लौट आओ दीपशिखा / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव

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"आज हमारा हनीमून डे है। शॉपिंग के बाद हम चेंज के लिए होटल आयेंगे और फिर 'एनईवनिंग इन पेरिस' यानी कि पारादीलातेन शो देखने जायेंगे।"

"ये क्या बला है नील?"

"पता चल जायेगा... सरप्राइज़ है ये।"

दोनों पेरिस के महँगे शॉपिंग मॉल में शॉपिंग करते रहे और भूख लगने पर तरीके से लंच लेने के बजाय फ्रांसीसी नाश्ते चखते रहे। शाम को होटल लौटकर दीपशिखा के लिए हुक़्मथा-सबसे बढ़िया ड्रेस और जूलरी पहनना... जूलरीमुँहदिखाई वाली। " हँसते हुए नीलकांत ने कहा और तैयारहोने के लिए अपने कमरे में आ गया। शो के टिकट होटल के रिसेप्शन में उपलब्ध थे।

1889 में बना पारादीलातेन पेरिस का सबसे रोमांचक और हसीन कैबरे शो है। जहाँ शादीशुदा जोड़े शादी की ही ड्रेस में सजधजकर जाते हैं। शो के दौरान शैम्पेन और लज़ीज़ डिनर परोसा जाता है। दीपशिखा ने पहली बार शैम्पेन पी थी और वह हलकी खुमारी में थी। कैबरे शो... यानी जवान लड़कियों के गदराये जिस्म की थिरकती, मचलती नुमाइश... दीपशिखा सहज महसूस नहीं कर रही थी क्योंकि तमाम टेबिलों को घेरे बैठे मर्द अपनी औरतों की उपस्थिति के बावजूद नाचती लड़कियों को वल्गर इशारे कर रहे थे... "चलें?" नीलकांत ने शो की समाप्ति तक इंतज़ार नहीं किया। पेरिस की तीखी चुभती ठंड में वह दीपशिखा को अपने से लिपटाये होटल लौट रहा था।

सुबह नौ बजे दीपशिखा के सभी दोस्त होटल पहुँच गये। सभी के नाम पहले से ही होटल के कमरे आरक्षित थे। सामान रिसेप्शन से कमरों में पहुँच चुका था और दोस्त दीपशिखा के कमरे में। सबको एक साथ देख दीपशिखा चहक उठी... "ओ माय गॉड... आय' म..."

"ए चुप यार... जबकि पता था फिर भी तू रिसेप्शन में नदारद थी।" कहते हुए शेफ़ाली ने दीपशिखा को गले से लगा लिया। दीपशिखा अन्य दोस्तों से भी गले मिली। सना मोबाइल में बिज़ी थी। उसे गले लगाते हुए दीपशिखा ने कहा-"बंद करो न मोबाइल, इंडिया बाद में फोन लगाना पहले भेंट तो कर लो।"

सना ने कान से मोबाइल सटाये हुए ही जवाब दिया-"लोकल लगा रही हूँ यार। मेराकज़िन है यहाँ तुषार... हाँ तुषार हम यहाँ होटल... कौन-सा होटल है दीपशिखा?"

सना कि हड़बड़ी से सभी खिलखिलाने लगे। दीपशिखा ने होटल का कार्ड आगे बढ़ा दिया-"सना जी, आप विदेश में अपने देश से आई हैं... इतनी दूर... और आपको अपने होटल का नाम तक नहीं मालूम?"

कॉफ़ी आ गई थी। सना ने भी मोबाइल ऑफ़ कर दिया था-"तुम लोगभी न... उसी समय सब चाँव-चाँव करने लगे। अरे मेरा कज़न था तुषार... न्यूयॉर्क सेहमारे एग्ज़िवीशन के लिए ही आया है यहाँ।"

"ओ ऽऽऽऽ" कहते हुए सब कॉफ़ी ख़त्म कर अपने-अपने कमरों में चले गये। शेफ़ाली नहीं गई। उसने दीपशिखा के चेहरे कीक़ैफ़ियत पढ़ ली थी-"मैं बेताब हूँ... जल्दी बता अपनी प्रेम कहानी।"

दीपशिखा ने शरमाकर पलकें झुका लीं। शेफ़ाली ने समझ लिया कि उसकी सखी को साथी मिल गया है। पर वह उसी के मुँह से सुनना चाहती थी।

"आओ, लिहाफ़ ओढ़कर बैठते हैं। मुझे तो बहुत ठंड लग रही है।"

