लौट आओ तुम / भाग-5 / पुष्पा सक्सेना

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‘छोड़िए राहुल दा, अन्त भला सो सब भला। अब चटपट शादी की तैयारी कर डालिए।’

‘आपका हुक्म सर-आंखों, पहले अपनी अलका दी को तो राजी कीजिए।’

‘वो तो एकदम तैयार हैं, मैं कहूं और वो न माने, असंभव।’

‘कहिए अलका जी, मीता का विश्वास सही है?’

‘किसी पर इतना विश्वास, इतना अधिकार, अकारण ही तो नही हो जाता, राहुल जी।’

‘अब ये जी का चक्कर छोड़ सीधे-सीधे राहुल पुकारिए, अलका दी। बहुत ज़ोरों की भूख लग आई है, जल्दी खाना लगाइए।’

मीता का वो दिन बहुत अच्छा बीता। कोर्ट-मैरिज के लिए एक माह प्रतीक्षा की जानी थी। हंसी-खुशी पूरा दिन बिता, हल्के मन से मीता अपने कमरे में पहुंची थी। अलका दी को कोई इतना चाहता रहा, और वह जान भी न सकीं। खैर अब सब कुछ हो जाएगा। राहुल जी सचमुच अच्छे व्यक्ति हैं। सब पुरूष एक से नहीं होते-यह बात उन्होंने साबित कर दिखाई थी।

कमरे में अम्मा का पत्र आया रखा था। अम्मा को उसके न पहुंचने पर नाराज़गी थी। आरती ने भी ढेर सी शिकायतें लिख भेजी थीं। उसे घर जाना ही होगा। दूसरे दिन छुटटी ले, मीता घर के लिए चल दी थी।

घर पहुंचते ही अम्मा ने लाड़ से बेटी को सीने से चिपका लिया। अपने लिए लाए कपडे़ देख, आरती का मुंह चमका उठा था।

‘अम्मा नीरज कैसा है? मेरे न आने पर नाराज़ हुआ होगा?’

तुझे बहुत याद कर रहा था। कह रहा था एक साल बाद तुझे नौकरी नहीं करने देगा।’ वात्सल्य से अम्मा का मंुह चमक उठा था।

‘तुम्हारे लिए भइया साड़ी लाया है, दीदी।’

नीरज की लाई सूती साड़ी पकड़े, मीता की आंखे भर आई। बचपन में दोनों कितना भी लड़े होंगे, पर अब एक-दूसरे को कितना मिस करते हैं। न जाने किन खर्चों पर कटौती कर नीरज उसके लिए साड़ी लाया होगा।

एक सप्ताह का समय पंख लगा उड़ गया। उतने दिन कितने अच्छे बीते। अम्मा लाड़ में उसे जबरदस्ती एक रोटी ज्यादा खिला देतीं। आरती उसके आगे-पीछे घूमती रहती। अनुपम से मिलना नहीं हो पाया। अम्मा ने बताया था अनपम शहर में रहकर कम्पटीशन में बैठने की तेयारी कर रहा है,

‘भला हो लड़के का जब आता है सार रुके पडे़ काम पूरे कर जाता है। भगवान उसे तरक्की दे।’

‘वाह अम्मा, तुमने सब गड़बड़ कर दिया न? अनुपम भइया ने कहा था मीता दीदी को कुछ मत बताना। दीदी, वह कम्पटीशन में क्वालीफ़ाई कर, तुम्हें सरप्राइज देना चाहते थें, पर अम्मा ने तो... आरती परेशान थी।’

‘ठीक है, मैं उसे कुछ नहीं बताउंगी, पर दीदी के जाते ही अनुपम भइया, दीदी से ज्यादा अपने हो गए?’ मीता ने आरती को चिढ़ाया था।

‘दीदी... तुम तो सबसे ऊपर हो।’ आरती मीता से चिपट गई।

‘दीदी इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। मेरी लम्बी छुटिटयां हैं।’

‘तू चली जाएगी तो मैं जो अकेली रह जाऊंगी। कुछ दिन सबर कर, नीरज की नौकरी लगते ही हम सब एक साथ रहेंगे।’

‘अम्मा का भविष्य नीरज की नौकरी के साथ बंधा था। भारी मन से मीता काम पर वापिस लौटी थी।’

ड्यूटी ज्वाइन करते ही स्टेशन डाइरेक्टर ने सूचना दी थीµ

‘अच्छा हुआ आप आ गई मिस वर्मा, मुझे तो डर था आप कहीं छुटटी न बढ़ा लें।’

‘कोई खास काम था, सर?’

‘पन्द्रह फरवरी से धर्म-निरपेक्ष सम्मेलन आॅरगेनाइज हो रहा है। आलोक जी के मीटिंग्स की कवरेज के लिए आपको टीम के साथ जाना है।’

‘पर सर, मैं अभी लौटी हूँ। यहां बहुत पेडिंग काम है, किसी और को भेज दें तो ठीक रहे।’

‘क्या कह रही हैं? गजानन बाबू खुद आपका नाम दे गए हैं, अब कोई चेंज पाॅसिबिल नहीं हैं। यहां आपका काम निशा देख लेंगी। आप तैयारी कर लें।’ अपनी बात पूरी कर उन्होने सामने पड़ी फ़ाइल खोल ली। उनसे कुछ कहना निश्चय ही व्यर्थ था। गजानन बाबू की बात नकार पाना संभव नहीं था।

मीता झुंझला उठी, ये भी कोई बात हुई जब देखो तब आलोक जी का फ़र्मान चला आता है, मीता न हुई उनकी जरख़रीद गुलाम हो गई। आखिर वो उसी को क्यों रिकमेंड करते हैंµक्या चाहते हैं वहे उससे?

