लौट आओ तुम / भाग-1 / पुष्पा सक्सेना

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उनसे मिलने का सौभाग्य उसे दूरदर्शन की अपनी नौकरी की वजह से मिला था। मीता की उस केन्द्र में कम्पीयर के रूप में तभी नई-नई नियुक्ति हुई थी। बेहद मासूम चेहरे पर उज्ज्वल, गहरी काली आंखें उसकी विशेषता थी। आवाज की ताज़गी और मीठी खनक ने, उसकी सबसे अलग पहचान बना दी थी। कुछ ही दिनों में वह दर्शकों की फेवरिट कम्पीयर बन गई थी। फै़न-मेल से आए पत्रों को वह बड़े उत्साह से पढ़ती और आरती को लिख भेजती।

आलोक जी के इन्टरव्यू के लिए केंद्र निर्देशक ने कुछ देर सोचने के बाद उसका ही नाम सुझाया था। इस बात पर मीता को ताज्जुब ही हुआ था, उससे सीनियर कई अनुभवी कम्पीयर थी, उसके बावजूद केंद्र-निर्देशक द्वारा उसका नाम सुझाया जाना, उसे बहुतों की ईर्षा-पात्री बना गया।

इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति से साक्षात्कार कैसे कर पाऊंगी बड़ी-बड़ी आंखों में आश्चर्य सिमंट आया था।

‘अब बनो मत, में तो लड्डू फूट रहे हैं। ऊपर से बाते बना रही है।’ कान्ता ने चिढ़े स्वर में कहा।

‘नही कान्ता दी, सच्ची डर लग रहा है। सुना है वो जिससे नाराज हो जाएं, उसकी छुट्टी हो गई समझो।’

तुझे क्यों डर लग रहा है? तेरे सुन्दर मुखड़े पर तो सौ खून भी माफ़ किए जा सकते हैं, वर्ना इतनी एक्सपीरिएंस्ड इन्टरव्यूअर के रहते डाइरेक्टर साहब तुझे चुनते? निशा के स्वर में हिकारत झलक रही थी।

‘इसके लिए मुझे क्यों दोष दे रही है, मैने थोड़ी जाकर उनसे कहा...।’ मीता रूआंसी हो आई।

‘क्यों बेचारी के पीछे पड़ी हो, सच तो यह है मीता जिस सहजता से इन्टव्यू लेती है, हम किसी को संभव नहीं है।’ अलका दी ने मीता का पक्ष लिया।

‘हमें क्या पड़ी है जो किसी के पीछे पड़ें। आप तो अलका दी कमाल ही करती हैं, इत्ते ही दिनों में यह नई लड़की आपकी अपनी हो गई और हम बेग़ाने हो गए।’ निशा ने शिकायत सी की थी।

मेरे लिए तो तुम सब समान हो, पर मेरे ख्याल में नई पीढ़ी को अच्छे चांस मिलने ही चाहिए। अपने टाइम में हमने मनचाहा कर लिया, अब इनका ज़माना है। चलो इसी बात पर आज सबको चाय मैं ही पिलाती हूँ।

‘थैंक्यू अलका दी, पर अभी तो पिछले प्रोग्राम की एडिटिंग नही कर पाई हूँ। आज उसे निबटाना है, मुझे तो माफ करें।’ निशा ने चाय पीने के साथ, न जाने का अच्छा सा बहाना खोज लिया।

‘मुझे भी ए.एस.डी. से मिलना है, तीन बजे का टाइम दे रखा है। आपकी चाय उधार रही अलका दी।’ कान्ता का बनावटी बहाना, स्पष्ट था।

‘ठीक है, चल मीता’ अपन दोनों ही चाय पीने चलते हैं, ‘या तुझे भी कोई काम है?’ हल्की मुस्कान के साथ अलका दी ने पूछा था।

‘आपके साथ चाय पीने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम और कौन सा होगा, अलका दी।’

‘चमची कहीं की।’ कान्ता हल्के से बुदबुदाई थी।

‘देखना है, कितने दिन इसकी चमचागीरी करेगी।’ निशा झुंझलाई थी।

कैंटीन-स्वामी ने आदर से अभिवादन किया था।

‘आज बहुत दिन बाद आने का टाइम मिला है दीदी को।’