दोनों पलंग पर लिहाफ़ में घुसकर बैठ गईं। दीपशिखा सिलसिलेवार सब कुछ बताने लगी। उसकी बात की समाप्ति पर शेफ़ाली ने मुस्कुराते हुए कहा-"ज़िन्दादिल है नीलकांत। तुझे खुश रख पायेगा। मैं सचमुच तुझे लेकर रिलैक्समहसूस कर रही हूँ।"

समय काफ़ी हो चुका था। आज का डिनर नीलकांत की ओर से था। कल से वह फिर शूटिंग में व्यस्त हो जायेगा और दीपशिखा अपनी टीम के साथ चित्र प्रदर्शनी में।

डिनर भारतीय रेस्तराँ में था। नीलकांत ने दीपशिखा को लेकर उसके दोस्तों के सामने काफ़ी एहतियात बरती ताकि किसी को भी उनके सम्बन्ध पर शक़ न हो। डिनर के दौरान उसने सभी से चित्र प्रदर्शनी पर जम कर चर्चा की। सभी को नीलकांत का दोस्ताना अंदाज़ बहुत पसंद आया। तुषार भी आ गया था। सनाजैसा ही खूबसूरत, लम्बा, हँसमुख... वह न्यूयॉर्क में अपनी मेडिकल की पढ़ाई समाप्त कर सना कि चित्र प्रदर्शनी और फ्रांस घूमने के उद्देश्य से पेरिस आया था। सना ने सबसे उसका परिचय कराया। नीलकांत ने हाथ मिलाते हुए कहा-"यहीं बस जाने का इरादा है या भारत लौटेंगे?"

"एक्चुअली पेरिस मेरे लिए बहुत फ्रूटफुल रहा। हफ़्ते भर से यहाँ हूँ और यहाँ के मेडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट से काफी शोधपूर्ण जानकारी मिल रही है मुझे। मेरे कॅरिअर में वह बड़ी सहायक होगी। भारत लौटकर अपना क्लीनिक खोलने का इरादा है।"

"किस विषय में आप स्पेशलिस्ट हैं?"

"मेरे भैया मनोरोग केविशेषज्ञ हैं और उसे फोक़स करने के लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं।" सना ने लाड़ से तुषार की ओर देखते हुए कहा।

"हाँ, यही मेहनत मेरा रास्ता मंज़िल तक पहुँचायेगी। फिलहाल तो मैं बिदा चाहता हूँ। आपसबसे मिलने आया था। बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर। आपकी फ़िल्म के लिए मेरी शुभकामनाएँ नीलकांत जी।"

नीलकांत ने अपनी गाड़ी से तुषार को छोड़ने की इच्छा ज़ाहिर की-"थैंक्स... मेरा दोस्त आने ही वाला है मुझे लेने। तो चलें सना... शेफ़ाली जी, कल मिलते हैं।"

हाथ मिलाते हुए शेफ़ाली को अपने हाथ में दबाव-सा महसूस हुआ जिसे उसने देर तक महसूस किया। तुषार की आँखों में कुछ तो था... भले ही शेफ़ाली उस वक़्त नहीं समझ पाई लेकिन जिसे शेफ़ाली और दीपशिखा दोनों ने महसूस किया।

पेरिस में प्रदर्शनी लगाना हर एक चित्रकार का सपना होता है और जब ये सपना समूह में हो तो सपनों के झरोखे अपने आप खुलते जाते हैं। पेरिस का कलावर्ग कलाकारों की बहुत क़द्र करता है यह बात कला गैलरी में प्रवेश करते ही 'अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट' के चित्रकारों को बखूबी समझ में आ गई थी। प्रदर्शनीपूरे हफ़्ते चली, तुषारबिलानागा आर्ट गैलरी में आता रहा। रात को गैलरी से वे सीधे सेन नदी के किनारे आ जाते और जमकर बहस करते।

"यहाँ सारे विश्व से कलाकार आते हैं और अपनी जगह और मार्केट बनाना चाहते हैं।"

एंथनी के तर्क पर सबने रज़ामंदी की मोहर लगाई।

"बहुतकम्पटीशन है और हमें अपनी ऊँचाईयों तक पहुँचना है।" शेफ़ाली सेन पर चलते क्रूज़को एकटक निहार रही थी और तुषार उसे। जब भी दोनों की आँखें मिलतीं शेफ़ाली नज़रें झुका लेती।

