लौटते कदम / शेफ़ालिका कुमार

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सड़क पर धूल उड़ाती हमारी गाड़ी ऐसे चल रही थी मानो इसकी धूल से पुरानी दुश्मनी हो. इसके बावजूद, बार-बार मेरे परिवार के मना करने पर भी, मेरी गाड़ी की खिड़की खुली थी. बहुत दिनों बाद, इन छोटे, हरे-भरे कस्बों और गावों के, अलसाए, निंदाये जीवन का मुलायम स्पर्श, मेरी आँखों को मिल रहा था.

मेरे ननिहाल की मिट्टी स्लेटी थी. माँ अपनी ससुराल में हमेशा गर्व से बोला करती, "अरे वहां तो बस बीज फ़ेक दो जम जाते हैं!" पर उन दिनों किसानों की बात अलग थी. बीज धरती में, वे प्रेम से डाल देते थे. बीज सिर्फ धरती की मेहरबानी से नहीं, इस दुलार से भी बढ़ जाते थे. अब कम उम्र में ही ये बीज, अपने कन्धों पर सवाल लिये, सपनों का बोझ लिये, मिट्टी में जाते हैं. इसमें से कई, होमवर्क से घबराये, छोटे बच्चों की तरह मायूस हो, विकसित होना ही भूल जाते हैं.

सवाल अब कितने हैं- मिट्टी साथ देगी कि नहीं? सबकी ज़रूरतें पूरी होंगी कि नहीं? मारकेट में हाईब्रिड चीज़ों की पूछ है, फिर देसी कौन खरीदेगा?

"दीदी, खैनी के खेत कितने सुन्दर लगते है न?" भाई ने कहा. मीलों तक तंबाकू के पेड़, कायदे से लगे हुए थे. मकानों की तादाद बढ़ गयी थी, फिर भी हरियाली खूब थी. पर जंगल-झाड़ बहुत कम हो गए थे.

और अब हमें सीतलपुर के रसगुल्लों का इंतज़ार था. वाह, सीतलपुर के रसगुल्ले! उनमें हांडी का वह सोंधापन होता था कि मुँह में डालो तो जीभ सिर्फ मिठास नहीं, वह जाना-पहचाना सोंधापन भी खोजती थी. इन रसगुल्लों का स्वाद जिसने चखा है वह जानता है कि ये रसगुल्ले इस मिट्टी की खुशबू के लिए खाये जाते है.

रास्ते में सीतलपुर आया. जहाँ हमें उस हलवाई की दुकान को खोजने में परेशानी नहीं हुई. हमने रसगुल्ले की तीन हंडिया माँगी. दुकान के मालिक ने एक लड़के से कहा- "तीन स्पंज ला रे!!" चलो, दशाब्दियों बाद भी, कुछ न सही, रसगुल्लों का नाम तो बदल गया! स्वाद वही था. बिलकुल वही! कई बदलावों के बीच यह हाट नहीं बदला था. नयी कलम के पत्तों के नीचे, बूढ़ी, सशक्त, जड़ें झाँक रहीं थीं.

मेरे बेटे ने ज़िद की कि वह नीचे उतरेगा. भाई ने कहा, " सही है, हम सब भी पैर सीधे कर लेते हैं."

और हम वहीं, गाड़ी से उतरकर, बाज़ार में टहलने लगे. पास में लकड़ी के मिल को देख मेरे पांच साल के बेटे ने नानी से सवाल किया,

"नानी, यह क्या है?"

नानी ने समझाया, "बेटा, यहाँ पेड़ कटकर आते हैं, और उनसे लकड़ियाँ बनती हैं ."

सुनकर उसका चेहरा फक से फीका पड़ गया. स्कूल में पेड़ बचाने के बारे में उसे मिस विल्सन ने बताया था.

उसने पूछा- "अब पेड़ मीठा-मीठा फल कैसे देगा? क्यों कटा....अब हवा भी गन्दी हो जाएगी! डोंट यु नो वी शुड नॉट कट ट्रीज़? (Don't you know we should not cut trees?)"

