। सच यही था कि उन का नाम भोजपुरी गायकी में अभी भी शिखर पर था। आस पास तो छोड़िए कोई दूर दराज तक उन की लोकप्रियता को छूता दिखाई नहीं देता था। तो भी उन की गायकी पर अब पूर्ण विराम न सही, विराम तो लग ही गया था। यह सचाई वह भी महसूस करने लगे थे। फिर बिहार में पैदा हुआ बनारस में पढ़ा लिखा एक ब्राह्मण गायक बड़ी तेजी से भोजपुरी गायकी में बढ़त ले रहा था। वह लड़कियों को अपने कार्यक्रम में नहीं नचाता था और अकेले ही गाता था, उसकी आवाज में भी भोजपुरी वाली मिठास बसी थी, पर वह देवी गीतों, फिल्मी पैरोडियों पर जरा ज्यादा ही आश्रित था सो लोक कवि उस से ज्यादा ¯चतित नहीं रहते पर निश्चिंत भी नहीं थे। कोई इस बात को छेड़ता तो लोक कवि कहते, ‘बहुत भंवर हमारी राह में आए और देखते-देखते नदी में विलीन हो गए। कुछ नहीं हुआ हमारा।’ वह कहते, ‘ई नहीं कि भोजपुरी गाना हम से अच्छा गाने वाले लोग नहीं हैं, हम से बहुत अच्छा गाने वाले भी थे, अभी भी कुछ जिंदा हैं, पर मार्केट ने उन को रिजेक्ट कर दिया। पर हम बरसों से मार्केट में हूँ। तो ई भगवान की बड़ी कृपा है। बाकी भोजपुरिहों का प्रेम है। जो हमारा गाया गाना सुनते हैं।’ वह ‘नथुनिया पे गोली मारे’ गीत का जिक्र करते। कहते, ‘जवानी में हमने ई गाना गाया था, हमारे एक पुराने कैसेट में मिल भी जाएगा। लेकिन पटना के एक गायक ने कुछ साल पहले यही गाना चोरी करके ‘फास्ट’ करके गा दिया। मार्केट में उठ गया ई गाना। हमारी तो नींद हराम हो गई। एतना उठा ई गाना कि हमरै गाना, हमारी नींद उड़ा गया। लगा कि अब मैं मार्केट से आउट हो गया। पर लाज बच गई ऐसा नहीं हुआ। भगवान की कृपा। पर एही गाना ‘अंखियों से गोली मारे’ बनि के गोविंदा पर नाच गया। अब कहाँ है ऊ पटना वाला गायक कोई जानता है?’ लोक कवि कहते, ‘पर मैं तो कहीं नहीं गया। खड़ा हूँ आप के सामने।’ हाँ, लोक कवि को इस बात पर मलाल जरूर बना रहता कि वह मार्केट में तो हैं पर गाने में नहीं।

दिल्ली में एक पत्रकार उन से पूछ भी रहा है कि, ‘आप अब गाते क्यों नहीं?’

‘गाता तो हूँ?’ लोक कवि जवाब देते हैं, ‘अभी इसी रात आप के सामने गाया हूँ।’

‘वह तो पुराना गाना गाया आप ने। और आप ने कम आप की टीम के लोगों ने ज्यादा गाया।’

‘तो आप इंटरव्यू हम से क्यों ले रहे हैं? टीम से लीजिए न।’

‘इस लिए इंटरव्यू ले रहा हूँ कि आप अपनी टीम में भी बड़े गायक हैं।’

‘मानते हैं आप बड़ा गायक?’ लोक कवि हाथ जोड़ कर प्रति प्रश्न करते हुए कहते हैं, ‘चलिए आप की बड़ी कृपा!’

‘हाँ, तो आप से मैं पूछ रहा था कि अब आप गाते क्यों नहीं हैं?’

‘गाता हूँ!’ लोक कवि गंभीर हुए हैं और बोले हैं, ‘गाता हूँ पर वहाँ जहाँ हमें ठीक से सुना जाता है।’

‘कहाँ ठीक से सुना जाता है आप को?’

