लोक कवि अब गाते नहीं / पृष्ठ 6 / दयानंद पाण्डेय

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बारात जब विवाह के लिए गाँव से विदा हुई तो मोहना को लोढ़ा ले कर परीछने वाली तमाम औरतों में धाना भी एक थी। परीछन के समय मोहन ने किसी बहाने धाना का हाथ छू लिया। छू लिया तो जैसे करंट लग गया दोनों को। और दोनों चिहुंक पड़े। एक बार इस वाकये का जिक्र लोक कवि ने चेयरमैन साहब से बड़ी संजीदगी से किया था तो चेयरमैन साहब चुहुल करते हुए बोले, ‘440 वोल्ट का करंट लगा था का?’ लेकिन लोक कवि इस 440 वोल्ट की तफसील तब समझ नहीं पाए थे और बाद में जब समझाने पर समझे भी तो चहक कर बोले, ‘एहू ले जादा!’

ख़ैर, मोहन बियाह करने तब ससुराल पहुंचा डोली में बैठ कर। नगाड़ा, तुरही बजवाते हुए। सिंदूर दान का समय जब आया तो पंडित जी के मंत्रोचार के साथ ही मोहना को सखी की साध लग गई। माँग वह पत्नी की भर रहा था पर याद वह सखी को कर रहा था। ध्यान में उसके धाना थी। उसे लगा जैसे वह धाना की ही माँग भर रहा था। परीछन के समय धाना के हाथ की छुअन, छुअन से लगा करंट मोहना के मन में तारी था।

मोहना के बियाह में धोबिया नाच का सट्टा हुआ था। जब नाच चल रहा था तभी मोहना का मन हुआ कि उठ कर वह भी खड़ा हो कर दू-तीन ठो बिरहा, कंहरवा गा दे। और कुछ न सही तो ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ ही गा दे। पर यह मुमकिन नहीं हुआ। क्योंकि वह दुलहा था।

ख़ैर बियाह कर मोहना अपने गाँव वापस आया। रस्में हुईं और कुछ दिनों बाद जब लगन उतर गई तो वह फिर गाँव के ताल और बाग में गाता घूमा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ पर धाना कहीं दिखी नहीं, सखी कहीं मिली नहीं। जिसको मोहना संगी बनाने को आतुर था। हालांकि उधर सखी भी अब बेकरार थीं। पर मोहना से मिलने की राह नहीं दिखती थी। फिर भी वह मोहना का ध्यान लगातीं और हमजोली सखियों, सहेलियों के बीच छमकती हुई झूम कर गातीं, ‘अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबों ना!’ वह जोड़तीं, ‘साया सरकै, चोली मसकै हिल्ले दूनो जोबनवा हम गवनवा जइबों ना।’ सखियां सहेलियां भी तब धाना से ठिठोली फोड़तीं, ‘काहें मकलात बाटू, बऊरा जिन, दिन धरा ल। आ नहीं त अलबेला मोहनवा से जीव लगा ल वोहू क गवना अबहिन नाईं भइल बा। त कई देई तोहार गवनवा, बकिर ‘इमनवा’ ले के!’ तो कोई सहेली ताना मारती पूछती, ‘कइसे जइबू गवनवा हे धाना!’ और तबका एक मशहूर गाना ठेका ले कर गाती, ‘ससुरे में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं!’

‘धत्!’ कह कर सकुचाती धाना बातचीत से भाग खड़ी होती। लेकिन सखी सोचती थीं सचमुच मोहनवा के ही बारे में। सपने में भी वह मोहनवा के साथ ही होतीं। कभी चकइ क चकवा खेलती हुई तो कभी बाग में ढेला मार कर कोइलासी खाती हुई। सपने में ही वह अपना गवना भी देखतीं पर डोली में अपने मरद के साथ नहीं मोहनवा के साथ बैठी होतीं। पर सब कुछ सपने में ही। अपने मरद की तो शकल भी धाना को मालूम नहीं थी। बियाह में नाउन हाथ भर का घूंघट भर, चद्दर ओढ़ा कर एतना कस कर पकड़े बइठी थी कि आँख उठा कर कनखियों से देखना तो दूर धाना आँख उठा भी नहीं पाई थी। सारा बियाह आँख बंद किए-किए ही संपन्न हो गया। सेनुर के समय तो देह थरथर कांप रही थी धाना की और आँखें बंद। बस सहेलियों के मार्फत ही जाना कि छाती चौड़ी है, सांवला है और कि पहलवानी देह है बस!