‘हां बनवारी, कुछ न कुछ लगा ही रहता है। चैनल बढ़ने से काम तो बढ़ेगा ही।’

‘सो तो ठीक कहा दीदी, क्या भेजू’

‘आज का क्या स्पेशल है बनवारी, वही भेज दो।’

‘आज तो गरमागरम आलू-चाप हैं। अरे ओ सुरेशवा, इधर दो स्पेशल चाय और टिक्की तो देना।’ बनवारी ने अपने साहयक को वहीं से आवाज लगाई।

‘और कहो मीता यह शहर कैसा लग रहा है?’ अलका ने टिक्की की टुकड़ा मुंह में रखते हुए पूछा।

‘बहुत अच्छा। अपने छोटे से शहर के मुकाबले ये बड़ा शहर है। आप यहां कब से हैं अलका दी’

‘अब तो लगता है युगों से यहीं रहती आई हूँ। वैसे मेरा घर सुल्तानपुर में है। शायद नाम नहीं सुना होगा’

‘सुल्तानपुर, हमारी तो ननसाल ही सुल्तानपुर में है। नानाजी वहां तहसीलदार थे। बचपन में कई बार उधर जाना हुआ है।’

‘वाह तब तो हम मौसेरी बहनें हैं, ठीक कहा न’

‘मुझे तो हमेशा आपसे बड़ी बहिन जैसा-स्नेह मिला है, अलका दी। शुरू से आपने हर जगह, हर पल मेरी सहायता की है, आप न होती तो...।’

‘कोई और होता। तुममें गुण हैं, उन्हें पहिचानों मीता। अपने को अंडर एस्टिमेट कभी नहीं करना चाहिए, वर्ना दूसरे लोग फायदा उठा लेते हैं।’

‘आप शुरू से ही इतनी बोल्ड थीं, अलका दी’

‘शुरू से... मैं बोल्ड...क्या मैं बोल्ड दीखती हूँ, मीता?’

‘आपके साहस की तो सभी दाद देते हैं अलका दी। सुनते हैं स्टेशन डाइरेक्टर तक आपसे डरते हैं।’

‘बड़ी कड़वी बात कह गई मीता।’

मुझे माफ़ करें, अलका दी।

‘किस-किस को माफ़ करूं, मीता। सभी ने ऐसा ही समझा है मुझे।’ अलका उदास हो आई थी।

उस उम्र में भी अलका में एक अजीब आकर्षण था। छरहरी-लम्बी देह के साथ मुख की बनावट भी सुन्दर थी। निश्चय ही युवावस्था में वह बहुत सुन्दर रही होगी। नियुक्ति के बाद से मीता, अलका का इधर-उधर नाम वह सुनती आ रही है।

‘अरे बाप रे, वह तो बड़ी जबरदस्त चीज़ है, सबकी ऐसी की तैसी कर देती है, जरा सम्हल के रहना उससे।’ पहले ही दिन निर्मला ने मीता को समझाया था।

‘पर हमें तो वह बहुत अच्छी लगती हैं। ठीक बात के पक्ष में ही तो वह आवाज़ उठाती हैं। मीता ने हर मिटिंग में अलका दी को न्याय के लिए आवाज़ उठाते देखा था।

‘जो खुद ठीक न हो वह न्याय की गुहार लगाए। सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली।’ निशा खिलखिल हंस पड़ी।

निशा की वो हंसी मीता को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी थी। बाबूजी कहा करते थे पीठ पीछे बुराई उन्हीं की की जाती है, जिनमें कुछ ईर्षा लायक होता हो।

उस दिन के बाद से मीता अन्य लड़कियों से कटकर, अलका दी के निकट होती गई थी। कभी जी में आता उनसे पूछे-इस सुन्दर रूप के साथ, उम्र की इतनी सीढ़ियां बिना विवाह कैसे चढ़ गई, अलका दी? मधुमास की एक भी छींट आप पर क्यों नहीं पड़ीं, पर कभी पूँछ पाने का वह साहस न कर सकी।

मीता कभी यह भी नही सोच पाई कि अलका दी के बारे में इधर-उधर होती खुसपुस अकारण ही तो नहीं होगी, आज उन्हीं का वह स्वयं दिल दुखा बैठी।

चाय पीकर अलका के साथ लौटती मीता की स्टेशन डाइरेक्टर साहब के यहां से बुलाहट आई थी।

‘मिस वर्मा’ कल शाम पांच बजे आलोक जी का इन्टरव्यू, उन्हीं के बंगले पर लेने जाना होगा। प्रश्न बहुत अच्छे होने चाहिए। ऐसा कीजिए प्रश्नावली तैयार कर, एक बार मुझे, जरूर दिखा दें। आप उनके बारे में कुछ जानती हैंµ

‘जी सर, उनका बायोडाटा मेरे पास है। आप कुछ और बताना चाहेंगे?’