"ऊँचाई पर तो पहुँचना हैपरसबसे अलग दिखना भी है।"

"सना, कहीं तुम निराश तो नहीं हो।"

"नहीं दीपशिखा, निराशातो मेरे अंदर के चित्रकार को मार देगी। शायद तुम मेरी उदासी को निराशाकह रही हो। तुमने देखा जब आर्ट गैलरी में पेरिस मेंहनीमून मनाने आयेकेनेडियन कपल ने मेरे चित्र केबिम्बोंकोरीझती नज़रों से देखा था। पल भर को मैं खुद को सम्पूर्ण चित्रकार मानने लगी थी।"

"तो क्या हुआ सना, इसमें उदासीकीक्या बात है?"

"यही सम्पूर्णता कि सोच ही तो कला को ख़त्म कर देती है दीपशिखा।"

"मैं इस बात सेइत्तिफ़ाक़ रखता हूँ। तुमनेदेखाया शायद मुझे लगा कि मैं तुम सबकी कला के बीच आधा अधूरा हूँ।"

"नहीं आफ़ताब, तुम्हारे बनाए मेंटल लैंडस्केप चर्चा का विषय थे। तुमने सचमुच मेहनत की है। रंगों का इस्तेमाल बल्कि रंगों की सिम्फ़नी कह सकते हैं क्योंकि इसमें लयात्मकता, स्पेस, संरचना... तमाम तत्त्व मौजूद हैं। तुम्हारी भावनाएँ अमूर्तता केबावजूद समझी जा सकती हैं।"

"एक बात तुम सबने नोट की?" दीपशिखा के सवाल पर सबकी नज़रें उसके चेहरे पर टिक गईं-"हम पेरिस आकर चिंतक भी हो गये हैं।"

"कहीं दार्शनिक न हो जायें, नहीं तो बेड़ा गर्क।"

"मेरा तो फ़ायदा हो जायेगा। मेंटल क्लीनिक चलपड़ेगा।" तुषार के कहने पर सबने एक साथ "यू ऽऽऽ" कहा और माहौल खुशगवार हो गया।

हलकी-हलकी बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। सड़केंठंडी और सुनसान थीं। पेरिस का जनसमुदाय दिन भर के काम की थकान अधिकतर सेन नदी के किनारे ही मिटाता था। अब भीड़ बढ़ रही थी इसलिए सभी होटल की ओर चल पड़े।

"जितनी दूर तक पैदल चल सकते हैं चलेंगे।" कहते हुए शेफ़ाली ने अपनी जैकेट पहन ली।

"चलना ही पड़ेगा। मजबूरी है, यहाँ गाड़ियाँ तयशुदा जगह पर ही पार्क की जाती हैं और हम पार्किंग प्लेस से दूर हैं अभी।" तुषार साथ-साथ चल रहा था... शायद उसके दोस्त की बाइक भी पार्किंग प्लेस पर मिलेगी।

"तुषार... कहाँ तुम हम कलाकारों के बीच फँस गये।"

"अरे... सना, क्या तुमने बताया नहीं कि मैं रेखाचित्र बनाता हूँ। यह बात दीगर है कि मैंने उसे पेशा नहीं बनाया। मुझे दूसरों के मन को खँगालने की कला भी तो सीखनी थी न।" हँसते हुए उसने शेफ़ाली की ओर देखा, शेफ़ाली ने भी ऐनउसी वक़्त तुषार की ओर देखा और इस लम्हे में सिमट आई दोनों की बेचैनियाँ।

"रेखाचित्र में माहिर है तुषार, पोर्ट्रेट तक बना लेता है। तुषार लक्झरी लाइफ़ जीना चाहता है और सब कुछ अपने बल पर।"

"तो हम्म भी इस बात पर क्यों न सोचें कि कला को कमाई का ज़रिया कैसे बनाया जाये?" आफ़ताबकी इस बात परसभी पल भर को चौंके। एंथनी ने कहा-"हाँ, आख़िरहम कर क्या रहे हैं? हम जीवन जियेंगे कैसे?"

"बहुत से ज़रिए हैं कमाई के।"

"चित्रों से सम्बन्धितन!"