उसकी मायूसी देख माँ उसे बातों में उलझाने लगी. पर तर्क सरल था. पेड़ जब काठ बन जाता है, अपनी मिट्टी से अलग हो जाता है, तो वह फल नहीं देता, पर उससे चीज़े बहुत बन जाती हैं. और वह बन जाता है- निर्जीव पर उपयोगी. हम शहरी भी तो काठ बन गए हैं अपनी मिट्टी से उखड़ कर.

"मैडम, बेकार हम छपरा जा रहे है. साम हो रही है.आप लोग समझते नहीं हैं. सेफ नहीं है, पटना के लिए यह रास्ता लंबा पड़ेगा." ड्राइवर ने कहा.

पर जाना तो सबको था नाना-नानी की ज़मीन को, बस एक बार देखने के लिए. सिर्फ बाहर से ही सही, क्योंकि घर और ज़मीन तो बिक गयी थी. कई लोगों ने मिल कर उस बड़ी और महंगी ज़मीन को कुछ सालों पहले ख़रीद लिया था. ननिहाल के लोग सिर्फ परिचित लोगों को ज़मीन और घर बेचना चाहते थे. इसलिए बेचने में समय लगा. घर, जिसके नीचे हॉस्पिटल था, उसको एक जान-पहचान के इंजीनियर साहिब और दो डाक्टरों ने खरीदा था. पीछे के बगीचे के एक हिस्से को गाँव के रिटायर्ड हवलदार, छग्गन यादव ने खरीदा, जिसका पिता गाँव के बंगले में दूध देने आया-जाया करता था. दूसरा हिस्सा एक छोटे-मोटे बनिए, ज्वाला चौधरी ने खरीदा. अपनी बीमार पत्नी को लेकर चौधरी ने, पत्नी के मरने तक, पता नहीं कितने चक्कर घर में बने हॉस्पिटल के लगाए थे.

अभी तो एक झलक से ही लगता था कि हम इस बात से समझौता कर लेंगे कि यह घर, यह जगह अब हमारे लिए नहीं रही. किसी और की हो गयी है. वह काल ख़तम हो गया. पर अक्सर एक बच्चे की तरह मैं सोचती- काश मैं अंतर्यामी होती, और देख पाती कि इस क्षण उस घर में, वहां के नये मालिक उन कमरों में बैठे, उन खिड़कियों से झांकते, उस बगीचे में...बरामदे में... क्या कर रहे होंगे?हमें बस उसकी एक झलक चाहिए थी.

हम इंसान चिड़ियों की तरह, तिनके-तिनके बटोर कर अपने घर जोड़ते हैं. यह जानते हुए भी कि एक दिन यह सब छूट जाएगा. जब चिड़िया के बच्चे उड़ जाते है तो क्या वह याद करती है अपना छोड़ा हुआ घोंसला और अपने बच्चों का बचपन? नहीं, ये मार्मिक यादें सिर्फ इंसान की ही होती हैं. और अपने जाने के बाद, वह उन यादों को जीवितों के पास छोड़ जाता है, अवचेतन रूप से यह जानते हुए कि वह उनमें जीवित रहेगा.

उस विशाल घर में नीचे और ऊपर, दो छतें थीं. नीचे वाली छत पर हरे, कच्चे आम और रसीले नींबू का अचार सूखता था और उसी छत पर कदम्ब के पेड़ की आधी छाया में, एक तरफ मछलियों और कमल का टैंक था. एक कोने में छोटा, लकड़ी का चूल्हा था. चौके के गैस को छोड़, उसे जलाने की झंझट कितनी आसानी से वहाँ मोल ली जाती थी, ताकि हमारे आने पर गरम-गरम, लिट्टियाँ बनें. घर से सटे, दूर तक फैले बगीचे से सूखी लकड़ियाँ आतीं और उन्हें धीरे-धीरे उस चूल्हे में सुलगाती थी रनिया.

