लौटते हुए / जगदीश कश्यप

Gadya Kosh से
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उसने पसीने से भीगा हुआ रूमाल फिर जेब से निकाला और गर्दन के पिछले भाग को रगड़ते हुए मैनेजर को एक फ़्होश गाली बकी। उसे याद है कि बैंच पर बैठा हुआ लड़का कह रहा था— 'यार ! इंटरव्यू तो ख़ाना-पूरी करना है । आदमी तो पहले ही रख लिया गया है।'

उसने घृणावश उस बिल्डिंग की ओर थूक दिया जिसकी दसवीं मंज़िल पर इंटरव्यू हुआ था । अब वह भभकती सड़क पर आ गया था। सूरज जैसे उसके सिर पर चिपक गया हो । तप गया उसका माथा । ऊपर से सड़ी दोपहरी में बस का इंतज़ार । 'उफ !' उसके मुँह से निकला, 'पता नहीं कौन-सी बस में नंबर आएगा !' और वह एक फर्लांग लंबी लाइन में पीछे जाकर खड़ा हो गया ।'

जब वह स्टेशन पर आया तो भूख जवान हो चुकी थी । शो-केस में ग्लूकोज़ के बिस्कुट देखकर उसके मुँह में पानी आ गया। उसने चाय पीने का निश्चय किया । स्टाल पर खड़ा-खड़ा वह सोचने लगा कि अगर एक चाय-बिस्कुट के बदले डबलरोटी और एक सिगरेट खरीदेगा तो घर न जा सकेगा क्योंकि उसकी जेब में घर तक का ही किराया बचा था ।

घर पहुँचेगा तो माँ पूछेगी, क्या हुआ ?...तब !

हर बार की तरह उसने माँ को यह जवाब देना उचित न समझा...'माँ, उन्होंने कहा है कि हम तुम्हारे घर चिट्ठी डाल देंगे।

तब माँ बुझ जाएगी । फिर रोज़ाना की वही तकरार । बीमार बाप की खाँसी और बड़े भाई साहब के ताने— 'और कराओ बी०ए० । मैं तो पहले ही कहता था कि किसी लाइन में डाल दो । पर मेरी सुनता ही कौन है ।'

तब उसकी पत्नी उसका हाथ पकड़कर दूसरे कमरे में ले जाती हुई कहेगी, 'चलो जी, क्यों खामाखाँ सिर खपाते हो ।'

अचानक उसका ध्यान भंग हुआ, 'बाबू चाय पीओगे ?'

'हाँ भाई, एक कड़क चाय और ब्रेड-पीस देना ।'

गर्म चाय और ब्रेड पीस से उसे कुछ राहत मिली । उसने पाँच सिगरेट और खरीदीं । गाड़ी आने में अभी आधा घंटा था । उसने आराम से सिगरेट सुलगाकर थकान-भरा धुएँ का बादल उड़ाया और बैंच पर पसर गया ।

उसकी योजना थी कि वह बिना टिकट घर जाएगा । जाहिर था कि पकड़ा जाएगा और क़ैद हो जाएगी । चलो, कुछ दिन तो घर के ज़हरीले माहौल से निजात मिलेगी ।