तो सपने वाले गवने में डोली में अपने मरद की छवि धाना देखती भी तो कैसे भला?

हालांकि, वह अपने मरद से बिना देखे ही सही प्यार भी बहुत करती थी। उसके नाम का सेनुर माँग में भरती थी। तीज का व्रत करती थी। अपने मरद से प्यार करने की उसकी कोई थाह नहीं थी। एक बार तो गाँव में ही पट्टीदारी के एक घर से एकदम नया स्वेटर चुरा कर उसने कई दिन छुपाए रखा और फिर गाँव के ही एक नादान किसिम के लड़के के हाथ अपने उस बिन देखे मरद के पास पठाने की कोशिश की। चुपके-चुपके। कि किसी को पता न चले। लेकिन वह स्वेटर ले जाने वाला लड़का इतना नादान निकला कि बात गाँव से उसके निकलने से पहले ही खुल गई कि धाना अपने मरद को कुछ पठा रही है।

क्या पठा रही है ?

यह चर्चा गाँव में चिंगारी तरह फैली और शोला बन गई। अंततः हाथ से सिल कर सीलबंद की हुई झोली खोली गई तो उल्टी सीधी इबारत वाली एक चिट्ठी निकली जिसमें सिर्फ ‘परान नाथ परनाम धाना’ लिखा था और वह स्वेटर निकला। लोगों की आँखें फैल गईं। और फिर यह बात फैलते भी देर नहीं लगी कि धाना तो चोट्टिन निकली। धाना पढ़ी लिखी तो थी नहीं। तो यह चिट्ठी किस ने लिखी एक सवाल यह भी निकला। और पता चला कि दर्जा चार में पढ़ने वाले एक लड़के से धाना ने लिखवाया था।

बड़े बुजुर्गों ने ‘बच्ची है!’ कह कर बात को टाला भी फिर भी बेइज्जती बहुत हुई धाना की।

बेइज्जती धाना की हुई और आहत मोहन हुआ। दो बातों से। एक तो यह कि धाना के कोमल मन को किसी ने नहीं समझा, उसके मर्म और प्रीति की पुकार को नहीं समझा। उलटे उसको चोट्टिन घोषित कर दिया। दूसरे, यह कि अगर धाना को अपने मरद ख़ातिर यह स्वेटर भेजवाना ही था तो उस बकलोल लवंडे से भिजवाने की का जरूरत थी। कोई ‘हुसियार’ आदमी को भेजती। हमको कहती। हम जा के दे आते उसके मरद को स्वेटर। किसी को पता भी नहीं चलता और ‘परेम सनेस’ पहुँच भी जाता।

लेकिन अब तो सारा कुछ बिगड़ चुका था। उधर धाना बेइज्जत थी, इधर मोहन आहत। गाँव में, जवार में घटी हर बात पर गाना बना देने वाले मोहना से कुछ उजड्ढ टाइप के लोगों ने इस धाना के स्वेटर चोरी वाली घटना पर भी गाना बनाने का बार-बार आग्रह कर तंज कसा। इस बात का भी मोहना को बहुत बुरा लगा और बार-बार। हर बार वह अपने मन को चुप लगा जाता। अपने आक्रोश को लगाम लगा लेता धाना के आन ख़ातिर। नहीं बेबात बात का बतंगड़ बन जाता और धाना का नाम उछलता कि मोहनवा धनवा के लिए लड़ गया। बेइज्जती बहुत होती। सो मोहनवा ख़ामोश ही रहता ऐसे तंजबाजों की बातों पर।

वो कहते हैं न कि रात गई, बात गई। तो धीरे-धीरे यह बात भी बिसर गई। एक मौसम बीत कर दूसरा, दूसरा बीत कर तीसरा मौसम आ गया।

हाँ, वह सावन का ही महीना था!