‘अरे उनके बारे में रोज ही कोई न कोई समाचार छपता रहता है। पुराने अखबार देख लो, बहुत मैटीरियल मिल जाएगा। चाहो तो शम्भूनाथ की हेल्प ले लो, उसने काफ़ी दिन उनके साथ काम किया है। मैं उससे कह दूंगा।’

आलोक जी के विषय में चारो ओर से इंस्ट्रकशन्स मिल रहे थे। इन सब निर्देशों ने मीता को डरा सा दिया। कालेज, विश्वविद्यालय की डिबेटों में उसे फ़स्र्ट प्राइज मिलती रही है। उसकी प्रेजेन्स आॅफ माइंड के कारण बाबूजी हमेशा चाहते रहे, वह वकील बने, पर उनके असामयिक निधन ने सब गड़बड़ा दिया। घर की सबसे बड़ी बेटी मीता को यह जाॅब लेना पड़ा। छोटा भाई उस समय इंजीनियरिंग के द्वितीय वर्ष में था। शायद दो-तीन वर्षों में स्थिति सुधर जाए। सबसे छोटी बहिन अभी बारहवीं कक्षा में है। बाबूजी ने वकालत में जितना कमाया, उससे ज्यादा खुले हाथ खर्च किया। दुनिया भर के दीन-दुखी बाबूजी से ही सहायता मांगने इकट्ठे रहते। रिश्तेदारों ने भी उनकी उदारता का हमेशा बेजा फा़यदा उठाया। अम्मा लाख मना करतीं पर बाबूजी हंस कर टाल देते।

‘अरे शांति इनकी दुआ ही काम आएगी। धन-सम्पत्ति साथ बांधकर ले जाना है क्या?’

‘साथ बांधकर ले जाने को कहीं कुछ छोड़ते भी हो, पर इतना तो सोचो दो-दो लड़कियों की शादी करनी है। सब दूसरों पर खर्च कर डालते हो, अपनी भी सोची है’

‘दूसरों की मदद करो, अपनी मदद भगवान करेगा।’

‘इसीलिए दूसरों की लड़कियों की शादी की इतनी चिन्ता है कि अपनी बेटियों को भुला ही बैठे हैं। कौन विश्वास करेगा चचेरे भाई की लड़की की शादी का पूरा खर्च तुमने उठाया है? देख लेना, हमारे वक्त पर कोई काम नहीं आएगा।’

‘जो सबकी रक्षा करता है, वह विधाता तो अपने हिसाब में सब रखेगा शांति। अपने नाम को सार्थक करो और शांति रखो, देवि।’

अम्मा की बातों को बाबूजी यूंही हंसी में उड़ा देते। बाबूजी क न रहने पर कौन काम आया? सबका यही सोचना था जिसने दूसरों की शादी में इतना पैसा खर्च किया, वे अपनी लड़कियों के लिए ज़रूर प्रबंध कर गए होंगे।

जिन्हें बाबूजी ने सदैव दिया, उनसे कुछ लेने का अनुरोध कर पाना कठिन था। बाबूजी के निधन पर आए लोग, सच्चे हृदय से दुख मना, विदा हो गए। बाद में अम्मा ने जब चाचा से मीता के विवाह के लिए प्रयास को कहा तो उन्होंने बड़े जोश से हामी भी थीµ

‘आप परेशान न हों, भाभी जी हमारी मीता लाखों में एक हैं। भगवान की कृपा से भाई साहब देने-लेने का इंतजाम कर ही गए हैं। मैं तुरन्त बात शुरू करता हूँ।’

‘पर भइया, नगद देने को हमारे पास कुछ नहीं है, तुम तो जानते ही हो, इन्होंने अपने घर-परिवास के बारे में कभी सोचा ही नहीं।’