रनिया, वह देखने में तो मुझसे थोड़ी ही बड़ी लगती थी, पर घर के बड़े लोगो का कहना था कि वह कम से कम १२ साल की होगी. कद में छोटी, नाक में पीतल की कील, रुखे बाल और दाँत निकाले, वह घूमती रहती. उसकी शलवार कभी भी कुर्ते से मैच नहीं करती थी और दुपट्टा कहीं तिरस्कृत, पड़ा रहता था. सारे काम जो हमें पसंद थे, वे उसके लिए बड़े संजीदा थे. पर जो काम उसकी माँ, जो खाना बनाती थी, उसे करने को कहती, उन पर रनिया ध्यान नहीं देती थी.

रनिया को लकड़ी का चूल्हा सुलगाना ख़ास तौर से पसंद था.छोटी छत कमरों और चौके से दूर थी. वहाँ धूप अच्छी आती थी और उस धूप में गिलहरियाँ खेलती रहतीं थीं. वहां से पड़ोसियों की व्यस्तता या धूप में उनका सुस्ताना खूब दिखाई देता था. वैसे भी, लकड़ियाँ सुलगाना ऐसा काम था जिसे आसानी से भारी बनाया जा सके. इस काम की आड़ में वह छत पर तरह-तरह के खुराफात करती रहती. कभी-कभी तो वह एक-आध घंटा ऐसे ही चूल्हे के पास बैठी रहती थी. यह देख जब हम जा कर उसकी शिकायत उसकी माँ से करते तो उसे डांट पड़ती. डांट खाने के बाद, गीली लकड़ी का बहाना कर, उसे सुलगाना शुरू करती.

रनिया के साथ हमारा एक अजीब रिश्ता था- अ लव एंड हेट रिलेशनशिप (A love and hate relationship). उसकी हम सब जम के शिकायत करते और उससे भी ज्यादा हम सब उसके साथ खेलने को तड़पते.

रनिया अजब थी, ग़जब थी. उसकी योजनाएं बड़ी मजेदार थीं. जैसे गर्मी की दोपहरी में सबको सोता छोड़ शहतूत के पेड़ से तूत तोड़ना, छत्ते से शहद निकालना, पतंग उड़ाना,आम खाना... वह चौके से एक अखबार में नमक ले कर चलती और टिकोलों में लगा-लगा कर हमें देती. चिड़िया के हरे-हरे अंडे, सबसे पहले रनिया ने मुझे दिखाए थे. पतंग भी हम रनिया के साथ खूब उड़ाते, मांझा धागा बनाते. रनिया का मानना था कि ज़्यादा पैने धागे से हम दूसरों की गुड्डी काट पायेंगे. जो धागा हमारे पास था, उसे विश्वास था कि उसमे शीशा कम था. इसलिए उससे दूसरों की गुद्दियाँ नहीं कटतीं. तो तय हुआ कि हम अपना खूब तेज़ मांझा बनायेंगे.

इस काम के लिए ऊपर की विशाल, निर्जन छत को चुना गया. रनिया ने भूरी शीशे की कुछ बोतलें तोडीं. बट्टे से उसने उसका चूरा बनाना शुरू किया. ताज्जुब से भरी तीन जोड़ी नन्ही आँखों ने देखा कि कैसे रनिया के साँवले हाथों से, बड़ी आसानी से भूरे शीशे के टुकड़े, अपने रंग और वजूद को खोकर, मुलायम, स्लेटी पाउडर में परिणत हो गए .

"देखिये..." उसने विजयी स्वर में कहा.

हम बच्चों को लगा, शायद ही कोई ऐसा काम हो जो रनिया नहीं कर सकती है. यह सोच कर हम सब बच्चे रनिया के आज्ञाधीन हो जाते. फिर वह चुपके-से दोपहर में, चौके से आंटे और पानी की उबली लेई लेकर आती. हमे धागा पकड़ने का आदेश मिलता. वह खुद जोखिम-भरा काम करती. एक प्लास्टिक की थैली से धागे में शीशे और लेई का मिश्रण लगाती. धागा हर बार चिपक कर उलझ जाता. पर नाकामयाबी की परवाह किसे थी? हम बार-बार मांझा बनाते.

कर्म के बदले फल- इन बातों से बिना बोझिल हुए, हमारा अबोध मन, छलांगे मार-मार कर कल्पना की वास्तविक सीमाओं को पार कर जाता था. और आशा भी तो बचपन की पक्की संगिनी होती है जो बचपन के कुछ प्यारे साथियों की तरह, धीरे-धीरे दूर होती चली जाती है. रनिया ने एक बार शहद निकालने की भी कोशिश की. शहद तो नहीं निकाल पाई, लेकिन मज़ा खूब आया था.