धाना सखी सहेलियों के साथ आम के बगीचे में झूले पर थी और गा रही थी, ‘कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरवा घेरि आइल ननदी!’ जिस पेड़ पर धाना का झूला पड़ा था उस पेड़ से तीन चार पेड़ छोड़ कर एक पेड़ की डाल पर पत्तों की आड़ में बइठा मोहनवा धाना को टुकुर-टुकुर देख रहा था। न सिर्फ देख रहा था धाना को रह-रह कर इशारे भी करता जा रहा था। पर धाना बेख़बर ‘ननदी’ के गाने में मस्त थी। होंठ और पैर दोनों गुलाबी रंग से रंगे हुई थी। आँचल छाती से हटा हुआ था तो मोहनवा की आँख वहीं अटकी क्या टिकी पड़ी थी। बड़ी देर तक इशारेबाजी के बाद भी धाना की नजर जब मोहनवा पर नहीं पड़ी तो मोहनवा ने अंततः एक छोटा सा ढेला धाना के टिकोरा से आम हो चले स्तनों पर साध के ऐसे मारा कि झूला जब ऊपर से नीचे की ओर चले तब उसे लगे। लेकिन ढेला मारा ठीक वइसे ही जइसे वह कभी आम के पेड़ पर ढेला मार कर धाना को कोइलासी खिलाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि तब वह ढेला नीचे से ऊपर मारता था आज ऊपर से नीचे मारा। निशाना अचूक था। मिट्टी का छोटा से ढेला धाना के कठोर और बड़े हो चले स्तनों के बीच जा कर ही तब फंसा जब वह पेंग मारती हुई झूले के साथ ऊपर से नीचे आ रही थी। निशाना की स्टाइल जानी पहचानी थी सो चिहुंक कर उसने ऊपर देखा और आँखें मूंद ली। ऐसे गोया कि कोई और न जाने कि मोहनवा दूसरे पेड़ की डाली पर बैठा है। फिर जब झूला नीचे से ऊपर जाने लगा तब उसने न सिर्फ मोहनवा को भर आँख देखा बल्कि कसके आँख भी मारी। थोड़ी देर तक इसी तरह दोनों के बीच झूला चलता रहा और आँखें झूला झूलती रहीं।

कि तभी बादर घेरे हुए तो थे ही, झम-झम बरसने भी लगे।

सावन के बादर!

झूला छोड़ कर सभी औरतें भागीं। पर धाना नहीं भागी। पैर में जल्दबाजी में चोट लगने के बहाने वहीं पास के पेड़ के नीचे भींगती भागती पैर दबाती मोहन को देखती रही। पेड़ गीला हो गया था। भीगे पेड़ से उतरने में ख़तरा था। पर यह ख़तरा उठाया मोहन ने धाना की ख़ातिर। उसे पाने की ख़ातिर। सभी औरतें भाग कर आधा फर्लांग दूर एक झोपड़ी में शरण ले कर बैठ गईं। लेकिन धाना मोहन की शरण ले कर एक पेड़ के नीचे भींगती रही। भींगती रही भीतर बाहर। एक बारिश बाहर हो रही थी एक बारिश धाना के भीतर। बरस रहा था मोहन धाना के भीतर। मोहन धाना के गालों को चूम रहा था। और उसके होठों पर लगा गुलाबी रंग अपनी जीभ से चख रहा था। धाना के कठोर हो चले वक्षों को जब मोहन ने छुआ तो जैसे उसकी देह में फिर भारी करंट दौड़ पड़ा और निर्वस्त्र धाना बेसुध हो निःशब्द हो गई। आँखें बंद कर वह एक जीवित सपने में कैद हो परम सुख के क्षणों में बहने लगी। और जब मोहन उसे लगभग निर्वस्त्र कर उसके ऊपर झुक आया तो उसने ख़ूब कस कर अपने से चिपका लिया। झूले का पीढ़ा जैसे उनका बिछौना बना था। और कवच भी कीचड़ से बचने का। बाग की हरी घास भी दोनों के साथ थी। फिर भी जो थोड़ा बहुत कीचड़ छू भी रहा था दोनों की देह को, वह बरखा की बौछारें धोए दे रही थीं। संजोए दे रही थी, धाना और मोहन के प्यार के पसीने को अपना पानी दे कर। क्षण भर भी नहीं लगा मोहन को धाना की देह बंध लांघने में और वह देह के प्राकृतिक खेल को भरी बरखा में खेलने लगा। मोहन के पुरुष ने ज्यों ही धाना की स्त्री का दरवाजा खटखटा कर प्रवेश किया धाना सिहर गई। चिहुंक कर चीखी, और मोहन निढाल हो गया। सावन का एक और बादर बरस गया था धाना में। बरसा गया था मोहन।