‘क्या कह रही हैं भाभी जी, अरे कोई घर-फूंक तमाशा देखता है क्या? भाई साहब ने तो दूसरों के ब्याह-काज निबटाए हैं, भला अपनी बेटियों के लिए सोचा न होगा।’

‘सच यही है भइया, कितना समझाती रही, पर उनके कानों में मेरी कोई बात जो पड़ी हो। अब तुम्हारा ही आसरा है।’ अम्मा रुआंसी हो गई।

‘ठीक है, भाभी जी, देखूंगा।’ चाचा जैसे घबरा से गए। उसके बाद उन्होंने जो एकाध प्रस्ताव सुझाए, उनसे विवाह करने की अपेक्षा अविवाहित रहना, मीता को अधिक सहज लगा था। अम्मा ने विरोध में अगर कुछ कहना चाहा तो चाचा ने दो टूक जवाब दे दियाµ

‘देखिये भाभी जी अगर दहेज देने के नाम पर पास में कुछ न हो तो समझौता तो करना ही पड़ता है। आजकल बिना दहेज लिए विवाह करने वाले बस कहानियों में ही मिलते है।’

‘भइया दिहाजू के साथ बेटी ब्याह भी दूं, पर उनकी उम्र भी तो देखो। मीता से दुगनी उम्र होगी, उस पर दो बच्चों का साथ...।’

‘तब आप ही खोज लीजिए बेटी के लिए वर। बड़ी मुश्किल से यह संबंध मिला था। आगे से आप जाने, हमसे उम्मीद न रखें।’

मीता ने उसी समय प्रण ले लिया था, नौकरी करके भाई और बहिन की पढ़ाई पूरी कराएगी। वह बाबूजी के स्वप्नों को यूं छिन्न-भिन्न नहीं होने देगी। अम्मा उसके फैसले को सुन रो पड़ी थींµ

‘तू नौकरी करेगी? लड़की की कमाई पर हम निर्भर होंगे। यही दिन देखने को वो हमें छोड़ गए।’

उस समय मीता ने अम्मा को बच्चों सा पुचकारा थाµ

‘अम्मा आजकल लड़के-लड़की में कौन फ़र्क करता है? भइया की नौकरी लगते ही मेरी शादी कर देना, ठीक है न? रोती अम्मा हंस पड़ी थींµ

‘अच्छा-अच्छा बड़ी आई पुरखिन बनने। अभी तो मकान के किराए से काम चल जाएगा, तुझे नौकरी करने की ज़रूरत नहीं है समझी।’

‘मकान के किराए से क्या-क्या कर सकोगी अम्मा? भइया को तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। होस्टेल में कितना चार्च आता है, कुछ पता भी है, अम्मा’

सीधी-सादी अम्मा ने इन बातों का कभी हिसाब नहीं रखा था। मीता को बाबूजी की फ़िजूलखर्ची पर कभी क्रोध नहीं आया। अम्मा उन्हें हमेशा व्यर्थ ही परेशान करती हैं, पर अब मीता को बाबूजी से नाराज़गी तो नहीं, पर शिकायत थीµउन्होंने अम्मा की सुनी होती तो आज वह दूसरों के सामने यूं असहाय तो न होती।

पास के शहर में नए दूरदर्शन-केंद्र की स्थापना होने वाली थी। केंद्र के लिए कैजुअल कम्पीयर, उद्घोषिकाओं की नियुक्ति का विज्ञापन देख, मीता ने आवेदन दे दिया। अम्मा को समझाया थाµ

‘वहां रहते प्राइवेट पढ़ाई भी कर लूंगी, अम्मा। काम भी बेहद आसान है, कभी-कभी अनाउंसमेंट भर करने होंगे।’

अम्मा की अनिच्छा के बावजूद मीता को नौकरी मिल गई। छह महीने के बाद ही उसे स्थायी कर दिया गया। आज वह सफल उद्घोषिका और कम्पीयर गिनी जाती है।

‘क्या बात है मीता, बड़ी-खोई सी दिख रही है? क्या एस.डी. ने कुछ कहा है?’ अलका दी ने उसे विचारों की दुनिया से यथार्थ में ला पटका।

‘नहीं-नहीं वैसे ही कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं, अलका दी।’

‘ये कमबख्त यादें..........हां तूने इन्टरव्यू की तैयारी कर ली?’