अलका दी भी एक हफ्ते की छुट्टी ले, दिव्या का एडमीशन कराने शिमला गई हुई थीं। राहुल जी की राय थी, जब तक वे दोनों विवाह-बंधन में नहीं बंध जाते, दिव्या को उस माहौल से दूर ही रखना ठीक था। इधर-उधर की किसी ऐसी-वैसी बात से उसके कच्चे मन को चोट पहुंच जाने का डर था। विवाह के पहले शिमला के स्कूल में उसका एडमीशन कराने की उनकी राय, मीता को भी ठीक लगी थी। स्कूल के होस्टल में रहने बाली लड़कियों के साथ दिव्या का अकेलापन दूर हो जाएगा। विवाह के समय उठने वाली अप्रिय स्थितियों को भी सहज ही एव्याॅड किया जा सकेगा। उस बीच राहुल जी नवीन्द्र नाथ को मुकदमें की खबर देना चाहते थे। इन सभी बातों को ध्यान में रख, दिव्या के एडमीशन के लिए अलका दी को तैयार करने के लिए, राहुल जी ने मीता की मदद ली थी।

आज मीता को अलका दी की कमी बहुत खल रही थी, पर काम में तो ऐसी स्थितियां आती ही रहेंगी, उनसे डरकर भागा तो नहीं जा सकता। वैसे भी अपने को अशक्त समझना गलती है। उस दिन इसी बात पर तो कित्ता लम्बा लेक्चर खुद झाड़ आई थी।

नियत दिन दूरदर्शन की टीम के साथ मीता उस नए शहर में पहुंची थी। आलोक जी से सामना होते ही मीता ने अभिवादन में दोनांे हाथ जोड़ दिए थे।

‘अच्छी हैं?’ हल्की मुस्कान के साथ अभिवादन का उत्तर देते आलोक जी ने यूं ही पूछ लिया था।

‘जी...ई...।’

आलोक जी रूके नहीं। साथियों के साथ बाहर निकल गऐ। पीछे-पीछे लगभग दौड़ते से गजानन बाबू मीता के बांई ओर से निकल गए।

सम्मेलन अगले दिन शुरू होना था इसलिए सब काफी रिलैक्स्ड मूड में थे। इस बार वीडियोग्राफी के लिए नवीन की जगह श्याम सुन्दर आया हुआ था।

‘मीता जी आज का पूरा दिन हमारे पास है, चलिए इस शहर के दर्शनीय स्थान देखे जाएं।’

‘वाह, भली कही श्याम। मीता जी दर्शनीय स्थानों की जगह इस शहर की मशहूर हैंडलूम साड़ियों की दूकानों देखना ज्यादा पसंद करेंगी। क्यों ठीक कहा न, मीता जी?’ साउंड असिस्टेंट नरेन्द्र, स्त्रियों की पसंद के बारे में काफ़ी अनुभवी व्यक्ति था।

‘ग़लत, मैं तो घूमने की ज्यादा शौकीन हूँ। साड़ियां तो हर जगह मिल जाती हैं, बोलो कहां चलना है, श्याम?’ मीता उत्साहित थी।

‘चलने के लिए तो हज़ार जगहें हैं, पर चलेंगे कैसे?’ श्याम सोच में पड़ गया था।

‘नो प्राॅब्लेम। मीता जी, आप एक बार गजानन बाबू को फ़ोन भर कर दें गाड़ी अभी हाजिर हो जाएगी।’

‘वाह फ़ोन मंै क्यों करूं?’

‘क्योकि आपकी बात तुरन्त मानी जाएगी, विश्वास न हो तो अभी आज़मा कर देख लीजिए।’ष्श्यामसुन्दर ने फोन उठा मीता की ओर बढ़ाया।

‘मुझे नहीं करना है किसी को फ़ोन और ना हीं मैं कहीं जा रही हूँ। जिसे जाना है जाए।’ श्यामसुन्दर की बात मीता को गड़ गईं थी। सभी लोग मोका पा, टाॅन्ट कसने से बाज़ नहीं आते।

‘आप तो नाराज हो गईं, मैडम। मैने तो इसलिए कह दिया था क्योंकि महिलाओं को ‘न’ करना आसान नहीं होता। आई एम साॅरी, मैडम।’

‘ठीक है, पर अब मेरा जाने को मूड ही नहीं है। शायद मैं हथकरघा केंन्द्र जाऊँ।’ अपनी बात खत्म कर, मीता अपने कमरे में चली गई।

थोड़ी ही देर में उसके लिए फोन आया था। फोन पर दूसरी ओर गजानन बाबू थेµ

‘मैडम आप कहीं जाना चाहें तो गाड़ी भेज दी जाए।’

‘धन्यवाद। मुझे कहीं नहीं जाना है’

‘अगर थकान ज्यादा न हो तो गुलाबों की गार्डेन जरूर देख आइए। इस मौसम में इतने रंगों के गुलाब देख पाना, एक अनुभव होता है। आपको फूल बहुत पसंद भी हैं।’

‘नहीं गजानन बाबू, आज कहीं बाहर जाने का मूड नहीं है, फिर कभी सही।’

‘जैसा आप कहें। हां एक जरूरी बात, आज आप सबका डिनर मंत्री जी के साथ है। गाड़ी पहुंच जाएगी। डिनर में उनके ख़ास मेहमान आ रहे हैं।’

‘अगर मुझे माफ़ कर सकें तो अच्छा रहता। तबियत कुछ ठीक सी नहीं लग रही हैं।’