यह शायद हमारी सबसे ख़तरनाक योजना थी. सबके काम बँटे हुए थे. मध निकालेगी रनिया. गाँव में उसने देखा था, कैसे अपने आप को सिर से पाँव तक ढक कर, छत्ते के पास धुंआ करके, मधुमक्खियों को भगाया जाता है. आँखों के लिये, बोरे में दो छेद करके उसने सिर पर पहना. लम्बे बाजू वाले कुर्ते को धारण किया. बड़े बच्चे साड़ी के चिथड़े चुपके से लाये और पर्दे के डंडे पर मशाल बनायी गयी. छोटे बच्चे पहरेदार थे, पर दुर्भाग्यवश वे इस बात को भूल गए.

इधर दियासलाई खीच रनिया ने भिनभिनाते शुत्रुओं को ललकारा, उधर ज़ोर से धोबी की आवाज़ आई " देखीं! देखीं! बउवा सब कोनची कर रहें हैं!"

ऐसी अद्भुत योजनायें हमारे नन्हे दिमाग से परे थीं, लेकिन रनिया उनकी सर्जना कर सकती थी. उसे घर और बगीचे की सारी खबर रहती थी. गाँव की लड़की थी, शायद इसलिए वह पक्की दीवारों से भागती थी. हम सारे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे. घर आते तो हमारी टोली खूब जमती. अब सोचती हूँ, कि जब हम स्कूल में होते होंगें, तो क्या करती होगी रनिया?

उसका बचपन वहीं गुज़रा- उस घर, बगीचे, कुत्ते और मछलियों के बीच. गाँव जाने से उसे कोई ख़ास लगाव नहीं था. और गाँव में बसे परिवार को रनिया की ख़ास चिंता न थी. वैसे भी, उनसे बेहतर जीवन रनिया का शहर में था. माँ उसकी बचपन में गुज़र गयी थी. और उसका बाप रामप्रसाद, जब कलकत्ता गया था तो अपने से बीस साल छोटी लड़की अन्ना को भगा कर, शादी कर ले आया था. गाँव आ कर अन्ना चौंक गयी. जिस ज़मीन और जायदाद के बारे में रामप्रसाद ने बताया था, वह सब तो था ही नहीं! और अन्ना ज़्यादा समृद्ध घर की थी.

सौतेली माँ होकर भी १९ साल की अन्ना को अब तक यह ज्ञान नहीं हुआ था की एक सौतेली बेटी क्या होती है? प्यार करना या हुक्म चलाना, कुछ भी अन्ना नहीं जानती थी. अक्सर गाँव से आती तो महीनों घर पर रह जाती और खाना-पीना बनाती. रनिया के लिए वह एक बड़ी बहिन की तरह थी. रनिया उसके साथ लगी रहती, कभी उसे तंग भी करती. पर जब रनिया बड़ी हुई तो अपनी माँ के साथ गाँव चलीं गयी. एक दिन उसका बाबू घर आया था, उसकी शादी के लिए पैसे और सोने की नाक की कील मांगने.

"लगता है इसे भूख लगी है!" माँ फुसफुसा कर हमें कह रही थी. उसका इशारा ड्राइवर की ओर था जो बहुत तेज़ गाड़ी चला रहा था. जब भी उसे भूख लगती थी, वह ज़ोर से गाड़ी चलाने लगता. और बात यह थी कि उसका पेट बिना भात खाये, भरता ही नहीं था. भात कहाँ मिलता? फिर भी माँ ने गाड़ी एक दुकान पर रुकवाई और कहा कि वह जा कर कुछ खा ले.