‘अभी किए लेती हूँ, न जाने क्यों डर सा लग रहा है।’

‘डर किस बात का? प्रश्न पूछते समय कैमरे को भूल, सहज स्वाभाविक ढंग से बात करनी चाहिए। तू तो एक्सपर्ट है, आॅल दि बेस्ट।

‘थैक्यू, अलका दी।’ मीता के ओठों पर मुस्कान आ गई।

शाम को सवा चार बजे कार उसे लेने पहुंच गई। कैमरे के साथ नवीन आया था। प्रोड्यूसर और अन्य स्टाफ अलग वैन में पहुंच चुके थे। नवीन की फोटोग्राफी की सभी तारीफ़ करते थे। पूना इंस्टीच्यूट से फा़ेटोग्राफी की डिग्री के साथ, उसका अनुभव-क्षेत्र बहुत विशद् था। उद्घोषिकाओं का नवीन के प्रति मुग्ध-भाव रहता था। वह चाहे तो किसी को ऐसा सुन्दर बना दे कि लोग देखते रह जाएं, पर अगर किसी से चिढ़ गया तो समझो उसकी छुट्टी हो गई। एक बार निशा और उसकी कुछ कहा-सुनी हो गई थी, उस दिन निशा का सुंदर चेहरा, निहायत मामूली सा लगा था। नवीन को खुश रखने में ही भलाई समझी जाती थी।

मीता के प्रति नवीन का व्यवहार सदैव संयत रहा, इसलिए दोनों के बीच अभी तक तकरार का मौका नहीं आया। मीता ने हल्की प्याजी़ रंग की साड़ी के साथ कानों में मूंगे के टाॅप्स और मूंगे की लाॅकेट वाली चेन पहिन रखी थी। उसके गोरे रंग पर प्याजी़ रंग खिल रहा था दृष्टि पड़ते ही नवीन के ओंस गोल हो गए। हल्की सीटी के साथ उसने मीता की रूप-सज्जा को अपनी स्वीकृति दे दी।

‘वाह आप तो एकदम तैयार बैठी हैं, लगता है आलोक जी से मिलने की बड़ी जल्दी है।’

‘ऐसी बात नहीं है, पर समय की हमेशा से पाबंद रही हूँ। एक कप चाय चलेगी?’

‘आज नहीं पर एक दिन सिर्फ चाय नहीं, भरपेट खाना खाकर जाऊंगा। खाना पकाना जानती हैं, न?’

‘खाकर बताइएगा।’ मीता हल्के से मुस्कुरा दी।

‘तो चलें?’

कार से आलोक जी के घर पर पहुंचने में करीब पन्द्रह मिनट लगे होंगे। बंगले के सामने मनोहारी गार्डेन मीता को बहुत अच्छी लगी। गार्डेन के बीच में रंगीन फा़उंटेन शोभा बढ़ा रहा था।

‘कितनी सुन्दर गार्डेन है, लगता है आलोक जी को प्रकृति से बहुत प्रेम है।’

‘उन्हें बहुत सी चीजों से प्रेम है। हो सकता है आपसे भी.........।’

‘छिः, कुछ तो सोचकर बोला करो, जो मुंह में आया कह दिया।’

‘गलत नहीं कह रहा हूँ, मेरा अनुभव कहता है, आप पर डोरे डाले जाएंगे और जाल में फंस जान आपकी नियति है।’

‘प्लीज, मुझसे ऐसी बातें मत किया करो, नवीन। मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता।’ मीता जानती थी नवीन उस तरह के मजाक सभी से करता रहा है।

एक वर्दीधारी वेटर ने चाय, तले काजू और बिस्किट अदब से सामने रख दिए। आलोक जी के पी.ए. ने अभिवादन कर, सूचना दीµ

‘मंत्री जी शहरी-विकास की मीटिंग लेकर अभी पहुंचे हैं, दस मिनट का समय लेंगे। असुविधा के लिए क्षमा करें।’

‘आप परेशान न हों, अगर इजाज़त हो, आपकी गार्डेन देखना चाहूंगी।’

‘बड़े शौक से मिस....लगता है आपको भी गार्डेनिंग का शौक है।’

‘गार्डेनिंग का नहीं, पर सुन्दर गार्डेन देखने की शौकीन जरूर हूँ। नवीन, तुम भी आ रहे हो?’