‘क्यों क्या हुआ? अभी डाॅक्टर भेजता हूँ, दवा लेकर आराम कर लीजिए, पर शाम के डिनर में आपका रहना ज़रूरी है, मैंडम। कुछ विशिष्ट महिलाएं डिनर में रहेंगी। आपको उनके इन्टरव्यू लेने हैं, ये मंत्री जी के आदेश हैं।’ उनके स्वर में घबराहट झलक रही थी।

‘ठीक है आप परेशान न हों, मैं पहुंच जाऊंगी और हां डाॅक्टर भेजने की जरूरत नहीं। थोड़ा सो लेने से ही ठीक हो जाउंगी।’

‘धन्यवाद, मैडम। वैसे डाॅक्टर यहीं है, उसे भेजना कठिन नहीं हैं।’

‘मैं जानती हूँ... पर ज़रूरत नहीं है। थैंक्स।’

फ़ोन रखकर मीता कुर्सी पर बैठ गई। बेचारा श्यामसुन्दर शायद बस में शहर के चक्कर लगा रहा होगा, पर ये लोग उसे ये क्यों एहसास दिलाते रहते हैं कि लड़की होने का उसे कोई ख़ास एडवांटेज मिलता है। कभी वे नोटिस क्यों नहीं लेते कि मीता उन लड़कियों में से नहीं है। उसकी जितनी मेहनत और कौन करता हैं? यहाँ आते सामय भी निशा, कान्ता ने क्या कुछ नहीं कहा। न जाने क्यों आलोक जी की कवरेज को उसे बार-बार आना पड़ता है। वो उसे ही क्यों बुलवाते हैं?

लेटने पर नींद आना संभव नहीं था, आरती, नीरज, अम्मा के साथ अलका दी भी याद आ रही थीं। शाम को न जाने किनका इन्टरव्यू लेना हो। थोड़ा देर तनाव-मुक्त रहना ज़रूरी सोच, मीता ने साथ लाई मैगजीन के पृष्ठ पलटने शुरू कर दिये थे।

अपनी बेवकूफ़ी पर उसे गुस्सा भी आ रहा था। यह शहर पर्यटन-कंेद्र है न जाने कितना कुछ देखने को होगा और वह होटल के कमरे मेें बन्द पड़ी थी। बिना काम, दिन काटना भी कितना मुश्किल हो जाता है। न जाने कब उसमें मैचयूरिटी आएगी। किसी ने कुछ कहा नहीं कि वह रिएक्ट कर जाती है। वैसा न हुआ होता तो अभी आराम से कार में सबके साथ कितना एन्ज्वाॅय कर रही होती।

किसी तरह बोरियत भरा वो लम्बा दिन बिता, मीता शाम की तैयारी में लग गई थी। बिस्किट रंग पर लाल ओडिसी बार्डर व आंचल वाली साड़ी निकाल, मीता बाथरूम में मंुह धोने चली गई थी।

माथे पर छोटी सी लाल बिंदी हाथों में लाल चूड़ियों के साथ कंधे पर लाल शाल डाले, मीता ने शीशे में अपने को निहारा था। दिन भर का सारा वैराग्य न जाने कहा छू-मन्तर हो चुका था। दर्पण में जीवन से भरपूर मीता मुस्करा रही थी।

कमरे से बाहर आई मीता को देखते ही विनय शर्मा ने हेलो कहा था।

‘बहुत जम रही हैं, मीता जी।’

‘थैंक्स।’ मीता हल्के से मुस्करा दी।

‘कहिए मैडम, अब आपका मूड कैसा है? हमसे नाराज तो नहीं हैं न? डरते-डरते श्यामसुन्दर ने पूछा था।’

‘नाराज तो जरूर हूँ, अकेले-अकेले घूम आए। मीता ने मज़ाक के स्वर में अपनी बात कही थी।’

‘तभी तो बिल्कुल मज़ा नहीं आया। पूरे समय यही लगता रहा आपको बेकार नाराज़ कर दिया।’

‘अच्छा-अच्छा अब बातें मत बनाओ, हमारी नाराज़गी की इतनी ही पर्वाह थी तो ज़िद करके हमे भी ले जाते, तब होती न बात।’

सब मिलकर हंस पडे़। अचानक वातावरण बहुत हल्का हो आया। विनय शर्मा ने शर्त रख दी।

‘कल शाम आप हमारे साथ होटल युवराज के फै़शन-शो में चलेंगी, तब हम मानेंगे कि आप नाराज़ नहीं हैं।’

‘आप क्या समझते हैं, कल रात हम फ्री रह पायेंगे?’

‘खैर कल की कल देखी जाएगी, फ़िलहाल तो चला जाए।’

दो कारों में सवार हो, सब राजभवन पंहुचे थे। बाहर खड़े सन्तरी ने सलाम ठोंक, आदर से द्वार खोल दिया।

दरवाजे की ओर मुंह किए आलोक जी खड़े थे। आस-पास सात-आठ लोग उन्हें, घेरे खडे़ थे। हाॅल में प्रविष्ट होती मीता की दृष्टि आलोक जी से जा टकराई थी। उनके होठों पर पहिचान की मुस्कान आ गई थी। उनकी दृष्टि का अनुसरण करती कई जोड़ी आंखें मीता पर गड़ गई थी। मीता संकुचित हो उठी।

अलका दी कहा करती थींµ‘लड़कियों की तो पीठ पर भी आंखे होती हैं, तभी तो उन्हें पता लग जाता है कोई पीछे से उन्हें टकटकी बांधे ताक रहा है। ठीक कहा न, मीता। फिर भी अलका दी धोखा खा गई थी।’

पीठ पीछे की छोंडों, यहां तो सामने से सीधा आक्रमण था। जल्दी से मीता ने पीछे हो, कहीं कोई कोना ढूूंढ लेना चाहा था कि आलोक जी उसकी ओर बढ़ आगे बढ़ आए।

‘आइए, आपका आज की कुछ विशिष्ट महिलाओं से परिचय करा दूं। उनसे आप बातचीत अपने ढंग से कर लें। मुझे विश्वास है, आप अच्छी तरह सब सम्हाल लेंगी।’

‘उनसे किस लाइन पर बातें करूं... आप क्या चाहेंगे?’ मीता ने उनकी राय चाही थी।

‘वही जो आपको ठीक लगे।’

‘किसी ख़ास विषय पर इन्टरव्यू लेना हैं?’