जब तक हम पुराने घर पहुचे, गोधूलि हो चुकी थी . गाड़ी से उतर कर हम उसी पुराने गेट पर आ कर खड़े हो गए. गेट बिलकुल वैसा ही था. लेकिन वह लंबी चहारदीवारी अलग-अलग रंगों में पेंट हो गयी थी. क्योंकि वह महाकाय प्लाट, अब छोटे खण्डों में बँट चुका था. नन्हे गेटों की कतार ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने ज़बरदस्ती उन्हें वहां घुसा दिया हो. बड़ा गेट खुला था और घर वैसा ही था, पर घर के बाहर बैठे लोगों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे शरणार्थी हों. वह घर एक बुज़ुर्ग की तरह मौन खड़ा हमारे लौटने का इंतज़ार कर रहा था.

अंदर जाना हमने सही नहीं समझा. उसी समय कोई जान पहचान का माँ के पास आया और बात करने लगा. उसने बताया की पीछे बगीचे की ओर और लोग भी बसे हुए हैं. उनके लिए पीछे से गेट है. मैं समझ नहीं पाई, क्योंकि बगीचे की दीवार इतनी ऊंची थी कि उसके पीछे क्या है, हम बच्चों ने कभी नहीं देखा था. देखना चाहा भी नहीं, क्योंकि हमारी सारी दुनिया बगीचे में ही थी. हम उसकी सीमाओं में संतुष्ट थे.

वहां से निकल कर हम जल्दी गेस्ट हाउस पहुंचे. सबसे पहले ड्राइवर साहिब को भात, दाल, तरकारी खिला कर खुश किया गया और भाई ने उसे पान के पैसे दिए. कल सवेरे ही एक ख़ास मंदिर में दर्शन करके हमे वापस लौटना था.

खूब सवेरे दर्शन करके हम उस पतली सड़क से गाड़ी की ओर वापस चलने लगे.

" क्या दीदी फिर से छपरा वाले रास्ते से चलना है?" ड्राइवर की बातें सुनकर मैं उसकी तरफ देखने लगी. सबने सोचा, क्यों नहीं, हमने शुरुआत जल्दी की थी और समय बहुत था. इसलिए हमने वही रास्ता चुना.

घर के लिए मुड़ने के पहले माँ ने ड्राइवर से कहा कि वह पीछे वाले रास्ते से चले, जो बगीचे से सटा हुआ था. वहां पहुँचकर मैं उस नये रास्ते को पहली बार देख रही थी. माँ की बातों से लगा कि पहले यह रास्ता कच्चा था, अब उसकी जगह पर एक पक्की सड़क बन गयी थी. वह दस फुट की दीवार, जो बगीचे की सीमाओं के ख़तम होने का संकेत देती थी, सारी की सारी टूट चुकी थी. वहाँ का सारा नज़ारा मेरे लिए अपरिचित था.

तभी, थोड़ी दूर पर मुझे शहतूत की टहनियाँ दिखीं. मेरे चेहरे के विस्मय को माँ और भाई ने देखा. अब माँ उन टहनियों की ओर देख रही थी. वह आश्चर्य से बोल पड़ी - " अरे! वही तूत का पेड़?"

हमारे कदम जो जल्दी-जल्दी उस ओर बढ़ रहे थे, एक बाँस के फाटक पर आकर रुके. हाँ, यह वही तूत का पेड़ था, पर उसके संगी-साथी ग़ायब थे. वह हरे बादाम का पेड़, जिसका बादाम हमेशा कसैला होता था, वह नारंगी का पेड़ जो कभी फला ही नहीं, अनगिनत खुशबूदार नींबू, रसीले आम और अमरुद के पेड़, जिनमे से लाल अमरुद हमें सबसे प्यारा था और चिड़ियों को भी. अमरुद के लाल होने की खबर परिंदों को सबसे पहले हो जाती. उनसे जो बचता, हम खाते. और वह मीठे बेर का झुरमुट, जिसका बेर खाना तब तक मना था, जबतक बेर सरस्वती पूजा में चढ़ न जाएँ.

पुरानी यादों के सोतों से मन गीला हो उठा और यह एहसास हुआ कि शायद आदमी का चीज़े संजोना व्यर्थ नहीं होता. चीजें नष्ट हो जाएँ पर उनकी यादें हमारे व्यस्त जीवन को पल-भर के लिये मीठा कर जाती हैं. जैसे ऑफ़िस जाने के रास्ते में कभी, अचानक आ जाती है मंजराए पेड़ की खुशबू. उससे क्षण-भर के लिए खुश होना, इस बात का सबूत हो जाता है कि हम रोबोट नहीं, ज़िंदा हैं.