‘न भई, मैं यहीं भला। आराम से चाय पीऊंगा और म्यूजिक का आनंद लंूगा।’

‘जल्दी-जल्दी चाय गले के नीचे उतार, मीता बाहर आ गई। गुलाबों के उतने रंग, एक साथ देख पाना, एक अनुभव था। मखमली घास के लाॅन के चारों ओर सफ़ेद-पीले क्रिसेंथेमम घेरा बनाए हुए थे। अनगिनत रंग-बिरंगे फूलों का मेला देखती मीता, अपने को भूल सी गई थी। कैमरे की क्लिक से उसकी तंद्रा भंग हुई थी।.......सामने खड़ा नवीन उसे देख मुस्कुरा रहा थाµ

‘ये क्या....तुमने मेरी फा़ेटो क्यों खींची?’

‘इस जगह खड़ी आप एकदम वनदेवी लग रही थीं। अपने को रोक नहीं पाया, लगा अगर इस भंगिमा को कैमरे में कैद कर सका तो मेरी कला सार्थक है।’

‘ठीक कहा। मैंने भी कुछ ऐसा ही सोचा था, चित्र की एक प्रति मेरे पास भी भिजवा दीजिएगा।’

उस आवाज पर दोनों ने चैंक कर देखा, गार्डेन के एक छोर पर बंद गले के सफेद कोट-पैंट में खड़े आलोक जी मुस्कुरा रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मीता उनसे भले ही पहले नहीं मिली थी, पर उनके ढ़ेरों चित्र समाचारपत्र पत्रिकाओं से प्रकाशित देखे थे। आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी आलोक जी इतने सहज भाव से उनकी बातों में सम्मिलित होंगे, इसकी मीता ने कल्पना भी नहीं की थी।

‘गुड ईवनिंग, सर।’ नवीन ने सम्मान पूर्वक सिर झुका अभिवादन किया।

‘नमस्ते।’ मीता के दोनों हाथ जुड़ गए।

‘नमस्ते। बहुत देर इंतजार करना पड़ा आपको। जल्दी आना चाह कर भी पहुंच नहीं सका। हम लोग तो दूसरों की मर्जी के गुलाम जो ठहरे।’ हल्की मुस्कान के साथ आलोक जी ने मीता की ओर देखते हुए अपनी बात कही थी।

उनकी आवाज में जैसे शहद घुला था। सुनने वाले की आंखों में सीधे देख, अपनी बात कहते आलोक जी की वाणी से कोई भ्ज्ञी अप्रभावित नहीं रह सकता था। साथ की महिला सहकर्मियों की मीता के प्रति ईष्र्या, अनायास ही नहीं थी।

अनुत्तरित मीता की ओर सहास्य देख, आलोक जी ने सबको भीतर चलने का निमंत्रण दियाµ

‘आइए अब अन्दर चलें। आप जब चाहें, इस गार्डेन में आपका स्वागत है, पर अभी तो जिस काम के लिए आप आई हैं, उसे पूरा किया जाए।’

उस पूरे समय उन्होंने नवीन की उपस्थिति को सर्वथा नकार दिया था। मीता मन ही मन घबरा सी गई। कहीं नवीन का मूड उखड़ गया तो?

हाॅल में पहुंच मीता को उनके पद की गरिमा का अंदाज़ हो गया। विशाल हाॅल की प्रत्येक वस्तु मूल्यवान थी। सोफे़ पर बैठ, आलोक जी ने उसे आंमत्रित किया थाµ

‘आइए यहाँ बैठकर बातचीत आसानी से हो सकेगी, क्यों मिस्टर....आपका क्या ख्याल है?’

‘जी हां सर, यहीं ठीक रहेगा।’ प्रोड्यूसर शांतिकुमार व्यस्त हो उठे थें।

आलोक जी के समीप बैठती मीता संकुचित हो उठी। नवीन ने टेबिल के सामने से गुलदान हटा एक ओर कर दिया था। आलोक जी उसकी तैयारी से उदासीन, मीता से बातें कर रहे थे।

‘लगता है दूरदर्शन-केंद्र में नई आई हैं, शायद पहली नियुक्ति है?’

‘जी.....।’

‘बात बहुत कम करती हैं, इन्टरव्यू तो ले पाएंगी न?’