‘सब कुछ आप पर छोड़ता हूँ, कुछ विदेशी महिलाएं हैं पर उनके साथ उनके इन्टरपे्रटर हैं। उनकी कला-संस्कति पर प्रश्न पूछना अच्छा रहेगा।’

विशिष्ट महिलाओं के साथ उसे छोड़, आलोक जी पुरूष-समाज की ओर बढ़ गए थे। कुछ ही देर में मीता उन महिलाओं से बातचीत कर, सहज हो आई थी। उनसे उनके इन्टरव्यू की अनुमति ले, उनसे संकेत से श्यामसुन्दर को बुलाया था।

बीस-पच्चीस मिनट में मीता ने चार पांच महिलाओं के इन्टरव्यू रिकाॅर्ट करा लिए थे। इन्टरव्यू की खासियत यही थी, उसने हर महिला से अलग-अलग प्रश्न पूछे, पर सब मिलाकर उनसे आभिजात्य वर्ग की कला और संस्कृति उजागर होती थी। अपने काम से मीता काफी संतुष्ट थी, इसीलिए मूड भी अच्छा हो आया था। सचमुच उतनी विशिष्ट महिलाओं से मिल पाना, उसका सौभाग्य ही था। जापान की प्रतिनिधि ने तो उसके प्रश्नों की तारीफ़ करते हुए उसे ‘एक्सलेंट इन्टरव्यूअर’ करार दिया था।

इन्टरव्यू खत्म करते ही, वेटर ने कोल्ड ड्रिंक का ग्लास सामने कर दिया था। उस वक्त सचमुच गला तर करने की उसे सख्त जरूरत महसूस हो रही थी। पुरूषों के लिए तो पूरी बार खुली हुई थी। बेयरे अदब से ड्रिंक्स पेश कर रहे थें। स्त्रियों के लिए साॅफ़्ट डिंªक्स के साथ शैम्पेन सर्व की जा रही थी। कोल्ड ड्रिंक का घूंट लेती मीता के साथ, उसके सहकर्मी एक कोने में सिमट आए थे।

‘कल पूरे दिन का कवरेज है, बहुत टेंशन रहेगा। आज जी भर एन्ज्वाॅय कर लो श्यामसुन्दर।’ मीता ने उसे छेड़ा था।

‘आप यूं ही हंसती, हमारी साथ रहें तो दिन क्या आपके साथ पूरी रात जाग सकता हूँ, मीता जी।’

‘फिर वही बात, देखो श्याम, तुम जानते हो हमे ऐसी बातें एकदम नापसंद हैं। अगर ऐसी बातें करोगे तो बात करना बन्द कर दूंगी, समझें।’

‘तौबा मेरी जो फिर कभी मजाक करूं। श्यामसुन्दर ने दोनों हाथांे से कान पकड़ लिए थे। उसकी इस अदा पर मीता हंस पड़ी।’

‘भई अब तो अपने पेट में चूहे कूद रहे हैं, चलो डिनर लिया जाए।’ नरेन्द्र को भूख लग आई थी।

‘कमाल है यार, जबसे आया है हाथ से ग्लास नहीं छूटा फिर भी पेट खाली है।’ विनय शर्मा ने ताज्जुब प्रकट किया।

अरे मुफ़्त की शराब से किसका जी भरा है मेंरे भाई, फिर ये तो एपेटाइज़र है।’

सब डिनर टेबिल की ओर बढ़ गए। सच मुफ़्त की शराब लोग किस तरह पी जाते हैं, मीता को वितृष्णा सी होने लगी। जहां स्त्रियां आमंत्रित हैं, वहां भी क्या मदिरा-सर्व की जाना जरूरी हैं? आभिजात्य वर्ग की क्या बस इसी से पहचान होती है। पार्टी जब तक खत्म न हो जाए, वहां से हिलने का सवाल ही नहीं उठता था। पहले ही गजानन बाबू बता गए थे, कभी भी कवरेज की जरूरत पड़ सकती है, उन्हें अन्त तक रूकना ही था।

उस बातावरण में अचानक मीता अपने को बेहद अजनबी सा महसूस करने लगी। हाॅल के पीछे की ओर खुलती बाॅलकनी में सोफ़ा पड़ा हुआ था, हाल के तेज प्रकाश की जगह वहां का हल्का अंधियारा मीता को भला लगा। श्यामसुन्दर को अपने बैठने की जगह बता, मीता बालकनी में जा बैठी। रात गहराती जा रही थी, सामने के घने पेड़ो से हल्की-हल्की हवा मीता को दुलरा रही थी। सोफे़ की पीठ से सिर टिका मीता ने रिलैक्स्ड होना चाहा था। अचानक किसी की उपस्थिति के एहसास ने, मीता को चैंका दिया।

हाथ में ग्लास थामे, आलोक जी उसके पास आ बैठ्र थे। संकोच से मीता एक ओर सिमट गई थीµ‘आप...?’

‘मेरे यहां बैठने पर आपको आपत्ति तो नहीं है, मीता जी?’