क्षण भर में ही।

दोनों मदमस्त पड़े रहे। एक दूसरे को भींचते हुए। भींगते रहे सावन की तेज बौछारों में। बौछारें जब फुहारों में बदलने लगीं तो मोहन का पुरुष फिर जागा। धाना की स्त्री भी सोई हुई नहीं थी। एक देह की बारिश दूसरी देह में और घनी हो गईं। और जब मोहन धाना के भीतर फिर बरसा तो धाना उसे दुलारने सी लगी। तभी सावन की फुहारें और धीमी हो गईं साथ ही पास की मड़ई से हंसती खिलखिलाती आती औरतों की आवाज भी हलकी-हलकी आने लगी। अचानक धाना छिटक कर मोहन से दूर हुई। पेड़ की आड़ में खिसक कर जल्दी से पेटीकोट पहना, ब्लाउज पहनते हुए बोली, ‘अब तू भाग मोहन जल्दी से!’

‘काहें ?’ मोहन मदहोशी में बोला।

‘सब आवति हईं।’ वह बोली, ‘जल्दी से भाग।’ कह कर वह जल्दी-जल्दी साड़ी बांध कर पैर पकड़ पेड़ से सट कर बैठ गई। ऐसे जैसे पांव का चोट अभी ठीक नहीं हुआ हो!’ तभी उसे मोहन फिर से चूमने लगा। तो वह थोड़ा गुस्साई, ‘मरवा के मनबऽ का मोहन।’

मोहन धीरे से वहाँ से भागा। बाग के दूसरी ओर। छप-छप, छप-छप।

औरतें आईं और तर-बतर धाना को संभालने में लग गईं। ज्यादातर नादान टाइप सखियां तो ओफ्फ उफ्फ कर धाना के साथ, ‘जादा घाव लाग गइल का!’ की सहानुभूति में पड़ गईं पर अनुभवी आँखों वाली सखियां तड़ गईं कि आज इस बाग में सावन के बादरों के अलावा भी कोई बादर बरसा है। यों ही नहीं रुक गई थीं धाना सखी।

‘का हो धाना सखी, आज त तू नीक से भीजि गइलू हो।’ कहती हुई एक औरत जिसका कि गौना हो चुका था, बोली, ‘इमनवा बचल कि ना!’ वह बोली, ‘तोहार अंखिया त कहति बा कि ना बचल।’

‘का जहर भाखत बाटू!’ धाना ने प्रतिवाद किया।

‘माना चाहे नइखै गवनवा त हो गइल एह बरखा में।’ वह औरत प्यार भरा तंज कसती हुई बोली, ‘जाने इमनवा बचल कि ना!’