कितने लोग अब उस बगीचे में बस गए थे. पीछे दो बड़े समृद्ध मकान थे, लॉन और गाड़ियों के साथ. इस फाटक के बगल से एक पतला, पक्का रास्ता, उन तक जाता था. यह फाटक एक गोशाला का था और उसकी बगल में दो बहुत ही छोटे मकान थे. कहने को वे सीमेंट और ईट के बने थे पर एक तरह से, एक बड़ी,पक्की छत वाली, मज़बूत, झोपड़ी के ही रूप थे.

उनमें से एक घर के सामने दो बच्चे खेल में व्यस्त थे. एक पास की दीवार पर हांथों से गीली मिट्टी की छाप बना रहा था और दूसरा लड़का मुर्गे के पीछे भाग रहा था. उनकी माँ, नयी, नीली साड़ी पहने, सर झुकाए, मसाले सुखा रही थी. उसने दोनों की ओर देखा और फिर आराम से, सर झुका कर शेह्तूत की छाया में बैठ गयी.

मेरा बेटा मुर्गियों को बुलाने लगा. तब उस परिवार ने आये अतिक्रमियों को देखा. धीठ बालक ने मेरे बेटे को कहा- "भाग!"

औरत ने बेटे को डांटा और हमारी तरफ, हाथों से आँखों को धूप से बचाती, आने लगी. अचानक वह बोली-

" दीदी जीsss?"

माँ को यहाँ कितने लोग जानते थे, यह उसे भी पता नहीं था. पर जब वह हमारे पास पहुंची तो एक साथ सबने चौंक कर कहा-

"रनिया?"

पर वह औरत हमारी तरह चकित नहीं थी. बड़े ही सामान्य ढंग से उसने माँ के पैर छुए और फिर मेरे. उसे रोक मैंने उसके कंधे पर हाथ डालते फिर से पूछा- "रनिया?"

जवाब में मुझे वही हंसी मिली. रनिया का चेहरा वही था, शायद कद भी वही. वह बस चौड़ी हो गयी थी. बचपन की तरह उसके बाल रूखे और बिखरे नहीं थे. तेल से सीटे बालों के बीच उसने खूब सिन्दूर लगा रखा था. साड़ी भी उसने बड़े सलीके से कंधे पर, सेफ्टी पिन से बाँध रखा था. नई साड़ी, लाल धागे में बाँधा, कुछ भारी सा सोने का लौकेट, दो पतली सोने की चूड़ियों में लगे कई सेफ्टी पिन, इन सबों के बीच रनिया का वही पुराना चेहरा कुछ मेल नहीं खा रहा था. अब भेस बनाकर कौनसा नया नाटक करने वाली थी रनिया?

" आइये न..." उसने कहा.

पास की खाट पर उसने जल्दी से एक साफ़ चादर बिछा कर हमें बैठाया और नाश्ता बनाने में लग गयी. बीच-बीच में वह मेरे बेटे के पास आकर बड़े प्यार से उसे बिस्किट और अंगूर खिलाती.

" सुना तुम्हारा पति आसाम कमाने गया. अभी भी वहीं है?"

" जी." रनिया ने माँ को उत्तर दिया.

माँ गाँव की खबर लेने लगी. बातों-बातों में पता चला की रनिय का पिता, रामप्रसाद, गुज़र गया है और सौतेली माँ गाँव में रहती है. अगल-बगल, रोज़गार की तलाश में गाँव के कई लोग किराये पर बस गए है. यह ज़मीन ज्वाला चौधरी की थी और बगल वाली हवलदार की. अन्दर से अचार लाने जब रनिया गयी तो माँ ने कहा,

" यहाँ रेन्ट पर रहती होगी, जाने कितना देती होगी?"

भाई ने खाट पर बिछते हुए, नीले आकाश की ओर मुस्कुराकर देखते हुए कहा,

"सोचों दीदी, जिस हाते में रनिया बड़ी हुई, वहीं किराया देती है!"