"ऑफ़कोर्स एंथनी... कैलेंडर, पुस्तकों के कव्हर, दवाकम्पनियाँ।"

"क्योंइस समय हम इस टॉपिक पर बहस करें? इस समय जबकि हमारी आँखें पेरिस में अपने चित्रों की प्रदर्शनी के सपनों को साकार होते देख रही हैं।"

"ठीक ही तो कह रही है सना।" दीपशिखा ने पार्किंग प्लेस में प्रवेश करते हुए कहा जहाँ नीलकांत ने उनके लिए गाड़ी भेजी थी।

"कितना एक्साइटमेंट है। सोच को जैसे पंख लग गये हैं, लगता है जैसे सारा आकाश हमारा है।"

"सही फरमाया मदाम... परड्राइवर कहाँ है?" दीपशिखा ने ड्राइवर को फोन किया। वह आसपास ही कहीं था। पलक झपकते ही आ गया। बड़ी-सी गाड़ी में आठों कहाँ समा गये पता ही नहीं चला। तुषार को दीपशिखा ज़िद्द करके बैठने पर मजबूर कर रही थी-"अब तुम्हारा दोस्त नहीं आ रहा तो क्या यहीं खड़े रहोगे?"

"हम भी तो दोस्त हैं आपके।" शेफ़ाली ने अपनी बड़ी-बड़ी शरारती आँखें उस पर टिका दीं। वह कच्चे धागे में बँध चुका था... प्रेम के कच्चे धागे में जिसे तोड़ना आसान है पर निभाना कठिन। गाड़ी के शीशे बता रहे थे कि बूँदाबाँदी रुक चुकी है और अब ठंडी तेज हवाओं का शोर है। फूलों से लदे दरख़्तों वाली पेरिस की सड़क पर गाड़ी तैरती-सी लग रही थी।

होटल के आते ही सब अपने-अपने कमरों में दुबकने के बजाय ब्रासरी (बार) में आ गये... एंथनी वाइन पीना चाहता था। ब्रासरीमें धीमी उत्तेजक रोशनी के दायरे मेजों के आसपास तिलिस्म रच रहे थे। एंथनी ने सबसे पूछकर वाइन ऑर्डर की हालाँकि दीपशिखा सहित सभी लड़कियों ने मना किया था पर माहौल ऐसा था कि...

"ये हुई न बात कलाकारों वाली।" कहते हुए एंथनी ने आठ गिलासों में वाइन उँडेली। अभी शेफ़ाली ने गिलास होठों से लगाया ही था कि उसका मोबाइल बज उठा-

"एक मिनट, दीपशिखा तुम्हारे लिए फोन।"

"मेरे लिए?" फोन पर नीलकांत था-"फोन क्यों नहीं उठा रही हो, कब से ट्राई कर रहा हूँ।"

उसने तुरंत बैग में से मोबाइल निकाला, नीलकांत के चार मिस कॉल थे-"सॉरी नील, मोबाइल बैग में था।"

"होकहाँ तुम?"

"होटल में। तुम कहाँ हो?"

"आउट ऑफ़ सिटी... लोकेशन की तलाश में जहाँ आया हूँ वह जगह बेमिसाल है। इतनी खूबसूरत और रेयर जगह पर शूट करना अपने आप में एक अनुभव है, काश... तुम साथ होतीं।"

दीपशिखा वाइन के सुरूर में थी-"अब पेंटिंग छोड़कर तुम्हारी फ़िल्म की हीरोइन बन जाती हूँ। बाइ द वे... हमलोग तो परसों फ्री हो जायेंगे और आप जनाब?"

"हमें तो दस दिन और लगेंगे लेकिन मैं परसों की शूटिंग कैंसिल करके तुम्हारे पास आ रहा हूँ।"

"ओ.के... रखूँ?"

वाइन ख़त्म हो चुकी थी ब्रासरी से उठकर वे डाइनिंग हॉल में आगये। ज़्यादा कुछ खाने का मूड न था। हलका डिनर ले सब अपने-अपने कमरों में रात की बाहों में समा गये।

प्रदर्शनी के समाप्त होते ही 'अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट' के सभी चित्रकार नीस के खूबसूरत समुद्र तट पर एक रात गुज़ारने नीले समंदर की आभा में खो गये थे। नीस का समुद्र तट कहीं-कहीं चट्टानों से भरा है। छोटी-छोटी फैली चट्टानें जिन पर रेतीले तट से सीधे दौड़ा जा सकता है। यूँ लगता है जैसे बड़ी-बड़ी चट्टानें तट में समा गई हैं। बस उनके उभार रह गये हैं जो उनकी मौजूदगी का बयान करते हैं।