‘अरे, सीधे पूछ कि जोरनवा पड़ल कि ना ?’ एक तीसरी सखी पड़ताल करती हुई बोली, ‘हई घसिया बतावति बा!’ वह आँखें घुमाती हुई होंठ गोल करती हुई बोली, ‘हई होठवा का उड़ल लाली बतावति बा, हई साड़ी क किनारी बतावति बा।’

‘का बतावति बा ?’ धाना बिफरती हुई बोली।

‘कि घाव बड़ा गहिरा लागल बा हो धाना बहिनी!’ एक और हुसियार सखी बोली।

बारिश ख़त्म हो गई थी पर धाना की सहेलियों की बात ख़त्म नहीं हो रही थी। आजिज आ कर धाना एक सहेली का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई। उसका कंधा पकड़ा और घर चलने के लिए आँखों ही आँखों में इशारा किया। वह चलने लगी तभी झूले का पीढ़ा उठाती एक सखी बोली, ‘ई पीढ़ा तो झलुवा से उतरल बा हो।’

‘के उतारल ?’ एक दूसरी सखी ने रस ले कर पूछा।

‘हई पायल जो उतरले होई।’ वह पीढ़े के पास गिरे धाना के पायल को दिखाते हुए बोली।

‘लावा पायल!’ सकुचाती, गुस्साती धाना बोली, ‘इहाँ जान जात बा और तूहन के मजाक सूझत बा।’

‘राम-राम!’ वह सखी बोली, ‘इ तोहरै पायल है का ?’ उसने फिर चुहुल की, ‘केहु से कहब ना, के उतारल बता द!’

‘हई दई उतरलैं!’ धाना ने बादरों की ओर इशारा करते हुए जान छुड़ाने की कोशिश की।

‘का हो दई, इहै कुल करबऽ!’ ऊपर बादर की ओर देखती और ठुमकती हुई वह सहेली जैसे बादल से बोली, ‘लाज नइखै आवत, धाना क पायल उतारत!’

फिर तो घर के रास्ते भर किसिम-किसिम की चुहुल होती रही। घर के पास पहुँचते ही एक सहेली बोली, ‘हई ल धाना क पायल का दई निकरलैं, इनकर चाल भी बदलि गईल!’

‘काहे न बदलै भला। ‘घाव’ जवन लागल बा।’ वह सहेली बोली, ‘जान करेज्जा में लागल बा जे गोड़े में। बकिर लागल त बा!’

धाना को उसके घर छोड़ती हुई धाना की माँ से भी सहेलियों ने कहा कि, ‘घाव बड़ा गहिर लागल बा, जे हरदी दूध ढेर पियइह ए काकी!’

जो भी हो इस पूरी स्थिति, ताने उलाहने और दिक्कतों का ब्यौरा धाना ने मोहन को अगली मुलाकात में खुसुर-फुसुर कर के ही सही पूरा-पूरा दिया। जिसका बाद में लोक कवि ने अपने एक डबल मीनिंग गाने में बड़ी बेकली से इस्तेमाल भी किया कि, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ फिर आगे दूसरे अंतरे में वह आते, ‘लाली बता रही है चूसी कहीं गई है’ और फिर गाते, ‘साड़ी बता रही है खींची कहीं गई है।’

बहरहाल बिना घाव के ही सही हल्दी दूध पीते समय धाना ने अपने पैरों की अंगुली यूं ही देखी तो धक् रह गई। उसने देखा कि पैरों की अंगुली से बिछिया भी गायब थी! उसने दबी जबान माई को यह बात बताई भी। तो माई ने कोई ऐतराज नहीं जताया। माई बोलीं, ‘कवनो बात नाई बछिया, तोहार जान परान और गोड़ बचि गइल का कम बा ? बिछिया फेर आ जाई!’