गरम-गरम निमकी, अचार, तला हुआ चिवड़ा और मीठे ओरेंज क्रीम बिस्कुट, अंगूर के साथ स्टील के प्लेट में आये. बडे प्रेम से पूछ-पूछ कर रनिया ने हमे खिलाया. नाश्ता करके हम उठे. माँ नें बच्चों के हाथ में कुछ पैसे दिए और रनिया को कभी घर आने को कहा. वह बस मुस्कुराती रही और बच्चों के साथ हमे बाहर छोड़ने आयी.

फिर वही हुआ जिसका मुझे डर था. गाड़ी में सब बैठ चुके थे तब मेरे बेटे ने कहा-


“ मॉम , आई वान्ना गो पौटी  !”

"उफ़! होटल में क्यों नहीं बताया?"

“ आई दिंट वान्ना गो बीफोर !”

“ चलिए न .” रनिया बोली और मैं अपने बेटे को लेकर अन्दर गयी.

उस टॉयलेट में बड़ी मिन्नतों के बाद बेटा जाने को राज़ी हुआ. इंतज़ार करते समय पिछवाड़े का फ़ाटक खुला और एक ५५ वर्ष के करीब का पुरुष हाते में घुसा. घुसते ही बड़े सामान्य ढंग से वह अपने कुर्ते को खोलकर बनियान में खाट पर बैठने ही वाला था की उसने हमे देखा और थोड़ा चौंका. रनिया ने धीरे से उसको कहा,


“ आते है .”

और वह घर के अन्दर चला गया.

मैं पूछने ही वाली थी की क्या कोई गाँव से, ताऊ या चाचा आया है की फ़ाटक पर से एक आदमी की आवाज़ आयी-

" ज्वाला बाबू! ज्वाला बाबूsss !"

रनिया वहाँ गयी तो उस आदमी ने रनिया को कुछ देकर कहा,

" ज्वाला बाबू पान मंगवाए थे, दे दीजिएगा! चलते है.'

उस आदमी के निकलते ही पहला पुरुष घर से निकला और रनिया ने उसे पान दिया. तभी रनिया का छोटा बेटा हाते में आया और उसे देख उसकी ओर दौड़ा,

" पप्पा!"

एक हाथ में पान लिए, और दूसरे से बच्चे को पकड़े वह वापास अन्दर चला गया.

" पप्पा..."

उस एक शब्द ने, क्षण भर में, रनिया को मेरे लिए अपरिचित बना दिया. कटन महसूस कर, मैं बेटे की ओर मुड़ी तो देखा रनिया उसके हाथ धुलवा रही है. बेटे के जूतों से मिट्टी साफ़ करती वह बड़बड़ाने लगी जैसे झाड़ और पौधों से बात कर रही हो.

' जिससे बाबू सादी किये उह तो चौधरी जी का कर्जा चुकाने के लिए हम ही को उनके घर छोड़ कर आसाम भाग गया! सोचीये!"

गोल-गोल आंखे कर वह ज़मीन की ओर देखकर सर हिला रही थी, जैसे पहली बार उसे इस बात पर विस्मय प्रकट करने का अवसर मिल रहा हो .

" रनिया!" मैने कहा पर उसने सुना ही नहीं. मैं जैसे वहां थी ही नहीं.

मेरे बेटे को उठा कर वह कार की ओर चल दी. और मैं उसके पीछे-पीछे.

" जवाला चौधरी इज्जत नहीं देते,अपने बेटा-पतोह से लड़ाई करके हमसे सादी नहीं करते...."

अचानक वह कार के पास आकर पहली बार मेरी आँखों में देखकर बोली,

"....तो हमारा कौन गत होता दीदी? अब ईहे हमारा संसार है."

यह कहकर रनिया ज़मीन की ओर देखकर मुस्कुराने लगी. शेह्तूत की धूप-छाओं वाली रौशनी में खड़ी उस औरत को मैने एक बार फिर गौर से देखा. वह मुस्कुरा नहीं रही थी . याद आया, कभी-कभी, दूर से रंगीन पत्ते भी फूल होने का भ्रम देते हैं.