लो ‘छिछोरा’ चला गया / सुरेश कुमार मिश्रा

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लो छिछोरा चला गया। ऐसा नहीं कि वह कोई महापुरुष था और उसके जाने पर हमें रो-रोकर छाती पीटना चाहिए। उसके जाने से ऐसा भी नहीं है कि कोई राष्ट्रीय संपत्ति नष्ट हुई है। हाँ इतना ज़रूर है कि उसने जाते-जाते फिर से साबित कर दिया कि सिनेमा में जो दिखाया जाता है वैसा रियल लाइफ में होता नहीं है। दरअसल ज़िन्दगी कुछ और होती है। ज़िन्दगी को रील में समझना और रियल में समझना अलग-अलग चीज़ है। पूरी फ़िल्म में यह बताने का प्रयास किया गया कि आत्महत्या करना पाप है और वह ख़ुद आत्महत्या कि उंगली थामे इस दुनिया कि गली से कन्नी काटकर चला गया। छिछोरे कहानी थी आत्महीनता से आत्मविश्वास के सफ़र की। किंतु सुशांत की मौत ने यह सिद्ध कर दिखाया कि ज़िन्दगी जैसी दिखती है वैसी होती नहीं है। कहने में कुछ और करने में कुछ।

सुशांत की मौत को छिछोरे फ़िल्म से जोड़कर देखना चाहिए। आत्महत्या कि कोशिश कर चुका छिछोरे का बेटा आईसीयू में अपनी वापसी की लड़ाई लड़ रहा होता है। अस्पताल के बाहर वह कहता है-'उस दिन मैंने कहा था तू सिलेक्ट हो जाएगा तो साथ मिलकर सेलिब्रेट करेंगे लेकिन उसे ये नहीं बताया था कि यदि सिलेक्ट नहीं हो सका तो क्या करना है। हर साल प्रतियोगी परीक्षाओं में दस लाख बच्चे बैठते हैं और केवल दस हज़ार सिलेक्ट होते हैं। बाक़ी नौ लाख नब्बे हज़ार समझते हैं कि वे ज़िंदगी की लड़ाई हार चुके हैं।' इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने वाला छिछोरा जब सच में ज़िन्दगी की दो राह में ख़ुद को पाया तो उसकी सारी की सारी हेकड़ी निकल गयी।

यह किस्सा हमारे लिए नया नहीं है। यहाँ किसी न किसी के दबाव और अपनों के साथ अंडरस्टैंडिंग न होने के कारण सैकड़ों लोग हर साल अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। टीवी से उभरकर बॉलीवुड में अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाने वाले अभिनेता सुशांत स‌िंह राजपूत अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले साल सितंबर महीने में जब उनकी आखिरी फ़िल्म "छ‌िछोरे" आई थी, से लोगों में जीवन को लेकर नई उम्मीदें जागी थीं। फ़िल्म का मुख्य विषय 'सुसाइड के खिलाफ लड़ाई' थी। रील में उम्दा अभिनय करने वाले सुशांत ने रियल लाइफ में घुटने टेक दिए।

वास्तव में आत्महत्या को नए सिरे से परिभाषित करने वाली इस फ़िल्म ने सुसाइड विषय और उस दौरान की मनः‌स्थिति को बखूबी से समझाया है। फिर इसे महज़ इत्तेफाक कहें कि इस फ़िल्म की रिलीज ने ठीक से एक वर्ष भी पूरा नहीं किया होगा कि वह इस दुनिया से कूच कर गया। फ़िल्म में सुशांत आत्महत्या करने वाले नहीं बल्कि आत्महत्या रोकने वाले प्रेरक पात्र के रूप में उभरते हैं और बेशुमार तालियाँ बटोरते हैं। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यही अभिनेता अपनी असल ज़िन्दगी में ख़ुद आत्महत्या कर लेगा।

यदि इंसान आत्महत्या करता है तो उसके अपने कारण हो सकते हैं। जीवन की नंगी सच्चाइयों से भागना या छुटकारा पाना आत्महत्या का बड़ा उद्देश्य होता है। हमारे जीवन और काम करने का तरीक़ा इतना मशीनी हो चला है कि इंसान, इंसान न होकर मात्र एक पुर्जा बनकर रह गया है। आत्महत्या एक स्थिति का नाम नहीं है। यह कई दिनों से चली आ रही दुविधाओं और उस समय की उत्पन्न स्थितियों का सारांश है। हम कल की ज़िन्दगी के बारे में नहीं सिर्फ़ आज के बारे में सोचकर बड़े-बड़े फैंसले ले लेते हैं।

आज भी कई लोग किसी न किसी कारण व परेशानियों के चलते आत्महत्या जैसा बड़ा फ़ैसला लेने से पीछे नहीं हटते। यदि हम उनसे हार मान लें तो उसे आत्महत्या का नाम दे दिया जाता हॆ। जबकि उस पर विजय प्राप्त कर लें तो उसे आत्मजयी के नाम से नवाजा जाता है। आज सुशांत का जाना बुरा लग रहा है, क्योंकि उसने हमें धोखा दिया है। उसने हमें छिछोरे फ़िल्म में बताया कि ज़िन्दगी की बाजी को कैसे जीता जाता है। लेकिन दुख इस बात का है कि वह ख़ुद ज़िन्दगी की बाजी हार गया। अब फिर कभी किसी फ़िल्म पर भरोसा करने का मन नहीं करेगा। उसने जाते-जाते यह अहसास दिलाया कि कामयाबी, शोहरत-नाम, रुपया, आलीशान मकान यह सब मानसिक शांति नहीं दे सकते।