‘नहीं...पर... आप आपको तो लोग हाल में खोजेंगे... आप होस्ट हैं, न?’ मुश्किल से लड़खड़ाते स्वर में मीता ने अपनी बात कही थी।

‘इस समय सब अपनी-अपनी दुनिया में डूबे हैं, मीता जी, इसलिए मैं यहां आपके पास चला आया। कुछ लेंगी?’ अपने हाथ में पकड़ा ग्लास आलोक जी ने मीता की ओर बढ़ाया था।

‘जी नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बहुत देर हो गई, अब हमे जाना चाहिए।’ मीता ने खड़ा होना चाहा।

‘थोड़ा रूको मीता,... मुझे तुमसे कुछ कहना है। आज रात कुछ देर मेरे लिए रूक सकोगी, प्लीज?’ मीता को जबरन बैठाते हुए उन्होंने अनुनय सी की थी।

‘क्या कहना है, अभी कह दीजिए। मैं रात को देर तक कहीं नहीं रूक सकती।’

‘मेरे लिए तो रूकना ही होगा मीता... जो कहना है वो यहां ऐसे नहीं कहा जा सकता। वो बात तुमसे अकेले में ही कहनी हैं। कुछ देर बाद चली जाना मीता...।’

‘ओह नो...।’ मीता ने हथेलियों में मुंह छिपा लिया। अन्ततः उसके सामने भी वही अवांछनीय स्थिति आ गई थी-क्या करे मीता? नहीं़... नहीं... वह डरेगी नहीं, अपने ऊपर भय को हावी नहीं होने देगी।

‘क्या बात है, तबियत तो ठीक है न? शायद थक गई हो... ये लो इसे थोड़ा सा पीलो, थकान दूर हो जाएगी।’ हाथ में पकड़ा ग्लास आलोक जी ने मीता के ओठों से छुआया था।

आलोक जी के हाथ में पकड़ा ग्लास झटके से छीन, मीता ने जोर से जमीन पर पटक दिया। शीशे का ग्लास झनझना कर बिखर गया। तरल द्रव जमीन पर फैल गया। आक्रोश से कांपती मीता उठ खड़ी हुई।

‘मैं शराब नहीं पीती... और ये भी अच्छी तरह जानती हूँµरात को अकेले में आप मुझसे क्या कहना चाहते हैं। मंत्री होने का ये मतलब नहीं, जो चाहें कर लें मैं आपके पर से डर जाऊंगी, ये सोचना आपकी भूल हैं, मंत्री जी। पुरूष का शोषण सहने वाली लड़कियों में से मैं नहीं हूँ समझे।’

ग्लास टूटने की ज़ोरदार आवाज हाॅल तक पंहुची थी। मीता के उत्तेजित स्वर ने लोगों की भीड़ वहां जमा कर दी। राख-पुते चेहरे के साथ सोफे की पीठ से सिर टिकाए-आंखे मूंदे, आलोक जी निर्वाक बैठे रह गये थे।

गजानन बाबू ने आकर तत्परता से बात सम्हालनी चाही थीµ

‘मैडम, आप शान्त रहें। आपको कोई गलतफ़हमी हुई है। शाम से ही आपकी तबियत ठीक नहीं थीं... अरे शर्मा जी मैडम को उनके होटल छोड़ आएं। उनका जी अच्छा नहीं है...।’

‘मुझे कोई गलतफ़हमी नहीं हुई है’ औरतों का अनवरत शोषण, पुरूष का जन्मसि( अधिकार नहीं है। आपके मंत्री जी को जब होश मे आए, ये बात समझा दीजिएगा।’ तेजी से पांव बढ़ाती मीता हाॅल के बाहर आ गई थी। पीछे से भागते आए शर्मा जी ने उसके साथ कार में बैठना चाहा तो मीता ने उन्हें भी झाड़ दिया।

‘कोई ज़रूरत नहीं है। जाइए अपने मंत्री जी को होश में लाइएµमैं अकेले जा सकती हूँ। कार का दरवाज़ा जोरों से बन्द कर, मीता ने ड्राइवर को होटल चलने के निर्देश दिये थे।’

कमरे मे पहुंच मीता देर तक गुस्से से कांपती बैठी रह गई। ये क्या हो गया? अपने कत्य पर विश्वास कर पाना, उसे सहज नहीं लग रहा था। थोड़ी देर बाद उस बात के परिणाम भी स्पष्ट होने लगे थे। नौकरी चली जाने पर नीरज क्या अपनी पढ़ाई पूरी कर पाएगा। अम्मा और आरती का क्या होगा। उस स्थिति को भी वह शंति से क्यों नहीं टाल सकी? इतना ज्यादा उत्तेजित हो जाना क्या ठीक था, लोग न जाने क्या-क्या सोच रहे होंगे, पर अब जो हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता था।

थोड़ी देर बाद किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी थी। कुछ देर चुप बैठे रहने के बाद दूसरी दस्तक पर मीता ने दरवाजा खोला था।

‘हम अन्दर आ सकते हैं? श्यामसुन्दर ने पूछा था।’

‘आइए। उन्हें रास्ता बनाती, मीता पीछे हट आई थी।’

‘हम आपको बधाई देने आए है। आपने तो कमाल ही कर दिया। श्यामसुन्दर के स्वर में अत्साह था।’

‘ऐसे करप्ट मंत्री को अच्छा सबक सिखाया आपने। कितना आदर्शवादी बनता था। विनय शर्मा ने भी अपनी टिप्पणी दी थी।’

‘वैसे आलोक जी से ऐसी उम्मीद नहीं थी...वो दूसरों से अलग लगते थे।’ प्रोड्यूसर चंचल कुमार सोच में पडे़ से लगते थें।’