‘उसी के लिए तो आई हूँ। दरअसल आपसे पहले तो कोई परिचय था नहीं, इसलिए कोई काॅमन टाॅपिक समझ में नहीं आ रहा है।’ आलोक जी की चुनौती ने मीता के अन्तर के डिबेटर को जगा दिया।

‘ओह! अब बात समझ में आई। इन्टरव्यूअर का नारायणस्वामी ने ठीक चुनाव किया है।’ अब वह हंस रहे थे।

नवीन की तैयारी पूरी हो चुकी थी। साउंड रिकार्डिस्ट ने एक दो शब्द सुन, ओ.के. कह दिया। लाइट्स आॅन के साथ प्रोड्यूसर ने हाथ से इशारा कर इन्टरव्यू शुरू करने को कहा था।

सहज स्वाभाविक ढ़ंग से मीता ने साक्षात्कार शुरू किया। आलोक जी ने प्रश्नों के उत्तर इतने अच्छे ढ़ंग से दिए कि बातचीत बहुत आसान हो गई। एक के बाद एक, बात निकलती गई, कहीं भी रिटेक की जरूरत ही नहीं पड़ी। अन्त में मीता ने एक प्रश्न उनके शौक पर भी पूछाा था।

रीडिंग, ट्रेनिंग, गार्डेनिंग जैसी हाॅबीज के साथ मंत्री पद पर पहुंचने वाले आलोक जी निश्चय ही असाधारण पुरूष थे।

‘परिवार के साथ क्या आप न्याय कर पाते हैं? इतनी हाॅबीज, राजकाज के कारण क्या पूरे परिवान-जन को समय दे पाना संभव हो पाता है?’

‘मेरा परिवार तो पूरा देश है। माता-पिता ने तो मुझे कत्र्तव्यों से क्षमा दे रखी है, पर देशवासियों की जिम्मेदारी के लिए कोई छूट लेना संभव नहीं। उनके प्रति जिम्मेदारी ठीक निभाता हूँ या नहीं, यह तो उन्ही से पूछ देखिए।’

अचानक मीता को एहसास हुआ इतनी बड़ी भूल वह कैसे कर गई, उनके बायोडाटा में साफ़ लिखा था-पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने ग्राम के उत्थान का संकल्प ले, उन्होंने कार्य प्रारम्भ किया था। उनकी वही ग्राम-सेवा, उन्हें विधायक और उसके बाद राज्य मंत्री बना गई थी। विवाह के विषय में कही एक पंक्ति भी तो नही दी गई थी।

वस्तुतः उनकी निष्ठा, समर्पित सेवा-भाव ने उन्हें मुख्य मंत्री और दूसरे मंत्रियों में सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण बना दिया था। उनकी ईमानदारी की चर्चा आम बात थी, गरीबों के वे मसीहा माने जाते थे। आलोक जी ने विवाह क्यों नहीं किया, मीता के मन में यह प्रश्न बार-बार उभर रहा था, पर पूछने के पहले डाइरेक्टर साहब की अनुमति ज़रूरी थी। न जाने क्यों उन्होंने कह दिया थाµ

‘उनके व्यक्तिगत जीवन के विषय में प्रश्न न पूछना ही ठीक है। उन्होंने जनता के लिए व्यक्तिगत सुखों का परित्याग किया है।’

पर क्यों? क्या पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते, समाज-सेवा असंभव है? बाबूजी और अम्मा की छोटी-छोटी बातों पर कहा-सुनी मीता को याद हो आई थी। बाबूजी ने भी अगर समाज-सेवा का संकल्प लिया होता तो बहुत सफल रहते। अम्मा के कारण कहीं तो उन्हें अपने को रोकना पड़ा होगा।

‘कहां सो गई मीता जी?’ आलोक जी के प्रश्न ने मीता को चैंका दिया।

‘आपका आॅटोग्राफ़ लेना चाहती हूँ, पर आॅटोग्राफ़-बुक घर में ही रह गई। अगर आप माइंड न करें तो प्लीज इस पर कुछ लिख दें......।’ सफेद रूमाल मेज पर फैलाती मीता, संकुचित थी।

‘कपड़े पर लिखने का यह पहला अनुभव होगा। लाइए ट्राई करता हूँ। क्या लिख दूँ? हस कर आलोक जी ने मीता को देखा था।

