लो, मर गयी बातें / एक्वेरियम / ममता व्यास

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कितना बोलती थी न मैं उन दिनों। हर वक्त, बिना रुके, बिन सांस लिए मेरे होंठों से बातें ऐसे गिरती थीं मानो गुल्लक से सिक्के गिर रहे हो। किसी भी विषय पर, किसी भी बात पर मैं बिन रुके घंटों बोल सकती थी। कोई कितना भी चुप्पा व्यक्ति हो मेरे सामने चुप नहीं रह सकता था। किसी की कोई भी बात का सिरा भर चाहिए होता था मुझे उस सिरे को पकड़ मैं खुद ही बातों के मफलर बन लेती थी और फिर जुदा होते वक्त वह मफलर सामने वाले को बतौर तोहफे में दे डालती और कहती-"संभाल कर रखना इसे, विरह की सर्द रातों में बहुत गर्मास देंगे ये मफलर, ये दिन मेहमान हैं हमेशा नहीं होंगीं ये बातों की बरसातें..."

ऐसे ही किसी सावन के महीने में तुम मिले थे तारीख उस दिन तीस थी। तुमसे मिलकर मैंने बातें शुरू कर दीं, ज़रा देर बाद ही मेरी बातों के संग तुम ताल मिलाते दिखे। मैं बहुत खुश थी मेरे संग मेरी गति से थिरकने वाला मुझे कोई मिल गया था।

मेरी बातों के अर्थ समझने वाला, उन अर्थों के रहस्य, उनके दर्शन समझने वाला कोई दूसरा नहीं था मेरे पास। मेरी हंसी, मेरी मुस्कान के पीछे के अर्थ और रहस्य सब तुम जान गए थे। हम दोनों से बेहतर बातें आज तक इस संसार में किसी ने नहीं कीं, हमसे बेहतर बातों के मफलर कोई नहीं बुन सकता था। ये बात और थी कि तुम मुझे हमेशा खुद से बेहतर बुनकर बताते थे।

हमारा रिश्ता इस धरती पर समझने जैसा नहीं था। हम ग्रह, नक्षत्रों, तारों की चाल से संचालित होते थे। एक दिन ऐसे ही आसमानों में ग्रहों ने चालें बदलीं और तुम मुझसे और मेरी बातों से उकताने लगे। अब तुम्हें मेरी बातें सतही लगतीं।

तुम उस दिन बोल पड़े-"कितना शोर मचाती हो, ज़रा देर चुप नहीं रह सकती, तुम्हारी तीखी और चुभती हुई आवाज मुझे इरिटेट करती है।"

तुमने उस दिन इशारों से मुंह पर उंगली रखकर मुझे बोलने से रोक दिया और अपने काम में व्यस्त हो गए.

मैं फिर भी बोलती रही लगातार, बेहिसाब कई जन्मों तक...तुम मुझे अनसुना करते रहे अनंतकाल तक। तुमने कभी मेरी किसी भी बात का जवाब नहीं दिया, उसे सुना नहीं, समझा नहीं और एक दिन जब मैंने तड़प कर कहा-"मैं जा रही हूँ हमेशा के लिए."

तुम कागज पर कुछ पढऩे में व्यस्त थे तुम इतने तल्लीन थे कि तुम्हारी हाथ की सिगरेट और मेरी बातें कब जलकर राख हो गयीं तुम्हें भान ही नहीं था।

मैं चली आई उस दिन और सभी बातों के बीज तुम्हारे घर के बरामदे में छोड़ आई. अरे...वहीं जहाँ तुम्हारे वुडलैंड के जूते रखे हुए थे उसी कोने में मैंने धीरे से रख दी थी अपनी सभी बातों की पोटली।

आते वक्त मेरे पास कुछ भी नहीं था। तुम्हारा तो मैंने कभी कुछ लिया नहीं, अपना ही सामान छोड़ आई हूँ। जानती हूँ कई महीनों तक तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि मैं चली गयी हूँ तुम्हारे कमरे से...क्योंकि तुम व्यस्त हो प्रेमग्रंथ लिखने में जिस दिन तुम किसी काम से बाहर जाओगे और अपने जूते पहनोगे वहाँ तुम्हें नजर आयेंगी, कुछ बातें जो दरवाजे की दहलीज पर जमी होंगीं धूल की तरह।

दरवाजे की चौखट तुम्हें बता देगी मैंने तुम्हारा कितना इंतजार उसी चौखट पर टिक कर किया था। दहलीज से भी तसल्ली कर सकते हो मेरे चले जाने की।

तुम मेरी बातों को बुहार कर जल्दी ही बाहर फेंक देना, कहीं ऐसा न हो वह तुम्हारे कमरे में फैल जायें और तुम्हारा जीना मुश्किल कर दें।

सुना है बातें कभी नहीं मरतीं हम-तुम मरते हैं, बातें कहीं नहीं जातीं, हम तुम जाते हैं।