‘माफ़ करंे मैडम, पर आपसे उन्होंने क्या कहा था।’ नितिन पूछ ही बैठा।

‘क्या बकवास है, चुप रहो। इतना भी नहीं समझते।’ नरेन्द्र नाराज़ हो उठा।

मीता जानती थी नितिन ने जो पूछा, वो बात सबको मथ रही थी, पर पूछने का साहस वही कर सका।

‘एक बात बताना चाहूंगा... आलोक जी ने सबके सामने अपने आचरण के लिए आपसे माफ़ी मांगी है। इतना तो मानना ही पडे़गा, ये उनका बड़प्पन था, वर्ना वो आप पर ही तोहमत लगा सकते थे। कोई और मंत्री शायद वैसा ही करता’़... चंचल कुमार ने मीता को जानकारी देने के साथ आलोक जी के प्रति अपनी भावना भी प्रकट की थी।

‘इसके अलावा और वो कर भी क्या सकते थे? सच छिपाना आसान नहीं होता मिस्टर कुमार’ मीता फिर उत्तेजित हो रही थी।

‘आप नाराज न हों मैडम, कल देखिएगा न्यूज पेपर में आप ही छाई रहेंगी। श्यामसुन्दर फिर ग़लती कर गया।’

‘मैनें वो सब नाम पाने के लिए नहीं किया... मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ बस...। अखबारांे से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।’

‘डोंट वरी, एक बार आलोक जी ने गलती स्वीकार कर ली फिर मैडम पर कोई आंच नहीं आने वाली है। तब तो आलोक जी का भविष्य खत्म समझांे।’ नितिन उत्साहित था।

‘अरे उनका वा सेक्रेट्री गजानन है न, पूरा पुराना घाघ है। वह इस बात को तोड़-मरोंड़ सकता है। पूरे पे्रस वालों को खिला-पिलाकर अपने कंट्रोल में कर रखा है।’

सब अपनी-अपनी अटकलें लगा रहे थे। तभी चंचल कुमार की दृष्टि मीता के चेहरे पर पड़ी थी।

‘बस अब बातें बन्द करो, मैडम को आराम करने दो, बहुत देर हो गई है।’

सबने मीता की ओर देखा था उसके चेहरे पर थकान स्पष्ट थी। चलते-चलते चंचल कुमार ने सूचना दी थीµ

‘कल के प्रोग्राम की कवरेज के लिए हमारी ज़रूरत नहीं है। कल बारह बजे की टेªन से हम वापिस लौट रहे हैं इसलिए सुबह जल्दी उठने की जरूरत नहीं है। अब आप आराम करें। गुड नाइट।’

सबके चले जाने के बाद भी मीता बहुत देर तक वैसे ही कुर्सी पर बैठी रही। आलोक जी ने क्या कहा होगा? उन्होंने क्या कह कर माफी मांगी होगी? चलो जो हुआ ठीक ही हुआ। दूसरों कहकर माफी मांगी होगी? चलो जो हुआ ठीक ही हुआ। दूसरों को भी सबक मिलेगा। अलका दी तो जरूर उसकी पीठ ठोंकेगी, पर सचमुच अगर उन्होंने अपनी गलती न मानी होती तो? कौन सा प्रमाण थी मीता के पास? उतने लोगों के बीच अशोभनीय आचरण भला विश्वास-योग्य बात होती। न जाने क्यों बार-बार मीता अपने व्यवहार के लिए खुद को जस्टीफ़ाई कर रही थी। उधेड़बुन में पड़ी मीता न जाने कितना सोई, कितना जागी।

वापिस लौटकर भी उसे न जाने कितनी प्रश्नवाचक दृष्टियों का सामना करना होगा। साथ के लोग क्या उस पर विश्वास कर सकेंगे स्टेशन डाइरेक्टर साहिब तो पहले ही ज़रा-ज़रा सी बात पर नर्वस हो जाते हैं, यह तो अकल्पनीय था।

दूसरी सुबह सबके सामने बेहद सामान्य बनी रहने का नाटक करती मीता, होटल आउंज में आ बैठी थी, पर सारी दृष्टियां अपने पर ही गड़ी लग रही थी।

अचानक उसे लगा वह भी तो नर्वस है, पर क्यों? उसने कौन सी गलती की है बल्कि उसने तो अपराधी का भंडाफोड़ किया है। नहीं मीता, तुझे इस भय से उबरना होगा। बेहद सहज भाव से सामने पड़े अखबार को मीता ने उठाकर खोला था।

कल की घटना का अखबार में कोई ज़िक्र नहीं था। सचमुच गजानन बाबू का हर काम पक्का होता है। अखबार में उस घटना की कोई चर्चा न देख, मीता को शांति मिली या अशान्ति, पता नहीं, पर एक के बाद एक सभी अखबारों पर उसने दृष्टि जरूर डाली थी। पास बैठ्र चंचल कुमार ने धीमे से कहा थाµ

‘न्यूजपेपर में उस बात का न छपना अच्छा रहा, वर्ना लोग बेबात की उड़ा डालते हैं।’

स्टेशन डाइरेक्टर छुट्टी पर गए हुए थे। मीता ने शंति की सांस ली, जब तक वह वापिस आएंगे बात पुरानी पड़ चुकी होगी हांलाकि वैसी बातें हमेशा ताजी़ ही रहती हैं। निशा, कान्ता, नीलम सबने उसे घेर लिया थाµ

‘ऐ मीता, क्या किया था उस शैतान ने?’

‘हमें तो पहले शक था, वह तुझ पर डोरे डाल रहा था, वर्ना हर बार तुझे ही क्यों चुनता?’