‘बिदेस में, कैसेटों में, आकाशवाणी, दूरदर्शन और सरकारी पोरोगरामों में। जहाँ दो चार गाने ही गाने होते हैं।’ लोक कवि हताश मन से लेकिन उत्साहित स्वर में कहते हैं। फिर थोड़ी तल्ख़ी घोलते हुए कहते हैं, ‘लेकिन वीडियो अलबम और सीडी में नहीं गाता!’ और जैसे जोड़ते हैं, ‘गरीब मजूर की भाषा का गायक हूँ न!’

‘ख़ैर बात मैं मंचों की कर रहा था कि पहले तो आप ऐसे मंचों पर भी बहुत गाते थे। जनता जनार्दन के गायक आप हैं ही। शायद इसीलिए आपको लोक कवि नाम भी दिया गया।’

‘ठीक कह रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘आप विद्वान आदमी हैं, सब जानते हैं।’

‘लेकिन यह मैं नहीं जान पा रहा हूँ कि आप अब जनता जनार्दन के मंचों पर क्यों नहीं गाते? आप खुद बताएंगे?’

‘जवाब बहुत मुश्किल है।’ लोक कवि कहते हैं, ‘जवाब दे सकता हूँ पर माफ कीजिए मेरा जवाब देना इस मसले पर ठीक नहीं होगा!’ वह कहने लगे, ‘भोजपुरी समाज को ही यह जवाब ढूंढ़ने दीजिए।’ फिर वह जोड़ते हैं, ‘हालांकि इसकी भी किसे फुर्सत है?’

इंटरव्यू ख़त्म कर लखनऊ वापस जाने के लिए लोक कवि मय अपनी टीम के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हैं। वह सोच रहे हैं कि लड़कियों का डांस कितना भारी पड़ रहा है उनको? पहले तो पोरोगरामों में लड़कियों का डांस दो वजहों से रखते थे। एक तो खुद को सुस्ताने के लिए दूसरे, पोरोगराम को थोड़ा ग्लैमर देने के लिए। पर अब? अब तो लड़कियां जब सुस्ताती हैं तो लोक कवि को गा लेने का मौका मिलता है। पहले लड़कियां फिलर थीं, अब वह खुद फिलर हो गए हैं। उनका मन होता है कि गाएं, ‘आव चलीं, ददरी क मेला आ हो धाना!’ और उन्हें बरबस धाना की याद आ जाती है। पर आयोजक बब्बन यादव जो लोक कवि के जनपद के ही हैं दिल्ली में ठेकेदारी और लीडरी दोनों करते हैं साथ ही खड़े हैं। कार्यक्रम की सफलता से पागल हैं। स्टेशन पर वह भी हैं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं है। चार छ पेग दारू भी उनकी देह में है। सो सफलता का उत्साह पूरे ज्वार में है। वह भीड़ भरे स्टेशन पर अकेले चिल्ला कर अचानक उदघोष करते हैं, ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ वह दो चार बार ऐसे ही जिदाबाद चिल्लाने के तुरंत बाद लोक कवि के कान में फुसफुसाते हैं, ‘लेकिन पिंकी कहाँ है?’ लोक कवि बब्बन यादव का फुसफुसाना पी जाते हैं और साथी कलाकारों को आँखों-आँखों में इशारा करते हैं कि पिंकी को ट्रेन में कहीं, या भीड़ में कहीं छुपा दिया जाए। ट्रेन प्लेटफार्म पर आ कर लग भी गई है। लेकिन लोक कवि विचलित से प्लेटफार्म पर खड़े हैं कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। पिंकी को ले कर।

पिंकी लोक कवि के टीम की नई डांसर है। युवा है, कमसिन है और सेक्सी डांस में निपुण। उसकी इसी निपुणता से बब्बन यादव घायल हैं और बउराए हुए हैं। वह एक साथ दहाड़ और फुसफुसा दोनों रहे हैं, ‘लोक कवि की जय हो! लेकिन पिंकी कहाँ है?’