पैर में चोट का बहाना फिर भी भारी पड़ा। इस बहाने कुछ दिन धाना घर से बाहर नहीं निकल पाई। तब जब कि उसका अंग-अंग महुआ सा महक रहा था। उसका मन होता कि वह चोटी खोल बालों को छोड़ कर नंगे पाव कोसों दूर दौड़ जाए। दौड़ जाए मोहना के साथ। भाग जाए मोहना के साथ। फिर लौट के घर न आए। बस वह दौड़ती रहे। वह और मोहना दौड़ते रहें एक दूसरे को थामे, एक दूसरे से चिपटे हुए। कोई देखे नहीं, कोई जाने नहीं।

पर यह सब तो सिर्फ सोचने और सपने की बात थी।

सच में तो वह मोहना से मिलने के लिए अकुलाती रही। अफनाती रही। गुनगुनाती और गाती रही, ‘हे गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबों, मोहना से कइ द मिलनवा हो राम!’ सखियां सहेलियां समझतीं कि ‘सैंया से कइ द मिलनवा हो राम’ गा रही है धाना। स्वेटर वाले सइयां के लिए। पर धाना तो गाती थी ‘मोहना से कइ द मिलनवा हो राम।’ लेकिन ‘मोहना’ इतनी होशियारी से वह फिट करती थी कि कोई बूझ नहीं पाता। सिर्फ वही बूझती। और वह देखती कि मौका बे मौका मोहना भी कोई गाना टेरता उसके घर के आस पास से जल्दी-जल्दी गुजर जाता। कनखियों से इधर-उधर झाँकता, देखता। पर वह करती भी तो क्या ? उसके पैर में ‘घाव’ न था!

‘जल्दी’ ही ठीक हो गया उसका ‘घाव’ और वह कुलांचे मारती हुई घर से निकलने लगी। ऐसे जैसे किसी गाय का बछड़ा हो। पर मोहना को देख कर भी नहीं देखती। अनजान बन जाती। मोहना परेशान हो जाता। धाना भी। और फिर रात में वह मिलती मोहना से चुपके-चुपके। लेकिन सपने में। सचमुच में नहीं। बाग-बारिश, झूला-मोहना और वह। पांचों एक साथ होते। सपने में बरसते हुए! भींजते, चिपटते और सिहर-सिहर कर एक दूसरे को हेरते हुए। एक दूसरे को जीते हुए। पर सब कुछ होता सपने में ही।

सच में नहीं।

सपना मोहना भी देखता था। धाना का सपना। बाग-बारिश और झूले का नहीं। सिर्फ धाना का। और बह जाता सपने के किसी छोर पर जांघिया ख़राब करता हुआ।

जल्दी ही ख़त्म हुआ दोनों के सपने का सफ़र!

सच में मिले।

भरी दुपहरिया में धाना की भैंसों की घारी में। भैंसें बाहर चरने गईं थीं। और धाना मोहन घारी में। मक्खी, मच्छर और गोबर के बीच एक दूसरे को चरते हुए। जल्दी ही दोनों छूट गए। कैद से। तय हुआ कि अब आगे से दिन में नहीं रात में ही कभी घारी, कभी खलिहान, कभी बाग, कभी खेत या जहाँ भी कहीं मौका हाथ लगेगा मिलते रहेंगे। यहाँ-वहाँ। पर चुपके-चुपके। धाना जल्दी में थी। घारी से सबसे पहले भागी फिर मौका देख कर मोहना भी इधर-उधर ताकता हुआ धीरे से निकला।

फिर मौके बेमौके कभी अरहर के खेत में, कभी गन्ना के खेत में, कभी बाग तो कभी घारी, बारी-बारी जगह बदलते मिलते रहे धाना मोहन। बहुत बचा कर भी होने वाली यह मुलाकात पीपल के पत्तों की तरह सरसराने लगी। लोगों की जबान पर आने लगी। मोहन-धाना या धाना-मोहन के तौर पर नहीं राधा मोहना के तौर पर। धाना जैसे मोहन के लिए सखी थी वैसे ही चर्चाकारों, टीकाकारों के लिए राधा बन चुकी थी। कृष्ण वाली राधा! तो नाम चला क्या दौड़ पड़ा। राधा-मोहना।