‘चल तुने भी उसकी अक्ल ठिकाने लगा दी। कुछ ज़्यादा ही ज़्यादती की होगी तभी तो...।’

‘अरे बड़ी घुन्नी है, आसानी से थोड़ी बताएगी।’

‘क्या जाने क्या असलियत है, मैं तो कहती हूँ जब तक हम लिफ़्ट नहीं देगें। किसी की मज़ाल है जो आंख भी उठाकर हमारी ओर देख सके।’ निशा की बात पर मीता ने भर दृष्टि उसकी ओर देखा था। कौन नहीं जानता प्रोड्यूसर कमल कुमार के साथ निशा के क्या संबंध हैं। इस समय अलका दी की कमी मीता को बेहद खल रही थी।

उसका मौन देख चंचल कुमार ने राय दी थी वह चाहे तो कुछ दिनों को घर जाने की छुटटी दी जा सकती है, पर उस मनः स्थिति को क्या वह अम्मा से छिपा सकेगी। कोई गलती न होने पर भी अम्मा का संशयी मन न जाने कहाँ-कहाँ की सोच डालेगा। सच, औरत की सबसे बड़ी दुश्मन उसके अन्दर बैठी भीरू औरत हैं। मीता उसी भीरू औरत को कुचल कर रहेगी-दढ़ निश्चय के साथ मीता काम में जुट गई थी।

एक हफ़्ते बाद मीता के नाम अपरिचित लिखाई का एक नीला लिफ़ाफा मिला था। मीता को शायद पता था ऐसा कोई खत उसके नाम आने वाला था, इसीलिए उसे खोलने की उसे कोई जल्दी नहीं थी। एक बार तो जी में आया बिना पढे़ उसके टुकड़े टुकड़े कर, वापिस पोस्ट कर दे, फिर न जाने क्यो सोच पर्स में डाल लिया।

पूरे वक्त वो खत उसके दिमाग पर हावी था। क्षमा-याचना पहले पब्लिक में करके अब उसे इम्प्रेस किया जाना था। बाबूजी कहा करते थे, वही राजनीतिज्ञ सफल बन सकता है जो जनता को गुमराह कर सके। अपनी गलतियों को उजागर कर, उनके लिए आम जनता से क्षमा मांग, अपनी अच्छाई की धाक जमा सके। इन बातों से भोली जनता का वो एक अंग बन जाता है। दोषयुक्त व्यक्ति उन्हें ज्यादा अपना लगता है। शायद आलोक जी ने अपनी पुरूषोचित कमज़ोरी के लिए माफ़ी मांग, बाबूजी की ही बात सिद्व की होगी।

ऊहापोह की स्थिति से उबरने के लिए उसने ख़त पढ़ने का ही निर्णय लिया था। अगर वह सोचते हैं मीता को मूर्ख बनाया जा सकेगा, तो यह उनकी गलती होगी। किसी भी भावुकतापूर्ण बात से अप्रभावित रहने का निर्णय ले, मीता ने खत खोला था साफ अक्षरों में लिखा गया थाµ

मीता जी,

यह पत्र किसी तरह के स्पष्टीकरण के लिए नहीं भेज रहा हूँ, सिर्फ एक अनुरोध है, इसे बिना पढं़े फाड़ मत देना।

उस रात जो कहना चाहता था उसे बिना बताए मेरा प्रायश्चित अधूरा है। किसी अपराधी का कन्फे़शन मान, सुन पाना शायद उतना कठिन न लगे

राघवपुर गांव में पुरखों की हवेली है। शायद आपने ये नाम भी न सुना हो। गांव के जमींदार का एकमात्र वारिस मैं, सब पर रोब जमाना ही जानता था। शहर से मैट्रिक पास कर लौटने पर मेरा आदर-मान ज्यादा ही बढ़ गाया था। गांव में सोना को देख, अपने को भूल गाया था। वो सचमुच गुलाब के फूल सी अनूठी थी। उसके बदन की सुवास मुझे मदहोश बना जाती। न जाने कौन सा आकर्षण था उसमें कि मैं शहरी लड़का, उसके पल्लू से बंधा घूमता था। मेरी दुनिया सोनामय हो गई थी।

यौवन की पहली भूल की पहल मेरी ओर से हुई, पर फल सोना ने भुगता था। दुसाध टोले की सोना ने कहीं कुछ नहीं छिपाया थाµ उसकी कोख से खिलने वाला फूल, राजा बाबू के प्यार की निशानी था।

उसकी सारी बिरादरी हवेली पर चढ़ आई। बाबा के लिए वैसी बातें नई नहीं थी ब्राह्मण कुल का बेटा, दुसाध की बेटी से ब्याह करे, कलयुग और किसे कहते हैं? गांधी बाबा ने इन छोटी जात वालों को सिर चढ़ाकर बर्बाद कर दिया। कुछ ले-दे कर बात खत्म करने की बात पर सोना की बिरादरी वाले और भी भड़क गए थे। अपने अधिकार वे समझने लगे थे, फिर भी जाति-धर्म पर पूरी तरह विजय नहीं पा सके थेµ

‘पंचायत में राजा बबुआ गंगाजली उठाकर कहें, सोना से उनका ब्याह नहीं हुआ, उससे उनका संबंध नहीं बना, तभी बात साफ होगी।’

पंचायत के सामने अपनी भूल स्वीकार करने का अर्थ बाबा की मौत थीµहां यही बात मुझे बार-बार बताई गई थी। मेरे प्यार को उन्होंने ‘पाप ही कहा था। वर्षाे से बाबा पंचायत के सरपंच बन, दूसरों के झगडे़ निपटाते आए थे। इस बार उनकी अग्निपरीक्षा थी। अपना रक्त ही उन्हें धोखा दे गया था। पंचायत में सामने खड़ी सोना मुझ पर सीधी दृष्टि डाल, विश्वास से मुस्कराई थी। मुझ जैसे उच्च कुलीन, ब्राह्मण के वाक्यों पर अविश्वास का सवाल ही कहां उठता था, फिर मैंने तो उससे गंधर्ब ब्याह रचाया था, वर्ना भला वह अपने को मुझे सौंपने को तैयार होती? गंगाजल उठा मैंने साफ शब्दों मे कहा थाµ’