लोक कवि स्तब्ध हैं, क्षुब्ध भी। साथ ही शर्म में डुबे हुए भी। सोचते हैं कि जो वह पत्रकार यहाँ इस नई दिल्ली स्टेशन पर मिल जाता तो उसे बुला कर वह यह मंजर दिखाते कि, ‘लोक कवि जिंदाबाद! लेकिन पिंकी कहाँ है?’ और बताते कि वह अब क्यों नहीं गाते हैं?

बब्बन यादव जैसे लोग उन्हें गाने देते हैं कहीं?

यह सोच कर वह शर्म से सिर और नीचे कर लेते हैं। लेकिन बब्बन यादव का नारा और फुसफुसाना चालू है, ‘लोक कवि जिंदाबाद! लेकिन पिंकी कहाँ है?’

लोग आते जाते चौंक कर बब्बन यादव और लोक कवि को देख भी लेते हैं। लेकिन लोक कवि खुद से ही यह सवाल करते हैं कि भोजपुरी बिरहा में यह लड़कियों की फसल मैंने ही बोई है तो काटेगा कौन? वह जवाब भी देते हैं खुद ही को कि, मैं ही काटूंगा। हालां कि बब्बन यादव रह-रह फिर भी चिल्लाए जा रहे हैं, ‘लोक कवि की जय!’ और पलट कर लोक कवि के कान में फुसफुसा रहे हैं, ‘लेकिन पिंकी कहाँ है?’

तो क्या यह सिर्फ बब्बन यादव का शराब पी कर बहकने का अंदाज भर है? या लोक कवि के येन-केन-प्रकारेण मार्केट में बने रहने का दंश है?


लोक कवि अपनी सफलता की, इस मार्केट रूपी द्रौपदी को जीत कर भी हारा हुआ सा, ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। प्लेटफार्म पर खड़े हैं ऐसे गोया उन्हें काठ मार गया हो। यह विचारते हुए कि क्या वह सचमुच ही अब नहीं गाते? मार्केट की द्रौपदी ने उनकी गायकी को दूह लिया है? नई दिल्ली स्टेशन के इस प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े लोक कवि को लगता है कि अब वह द्रौपदी को जीतने वाले अर्जुन की भूमिका छोड़ द्रौपदी को जुए में हार जाने वाले युधिष्ठिर की भूमिका में आ गए हैं। लोक कवि यह सब अभी सोच ही रहे हैं कि उनका एक चेला उन्हें लगभग झिंझोड़ते हुए कहता है, ‘गुरु जी डब्बे में चलिए, ट्रेन अब खुलने ही वाली है!’

वह चिहुंकते हुए ट्रेन में चढ़ जाते हैं। ट्रेन सचमुच खुल गई है।

वह अपनी बर्थ पर जा कर लेटे हैं। ऊपर की बर्थ पर पिंकी उन्हें सुरक्षित दिख गई है। वह लगभग निश्चिंत हो गए हैं। क्योंकि बब्बन यादव तो प्लेटफार्म पर ही खड़े थे, जब ट्रेन चलने लगी थी।

लोक कवि ने आँखें बंद कर लीं हैं और निष्चेष्ट लेटे अपने ही से भीतर-भीतर पूछ रहे हैं, ‘भोजपुरी कहाँ है?’ ठीक वैसे ही जैसे बब्बन यादव पूछ रहे थे, ‘पिंकी कहाँ है?’ वह अपने आप से ही पूछ रहे हैं, ‘भोजपुरी कहाँ है?’ वह देख रहे हैं कि पिंकी तो सुरक्षित है पर क्या भोजपुरी भी सुरक्षित है? वह अपने आप से ही फिर पूछते हैं। पर तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाते अपने आप को भी। वह बर्थ पर लेटे-लेटे ही करवट बदल लेते हैं। और अपने ही पुराने गाने को लगभग बुदबुदाते हैं, ‘जे केहू से नाई हारल, ते हारि गइल अपने से।’

लोक कवि सचमुच अपने आप से ही हार गए हैं।

लेकिन ट्रेन है कि चलती जा रही है बिना किसी से हारे धड़धड़--धड़धड़!

समाप्त