पर राधा मोहना तो बेख़बर थे। बेख़बर थे अपने आप से, अपने ख़बर बन जाने की ख़बर से।

एक रात बड़ी देर तक दोनों एक दूसरे से चिपटे रहे। उस रात मोहना कम धाना ज्यादा ‘आक्रामक’ थी। मोहना जब-जब चलने की बात कहता तब-तब धाना कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ वह जोड़ती, ‘तनिक अवर रूकि के।’ मोहन करता भी क्या धाना उसके ऊपर ही लेटी पड़ी थी। अपने कठोर-कठोर बड़े होते जा रहे स्तनों से उसे कुचलती हुई। और मोहन नीचे से उसके नितंबों को रह-रह कर हाथों से थपकियाता कहता, ‘अब चलीं न!’ और वह कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ उस रात धीरे-धीरे ही सही राधा ने मोहन से कहा कि, ‘बड़ा गवैया बनल घूमै ल, आजु हम गाइब!’ और गाया भी धाना ने खूब गमक के, ‘ना चली तोर न मोर / पिया होखे द भोर / मारल जइहैं चकोर / आज पिया होखे द भोर।’ और सचमुच उस रात भोर होने पर ही छोड़ा धाना ने मोहन को। तब तक मोहन धाना के साथ गुत्थमगुत्था हो कर तीन चार फेरा निढाल हो चुका था। चलते-चलते वह सिसकारी भरते हुए मचल कर बोला भी, ‘लागता जे हमें मार डरबू ए धाना!’

‘हाँ, तूहें मारि डारब!’ धाना भी शोख़ी बोती हुई बोली थी तब।

राधा मोहन का यह सिलसिला चलता रहा और चर्चा भी!

बात मोहना के घर तक पहुँच चुकी थी पर राधा रूपी धाना के घर नहीं। किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती। राधा के दो भाई पहलवान थे और लठैत भी। जो भी ख़बर पहुंचाता उसकी ख़ैर नहीं थी। इसी नाते गाँव में चर्चा भी चलती राधा-मोहना की तो खुसुर-फुसुर में। वह भी गुपचुप।

पर कब तक छुपती भला यह ख़बर!

आखि़र ख़बर पहुंची धाना के घर। जो धाना ने ही पहुंचाई। धाना ने क्या, धाना की उल्टियों ने पहुंचाई। पर धाना के घर ख़बर पहुंची यह बात धाना के घर वालों ने कानों कान किसी को ख़बर नहीं होने दी। धाना को बड़ी यातना दी गई। पर यह बात भी बाहर नहीं आई। पचवें में गवना जाने वाली धाना का डेढ़ बरस पहले ही गवना हो गया। यह ख़बर जरूर पहुंची सब तक लेकिन चर्चा इसकी भी नहीं हुई।

धाना ने यातना जरूर सही और बेहिसाब सही पर मोहन का नाम जबान पर नहीं लाई।

लेकिन मोहन डर गया था। डर गया पहलवानों की लाठी से। वह समझ गया कि ऊंच नीच हो गया है। घबरा कर शहर की राह पकड़ ली। वहीं चंग ले कर गाने बजाने लगा।

धाना के फेर में इधर वह गाना भी भूल गया था।

एक दिन वह जिला कचहरी के एक मजमे में गा रहा था। कलक्टर के जुर्म पर बनाया गाना। बिना कलक्टर का नाम लिए। तो भी पुलिस ने पकड़ कर पीट दिया मोहन को। गनीमत की जेल वेल नहीं भेजा। लेकिन वह यह कलक्टर के जुर्म का गाना गाता रहा। एक कम्युनिस्ट नेता ने भी राह चलते एक दिन यह गाना सुन लिया मोहन से। यह कम्युनिस्ट नेता यहाँ का स्थानीय विधायक भी था। उसने मोहना को बुलाया। बात की, चाय पिलाई और उसके बारे में जाना। उसकी पीठ थपथपाई और पूछा कि, ‘हमारी पार्टी के लिए गाओगे ?’

‘जो कहेगा उसके लिए गाऊंगा। बस गरीबों के खिलाफ नहीं गाऊंगा।’ मोहन बेखौफ हो कर बोला।