‘जो जी चाहे लिख दें। मैं रूमाल कस कर खींचती हूँ, तब आपको लिखने में आसानी होगी। हम लोग इसके लिए कॅम्पटीशन करते थे।’ बहुत भोलेपन से अपनी बात कहती, मीता ने रूमाल दोनों छोर से खींचकर, कागज सा सीधा कर दिया।

खिंचे रूमाल पर झुककर आलोक जी ने लिखा थाµ

‘ऐसे ही मुस्कुराती रहें सदैव....आलोक।’

लिख चुकने के बाद अपना पेन बन्द कर मीता की ओर बढ़ा दिया।

‘यह कलम तुम्हारा हुआ।’

‘धन्यवाद....।’ पेन थामे मीता की आंखे चमक उठी।

‘अरे गजानन, इन लोगों को अच्छी तरह खिलाकर भेजना, वर्ना एडिटिंग में बदला लेंगे। मजा़क से कही उनकी बात पर सब हंस पड़े।

‘ओ.के. थैंक्स। अब चलूंगा, एक और मीटिंग है। फिर मिलेंगे।’

अपनी बात पूरी करते ही आलोक जी हाॅल से बाहर चले गये थे। उनके जाते ही जैसे हाॅल का प्रकाश म(िम पड़ गया था। गजानन जी के साथ जलपान लेते प्रसन्न थे, पर मीता को जैसे कहीं कोई कमी सी लग रही थी।

‘मीता जी आज का दिन आपका बहुत अच्छा रहा। मंत्री जी ने अपना पेन उपहार में दे दिया।’ प्रोड्यूसर शांतिकुमार खुशमिजाज व्यक्ति थे।

‘मीता जी ने इन्टरव्यू भी तो कमाल का लिया था।’ गजानन जी ने जैसे शाबासी सी दी थी।

सिर्फ़ नवीन चुप बैठा, चाय के घूंट लेता रहा। उसकी वह चुप्पी मीता को डरा गई।

दूसरे दिन डाइरेक्टर ने बुलाकर पूरी रिपोर्ट ली। इन्टरव्यू की एडिटिंग की जिम्मेदारी नगेन्द्रराय को दी गई थी। प्रसारण के पहले डाइरेक्टर ने स्वयं देख, इंटरव्यू अप्रूव किया था।

‘इन्टरव्यू अच्छा लिया है, कीप इट अप।’ डाइरेक्टर की उस बात पर मीता का चेहरा खिल गया।

‘चलिए आपको तो इनाम पहले ही मिल चुका है। कम ही लोग आप से भाग्यशाली होंगे जिन्हें आलोक जी ने अपना कीमती पेन इतनी उदारता से उपहार में दे डाला हो।’ नवीन के स्वर में व्यंग्य की स्पष्ट झलक थी।

‘अच्छे छायांकन के लिए तुम भी बधाई के पात्र हो नवीन। मैं खुशी से अपना उपहार तुम्हें दे सकती हूँ।’

‘जो चीज आपको दी गई, उस पर अधिकार जमाऊं इतना नीच नहीं हूँ।’

‘इसमें नीचता की बात कहां से आ गई, मैं तो अपनी खुशी से तुम्हें उपहार दे रही हूँ, नवीन......।’

‘थैंक्स फ़ाॅर योर काइन्डनेस।’

यह सच था उस पेन को मीता ने बहुत सम्हाल के अलग धर दिया। कभी अपनी मूर्खता पर हंसी आती, पेन को शो-पीस की तरह सजाकर रखने से लाभ? उसका तो उपयोग होना चाहिए, पर उसका इस्तेमाल करने का उसका जी ही नहीं चाहा। उसे वह ‘लकी’ महसूस होता था। चाहकर भी उसका बचपना, उसे पूरी तरह छोड़ नहीं पा रहा था।

इन्टरव्यू-प्रसारण के बाद से मीता प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा कर रही थी। पुरूष वर्ग ने बधाई दे, उसका हौसला बढ़ाया, महिला सहकर्मियों ने एक दो चुटीले वाक्य कह, उत्साह पर छींटे डाल दिए।

‘इतना सजधज के इन्टरव्यू लेने गई थी, बेचारे आलोक जी कैसे रेजिस्ट कर पाए होंगे?’

‘देख नहीं, उनके चेहरे पर कैसी मुग्ध मुस्कान थी।’