‘इससे मेरा कोई वास्ता नहीं, उसकी कोख में पल रहे पाप के लिए मैं जिम्मेदार नहीं था।’

नही... कहीं एक क्षण को भी नहीं लड़खडाया था। अपनी बात खत्म करते ही अचानक मेरी दृष्टि सोना की जल रही आंखों से टकराई थी। उस भोले-निष्पाप पीले मुंह पर उन अंगारों को देख मैं सहम गया था। आंखे नीचे करने पर भी वे मुझे अन्दर तक जलाए जा रही थीं। प्रतिवाद में वह एक शब्द भी नहीं बोली। सारी बिरादरी सन्नाटा खा गई थी। गंगाजली उठाकर मैंने झूठ कहा... ये कहने का साहस किसमें था?

पंचायत के फैसले की सोना ने प्रतीक्षा नहीं की थी, पहाड़ पर स्थित उस मंदिर से नीचे कूद, उसने अपना जीवन समाप्त कर लिया, जहां उससे मैंने गंधर्व विवाह किया था। बाबा ने सारी बिरादरी को दावत के साथ दान-दक्षिणा दे, विश्वास दिला दिया कि सोना पापिन थी सो डरकर आत्महत्या कर ली।

सब जानते समझते थे, पर मेरा तो रोम-रोम अपराधी था।

सोना की वो जलती दृष्टि आज भी मेरे अन्तर को जलाए जाती है। उसी दिन से मांस-मदिरा का परित्याग कर, ग्राम सेवा का, व्रत ले डाला था। प्रायश्चित भला इससे किया जा सकता है? एक बात और है सोना की जगह किसी और की कल्पना भी नहीं कर सका। शादी के लिए बाबा ने हाथ तक जोड़े, उनकी वंश-बेलि यूं ही समाप्त न हो जाए, पर मैंने कभी शादी न करने का, व्रत नहीं तोड़ा। बाबा की मृत्यू का भय सोना की मृत्यू ने खत्म कर दिया था। वंश चलाने के लिए उस उम्र से बाबा को एक बीस वर्षीया लड़की से शादी करनी पड़ी-वो पाप नही थाµहै न विरोधाभास? मैं ग्राम-सेवा करता यहां तक आ पहुंचा, पर सोना हमेशा मेरे साथ रहीµ

उस दिन जब पहली बार आपको देखा, तो चैंक गया था। वैसा ही निष्पाप भोला मुंह और उतनी ही चमकीली गहरी काली आंखें-जिनमें डूब मैं अपना आपा खो बैठा था। वर्षाे से सोना मेरे अन्तर में कैद है मीता जी, उसकी आत्मा मुक्ति के लिए छटपटाती है, न्याय मांगती है, पर मैं उसे मुक्ति न दे सका। आपसे मिलकर लगा अपनी कहानी आपको सुना, सोना के प्रति किए अपने अपराध-बोझ को शायद कुछ कम कर संकू।

उस रात मेरी बात का गलत अर्थ लगा, आपने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है, मीता जी। आज से वर्षो पूर्व सोना के प्रति अपने जिस अपराध को स्वीकार नहीं कर सका, आपके नाम पर कर लिया। लोग मुझे वही समझें, जो मैं असल में हूँ, और क्या चाहना शेष है?

वर्षो से मेरे मन पर जो बोझ था, उसका कुछ अंश अतारने में आपको जो कष्ट हुआ, उसके लिए क्षमा करें। न जाने क्यों आपसे मिलकर लगा था, आप मेरे दुख को समझ सकेंगी-मेरे दुख बांट सकेंगी-शायद वो सुनकर भी आप नफ़रत करतीं, अब भी करेंगी पर इस वजह से आपको दुखी नहीं करना चाहा थाµशराब मैंने तब से कभी नहीं पीµउस दिन भी नहीं, गुलाब-खास मदिरा नहीं होता... वो लालष्शर्बत था!

मंत्री-पद से त्याग पत्र दे, जा रहा हूँ। आजीवन आपका ऋणी रहूँगा। विदा।

आलोक

ये क्या हो गया? पत्र को फटी-फटी दृष्टि से ताकती मीता, स्तब्ध रह गई। अम्मा कहा करती थीं, सब आदमी एक से नहीं होते, पर सच तो यही था उसने आलोक जी की हर बात पर शक किया जबकि वह...। अलका दी का सत्य, उस पर ‘डर’ बन इस कदर हावी था कि वह अन्धी बन गई।’

नही... नहीं, उन्हें रोकना ही होगा। मुझे अपराधी बनाकर वह यूं नहीं जा सकते-नहीं जा सकते। उन्हें मुझे माफ करना ही होगा। तत्परता से गजानन बाबू का नम्बर डायल कर, दूसरी ओर से आने वाली आवाज की मीता उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगी।

उन कुछ पलो में मीता अपने दिल की आवाज़ साफ़-साफ़ सुन पाई थी। अनजाने ही वो, आलोक जी के नेह-बंध में बंध चुकी है। आलोक जी का प्रायश्चित पूरा हो चुका है, पर मीता क्या करे? नहीं, उसकी भूल आलोक जी के जीवन को यूं बिखरने नहीं देगी। आलोक ने उसमें अपनी सोना को देखा है। अपनी इस ‘सोना’ के लिए उन्हें वापस लौटना ही होगा। मीता जान गई, आलोक जी जरूर आंएगे। ज़रूर आयेगे....